पूर्व में हुए अघोराचार्यों, अघोरेश्वरों, सिद्धों, और साधकों का जीवन परिचय, साधना , सेवा, क्रियाकलापों का विवरण सामान्यतः अप्राप्य ही है । यदि कुछ उपलब्ध भी है तो वह भी जनश्रुति तक ही सीमित है , परंतु अघोरेश्वर भगवान राम जी के विषय में अवतरण से लेकर लीला संवरण तक विशद विवरण सहज में ही उपलब्ध है । उनके द्वारा स्थापित जन कल्याण में निरत संस्था श्री सर्वेश्वरी समूह, वाराणसी ने अनेकानेक ग्रंथों का प्रकाशन कराया है, जो जन सामान्य को सहज सुलभ हैं । इस लेखक ने अपने लेखन के लिये श्री सर्वेश्वरी समूह, वाराणसी द्वारा प्रकाशित ग्रंथों की सामग्री का आवश्यकतानुसार उपयोग किया है, जिसके लिये वह अत्यंत आभारी है ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी के विषय में क्रमबद्ध जानकारी प्रस्तुत करने का यह एक अकिंचन प्रयास है । मैं उनके बारे में अपनी ओर से कुछ भी न जोड़कर आपको अपनी स्वतंत्र राय बनाने का मौका उपलब्ध कराना चाहता हूँ । कृपया धीरज रखकर मेरे साथ साथ धीरे धीरे आइये आगे बढें ।
अक्षोभ्य सागर समान मनस्विता या,
आनन्द गद् गद् मनोज्ञवचस्विता या ।
लोकोपकार परिकर्मयशस्विता या,
तासांनिदर्शनमयं ह्यवधूत रामः ।।
।। अवधूत शतकम् से साभार।।
"जिसे अक्षोभ्य सागर के समान मन की गंभीरता कहते हैं, जिसे आत्मानन्द के कारण गद् गद् हृदय से निकलने वाली वाणी की विशेषता कहते हैं, जिसे लोकोपकारी कार्यों के सम्पादन से उपार्जित यशस्विता कहते हैं, उन सबका एक मात्र उदाहरण औघड़ भगवान राम हैं ।"
अवतरण
माता
आपकी माता का नाम " लखराजी देवी" था । आपका जन्म सन् १९१० ई० के माघ महीना में ग्राम " बगवाँ" जिला आरा भोजपुर, बिहार में हुआ था । माता का नाम "तपेसरा कुँवरि एवं पिता का नाम "बूटी सिंह " था । आपका विवाह मात्र तेरह वर्ष की अवस्था में ही बाबू बैजनाथ सिंह के साथ सन् १९२३ ई० को हो गया था । विवाह के लगभग चौदह वर्षों के पश्चात आपको महान और यशस्वी पुत्र अघोरेश्वर भगवान राम जी की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । आपके विषय में आगे प्राप्त विवरण विशद रुप में दिया जारहा है ।
पिता
पिता बाबू बैजनाथ सिंह के पास सबल शरीर अच्छी खासी जमींदारी एवं पर्याप्त धन था । इतना सबकुछ होते हुए भी वे अत्यंत पवित्र एवं कोमल हृदय के स्वामी थे । उनका कुछ कालतक व्यवसाय के सिलसिले में बर्मा देश के रंगून शहर में भी रहना हुआ था। बाबू साहब को कुश्ती का बहुत शौक था । वे बाल्यकाल से ही व्यायाम और कुश्ती लडने वालों में प्रसिध्द थे । इन सबके बावजूद वे मूल रूप से सात्विक प्रवृति के राजपुरूष थे । यह कहावत प्रसिध्द है कि सिंह को केवल एक ही संतान होती है । बालक भगवान की आयु मात्र पॉंच वर्ष की होते न होते उनके पिता बाबू बैजनाथ सिंह अपनी जीवनलीला का संवरण कर ब्रम्हीभूत हो गये ।
पितामह । दादा।
बालक भगवान के पितामह बाबू चन्द्रिका प्रसाद सिंह एक वहुत ही सम्मानित जमींदार थे । वे बडे ही यशस्वी एवं उदार व्यक्ति थे । उनके दरवाजे से कभी कोई साधु अभ्यागत खाली हाथ न जाता था । सबका यथोचित सम्मान होता था । अपने सहज स्वभाव तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार के कारण ग्रामवासी तथा क्षेत्रीय जन सामान्य उन्हें आदर भाव से देखते थे ।
क्रमशः
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