जीवन दर्शन
सन् १९८२ ई० में श्री सर्वेश्वरी निवास, पड़ाव , वाराणसी के प्रागण में अपने प्रिय शिष्य बाबा प्रियदर्शी राम को सम्बोधित कर अघोरेश्वर भगवान राम जी की वाणी निनादित हुई थी । यह वाणी अघोर पथ के पथिक, साधु , तथा मानव मात्र की कँचन काया में प्रतिष्ठित प्राण रुपी परम आराध्य के दर्शन के लिये निमित्त रुप है ।
" प्राणी की वेशभूषा और कठोर तप इसी बात का परिचायक और संकेत है कि समाज उसे सम्मान प्रतिष्ठा दे, समाज द्वारा वह अच्छा कहा जाय । मैं समझता हूँ कि " हम प्राणमय परमेश्वर के भक्त हैं, उनके सन्निकट हैं । " ऐसा कहलाने में ही मनुष्य ने अपना गौरव मान रखा है । बदन में खाक लपेटे, मूँज का दण्ड धारण किये, चट या बोरा की लँगोटी लगाये, तरुण तापस क्या प्राण का अनुसंधान कर रहा है ? क्या वह ईश्वर की खोज या आत्मा की पहचान में संलग्न है ? नहीं , वह सम्मान, आदर के ढ़ूँढ़ने में लगा हुआ है, प्रतिष्ठा, मान और बड़ाई ही उसके लक्ष्य हैं । यही तो दुष्प्रज्ञता है । अरे ! वह अक्खड़ कह रहा थाः
" मान, बड़ाई, स्तुति और कुत्ते का लिंग पैठत पैठत पैठ जाय, निकसत फाटत गण्ड" ।
जिसने मान, बड़ाई और स्तुति को तिलाँजलि दे रखी है, उसे खाक लपेटने, अपने को तपाने या समाज से सम्मान की अपेक्षा की आवश्यकता नहीं होती । वह तो जाति और कुल के लक्षणों, यहाँ तक कि प्रान्तीयता, राष्ट्रीयता और भाषा की सीमाओं, बन्धनों, संकीर्णताओं, विशिष्टताओं से भी अपने को विमुक्त रखता है । इस विमुक्ति से कतराने, इन सीमाओं, बन्धनों में अपने को बाँध रखने की वक्र भंगिमा के कारण ही मानव कँचन रुपी काया में प्रतिष्ठित प्राण रुपी परम आराध्य देव के दर्शन से वंचित है । यह कंचन काया किसी अन्य को ढ़ूँढ़ने के लिये नहीं है । जो इस प्रकार ढ़ूँढ़ता, खोजता जान पड़ता है, दीख पड़ता है, वह दूसरे को ही ढ़ूँढ़ता फिर रहा है और उसे अपना कोई अता पता नहीं है, कोई निशानी नहीं है । उसे तू समझ जो प्राणों में प्रणिपात करता है । उसके हर रोम से प्रणव का स्फूरण होता है । उसके शरीर से विमल छाया और शीतलता प्रस्फुटित होती है । उसमें न कुछ उत्पन्न होता है, न विलीन होता है ।
दर्शी ! तू साधक को बतला दे कि वह निर्मल, स्वच्छ, द्वन्द्वातीत चित्त की ओर उन्मुख होना चाहता है, तो यह संभव है । किन्तु जब तक वह मान, बड़ाई और स्तुति की तृष्णा का तिरस्कार नहीं करेगा, इस पुण्य के उदय की कोई आशा और सम्भावना नहीं है । हो सकता है कि किस शास्त्र ने क्या कहा है, किस ॠषि ने क्या कहा है, इसका परित्याग कर देने पर वह अपने आप में जो घटित हो रहा है उसे जान जाय । हाँ, तृष्णा का त्याग नहीं करने पर इसकी संभावना और आशंका अवश्य है कि उसे तृष्णा और तितिक्षा छूती रहेगी, उसकी अशुद्धता बनी रहेगी, वह शुद्धता से वंचित रहेगा और पाप मिश्रित पुण्य की मिलावट के सरीखे दीखेगा , जो उसको तो अतृप्त रखेगा ही, दूसरों के लिये भी अतृप्ति का कारण बनेगा । वैसी स्थिति में शीतल स्वास उष्ण स्वास में भी बदल सकती है जो उसको तो जलायेगी ही, दूसरों को भी जला सकती है ।
क्रमशः
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