सन् १९८२ ई० में अर्ध कुम्भ पड़ा था । प्रयाग में त्रिवेणी स्थल पर अघोरेश्वर का केम्प लगा हुआ था । केम्प में अघोरेश्वर विराजमान थे । पूरे क्षेत्र में साधूओं का मेला सा लगा हुआ था । सभी सम्प्रदाय, अखाड़ा, मठ, आश्रम, आदि से साधुजन तथा धर्मप्रेमी, तीर्थवास के अभिलाषी श्रद्धालुजन पुण्यसलिला गँगा के तट पर बालुका पर छोलदारियों में निवास कर रहे थे । ध्यान, धारणा, प्रवचन, आशीर्वचन की अविरल धारा निरन्तर प्रवहमान हो रही थी । इस धारा में जिसकी जैसी मति, गति थी अवगाहन कर अपनी तृप्ति हेतु प्रयास रत था ।
एक दिन केम्प में प्रातःकालीन नित्यकर्म की चहल पहल शान्त हो चुकी थी । जगह जगह रात में जलाये गये अलाव शाँत हो चुके थे । कुछ साधुओं | मठाधीशों के स्थान पर प्रवचन सुनने के लिये श्रद्धालुओं का जुटना शुरु हो चुका था । लगभग सभी जगह भोग राँधने की तैयारी होने लगी थी । रविनारायण थोड़ा ऊपर चढ़ चुके थे । ऐसे समय एक किशोर अपना सँक्षिप्त सा सामान उठाये श्री सर्वेश्वरी समूह वाली छोलदारी में प्रवेश करते हैं । किशोर का उच्च ललाट, चौड़ा सीना, लम्बी और बलिष्ट भुजाएँ और ओज पूर्ण चेहरा देखकर सहज ही ठह अनुमान लगाया जा सकता है यह किसी सम्पन्न और सुसँस्कृत परिवार के लाल हैं ।
अघोरेश्वर के निकट पहुँचकर किशोर उनके चरण कमल में अपना माथा रखकर प्रणाम निवेदित करते हैं और अघोरेश्वर का इशारा पाकर चरणों के निकट ही बैठ जाते हैं ।
ये किशोर हैं महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी, नरसिँहगढ़, मध्यप्रदेश ।
एक दिन केम्प में प्रातःकालीन नित्यकर्म की चहल पहल शान्त हो चुकी थी । जगह जगह रात में जलाये गये अलाव शाँत हो चुके थे । कुछ साधुओं | मठाधीशों के स्थान पर प्रवचन सुनने के लिये श्रद्धालुओं का जुटना शुरु हो चुका था । लगभग सभी जगह भोग राँधने की तैयारी होने लगी थी । रविनारायण थोड़ा ऊपर चढ़ चुके थे । ऐसे समय एक किशोर अपना सँक्षिप्त सा सामान उठाये श्री सर्वेश्वरी समूह वाली छोलदारी में प्रवेश करते हैं । किशोर का उच्च ललाट, चौड़ा सीना, लम्बी और बलिष्ट भुजाएँ और ओज पूर्ण चेहरा देखकर सहज ही ठह अनुमान लगाया जा सकता है यह किसी सम्पन्न और सुसँस्कृत परिवार के लाल हैं ।
अघोरेश्वर के निकट पहुँचकर किशोर उनके चरण कमल में अपना माथा रखकर प्रणाम निवेदित करते हैं और अघोरेश्वर का इशारा पाकर चरणों के निकट ही बैठ जाते हैं ।
ये किशोर हैं महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी, नरसिँहगढ़, मध्यप्रदेश ।
यह आना कुमार का अँतिम आना था क्योंकि उसके बाद जाना नहीं हुआ । वे अघोरेश्वर के साथ अर्धकुम्भ की समाप्ति तक प्रयाग में मेला स्थल पर ही रहे । उसके बाद उनके साथ बनारस चले आये ।
अघोरेश्वर ने महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को मुड़िया दीक्षा सँस्कार के बाद नाम दिया गुरुपद सँभव राम ।
जन्मः
आपका जन्म दिनाँक १५ मार्च १९६१ को मध्यप्रदेश के इँदौर शहर में हुआ था । आपका बाल्यकाल नरसिंह गढ़ के भानूनिवास पैलेश में बीता । आपके जन्म तक राजपरिवार नरसिंहगढ़ के किले में रहता था । सन् १९६२ ई० में भानूनिवास पैलेश बनकर तैयार हुआ और राजवँश इस नये पैलेश में रहने आ गया । भारतवर्ष के राजवँशों में शायद यह अकेला राजवँश है जो आजादी के बाद तक अपने किले में रहता था ।
कुल परम्परा
आपकी कुल परम्परा परमार कुल का क्षत्रीय राजवँश है । यह परमार राजवँश वही है जिसमें उज्जयिनी के महाप्रतापी, धर्मपरायण, न्यायकुशल एवँ अक्षुण्ण कीर्ति के स्वामी सम्राट विक्रमादित्य हो चुके हैं । विक्रम सँवत् सम्राट विक्रमादित्य ने ही चलाया था । आपकी बेताल कथाएँ जगत प्रसिद्ध हैं तथा सभी आयु वर्ग के पुरुष और नारियों को आज भी आकर्षित करती हैं ।
सम्राट विक्रमादित्य के पश्चात इसी परमार वँश में एक सम्राट हुए महामहिम भर्तृहरि । आपका हृदय परिवर्तन हो गया और आप राजपाट त्यागकर सन्यस्त हो गये । आप जिस गुफा में रहकर साधना करते थे वह आज भी विद्यमान है तथा देश विदेश के पर्यटक यहाँ आते रहते हैं । सम्राट भर्तृहरि जी की प्रसिद्धि साधु भरथरी के रुप में अक्षुण्ण बनी हुई है । आपके द्वारा रचित नीति शतक, श्रृँगार शतक, वैराग्य शतक साहित्यिक निधि मानी जाती हैं । आपकी स्तुतियाँ, प्रार्थनायेँ, गीत आदि आज भी देश के कोने कोने में गाये जाते हैं । इस गायन का नाम ही भरथरी पड़ गया है ।
इसी परमार राजवँश में तीसरे महा प्रतापी, न्याय प्रिय, प्रजा वत्सल, सम्राट भोज हुए ।
परमार राजवँश मगध, अवँतिका, उत्तराखण्ड, राजस्थान, सिन्ध, तथा नेपाल में शासन करते थे । प्रसिद्धी है कि " परमार यानि पृथ्वी, पृथ्वी यानी परमार । " ये पृथ्वी पति कहलाते थे तथा समय समय पर सप्त खण्ड पृथ्वी पर राज करते रहे हैं ।
पिता
अघोरेश्वर ने महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को मुड़िया दीक्षा सँस्कार के बाद नाम दिया गुरुपद सँभव राम ।
जन्मः
आपका जन्म दिनाँक १५ मार्च १९६१ को मध्यप्रदेश के इँदौर शहर में हुआ था । आपका बाल्यकाल नरसिंह गढ़ के भानूनिवास पैलेश में बीता । आपके जन्म तक राजपरिवार नरसिंहगढ़ के किले में रहता था । सन् १९६२ ई० में भानूनिवास पैलेश बनकर तैयार हुआ और राजवँश इस नये पैलेश में रहने आ गया । भारतवर्ष के राजवँशों में शायद यह अकेला राजवँश है जो आजादी के बाद तक अपने किले में रहता था ।
कुल परम्परा
आपकी कुल परम्परा परमार कुल का क्षत्रीय राजवँश है । यह परमार राजवँश वही है जिसमें उज्जयिनी के महाप्रतापी, धर्मपरायण, न्यायकुशल एवँ अक्षुण्ण कीर्ति के स्वामी सम्राट विक्रमादित्य हो चुके हैं । विक्रम सँवत् सम्राट विक्रमादित्य ने ही चलाया था । आपकी बेताल कथाएँ जगत प्रसिद्ध हैं तथा सभी आयु वर्ग के पुरुष और नारियों को आज भी आकर्षित करती हैं ।
सम्राट विक्रमादित्य के पश्चात इसी परमार वँश में एक सम्राट हुए महामहिम भर्तृहरि । आपका हृदय परिवर्तन हो गया और आप राजपाट त्यागकर सन्यस्त हो गये । आप जिस गुफा में रहकर साधना करते थे वह आज भी विद्यमान है तथा देश विदेश के पर्यटक यहाँ आते रहते हैं । सम्राट भर्तृहरि जी की प्रसिद्धि साधु भरथरी के रुप में अक्षुण्ण बनी हुई है । आपके द्वारा रचित नीति शतक, श्रृँगार शतक, वैराग्य शतक साहित्यिक निधि मानी जाती हैं । आपकी स्तुतियाँ, प्रार्थनायेँ, गीत आदि आज भी देश के कोने कोने में गाये जाते हैं । इस गायन का नाम ही भरथरी पड़ गया है ।
इसी परमार राजवँश में तीसरे महा प्रतापी, न्याय प्रिय, प्रजा वत्सल, सम्राट भोज हुए ।
परमार राजवँश मगध, अवँतिका, उत्तराखण्ड, राजस्थान, सिन्ध, तथा नेपाल में शासन करते थे । प्रसिद्धी है कि " परमार यानि पृथ्वी, पृथ्वी यानी परमार । " ये पृथ्वी पति कहलाते थे तथा समय समय पर सप्त खण्ड पृथ्वी पर राज करते रहे हैं ।
पिता
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह (अवधूत गुरुपद सँभव राम जी ) के पिता परमार कुलभूषण नरसिंहगढ़ के महाराजा श्रीमन्त भानूप्रकाश सिंह जी हैं । महाराजा साहब की शिक्षा दीक्षा डॉली कालेज, इन्दौर तथा मेयो कालेज, अजमेर में हुई थी । आप अपनी जवानी के दिनों में शिकार करने के शौकीन रहे हैं, तथा बड़े अच्छे शिकारी भी हैं । आपका विवाह सन् १९५० ई० को बिकानेर के प्रसिद्ध शासक हि. हा. सर गँगा सिंह जी की पौत्री और महाराज कुमार बिजल सिंह जी की पुत्री लक्ष्मी कुमारी के साथ हुआ था । आपका राज्याभिषेक १७ जुलाई १९५७ ई० को नरसिंहगढ़ के किले में स्थित पैलेश में सम्पन्न हुआ था । आपने किले से बाहर शहर में झील के किनारे नया महल "भानू निवास" बनवाया और सन् १९६२ ई० में सपरिवार किला छोड़कर रहने चले गये ।
महाराजा भानूप्रकाश सिंह जी सन् १९६२ ई० में देश की राजनीति में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज कराई । सन् १९६७ ई० में आपके ज्ञान और योग्यता को परखकर आपको केन्द्र में राज्यमँत्री बनाया गया । स्वतँत्र विचारों और त्वरित निर्णय शक्ति के कारण आप ज्यादा समय तक सक्रिय राजनीति में नहीं रह सके । पार्टी तथा देश के प्रति आपके अवदानों को मान्यता देते हुए आपको गोवा का राज्यपाल बनाया गया । आप राज्यपाल के रुप में गोवा में १८.०३.१९९१ से लेकर ०४.०४.१९९४ तक रहे । यह वही समय था जब कोंकण रेलवे की नीँव पड़ रही थी । कोंकण रेल के निर्माण में आपका योगदान अतुलनीय है । गोवा के तत्कालीन मुख्यमँत्री तथा ईसाइ धर्मगुरु कोकण रेलवे नहीं बनने देना चाहते थे । ये दोनो मुखर विरोधी थे । राज्यपाल के रुप में आपके लिये यह एक बड़ी चुनौती थी । ईसाइ धर्म गुरु को तो आपने राजभवन बुलवाकर कोंकण के प्रकरण से दूर रहने की चेतावनी देकर शाँत कर दिया, परन्तु मुख्यमँत्री समझाइस नहीं मान रहे थे । अँततः आपने राज्यपाल के सँवैधानिक अधिकारों का उपयोग करते हुए मुख्यमँत्री एवँ उनके मँत्री मँडल को बर्खास्त कर दिया । ऐसा साहसपूर्ण कार्य महाराजा साहब जैसे शासक से ही सँभव था ।
माता
महाराजा भानूप्रकाश सिंह जी सन् १९६२ ई० में देश की राजनीति में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज कराई । सन् १९६७ ई० में आपके ज्ञान और योग्यता को परखकर आपको केन्द्र में राज्यमँत्री बनाया गया । स्वतँत्र विचारों और त्वरित निर्णय शक्ति के कारण आप ज्यादा समय तक सक्रिय राजनीति में नहीं रह सके । पार्टी तथा देश के प्रति आपके अवदानों को मान्यता देते हुए आपको गोवा का राज्यपाल बनाया गया । आप राज्यपाल के रुप में गोवा में १८.०३.१९९१ से लेकर ०४.०४.१९९४ तक रहे । यह वही समय था जब कोंकण रेलवे की नीँव पड़ रही थी । कोंकण रेल के निर्माण में आपका योगदान अतुलनीय है । गोवा के तत्कालीन मुख्यमँत्री तथा ईसाइ धर्मगुरु कोकण रेलवे नहीं बनने देना चाहते थे । ये दोनो मुखर विरोधी थे । राज्यपाल के रुप में आपके लिये यह एक बड़ी चुनौती थी । ईसाइ धर्म गुरु को तो आपने राजभवन बुलवाकर कोंकण के प्रकरण से दूर रहने की चेतावनी देकर शाँत कर दिया, परन्तु मुख्यमँत्री समझाइस नहीं मान रहे थे । अँततः आपने राज्यपाल के सँवैधानिक अधिकारों का उपयोग करते हुए मुख्यमँत्री एवँ उनके मँत्री मँडल को बर्खास्त कर दिया । ऐसा साहसपूर्ण कार्य महाराजा साहब जैसे शासक से ही सँभव था ।
माता
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह (अवधूत गुरुपद सँभव राम जी ) की माता का नाम महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा है । आप बीकानेर के महाराज कुमार बिजल सिँह जी की पुत्री हैं । आप धर्म परायण एवँ विदुषी महिला हैं । आपकी अघोरेश्वर पर अपार श्रद्धा एवँ भक्ति है । महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह को बालपन में माता द्वारा दिये गये उच्च सँस्कारों का भी उनके सन्यस्त होने में पर्याप्त योगदान रहा है ।
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह अपने माता पिता के सबसे छोटे सुपुत्र हैं । महाराजा भानूप्रकाश सिंह जी और महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा जी के पाँच पुत्र हुए ।
१, महाराज कुमार शिलादित्य सिंह, १९५१
२, महाराज कुमार राज्यवर्धन सिंह, १९५३
३, महाराज कुमार गिरिरत्न सिंह, १९५५
४, महाराज कुमार भाग्यादित्य सिंह, १९५७
५, महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह, १९५९
महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा जी का मायका बीकानेर है और अघोरेश्वर के सखा, भक्त जशपुर के महाराजा बिजयभुषण सिंह देव जी की धर्मपत्नि महारानी जयाकुमारी साहिबा जी का मायका भी बीकानेर है । इसके अलावा महाराज कुमार राज्यवर्धन सिंह जी का विवाह जशपुर के महाराजा बिजयभुषण सिंह देव जी की सुपुत्री राजकुमारी कल्पनेश्वरि देवी जी के सा् हुआ है । यह दोनों राज परिवार इस प्रकार से अति निकट के सम्बंधी होते हैं । यह निकट सम्बन्ध निश्चय ही महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को अघोरेश्वर के निकट पहुँचाने में किसी न किसी रुप में सहयोगी रहा है ।
शिक्षा
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह (अवधूत गुरुपद सँभव राम जी ) की शिक्षा का प्रबन्ध महाराजा साहब ने राजकुमारों के लिये बने डॉली कालेज, इन्दौर में किया तथा स्नातकोत्तर शिक्षा के लिये देश की राजधानी दिल्ली भेजा । सन् १९८२ ई० में आप दिल्ली से ही प्रयाग आये थे ।
मुड़िया दीक्षा या सन्यास दीक्षा
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को सन् १९८२ ई० में अघोरेश्वर भगवान राम जी द्वारा सन्यास दीक्षा प्रदान किया गया । दीक्षा के उपराँत आपको नाम दिया गया गुरुपद सँभव राम । आप सन्यास क्रम में अवधूत सिंह शावक राम जी, अवधूत प्रियदर्शी राम जी के पश्चात तीसरे मुड़िया साधु हुए ।
सन्यस्त होने के पश्चात आपकी कठोर तप और साधना शुरु हुई जो बरसों चलती रही । अघोरेश्वर साधना की गूढ़ प्रक्रियाओं, जीवनादर्शों , तथा सामाजिक आदर्शों के विषय में अपने शिष्यों, भक्तों को शिक्षा देते समय प्रायः आपको और अवधूत प्रियदर्शी राम जी को सम्बोधित करते रहे हैं । इस क्रम में अघोरेश्वर आपको कभी सँभव, कभी सँभव साधक, कभी सौगत उपासक, कभी मुड़िया साधु आदि विभिन्न नामों से सम्बोधित करते रहे हैं । इससे ज्ञात होता है कि आप अघोरेश्वर के प्रिय शिष्य रहे हैं । उनकी अपरिमित कृपा दृष्टि प्राप्त होने के कारण निश्चय ही आप आध्यात्मिक उँचाईयों पर आरुढ़ होने में सक्षम रहे हैं । सन् १९८२ ई० से सन् १९९२ ई० तक अघोरेश्वर के श्री चरणों में सतत निरत रहकर अघोर दर्शन, परम्परा एवँ दृष्टि से आपने ज्ञान के भँडार को परिपूरित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है ।
आप अवधूत पद पर प्रतिष्ठित हैं ।
आप वर्तमान में श्री सर्वेश्वरी समूह के अध्यक्ष हैं । इसकी चर्चा हम यथासमय करेंगे ।
क्रमशः
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह अपने माता पिता के सबसे छोटे सुपुत्र हैं । महाराजा भानूप्रकाश सिंह जी और महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा जी के पाँच पुत्र हुए ।
१, महाराज कुमार शिलादित्य सिंह, १९५१
२, महाराज कुमार राज्यवर्धन सिंह, १९५३
३, महाराज कुमार गिरिरत्न सिंह, १९५५
४, महाराज कुमार भाग्यादित्य सिंह, १९५७
५, महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह, १९५९
महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा जी का मायका बीकानेर है और अघोरेश्वर के सखा, भक्त जशपुर के महाराजा बिजयभुषण सिंह देव जी की धर्मपत्नि महारानी जयाकुमारी साहिबा जी का मायका भी बीकानेर है । इसके अलावा महाराज कुमार राज्यवर्धन सिंह जी का विवाह जशपुर के महाराजा बिजयभुषण सिंह देव जी की सुपुत्री राजकुमारी कल्पनेश्वरि देवी जी के सा् हुआ है । यह दोनों राज परिवार इस प्रकार से अति निकट के सम्बंधी होते हैं । यह निकट सम्बन्ध निश्चय ही महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को अघोरेश्वर के निकट पहुँचाने में किसी न किसी रुप में सहयोगी रहा है ।
शिक्षा
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह (अवधूत गुरुपद सँभव राम जी ) की शिक्षा का प्रबन्ध महाराजा साहब ने राजकुमारों के लिये बने डॉली कालेज, इन्दौर में किया तथा स्नातकोत्तर शिक्षा के लिये देश की राजधानी दिल्ली भेजा । सन् १९८२ ई० में आप दिल्ली से ही प्रयाग आये थे ।
मुड़िया दीक्षा या सन्यास दीक्षा
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को सन् १९८२ ई० में अघोरेश्वर भगवान राम जी द्वारा सन्यास दीक्षा प्रदान किया गया । दीक्षा के उपराँत आपको नाम दिया गया गुरुपद सँभव राम । आप सन्यास क्रम में अवधूत सिंह शावक राम जी, अवधूत प्रियदर्शी राम जी के पश्चात तीसरे मुड़िया साधु हुए ।
सन्यस्त होने के पश्चात आपकी कठोर तप और साधना शुरु हुई जो बरसों चलती रही । अघोरेश्वर साधना की गूढ़ प्रक्रियाओं, जीवनादर्शों , तथा सामाजिक आदर्शों के विषय में अपने शिष्यों, भक्तों को शिक्षा देते समय प्रायः आपको और अवधूत प्रियदर्शी राम जी को सम्बोधित करते रहे हैं । इस क्रम में अघोरेश्वर आपको कभी सँभव, कभी सँभव साधक, कभी सौगत उपासक, कभी मुड़िया साधु आदि विभिन्न नामों से सम्बोधित करते रहे हैं । इससे ज्ञात होता है कि आप अघोरेश्वर के प्रिय शिष्य रहे हैं । उनकी अपरिमित कृपा दृष्टि प्राप्त होने के कारण निश्चय ही आप आध्यात्मिक उँचाईयों पर आरुढ़ होने में सक्षम रहे हैं । सन् १९८२ ई० से सन् १९९२ ई० तक अघोरेश्वर के श्री चरणों में सतत निरत रहकर अघोर दर्शन, परम्परा एवँ दृष्टि से आपने ज्ञान के भँडार को परिपूरित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है ।
आप अवधूत पद पर प्रतिष्ठित हैं ।
आप वर्तमान में श्री सर्वेश्वरी समूह के अध्यक्ष हैं । इसकी चर्चा हम यथासमय करेंगे ।
क्रमशः
सराहनीय पोस्ट के लिए बधाई .
जवाब देंहटाएंकृपया इसे भी पढ़े - -
बीजेपी की वेबसाइट में हाथ साफ http://www.ashokbajaj.com
अदभुत , सुखद आश्चर्य , ज्ञानवर्धक । कोटिशः धन्यवाद । - आशुतोष मिश्र
जवाब देंहटाएंgurpad ko pranam....
जवाब देंहटाएंI suppose that there are three to four main shishya of BHAGWAN RAM governing ashram over the chattisghar. Kindly brief about them also...........It would be nice for fallower of all chattisghar.
जवाब देंहटाएंjai maa guru
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