दीक्षा संस्कार पूर्ण होने के उपराँत आप मन्त्र जप, गुरु सुश्रुषा, एवँ आश्रम के कार्यो में लग गये । ब्राह्म मुहुर्त में शय्या त्यागकर नित्यकर्म से निवृत होकर भजन करने का अभ्यास आपका बाल्यकाल से ही था । इसके अलावा प्रातः सुर्योदय के समय आप गँगा जी में श्री हनुमान घाट पर जल में आकँठ खड़े रहकर मन्त्र जप भी करते रहे । साधना काल में परमेश्वर परब्रह्म की भी आप पर कृपा बृष्टि होती रही । कुछ काल उपराँत ही परम गुरु की कृपा भी आपको प्राप्त हो गई ।
घटना कुछ इस प्रकार हुई ।
"एक दिन वे क्रींकुण्ड स्थल में अनेक शताब्दियों से श्मशान से लायी गई लकड़ियों से जलती धूनी के पास अर्द्धनिद्रित अवस्था में पड़े थे । उन्हें ऐसा भास हुआ कि कोई दिव्य पुरुष खड़ाऊँ पहने उनके पास आ खड़ा हुआ है । उसने खड़ाऊँ समेत अपना चरण उनकी छाती पर रख दिया और स्पष्ट स्वर में कुछ मन्त्रोच्चारण किया । उन्होने आन्तरिक प्रेरणा वश उसे दुहराया और वह मन्त्र उन्हें याद हो गया । तब से वे उसी मन्त्र का नित्य जप करते थे ।"
अघोरेश्वर कहते थे कि गुरु की अचिन्त्य लीला से थोड़े समय के बाद ऐसी ही एक अन्य घटना हुई । घटना का विवरण अघोरेश्वर के ही शब्दों में अविकल प्रस्तुत है ।
"बाबा कीनाराम की समाधि पर मैं झाड़ू लगा रहा था । इसी बीच जब मैं दक्षिण की ओर गया, मुझे फिर वही मन्त्र स्पष्ट सुनाई दिया । साथ ही यह दिव्य आदेश भी मिला कि तुम इसी मन्त्र का जप किया करो । कुछ काल तक मैं वहीं रहकर साधना करता रहा ।"
साधक का निश्चय दृढ़ होने पर ही उसे सफलता मिलती है । उपरोक्त घटनाएँ घटित होने के पश्चात उपरोक्तानुसार प्राप्त मन्त्र में आपकी आस्था सुदृढ़ हो गयी और आप साधना पथ पर गंभीरता पूर्वक आगे बढ़ने लगे ।
साधना के प्रथम सोपान के रुप में मन्त्र और जप की चर्चा होती है, अतः हम मन्त्र और जप के विषय में प्राप्त सामग्री यहाँ प्रस्तुत करना समीचिन समझते हैं ।
मन्त्र
मन्त्र शास्त्र एक गूढ़ विषय है । इस शास्त्र के विषय में हम यहाँ पर गंभीर और शास्त्रीय चिन्तन न करते हुए, केवल विषय की आवश्यक जानकारी प्रस्तुत करेंगे ।
शब्द एक तत्व माना गया है । शब्द या वाक् के चार प्रकार माने गये हैं ।
१, परा
२, पश्यन्ती
३, मध्यमा
४, वैखरी
परावाक् शब्दब्रह्म स्वरुप है । बाकी के तीन उत्तरोतर स्थूल प्रकार हैं । वैखरीवाक् या शब्द जो उच्चरित होते हैं , अत्यंत ही स्थूल रुप है । हम लोग जिस वाक् का प्रयोग करते हैं, वह मुँह से उच्चारित होता है और कर्ण गव्हर में प्रवेश पाकर अन्य व्यक्ति के द्वारा सुना जाता है । यह वायु, कंठ, तालु, दन्त आदि मानव अवयवों के घात, प्रतिघात और संयोगों से प्रसरित होता है । वैखरी वाक् में ही वर्ण सामुहिक होकर शब्द और पुनः सामुहिक होकर भाषा आदि के रुप में विकास की गति को प्राप्त होता है । समस्त विश्व वैखरी वाक् के स्तर पर विद्यमान है । शब्द के विश्लेषण से तीन प्रभाग देखने में आते हैं ।
१, शब्द
२, अर्थ
३, ज्ञान
वैखरी वाक् में ये तीनो भिन्न भिन्न हैं । इन तीनों में परस्पर सम्बन्ध है । शब्द वाचक है । अर्थ वाच्य है । ज्ञान बोध है । ये एक दूसरे के पूरक के रुप में भी देखे जा सकते हैं ।
मध्यमा वाक् की स्थिति में शब्द और अर्थ दोनों में भेदाभेद सम्बन्ध होता है । यहाँ बोध रुप ज्ञान तब भी भिन्न ही रहता है ।
पश्यन्ति वाक् की स्थिति अभेद की स्थिति है । इसमें शब्द और अर्थ दोनों एकात्म की स्थिति में रहते हैं । जो शब्द है वही अर्थ है । इस अवस्था में उक्त तीनों का पूर्ण रुप प्रकट हो जाता है ।
योगी अथवा साधक दीक्षा संस्कार के समय सदगुरु शिष्य पर कृपा करते हैं । गुरु पश्यन्ति स्थिति में जाकर दिव्य चैतन्य का आहरण करते हैं और वैखरी शब्दयोग के माध्यम से बीज मन्त्र शिष्य को देते हैं । दीक्षा संस्कार एकाँत में होती है । यह मन्त्र दान विशुद्ध चैतन्यात्मक होती है तथा वह चैतन्यात्मक वस्तु स्थूल शब्द के आवरण में ढ़ँकी रहती है । शिष्य को गुरु से जो मिलता है वह साधारण स्थूल शब्द मात्र होता है जिसे वह देवता के रुप में ग्रहण करता है । गुरु के मार्गदर्शन के अनुसार शिष्य उस स्थूल शब्द का आलम्बन लेकर साधना करता है और गहन ध्यान और जप के द्वारा गुरु प्रदत्त मन्त्र के स्थूल बाह्य आवरण को हटाता जाता है । इस प्रकार साधना के पथ पर आगे बढ़ते हुए साधक को मन्त्र चैतन्य की प्राप्ति हो जाती है।
यहाँ यह बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि उपरोक्त क्रिया कर्णमन्त्र दीक्षा में नहीं होती । इसमें गुरू शिष्य को बीज मन्त्र देते जरुर हैं , परन्तु यह मन्त्र वैखरी योग का स्थूल शब्द मात्र होता है । इसमें चेतना तत्व का सर्वथा अभाव होता है , अतः मन्त्र चैतन्य होने में संशय है ।
जप
सामान्यतः मन्त्र के आवर्तन को जप कहते हैं । जप से सभी परिचित हैं अतः हम यहाँ जप के विषय मे बिशिष्ठ सामग्री की ही चर्चा करेंगे । साधना में जप का स्थान प्रमुख है । हमने शब्दतत्व या वाकतत्व को हृदयंगम कर लिया है । वाक तत्व पर चर्चा में हमने देखा था कि दीक्षा संस्कार के समय गुरु शिष्य को पश्यन्ती स्तर से आहरित चैतन्यात्मक वस्तु वैखरी वाक् के स्थूल शब्द से आवेष्ठित होती है । साधक साधना के द्वारा उस स्थूल बाह्य आवरण को हटाता है । यह आवरण हटाने का कार्य जप क्रिया के द्वारा संभव होता है । आवरण के हटते ही चित्त ज्योतिर्मय हो जाता है ।
हमलोग जिन शब्दों का उच्चारण करते हैं उनमें आगन्तुक मल विद्यमान रहता है । जप क्रिया के फलस्वरुप धीरे धीरे शब्दगत मल क्षीण होता जाता है । इस प्रकार गुरु शक्ति के प्रभाव से अथवा तीव्र अभ्यास के कारण वैखरी शब्द क्रमशः संस्कृत या शोधित होता है । वैखरी वाक् के शोधन हो जाने के पश्चात वर्ण गलकर नाद रुप में प्रवाहित होने लगता है और मन उर्घ्व की ओर उत्थित होने लगता है । इधर सुषुम्ना का मार्ग खुल जाता है तब मन और वायु सूक्ष्म होकर उसमें प्रविष्ठ होजाते हैं । इस प्रकार कुण्डलिनी का जागरन संभव होता है ।
मन्त्र और जप के विषय में इतना ही लिखकर औघड़ भगवान राम जी के साधना विषयक चर्चा में आगे बढ़ते हैं ।
क्रीं कुण्ड स्थल में आप लगभग छह महीने ही रहे होंगे । इस आश्रम निवास काल में अनेक विचित्र घटनाएँ घटीं । उन समस्त घटनाओं के केन्द्र में अनिवार्य रुप से आप होते ही थे ।
" दीक्षा संस्कार के पश्चात महँथ जी आपको अघोर परम्परा, पूर्व के आचार्यों के द्वारा प्रणीत ग्रँथों का ज्ञान, मुड़िया अघोरियों द्वारा आश्रम निवास के तौर तरीके, साधना विषयक आवश्यक जानकारी आदि दिलवाना चाहते थे । छेदी मास्टर बहुत समय से आश्रम से जुड़े थे । उन्होंने अघोर ग्रँथों का भली प्रकार से पारायण किया था । महँथ बाबा राजेश्वर राम जी उन पर स्नेह भी करते थे । उन्होंने आपको पढ़ाने का भार छेदी मास्टर को सौंप दिया । महँथ जी के आदेशानुसार आपकी पढ़ाई शुरु हो गई । जब अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी का प्रसिद्ध ग्रँथ " पोथी विवेकसार " को पढ़ाया जाने लगा, छेदी मास्टर के ध्यान में एक बात आयी कि जबतक वे एक पँक्ति का भाव बतलाते उनका विद्यार्थी औघड़ भगवान राम आगे की पँक्तियों का भाव स्वयमेव बतलाने लगते थे । मास्टर जी को इस बिलक्षण घटना से बड़ा आश्चर्य हुआ । तत्काल उन्होंने इस बात से महँथ जी को अवगत कराया । महँथ जी भी अपने इस नवीन शिष्य के बिलक्षण गुणों को देख रहे थे । "
औघड़ भगवान राम जी को साधना के लिये आवश्यक सामग्री यथा मन्त्र , क्रिया , औषधि एवं अन्य साधन अनायास ही उपलब्ध होने लगे । वे जो चाहते उपस्थित हो जाता । अब तक उन्हें अपनी साधना ठीक दिशा में बढ़ने का भी बिश्वास हो गया था । इसी बीच एक और घटना घटी । घटना अघोरेश्वर भगवान राम जी के शब्दों मे इस प्रकार घटी थी ।
"अभी वर्षा का ही समय था । महँथ जी कोठरी की ताली मुझे देकर कहीं चले गये थे । मैं भी अपनी दिनचर्या में व्यस्त था । एकाएक महँथ जी वापस आ गये और आते ही भँडार घर की ताली माँगने लगे । मुझे विस्मरण हो गया था कि ताली कहाँ रख दी है । मैंने आग्रह पूर्वक महँथ जी से कहा कि मैंने ताली खो दी है । इसलिये आप कल तक का अवसर प्रदान करें तो मैं ताली ला दूँगा । इस पर महँथ जी अत्यंत क्रुद्ध हो गये । उन्होंने तत्काल कमरा खोलकर अपना सामान देखना चाहा । मैं भी कुछ चकित हो गया और पुनः महँथ जी को मनाने का प्रयास करने लगा । जब वे नहीं माने तो मैंने उपस्थित लोगों के सामने ही ताले का स्पर्ष कर दिया और वह तत्काल खुल गया । अपना सामान यथास्थान पाकर महँथ जी आश्वस्थ तो हुए पर उनको एक नयी चिन्ता ने घेर लिया कि सम्भवतः मेरे शिष्य का कोई अन्य गुरु भी है । इस भाव के कारण मैं आगे चलकर अधिक समय तक स्थायी रुप से स्थल में न रह सका । "
औघड़ भगवान राम जी की साधना शनै शनै आगे बढ़ती रही और आश्चर्यजनक घटनाएँ घटती रहीं । इसी बीच योगिराज कच्चाबाबा के शिष्य परम्परा के अवधूत छेदीबाबा जी से आपका बाबा कीनाराम स्थल में ही सम्पर्क हो गया । इस सम्पर्क ने आपकी साधना एवँ भावी जीवन को गहराई तक प्रभावित किया ।
क्रमशः
रविवार, नवंबर 29, 2009
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