अघोर वचन - 9
" आज मनुष्य राम, कृष्ण, शिव, साधु और महात्माओं का ध्यान तो करते हैं किन्तु क्या वे कभी अपना भी ध्यान करते हैं ? मनुष्य जब तक स्वयँ अपने प्रति दया नहीं करेगा, अपने को गन्दगी में गिरने से रोकने का प्रयास नहीं करेगा तब तक उसकी सभी पूजा अर्चना निरर्थक है ।"
०००
समग्र धरती पर निवास करने वाले मनुष्य ईश्वर को मानते हैं, उसकी पूजा करते हैं । ईश्वर को स्थान, भाषा, जाति, धर्म के अनुसार अलग अलग नाम, रूप दिया गया है, पर आस्था में समानता है । इस पूजा, ध्यान, या और जो भी नाम हो से मनुष्य क्या पाता है, कैसे पाता है, यह एक बृहद विषय है । अलग विषय है । ध्यान, पूजन अर्थपूर्ण है । उससे मनुष्य को वाँक्षित लाभ प्राप्त होता है यह निश्चित है ।
हम देखते हैं मनुष्य नियम से रोज पूजा अर्चना करता है, पर न तो उसकी समस्यायें दूर होती हैं और न उसे सुःख शाँति ही नसीब होती है । इसके कारणों की चर्चा इस वचन में किया गया है । आप्त वाक्य है " ध्येय जितना पवित्र होगा साधन को भी उतना ही पवित्र होना चाहिये" । यहाँ ध्येय ईश्वर है और साधन मनुष्य है । ईश्वर तो परम पवित्र है, पर साधन रूप मनुष्य भी क्या उतना ही पवित्र है । यदि है तो ध्येय प्राप्ति सरल है और नहीं तो कठिन से भी कठिनतर है ।
मनुष्य को पहले अपने मन और शरीर को साधना चाहिये । शरीर स्वस्थ रहे । सबल रहे । यह परम आवश्यक है । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है । मन के कलुश अनेक हैं, जैसे लोभ, मोह, काम, क्रोध, आदि आदि, उन्ही के कारण मन हर समय चलायमान रहता है । हम इनको मन से हटा नहीं सकते । इनको दबाने से ये छुटकारे की प्रबल चेष्टा करते हैं जिससे मन और भी अधिक असंतुलित होकर मनुष्य को तृष्णा के भँवर में फँसा देता है । मनुष्य को सदैव सचेष्ट रहकर मन के इन विकारों पर दृष्टि रखनी चाहिये । मन में उठती तृष्णा की विचार लहरियों पर न अटक कर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये । इससे मन निर्मल होगा एवँ स्थिरता आयेगी जो धीरे से शाँति में बदल जायेगी । इस शाँत मन से की गई प्रत्येक पूजा, अर्चना सफल होगी और वाँक्षित लाभ प्राप्त होगा ।
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" आज मनुष्य राम, कृष्ण, शिव, साधु और महात्माओं का ध्यान तो करते हैं किन्तु क्या वे कभी अपना भी ध्यान करते हैं ? मनुष्य जब तक स्वयँ अपने प्रति दया नहीं करेगा, अपने को गन्दगी में गिरने से रोकने का प्रयास नहीं करेगा तब तक उसकी सभी पूजा अर्चना निरर्थक है ।"
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समग्र धरती पर निवास करने वाले मनुष्य ईश्वर को मानते हैं, उसकी पूजा करते हैं । ईश्वर को स्थान, भाषा, जाति, धर्म के अनुसार अलग अलग नाम, रूप दिया गया है, पर आस्था में समानता है । इस पूजा, ध्यान, या और जो भी नाम हो से मनुष्य क्या पाता है, कैसे पाता है, यह एक बृहद विषय है । अलग विषय है । ध्यान, पूजन अर्थपूर्ण है । उससे मनुष्य को वाँक्षित लाभ प्राप्त होता है यह निश्चित है ।
हम देखते हैं मनुष्य नियम से रोज पूजा अर्चना करता है, पर न तो उसकी समस्यायें दूर होती हैं और न उसे सुःख शाँति ही नसीब होती है । इसके कारणों की चर्चा इस वचन में किया गया है । आप्त वाक्य है " ध्येय जितना पवित्र होगा साधन को भी उतना ही पवित्र होना चाहिये" । यहाँ ध्येय ईश्वर है और साधन मनुष्य है । ईश्वर तो परम पवित्र है, पर साधन रूप मनुष्य भी क्या उतना ही पवित्र है । यदि है तो ध्येय प्राप्ति सरल है और नहीं तो कठिन से भी कठिनतर है ।
मनुष्य को पहले अपने मन और शरीर को साधना चाहिये । शरीर स्वस्थ रहे । सबल रहे । यह परम आवश्यक है । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है । मन के कलुश अनेक हैं, जैसे लोभ, मोह, काम, क्रोध, आदि आदि, उन्ही के कारण मन हर समय चलायमान रहता है । हम इनको मन से हटा नहीं सकते । इनको दबाने से ये छुटकारे की प्रबल चेष्टा करते हैं जिससे मन और भी अधिक असंतुलित होकर मनुष्य को तृष्णा के भँवर में फँसा देता है । मनुष्य को सदैव सचेष्ट रहकर मन के इन विकारों पर दृष्टि रखनी चाहिये । मन में उठती तृष्णा की विचार लहरियों पर न अटक कर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये । इससे मन निर्मल होगा एवँ स्थिरता आयेगी जो धीरे से शाँति में बदल जायेगी । इस शाँत मन से की गई प्रत्येक पूजा, अर्चना सफल होगी और वाँक्षित लाभ प्राप्त होगा ।
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