शुक्रवार, मई 01, 2015

अघोर वचन -14

" जब अपना वह इष्ट, अपना वह आत्माराम अपने अनुकूल हो जायेगा तो आपकी सभी इन्द्रियाँ, जो देवताओं के भोग का साधन हैं, शान्त हो जायेंगी । आप उस महान समाधि को प्राप्त करेंगे ।"
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आध्यात्मिक साधना की शुरूआत गुरू प्राप्ति से होती है । जब किसी सँत पुरूष के दर्शन मात्र से मन स्थिर होने लगे, आन्तरिक उल्लास जगे और ईश्वर याद आये तो समझिये आप गुरू के समक्ष खड़े हैं । जब गुरू का निश्चय हो जाय तो समय काल देखकर, गुरू की मनोदशा पहचान कर उनके चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करें और निवेदन करें कि अपनी शरण में लें एवँ दीक्षा प्रदान कर कृतार्थ करें । आपकी श्रद्धा, मुद्रा, निवेदन की गँभीरता गुरू के हृदय में करूणा का संचार करेगी और आपको दीक्षा दान हो सकता है ।

दीक्षा में सामान्यतः गुरू मँत्र देंगे और क्रिया बतलायेंगे । इष्ट, देवता या देवी के विषय में ज्ञान देंगे और रोज की साधना का निर्देश देंगे । उसके बाद शुरू होती है साधना । साधक जप करता है, अनुष्ठान करता है, क्रिया करता है, स्वयँ को साधता है और यह सब करके अपने इष्ट को, आत्माराम को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करता है । साधक की साधना जैसे जैसे सही दिशा में एवँ सही रूप से बढ़ती जाती है, उसे अनुभूतियों का प्रसाद मिलता जाता है । उसकी इन्द्रियाँ निग्रहित होती जाती हैं । वह समाधि के निकट होता जाता है ।

इसमें ये बातें अत्यँत महत्वपूर्ण है । वे हैं गुरू, मँत्र और देवता पर अटूट श्रद्धा एवँ निश्छल विश्वास । अपनी साधना में लगन । मन में जन्म लेने वाली तृष्णा की उपेक्षा ।
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