अघोर वचन - 41
" मस्तक को खाली कर, मन को हलका कर, शरीर को ढ़ीला कर, या एक क्षण के लिये चक्षु बन्द करें । और इसलिये चक्षु न बन्द करें कि चक्षु बन्द करके अपने आप को अन्धकार में डाल दें । इसलिये चक्षु बन्द करने का प्रयोजन है कि हम अन्तराल के चक्षु की ओर मुँह करके उसमें क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है, उस परम सत्य को ढ़ूँढ़ने का प्रयत्न करें ।"
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मनुष्य के पास दो चीजें हैं, १, शरीर २, चेतना । शरीर यन्त्र है और चेतना यंत्री । यन्त्र की अपनी कोई स्वतंत्र इयत्ता नहीं होती । चेतना या मन के इशारे पर शरीर को नाचना होता है । भूख और प्यास शरीर की जरूरतें हैं पर अनुभव करता है मन । मन ही जरूरत पूर्ति के उपाय भी करता है और संतोष भी वही पाता है । मन शरीर पर नियंत्रण मस्तिष्क के द्वारा रखता है । चूँकि मन आठोंयाम क्रियाशील रहता है अतः हमारा मस्तिष्क भी क्रियाशील रहता है ।
मस्तक को खाली करने के माने हर समय क्रियाशील रहने वाले मस्तिष्क को विराम देना है । मन को हलका करने के माने उसे उसको स्वाभाविक रूप में रखना है, अपनी ओर से कोई भी योगदान ना हो । ना कुछ सोचें, ना स्मरण करें, ना उससे लड़ें और ना ही उसके साथ हो लें ।
वचन में अन्तराल के चक्षु की ओर उन्मुख होने की बात कही गई है । हमें इस चक्षु की ना तो जानकारी है और ना अनुभव । भौतिक चक्षु से इतर यह चक्षु निश्चय ही हमारे मानस शरीर की वस्तु है । मनोमय कोष का अँग है । इसका मतलब हुआ कि मनुष्य को बताये गये ढ़ँग से इस भौतिक शरीर के अवयव को स्थगित कर मानस शरीर के अवयवों की पड़ताल करनी चाहिये । उसमें की संरचनायें, भाव और जो भी हो रहा है का स्थिर भाव से निरीक्षण, परीक्षण कर उस परम सत्य जो हमारी दृष्टि में, अनुभव में नहीं आता है, अज्ञात है को ढ़ूँढ़ने का प्रयत्न करना चाहिये ।
इसमें अघोरेश्वर ने उस परम सत्य, अज्ञात को पाने की क्रिया को सरल रूप में उद्घाटित किया है ।
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