अघोर वचन - 7
" हम दुसरों के बारे में ही चिंतन करने, दूसरों के अनाप - सनाप विचारों की चोरी डकैती करके उसे अपना विचार कहकर अपने साथी मित्र तथा स्वजनों में बाँटकर वाहवाही लूटने जैसे दुष्कृत्य में संलग्न हैं । ठीक ऐसी ही मनोदशा है हमारे देश की ।"
०००
आत्मविश्वास की कमी, मेहनत से बचने की प्रवृत्ति, नैतिक पतन और लालसा आदि कुछ ऐसे कारण हैं कि हम एक ऐसे दुष्चक्र में फँस चुके हैं जिसके कारण हम पका पकाया माल खाना चाहते है । पकाने का कष्ट करना नहीं चाहते । हमारी दृष्टि दूसरों पर लगी रहती है कि वे क्या नया कर रहे हैं । हमें उनसे आसानी से क्या मिल सकता है । इस मनोदशा के कारण न तो हम कुछ नया कर पाते हैं और न हमें पुराने के विषय में ज्ञान ही होता है । हम दूसरों पर निर्भर रहने के लिये अभिशप्त हो चुके हैं । इस मनोदसा के कारण हम पतन की गहरी खाई की ओर खिंचते चले जा रहे हैं और हमें पता भी नहीं है ।
इस क्रम में हमारा इतना अधिक नैतिक पतन हो चुका है कि हम नजर बचाकर हथियाने, दूसरों के विचार या रचनाओं को मामुली फेर बदल कर अपने नाम से प्रचारित करने, सरकारी सहायता से जीवन चलाने एवँ आगे बढ़ने हेतु जोड़तोड़ करने आदि कृत्यों को बिना लाज, संकोच के करने लगे हैं । ये कृत्य दुष्कृत्य ही कहे जायेंगे ।
स्वराज प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी हम अपने में वैज्ञानिक दृष्टि विकसित नहीं कर सके हैं । आज भी तकनीक के मामले में हम पिछड़े ही कहे जायेंगे । भ्रष्टाचरण, अनुशासनहीनता और कामचोरी हमारे खून में शामिल हो चुका है । दूसरे देशों पर हमारी निर्भरता, यहाँ तक कि सुरक्षा मामलों में, हमें कमजोर, परमुखापेक्षी, तथा दीन हीन बना देती है । यह एक खतरनाक एवँ विचारणीय तथ्य है ।
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" हम दुसरों के बारे में ही चिंतन करने, दूसरों के अनाप - सनाप विचारों की चोरी डकैती करके उसे अपना विचार कहकर अपने साथी मित्र तथा स्वजनों में बाँटकर वाहवाही लूटने जैसे दुष्कृत्य में संलग्न हैं । ठीक ऐसी ही मनोदशा है हमारे देश की ।"
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आत्मविश्वास की कमी, मेहनत से बचने की प्रवृत्ति, नैतिक पतन और लालसा आदि कुछ ऐसे कारण हैं कि हम एक ऐसे दुष्चक्र में फँस चुके हैं जिसके कारण हम पका पकाया माल खाना चाहते है । पकाने का कष्ट करना नहीं चाहते । हमारी दृष्टि दूसरों पर लगी रहती है कि वे क्या नया कर रहे हैं । हमें उनसे आसानी से क्या मिल सकता है । इस मनोदशा के कारण न तो हम कुछ नया कर पाते हैं और न हमें पुराने के विषय में ज्ञान ही होता है । हम दूसरों पर निर्भर रहने के लिये अभिशप्त हो चुके हैं । इस मनोदसा के कारण हम पतन की गहरी खाई की ओर खिंचते चले जा रहे हैं और हमें पता भी नहीं है ।
इस क्रम में हमारा इतना अधिक नैतिक पतन हो चुका है कि हम नजर बचाकर हथियाने, दूसरों के विचार या रचनाओं को मामुली फेर बदल कर अपने नाम से प्रचारित करने, सरकारी सहायता से जीवन चलाने एवँ आगे बढ़ने हेतु जोड़तोड़ करने आदि कृत्यों को बिना लाज, संकोच के करने लगे हैं । ये कृत्य दुष्कृत्य ही कहे जायेंगे ।
स्वराज प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी हम अपने में वैज्ञानिक दृष्टि विकसित नहीं कर सके हैं । आज भी तकनीक के मामले में हम पिछड़े ही कहे जायेंगे । भ्रष्टाचरण, अनुशासनहीनता और कामचोरी हमारे खून में शामिल हो चुका है । दूसरे देशों पर हमारी निर्भरता, यहाँ तक कि सुरक्षा मामलों में, हमें कमजोर, परमुखापेक्षी, तथा दीन हीन बना देती है । यह एक खतरनाक एवँ विचारणीय तथ्य है ।
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