आज के समय में प्राणायाम कोई नया विषय नहीं है । भारत वर्ष में सभी किसी न किसी प्रकार से प्राणायाम से जुड़े हैं , वह चाहे स्वाश्थ्य रक्षा के निमित्त हो या आध्यात्मिक उन्नति के लिये साधना हो । प्राणायाम के विषय में बाजार में अनेक पुस्तकें , अनेक प्रशिक्षक , तथा अनेक संस्थाएँ उपलब्ध हैं । हम यहाँ संक्षेप में प्राणायाम के विज्ञान की चर्चा करेंगे ।
प्राण श्वाँस प्रश्वाँस के समग्र को कहते हैं । श्वाँस प्रश्वाँस के सम्पूर्ण आयाम को नियंत्रित करने के विज्ञान का नाम है प्राणायाम । प्राण जीवन का आधार है । जब तक शरीर में प्राण का प्रवाह चल रहा है, मनुष्य जीवित है । प्राण की क्रियाशीलता समाप्त होते ही मनुष्य का शरीर मृत हो जाता है । जीवन के रहते तक ही संसार है, सारा प्रपञ्च है । अतः यह सिद्ध है कि मनुष्य के लिये प्राण की अहमियत और सबसे अधिक है ।
योग परम्परानुसार प्राण को पाँच विभागों में बाँटा गया है ।
१, प्राणः शरीर के उपरी हिस्से में कण्ठनली, श्वासपटल और अन्न नलिका में यह क्रियाशील रहता है । यह श्वसन अँगों को क्रियाशील बनानेवाली माँसपेशियों को श्वास नीचे खींचने की क्रिया में सहयोग करता है । मनुष्य के जीवन का मुख्य हेतु यही प्राण है ।
२, अपानः यह नाभि प्रदेश के नीचे क्रियाशील रहता है । वृक्क, मुत्रेंद्रिय, बड़ी आँत, गुदाद्वार के संचालन का आधार यही है । शरीर के दूषित वायू का निष्कासन यही करता है । कुण्डलिनी जागरण की क्रिया में भी इसका महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है ।
३, समानः छाती और नाभि के बीच प्रसरण करने वाला यह प्राण पाचन संस्थान, यकृत, क्लोम एवं जठर, आदि को नियंत्रित करता है । यह हृदय एव् रक्त अभिसरण को भी क्रियाशील रखने का हेतु है ।
४, उदानः नेत्र , नासिका, कान आदि इन्द्रियाँ तथा मस्तिष्क को क्रियाशील बनाये रखने का जिम्मा इसी प्राण का है । सोच विचार की शक्ति या चेतना का कारण यही पंराण है ।
५, व्यानः समस्त शरीर में व्याप्त रहकर यह अन्य प्राणों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य इसके द्वारा सम्पन्न होता है । माँसपेशियों , तन्तुओं, नाड़ियों तथा संधियों को क्रियाशील रखता है ।
इसके अलावा पाँच उपप्राण भी बताये गये है ।
१, नाग
२, कूर्म
३, क्रिकल
४, देवदत्त
५, धनंजय
उपप्राण शरीर की छोटी छोटी क्रियाओं जैसे छींकना, जमुहाई लेना, पलक झपकाना, हिचकी लेना आदि को सम्पादित करते हैं । अघोरपथ में धनंजय उपप्राण, जिसकी उपस्थिति कपाल में मानी गई है, के विषय में उल्लेख मिलता है । शवदाह के समय धनंजय प्राण को कपाल से मुक्त करने के लिये ही कपालक्रिया की जाती है । औघड़ या कापालिक इसी धनंजय प्राण का संधारण कपाल साधना के द्वारा करता है ।
साधारण योग प्रणाली में प्राण को नियंत्रित करना होता है । प्राण को नियंत्रित करना ही प्राणायाम है । प्राण के नियंत्रण से मन नियंत्रित होता है । ये दोनो ही निरंतर क्रियाशील रहने वाले हैं । प्राण के चंचल होने से मन चंचल होता है और मन के चंचल होने से प्राण चंचल हो जाता है । दोनो एक दूसरे के पूरक हैं । देह के तल पर प्राणायाम के लिये आसन सिद्धि नितान्त आवश्यक है । आसन सिद्ध होने पर वह एक आसन में लम्बे समय तक स्थिर बैठ सकता है । इससे शरीर में कम्पन नहीं होता, प्राण की क्रिया शाँत होती जाती है, शरीर हल्का हो जाता है और शरीर का भान मिटने लगता है । इस स्थिति का प्रभाव इन्द्रियों और मन पर पड़ता है और योगी का सम्पर्क बाह्य जगत से बिच्छिन्न हो जाता है । यही प्रत्याहार अवस्था कहलाती है । इसके बाद योगी अन्तर जगत नें प्रवेश कर जाता है । आगे धारणा, ध्यान, और समाधि की क्रिया होती है ।
अघोरपथ में प्राण का महत्व अत्यधिक माना गया है । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने कहा हैः " प्राणवायु ही हमारा उपास्य है ।" एक अन्य मौके पर उन्होने कहा था किः " प्राणमय गुरु सदैव, सर्वत्र, सहज में , अभ्यास से जाने जाते है, देखे जाते हैं और उनसे शक्रगामी फल प्राप्त किये जा सकते हैं । गुरु देह नहीं हैं, प्राण हैं ।"
संत, महात्मा, अघोरेश्वर आदि ने कहीं कहीं प्राण की त्रिविध गति की अत्यंत संक्षेप में चर्चा की है । एक बाह्य और आभ्यन्तरिक गति, या सामान्य श्वास प्रश्वास । दूसरी अधः ऊर्ध्व गति या शरीर के नीचे से हृदय की ओर गति । तीसरी हृदय से ब्रह्मरंध्र गति । यह तीसरी गति अत्यंत रहस्यमय है ।इस गति का परिमाण ३६ अंगुल बताया गया है । योगी के लिये इस गति का अधिकारी होना श्रेष्ठ है ।
प्राणायाम स्वयमेव नहीं करना चाहिये । किञ्चित व्यतिक्रम होने से रोग होने की सम्भावना होती है ।
क्रमशः
आज के समय तो बाबा रामदेव सबसे अच्छा प्राणायाम करवा रहे हैं हमारे आस-पास ही कई लोग लाभ प्राप्त कर चुके हैं. वह आसानी से समझ आ जाता है और किया भी जा सकता है.
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