रविवार, मई 02, 2010

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल

तारापीठ

इस स्थान पर दक्ष यज्ञ विध्वंश के पश्चात मोहाविष्ट शिव जी के कंधों से शिव भार्या दाक्षायणी, सती की आँखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर गिरी थीं, इसीलिये यह शक्तिपीठ बन गया और इसीलिये इसे तारापीठ कहते हैं । मातृ रुप माँ तारा का यह स्थल तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सब में समान रुप से श्रद्धास्पद, पूजनीय माना जाता है ।
शताब्दियों से साधकों, सिद्धों में प्रसिद्ध यह स्थल पश्चिम बँगाल के बीरभूम अँचल में रामपुर हाट रेलस्टेशन के पास द्वारका नदी के किनारे स्थित है । कोलकाता से तारापीठ की दूरी लगभग २६५ किलोमीटर है । यह स्थल रेलमार्ग एवं सड़क मार्ग दोनो से जुड़ा है । इस जगह द्वारका नदी का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर है, जो कि भारत में सामान्यतः नहीं पाया जाता । नाम के अनुरुप यहाँ माँ तारा का एक मन्दिर है तथा पार्श्व में महाश्मशान है । द्वारका नदी इस महाश्मशान को चक्राकार घेरकर कच्छपपृष्ट बनाते हुए बहती है ।

यह स्थल तारा साधन के लिये जगत प्रसिद्ध रहा है । पुरातन काल में महर्षि वशिष्ठ जी इस तारापीठ में बहुत काल तक साधना किये थे और सिद्धि प्राप्त कर सफल काम हुए थे । उन्होने इस पीठ में माँ तारा का एक भव्य मन्दिर बनवाया था जो अब भूमिसात हो चुका है । कहते हैं वशिष्ठ जी कामाख्या धाम के निकट नीलाचल पर्वत पर दीर्घकाल तक संयम पूर्वक भगवती तारा की उपासना करते रहे थे , किन्तु भगवती तारा का अनुग्रह उन्हें प्राप्त न हो सका, कारण कि चीनाचार को छोड़कर अन्य साधना विधि से भगवती तारा प्रसन्न नहीं होतीं । एकमात्र बुद्ध ही भगवती तारा की उपासना और चीनाचार विधि जानते हैं । महर्षि वशिष्ठ , यह जानकर भगवान बुद्ध के समीप उपस्थित हुए और उनसे आराधना विधि एवं आचार का ज्ञान प्राप्तकर इस पीठ में आये थे । बौधों में बज्रयानी साधक इस विद्या के जानकार बतलाये जाते हैं । औघड़ों को भी इस विद्या की सटीक जानकारी है ।

वर्तमान मन्दिर बनने की कथा दिलचस्प है । कथा इस प्रकार है




" जयब्रत नाम के एक व्यापारी थे । उनका इस अँचल में लम्बाचौड़ा व्यापार फैला हुआ था । श्मशान होने के कारण तारापीठ का यह क्षेत्र सुनसान हुआ करता था । भय से लोग इधर कम ही आते थे । विशेष दिनों में इक्का दुक्का साधक इस ओर आते जाते दिख जाया करते थे । व्यापार के सिलसिले में जयब्रत को प्रायः इस क्षेत्र से गुजरना पड़ता था । एक बार जयब्रत को पास के गाँव में रात्रि विश्राम हेतू रुकना पड़ा । ब्राह्म मुहुर्त में जयब्रत को स्वप्न में माँ तारा के दर्शन हुए । माँ ने आदेश दिया कि श्मशान की परिधि में धरती के नीचे ब्रह्मशिला गड़ा हुआ है । उसे उखाड़ो और वहीं पर विधिपूर्वक प्राण प्रतिष्ठित करो । स्वप्न में प्राप्त आदेश के अनुसार जयब्रत ब्रह्मशिला उखड़वाया और वर्तमान मन्दिर का निर्माण कराकर माँ तारा की भव्य मूर्ति स्थापित किया ।"




मातृरुपा माँ तारा की मूर्ति दिव्य भाव लिये हुए है । माता ने अपने वाम बाजु में शिशु रुप में शिव जी को लिया हुआ है । शिव जी माता के वाम स्तन से दुग्धामृत का पान कर रहे हैं और माता के स्नेहसिक्त नयन अपलक शिशु शिव जी को निहार रहे हैं । कहते हैं समुद्र मँथन से निकले विष का देवाधिदेव भगवान शिव जी ने पान कर संसार की रक्षा की थी । इस विषपान के प्रभाव से भगवान शँकर को उग्र जलन एवं पीड़ा होने लगी । कोई उपाय न था । माता ने तब शिव जी को इस प्रकार अपना स्तनपान कराकर उन्हें कष्ट से त्राण दिलाया था । इसीलिये माँ को तारिणी भी कहते हैं ।



अघोराचार्य बामाखेपा

तारापीठ में साधना कर अनेक सिद्धियाँ हस्तगत करने वाले एक महान अघोराचार्य हो गये हैं । उनका नाम है " वामाक्षेपा" । बंगाल के बीरभूम जिलान्तर्गत अतला ग्राम में सर्वानन्द चट्टोपाध्याय एवं श्रीमति राजकुमारी के घर आपका जन्म सन् १८३७ ई० में हुआ था । माता, पिता ने आपका नाम रखा था बामा । बामा चट्टोपाध्याय । आप जन्मना सिद्ध पुरुष थे । माता पिता ने आपको स्कूल भेजा , लेकिन पढ़ाई की ओर आपका ध्यान नहीं था । बचपन से ही आप आँख मूँदकर घँटों चुपचाप बैठे रहते थे । आप सांसारिक नियमों की अवहेलना करने के कारण ग्रामवासियों के द्वारा पागल घोषित कर दिये गये और आपके नाम बामा के साथ खेपा, जिसका अर्थ पागल होता है, जोड़ दिया गया ।
किशोर बामा रात के किसी समय पड़ोसियों के घर से देवताओं की मुर्तियाँ चुराकर पूरी रात पूजा किया करते थे । सुबह मुर्तियों की चोरी के कारण बामा को कड़ा दण्ड भुगतना पड़ता परन्तु वे अगली रात फिर वही काम करते । इसीबीच आपके पिता का स्वर्गवास हो गया । परिवार तो पहले ही गरीब था, अब तो फाके की नौबत आ गयी । बामा कोई भी कार्य करने के योग्य न थे, क्योंकि वे कभी भी अपना होश गँवा बैठते थे । ऐसा कभी भी हो जाता था । कभी लाल फूल देखकर तो कभी कुछ और , उन्हें माँ तारा की स्मृति हो आती थी और वे समाधि में चले जाते थे । अब तो उनकी माता ने भी मान लिया कि उनका पुत्र पागल हो चुका है । माता ने बामा को घर के अँदर बन्द करके रख दिया, परन्तु बामा कहाँ मानने वाले थे । वे रात में चुपचाप दरवाजा खोलकर घर से भाग निकले और द्वारका नदी को तैरकर तारापीठ के महाश्मशान में पहुँच गये ।


बामाखेपा को तारापीठ के महाश्मशान के पार्श्व में कुटी बनाकर साधनरत बाबा कैलाशपति ने अपना शिष्य स्वीकार कर ताँत्रिक विधि विधान सिखाने लगे । आपकी माता द्वारा पुत्र बामा को वापस लौटा ले जाने के सभी प्रयास बिफल हो जाने पर तारा मन्दिर में फूल एकत्र करने के काम पर लगवा दिया गया । आपसे यह काम नहीं सधा । आप अपने आप में डूबे तारापीठ के महाश्मशान में ,जहाँ बिषधर, श्रृगाल, कुत्तों और अन्य बनैले जन्तुओं के साथ रहने लगे । आपको भावावेश की अवस्था में रात, दिन, शीत, गर्मी, आदि कुछ नहीं भाषता था । आप आठों प्रहर माँ तारा के ध्यान में निमग्न रहते थे ।
इस प्रकार एक लम्बा समय बीत गया । आपकी साधना चलती रही । तारापीठ का महाश्मशान बाबा बामाखेपा को परम सत्य को उपलब्ध होते देखता रहा । बाबा का माँ तारा की भक्ति में रोज आनन्दोत्सव होता । बाबा कभी नाचते, कभी गाते और कभी अजगर वृत्ति से पड़े रहते किसी कोने में । बाबा को अब शरीर का भी ध्यान नहीं रह गया था । कमर में लिपटा वस्त्र कब निकल कर गिर जाता उन्हें पता ही नहीं चलता था । वे अवधूत अवस्था में दिगम्बर ही घूमते रहते ।
बाबा का अपनी लौकिक माता के साथ कोई सम्पर्क नहीं रह गया था, परन्तु माँ से वे बहुत प्यार करते थे । अपनी जन्मदात्री को वे माँ तारा के जैसा ही मानते थे । माँ के स्वर्गवास के समय यह बात सिद्ध भी हो गई थी । कहते हैः
" बाबा बामाखेपा को सूचना मिली कि जन्मदात्री माता का स्वर्गवास हो गया । उस समय घनघोर वर्षा हो रही थी । द्वारका नदी उफान पर थी । माता के शव को अँतिम संस्कार के लिये तारापीठ के महाश्मसान तक लाना असंभव हो गया । सगे सम्बन्धी सब किंकर्तब्यविमूढ़ की स्थिति से उबर ही नहीं पा रहे थे । बाबा उफनती द्वारका नदी को तैरकर पार किये और अपने गाँव " अतला" जाकर माता के शव को कँधे में लेकर फिर बाढ़ भरी द्वारका नदी को तैरकर पार करके तारापीठ के महाश्मशान में ले आये । पीछे से सब सगे सम्बंधी भी आ गये । उन्होने अपने भाई रामचरन से माता का अँतिम संस्कार कराया । जनश्रुति है कि बाबा की माता के शवदाह के समय चारों ओर घनघोर वर्षा हो रही थी, परन्तु शवदाह के लिये एकत्रित जनों पर एक बूँद भी पानी नहीं गिरा ।"


तारापीठ का यह पागल संत अब अनेक सिद्धियों का स्वामी हो गया था । आसपास के लोग बाबा के पास बड़ी संख्या में आने लगे थे । अनेक लोगों का बाबा के आशीर्वाद से कष्टनिवारण भी हो जाया करता था । बाबा के चमत्कार की, अलौकिक क्रियाकलाप की अनेक कथाएँ कही सुनी जाती हैं ।


बाबा बामाखेपा की महासमाधि सन् १९११ ई० को हुई थी ।


तारापीठ में साधना हेतु न केवल पूर्वाँचल अपितु समग्र देश और विदेशों से भी साधक आते रहते हैं । साधक प्रायः अधिक संख्या में अमावश्या को दिखते हैं । अन्य अवसरों पर श्रद्धालुओं, भक्तों, पर्यटकों आदि की ही भीड़ होती है ।

क्रमशः

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