शनिवार, अक्तूबर 03, 2009
क्रींकुण्ड के सातवें महंथ बाबा जयनारायण राम जी
वाराणसी जनपद के बलुआ ग्राम में एक जायसवाल !कलवार! व्यवसायी परिवार रहता था । यह परिवार गुड़ और चीनी के व्यापार से अच्छा धन और नाम कमाया था । इस परिवार द्वारा बलुआ गाँव में एक शिव मंदिर बनवाया गया था । बलुआ ग्राम के निकट गँगा पश्चिम वाहिनी हैं अतः यह क्षेत्र पुण्य क्षेत्र माना जाता है । यहाँ माघ मास की अमावस्या, जिसे मौनी अमावस्या कहते हैं , को गँगास्नान का महापर्व आयोजित होता है । इसी ग्राम में उक्त जायसवाल परिवार में बाबा जयनारायणराम जी ने जन्म लिया था । बाबा की जन्म तिथि तो ज्ञात नहीं है परन्तु सन् १८४० ई० के आसपास की बात रही होगी ।
कुछ काल बाद व्यवसाय में मंदी के चलते बाबा के परिवार को बलुआ ग्राम छोड़ना पड़ा । बाबा का परिवार अपने व्यापार को पुनः व्यवस्थित करने के उद्देश्य से मिरजापुर जनपद के अदलपुरा गाँव में जा बसा । इस समय तक बाबा युवा हो चुके थे । उनके पिछले जन्म के संस्कार जोर मारने लगे थे । उनका मन वैरागी हो रहा था । अचानक आपके जीवन में एक निर्णायक क्षण आया और आप वाराणसी में क्रींकुण्ड बाबा कीनाराम स्थल आ गए । उस समय स्थल के महंथ गद्दी पर बाबा भवानीराम जी थे ।
बाबा जयनारायण राम भाग्यशाली शिष्य कहे जायेंगे क्योंकि उन्हें गुरु के रुप में बाबा भवानीराम जी मिले । बाबा भवानी राम वीतराग एवँ अजगर वृत्ति के महात्मा थे । वे क्रींकुण्ड स्थल से कम ही बाहर निकला करते थे । वे क्रींकुण्ड स्थल आने वाले श्रद्धालुओं को भी दण्डप्रणाम स्वीकार कर विदा कर दिया करते थे । दो तीन दिन में किसी गृहस्थ के घर जाते और जो कुछ मिल जाता उसी से संतोष पूर्वक क्षुधा निवारण कर स्थल में लौट आते थे । बाबा भवानीराम जी स्वात्माराम में सदा रमने वाले महात्मा तो थे ही वे शिष्य से भी साधना विषयों में अपेक्षित गंभीरता चाहते थे । वे अप्रसन्न होने पर धूनी से लकड़ी खींचकर शिष्य को मारने में भी देरी नहीं करते थे । इसिलिये बाबा जयनारायणराम जी ने कहा हैः
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाँण्डे की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीँ, महा कठिन व्यवहार ।।
बाबा जयनारायणराम जी को दीक्षा प्रदान करने के बाद गुरु का आदेश हुआ कि खोजवाँ बाजार में जाकर रहो । बाबा खोजवाँ बाजार में रहने लगे । उस समय उनके पास दो ही काम थे, तप करना तथा स्थल जाकर गुरु की सेवा करना । दोनो ही काम बाबा बड़े लगन से करते थे । खोजवाँ बाजार में शुरु शुरु में तो लोगों ने बाबा से दूरी बनाये रखा, परन्तु जब उनकी तपः सिद्धी की सुगन्ध फैलने लगी पूरा बाजार आपका भक्त बन गया । बाबा ने वहीं पर जन सहयोग से एक कुटी बनवाया तथा एक कुआँ खुदवाया था , जो आज भी है । उक्त स्थान आज भी क्रींकुण्ड के आधीन है ।
बाबा जयनारायण राम जी अपने गुरु द्वारा ली जा रही कठिन परीक्षा में न केवल सफल रहे , वरन् उन्होने अपनी तपस्या से गुरु को भी प्रसन्न कर लिया । फिर क्या था, जहाँ गुरु प्रसन्न हुए उच्चकोटी की तमाम सिद्धियाँ हस्तगत होती चली गईं । बाबा भवानी राम जी ने बाबा जयनारायण राम को एक दिन अचानक बुला भेजा । बाबा आये और गुरु ने उन्हें अपनी गोद में बिठाकर क्रींकुण्ड गद्दी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । अतः बाबा भवानी राम जी की समाधि होने पर बाबा जयनारायण राम जी क्रींकुण्ड गद्दी पर बैठे ।
बाबा जयनारायण राम जी जब क्रीं कुण्ड गद्दी पर बैठे, उस समय आश्रम की स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी । आप अपना निर्वाह आकाशवृत्ति से करते थे, और आश्रम में जो भी चढावा आता उसे आश्रम की उन्नति में लगा देते थे । उनके समय में क्रीं कुण्ड आश्रम की बड़ी उन्नति हुई । आपने ही बाबा कीनाराम जी द्वारा रचित चार ग्रंथों का प्रकाशन करवाया था । ये ग्रंथ हैं.. १, विवेकसार २, रामगीता ३, रामरसाल ४, गीतावली । आपने आश्रम में दो उत्सव मनाने की परम्परा चलाई एक रामनवमी के बारहवें दिन तथा दूसरी भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि , जिसे लोलार्क छठ भी कहते हैं । आपको गायन वादन का उच्चकोटी का ज्ञान था । आप सितार, ढोल और मृदंग बजाया करते थे । उक्त अवसरों पर काशी की वेश्याएँ तथा गायिकाएँ आश्रम में नाच गाना प्रस्तुत करती थी । गायिकाओं में यह माना जाता था कि स्थल में गाना प्रस्तुत करने से सालभर उनका गला मधुर बना रहता था । ये उत्सव अब भी मनाए जाते हैं लेकिन वेश्याओं तथा गायिकाओं का नाच गाना सन् १९५८ ई० से निषिद्ध हो गया है ।
बाबा जयनारायण राम जी की तपः सिद्धि प्रकट थी । आप अत्यंत अल्प मात्रा में आहार लिया करते थे । निद्रा पर भी आपने विजय प्राप्त कर ली थी । आपको किसी ने कभी सोते नहीं देखा । आप अष्टाँग योग सिद्ध थे । आप हर समय भजन मे रमे रहते थे । आपकी सिद्धियाँ ऐसी थीं कि आप एक समय में आश्रम, कोलकाता, गंगासागर तथा कई अन्य स्थानों पर एकसाथ अपने भक्तों को दर्शन देते थे । आपमें अपनी सिद्धियों का अभिमान लेश मात्र भी न था । यदि कोई जागतिक मनोरथ लेकर आप के पास आता तो आप कहते थेः "जाओ बाबा कीनाराम की समाधि पर प्रार्थना करो, जो करेंगे वही करेंगे ।"
आप जल्दी से दीक्षा देना स्वीकार नहीं करते थे । शिष्य बनाने के विषय में आप मानते थे कि जैसे बच्चे के लालन पालन का भार मातापिता पर होता है, ठीक वैसे ही शिष्य का दायित्व गुरु पर होता है ।
बाबा जयनारायण राम जी ने ४ मई सन् १९२३ ई० को परदा किया ।
क्रमशः
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औघड़ बाबा के बारे में आपका ब्लॉग देख के बहुत ही अच्छा लगा. इसे जारी रखें..
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