अघोर वचन -34
" हमारी बातें शायद आप ठीक से सुन नहीं पाते हैं या सुन पाते हैं तो समझ नहीं पाते हैं । समझ पाते हैं तो कर नहीं पाते हैं और कर भी पाते हैं तो शायद जिस ढ़ँग से होना चाहिये उस ढ़ँग को अपने ढ़ँग में जोड़ नहीं पाते हैं । यही कारण है कि आप सब कुछ से वँचित रह जाते हैं ।"
०००
यह गुरू शिष्य संवाद का अँश है । शिष्य की ठीक ठीक आत्मोन्नति न होते पाकर गुरू कारणों की पहचान करा रहे हैं ।
कहा जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त जब भी कोई संत के समीप जाता है । उनकी मनोदशा को पहचान कर, जब वे प्रसन्न हों, निकट जाना चाहिये । उनके सामने हमें मुद्रित होकर स्थिर बैठना चाहिये । उनसे अपना मन्तव्य स्पष्ठ, कम शब्दों में और कोमल स्वरों में निवेदन करना चाहिये । उसके बाद अपने श्रवणेन्द्रिय, हृदय तथा मन को स्थिर कर सावधान मुद्रा में संत वचन को हृदयंगम करना चाहिये ।
संत और श्रद्धालु, गुरू और शिष्य, शिक्षक और बिद्यार्थी के बीच घटने वाली कथन और श्रवण की यह महत्वपूर्ण घटना के विषय में योगाचार्य रजनीश जी ने बड़ी महत्व की बात कही है, जो इस प्रकार है "तुम थोड़े से शब्द सुनते हो और बाकी के खाली स्थानों पर अपने शब्द डाल लेते हो और सोचते हो कि तुमने मुझे सुना। और तुम जो भी यहां से ले जाते हो वह तुम्हारी अपनी रचना है, तुम्हारा अपना धंधा है। तुमने मेरे थोड़े से शब्द सुने और खाली जगहों को अपने शब्दों से भर दिया; और तुम जिनसे खाली जगहों को भरते हो वे पूरी चीज को बदल देते हैं ।"
इस वचन में एक महत्वपूर्ण बात और है, वह है " जिस ढ़ँग से होना चाहिये उस ढ़ँग को अपने ढ़ँग में जोड़ नहीं पाते हैं ।" इससे स्पष्ठ है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग ढ़ँग होता है । सँत, गुरू जो बताते हैं उसका भी एक ढ़ँग होता है । श्रद्धालु, शिष्य को प्राप्त ढ़ँग और अपने ढ़ँग में तारतम्य बैठाना होता है और अपने ढ़ँग में आवश्यक फेर बदल करके सँत के, गुरू के ढ़ँग में ढ़ल जाना होगा । तभी हम उन्नति के पथ पर अग्रसर होंगे । हमारा ईष्ट, हमारा लक्ष्य हमें मिलेगा । हम सफलकाम हो पायेंगे ।
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" हमारी बातें शायद आप ठीक से सुन नहीं पाते हैं या सुन पाते हैं तो समझ नहीं पाते हैं । समझ पाते हैं तो कर नहीं पाते हैं और कर भी पाते हैं तो शायद जिस ढ़ँग से होना चाहिये उस ढ़ँग को अपने ढ़ँग में जोड़ नहीं पाते हैं । यही कारण है कि आप सब कुछ से वँचित रह जाते हैं ।"
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यह गुरू शिष्य संवाद का अँश है । शिष्य की ठीक ठीक आत्मोन्नति न होते पाकर गुरू कारणों की पहचान करा रहे हैं ।
कहा जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त जब भी कोई संत के समीप जाता है । उनकी मनोदशा को पहचान कर, जब वे प्रसन्न हों, निकट जाना चाहिये । उनके सामने हमें मुद्रित होकर स्थिर बैठना चाहिये । उनसे अपना मन्तव्य स्पष्ठ, कम शब्दों में और कोमल स्वरों में निवेदन करना चाहिये । उसके बाद अपने श्रवणेन्द्रिय, हृदय तथा मन को स्थिर कर सावधान मुद्रा में संत वचन को हृदयंगम करना चाहिये ।
संत और श्रद्धालु, गुरू और शिष्य, शिक्षक और बिद्यार्थी के बीच घटने वाली कथन और श्रवण की यह महत्वपूर्ण घटना के विषय में योगाचार्य रजनीश जी ने बड़ी महत्व की बात कही है, जो इस प्रकार है "तुम थोड़े से शब्द सुनते हो और बाकी के खाली स्थानों पर अपने शब्द डाल लेते हो और सोचते हो कि तुमने मुझे सुना। और तुम जो भी यहां से ले जाते हो वह तुम्हारी अपनी रचना है, तुम्हारा अपना धंधा है। तुमने मेरे थोड़े से शब्द सुने और खाली जगहों को अपने शब्दों से भर दिया; और तुम जिनसे खाली जगहों को भरते हो वे पूरी चीज को बदल देते हैं ।"
इस वचन में एक महत्वपूर्ण बात और है, वह है " जिस ढ़ँग से होना चाहिये उस ढ़ँग को अपने ढ़ँग में जोड़ नहीं पाते हैं ।" इससे स्पष्ठ है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग ढ़ँग होता है । सँत, गुरू जो बताते हैं उसका भी एक ढ़ँग होता है । श्रद्धालु, शिष्य को प्राप्त ढ़ँग और अपने ढ़ँग में तारतम्य बैठाना होता है और अपने ढ़ँग में आवश्यक फेर बदल करके सँत के, गुरू के ढ़ँग में ढ़ल जाना होगा । तभी हम उन्नति के पथ पर अग्रसर होंगे । हमारा ईष्ट, हमारा लक्ष्य हमें मिलेगा । हम सफलकाम हो पायेंगे ।
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