गुरुवार, जनवरी 27, 2011

अघोरेश्वर भगवान राम जीः आशीर्वचन

जीवन दर्शन

सन् १९८२ ई० में श्री सर्वेश्वरी निवास, पड़ाव , वाराणसी के प्रागण में अपने प्रिय शिष्य बाबा प्रियदर्शी राम को सम्बोधित कर अघोरेश्वर भगवान राम जी की वाणी निनादित हुई थी । यह वाणी अघोर पथ के पथिक, साधु , तथा मानव मात्र की कँचन काया में प्रतिष्ठित प्राण रुपी परम आराध्य के दर्शन के लिये निमित्त रुप है ।

" प्राणी की वेशभूषा और कठोर तप इसी बात का परिचायक और संकेत है कि समाज उसे सम्मान प्रतिष्ठा दे, समाज द्वारा वह अच्छा कहा जाय । मैं समझता हूँ कि " हम प्राणमय परमेश्वर के भक्त हैं, उनके सन्निकट हैं । " ऐसा कहलाने में ही मनुष्य ने अपना गौरव मान रखा है । बदन में खाक लपेटे, मूँज का दण्ड धारण किये, चट या बोरा की लँगोटी लगाये, तरुण तापस क्या प्राण का अनुसंधान कर रहा है ? क्या वह ईश्वर की खोज या आत्मा की पहचान में संलग्न है ? नहीं , वह सम्मान, आदर के ढ़ूँढ़ने में लगा हुआ है, प्रतिष्ठा, मान और बड़ाई ही उसके लक्ष्य हैं । यही तो दुष्प्रज्ञता है । अरे ! वह अक्खड़ कह रहा थाः

" मान, बड़ाई, स्तुति और कुत्ते का लिंग पैठत पैठत पैठ जाय, निकसत फाटत गण्ड" ।

जिसने मान, बड़ाई और स्तुति को तिलाँजलि दे रखी है, उसे खाक लपेटने, अपने को तपाने या समाज से सम्मान की अपेक्षा की आवश्यकता नहीं होती । वह तो जाति और कुल के लक्षणों, यहाँ तक कि प्रान्तीयता, राष्ट्रीयता और भाषा की सीमाओं, बन्धनों, संकीर्णताओं, विशिष्टताओं से भी अपने को विमुक्त रखता है । इस विमुक्ति से कतराने, इन सीमाओं, बन्धनों में अपने को बाँध रखने की वक्र भंगिमा के कारण ही मानव कँचन रुपी काया में प्रतिष्ठित प्राण रुपी परम आराध्य देव के दर्शन से वंचित है । यह कंचन काया किसी अन्य को ढ़ूँढ़ने के लिये नहीं है । जो इस प्रकार ढ़ूँढ़ता, खोजता जान पड़ता है, दीख पड़ता है, वह दूसरे को ही ढ़ूँढ़ता फिर रहा है और उसे अपना कोई अता पता नहीं है, कोई निशानी नहीं है । उसे तू समझ जो प्राणों में प्रणिपात करता है । उसके हर रोम से प्रणव का स्फूरण होता है । उसके शरीर से विमल छाया और शीतलता प्रस्फुटित होती है । उसमें न कुछ उत्पन्न होता है, न विलीन होता है ।

दर्शी ! तू साधक को बतला दे कि वह निर्मल, स्वच्छ, द्वन्द्वातीत चित्त की ओर उन्मुख होना चाहता है, तो यह संभव है । किन्तु जब तक वह मान, बड़ाई और स्तुति की तृष्णा का तिरस्कार नहीं करेगा, इस पुण्य के उदय की कोई आशा और सम्भावना नहीं है । हो सकता है कि किस शास्त्र ने क्या कहा है, किस ॠषि ने क्या कहा है, इसका परित्याग कर देने पर वह अपने आप में जो घटित हो रहा है उसे जान जाय । हाँ, तृष्णा का त्याग नहीं करने पर इसकी संभावना और आशंका अवश्य है कि उसे तृष्णा और तितिक्षा छूती रहेगी, उसकी अशुद्धता बनी रहेगी, वह शुद्धता से वंचित रहेगा और पाप मिश्रित पुण्य की मिलावट के सरीखे दीखेगा , जो उसको तो अतृप्त रखेगा ही, दूसरों के लिये भी अतृप्ति का कारण बनेगा । वैसी स्थिति में शीतल स्वास उष्ण स्वास में भी बदल सकती है जो उसको तो जलायेगी ही, दूसरों को भी जला सकती है ।

क्रमशः

रविवार, जनवरी 16, 2011

अघोरेश्वर के आशीर्वचन

कर्म

सुधर्मा ! मैं देखता हूँ निष्क्रिय जीवन जीने वाले कुकृत काया हो जाते हैं । बूढ़ा रोता है । मान लो कि उसकी सभी इन्द्रियाँ थिर हो गई हैं, मस्तिष्क  उसका भड़क उठा है । बच्चा रोता है । तुम मान लो कि उसकी अज्ञानता है, उसको कुछ भी शुभ अशुभ का ज्ञान नहीं है । जब नौजवान को रोते देखता हूँ तो आश्चर्य होता है । तरुण, क्लेश कहकर, असफलता कहकर सर धुनता है । जीवन से निराश होने का क्या कारण है ?  एक तरुण में निष्क्रियता, कलुषित काया जब मैं देखता हूँ सुधर्मा, आश्चर्य होता है । क्योंकि वही क्षण और समय उसके जीवन की सार्थकता की तरफ प्रेरक होना चाहिये और उसमें मुदिता होनी चाहिये । ऐसा मैं नहीं देखता हूँ, सुधर्मा ।  इसका कारण निष्क्रियता, कुकृत काया है ।

जो तरुण क्रियाशील है, शुद्ध काया वाला है, उसके जीवन में उमंग, आल्हाद और हर तरह के कार्यों की क्षमता, कुशलता, गौरव के साथ, सम्मान के साथ, उत्साह के साथ देखता हूँ सुधर्मा । निष्क्रियता के पात्र को क्लेश के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं आता । क्रियाशील को मिलता है उत्साह, उमंग और वह वेग जो हर कार्य को सुगम और सहज बना देता है । ऐसा ही मैं देखता हूँ, सुधर्मा । यह आश्चर्य है ! आश्चर्य है ।

सुधर्मा ! प्रयत्न के बगैर पुरुषार्थ रुपी दिब्य गुण नहीं प्राप्त होता । प्रयत्न करने वाला मनुष्य अपने को अँधकार में नहीं रखता है,  प्रकाश की तरफ ले जाता है । चाहे जैसी परिस्थिति भी उपस्थित हो जाय, शरीर भी सुखाना पड़े तो शरीर सुखाता है । अपने को लोलुपता से छुड़ाना पड़े तो लोलुपता से छुड़ाता है । मन को मारता है तो तन को वश में करता है । सुधर्मा ! वही पुरुष , पुरुषार्थी कहा जाता है । पुरुषार्थ ही मनुष्य का जीवन है, मोक्ष का मार्ग है, अर्थ का मार्ग है,  धर्म का मार्ग है ।

क्रमशः

शुक्रवार, जनवरी 07, 2011

अघोरेश्वर भगवान राम जीः आशीर्वचन

प्राण

अघोरेश्वर भगवान राम जी के जीवन की विराटता, रहस्यमयता, माधुर्य और सरलता अपने आप में अन्यतम रहा है । जो व्यक्ति उनके सम्पर्क में आये हैं वे उन्हें अपना पाये हैं । प्रत्येक शिष्य, भक्त, श्रद्धालु अपने आप को उनकी अहैतुकी कृपा का एकमात्र अधिकारी समझता रहा है । वे एक ही समय में गुरु ,  माँ, सुहृद, अन्तरतम में बैठा ईष्ट, आदि अनेक रुप व गुण में देखे सुने जाते रहे हैं ।  उन्होने कहा है " गुरु देह नहीं हैं, प्राण हैं ।"
प्राण के विषय में उनकी कतिपय वाणियों का संग्रह यहाँ प्रस्तुत है ।

"  पिण्ड में प्राण ही तो प्राणियों का चैतन्य है । ब्रह्माण्ड में उसे वायु कहा जाता है । प्राण वायु ही हमारा उपास्य है । अपने आप की पूजा ही हमारी उपासना है ।


" एक ही प्राण ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र सभी में समान रुप से प्रतिबिम्बित है । ..... पाँव रुपी शूद्रों में बसे प्राण की अवहेलना कर, प्रतारणा कर, अपमान कर हम अपना सर्वनाश करने पर तुले हैं ।"

" चारों प्रकार के भोज्य पदार्थ चर्व्य, चोष्य,लेह्य, और भक्ष्य प्राण रक्षा के निमित्त ही होते हैं । उसके बिना हम लोगों का यह जो ईश्वर है ( ईश्वर ) यह स्वर बन्द हो जायेगा । जब " स्वर" बन्द हो जायेगा तो यह सृष्टि हमारी दृष्टि से ओझल हो जायेगी । इस नश्वरता से तो सभी लोग परिचित हैं ।"

जठराग्नि जो प्राणियों में प्राण संजोये हुए है, वह प्रज्वलित रहती है । उसमें ही आहुति देना प्राण को समिधा, स्नेह, शालीनता, शील देने सरीखे है । उसमें आहुति देना महावैश्वानर की पूजा है । जिसने प्राण को श्रद्धा समिधा नहीं अर्पित की है, प्राण की उपेक्षा कर रखी है, वह अनेक रोगों से, उदर विकार से निश्चेष्ट पड़ा रहता है । वह जठराग्नि को आहुति नहीं दे पायेगा । जन समाज उसे रोगी कहकर सम्बोधित करता है और उसके बारे में कहता हैः " इन्हें खाने पीने में अरुचि हो गई है । बाबा !  इन्हें कुछ पच नहीं रहा है । बाबा !  इन्हें मिचली आती है" । कारण कोई विशेष महत्व नहीं रखता । सिर्फ इतना ही महत्व का है कि उस व्यक्ति ने प्राण को संजोया नहीं । पिण्ड में प्राण ही तो प्राणियों का चैतन्य है । ब्रम्हाण्ड में उसे वायु कहा जाता है ।  वायु के शुष्क हो जाने पर कितना क्लेश होता है, कितनी असह्य वेदना होती है ?  अरे बाबा ! जिसने प्राण को संजोया है, उसी ने, सम्यक रुप से, चिरस्थायी जीवन को जाना है, जीवत्व को पहचाना है । वह इस सूक्ति को चरितार्थ करता है, " धन धरती का एक ही लेखा, जस बाहर तस भीतर देखा " ।

प्राण की उपासना सहज है , सुगम है, कठोर नहीं है । हाँ एक बात अवश्य है जो अपने अभ्यंतर में आसक्तियों को छिपाये, संजोये बैठा है उससे तो प्राण बहुत ही दूर है, बहुत ही अपरिचित है । इन आसक्तियों ने मित्र बनकर उस व्यक्ति के अभ्यंतर को कूड़ा कर्कट बना रखा है ।

गुरु देह नहीं हैं प्राण हैं । जबतक तुम्हारा प्राण रहेगा वे तुम्हारे अभ्यंतर में विराजमान रहेंगे ।

दर्शी ! एक बात तुम जान जाओ कि जागृति और सुषुप्तावस्था की उत्कँठा से मुक्त होकर, प्राण जहाँ है वहीं उसे अपने आप में रोक कर रखने का अभ्यास करने से , पिण्ड के भीतर एक नया आविष्कार साकार हो उठता है, जो सत्य है, जो प्रत्यक्ष है । उस मनोदशा में किसी ओर से कोई भी आक्रमण बिल्कुल ही कष्टदायक नहीं प्रतीत होता और उससे किसी प्रकार की उद्विग्नता या उत्तेजना उत्पन्न नहीं होती । इस अवस्था को " उन्मनी " कहते हैं । जब साधक को अनुभूति होती है कि वह न सोया है, न जगा है, न चेतन है, न तो "है" और न " नहीं है" का ही कोई आभास प्रतिबिम्बित होता है । उस समय वह प्राण के साथ आलिंगन में अपने ही प्राण में  उन्मुदित हो जाता है । शास्त्रों में इस अवस्था को उन्मनी कहा है ।

क्रमशः