शनिवार, मई 09, 2015


अघोर वचन - 21

" जिसने मान, बड़ाई और स्तुति को तिलाँजलि दे रखी है, उसे खाक लपेटने, अपने को तपाने या समाज सम्मान की आवश्यकता नहीं होती । वह तो जाति और कुल के लक्षणों, यहाँ तक की प्राँतियता, राष्ट्रीयता और भाषा की सीमाओं, बन्धनों, संकीर्णताओं, विशिष्टताओं से भी अपने को विमुक्त रखता है ।"
                                                                ०००

सामान्यतः धरती के समस्त भू भाग में निवासरत मनुष्यों में यह देखा गया है कि वह अपने वँश, परिवार एवँ स्वयँ माननीय होना चाहता है । वह इसके लिये वास्तविक, अवास्तविक कारण या तो खोज लेता है या गढ़ लेता है । इसे हम उसका अहँकार कह सकते हैं ।

बड़ाई मीठा जहर के समान है । जब कोई व्यक्ति किसी प्रलोभन के कारण किसी दूसरे मनुष्य के बारे में उसके सामने ही बढ़ा चढ़ा कर बखान करता है तो यह बड़ाई है । जैसे किसी हवलदार को दरोगा कहकर पुकारना, पुराने जमाने में राजा को धरतीपति कहना, सामान्य से थोड़ा ज्यादा ज्ञानी को महापँडित या जगतगुरू कह देना । ये सबके सब वास्तविकता के धरातल पर असत्य हैं, परन्तु बड़ाई के अच्छे उदाहरण ही नहीं बड़ाई करने वाले के लिये फलदायी भी सिद्ध होते हैं ।

स्तुति और प्रार्थना समानार्थी शब्द हैं । विकृत अर्थ में यह खुशामद कहलाता है तथा पवित्र होकर यह देवस्तुति बन जाता है । यहाँ स्तुति का खुशामद रूप ही अभिप्रेत प्रतीत होता है ।

वचन में कहा गया है कि उपरोक्त तीनों बुराईयों से जो दूरी बना लेता है । जिसे इनमें रस नहीं मिलता । उसे सन्यासी के समान, मशानचारी के समान अपने शरीर में भभूत रमाने, कठिन तपस्या कर शरीर को गलाने की आवश्यकता नहीं रहती । वह स्वभाव से ही वचन में बताये गये समस्त सीमाओं, बन्धनों, संकीर्णताओं से मुक्त रहता है । उसका जीवन किसी संत महापुरूष के जैसा जान पड़ता है ।
                                                      ०००  



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें