मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल

अघोरपथ के पथिक, सिद्ध, महात्मा, संत,अवधूत,अघोरेश्वर जिन स्थलों में रहकर साधना किये हैं , तप किये हैं, वे स्थल जाग्रत अवस्था में आज भी साधकों को साधना में नई उँचाइयाँ प्राप्त करने में सहयोगी हो रहे हैं ।  इन स्थलों में उच्च स्तर के साधकों को सिद्ध, अवधूत, अघोरेश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन , मार्गदर्शन भी प्राप्त हो जाया करता  है । हम यहाँ कतिपय ऐसे ही स्थलों की चर्चा करेंगे ।

१, गिरनार

 गुजरात राज्य में अहमदाबाद से लगभग ३२७ किलोमीटर की दूरी पर अपने सफेद सिंहों के लिये गीर के जगत प्रसिद्ध अभयारण्य के पार्श्व में  एक नगर बसा है,  नाम है जूनागढ़ । इस शहर के आसपास से शुरु होकर पहाड़ों की एक श्रृँखला दूर तक चली गई है । इसी पर्वत श्रृखला का नाम ही गिरनार पर्वत है । इस पर्वत श्रृँखला का सबसे उँचा पर्वत जूनागढ़ शहर से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है । इस पर्वत की तीन चोटियाँ हैं । इन तीनों में से सबसे उँची चोटी पर भगवान दत्तात्रेय जी का एक छोटा सा मन्दिर है, जिसके अंदर भगवान दत्तात्रेय जी की चरणपादुका एवं कमण्डलु तीर्थ स्थापित हैं । दूसरे शिखर का नाम बाबा गोरखनाथ के नाम है । कहा जाता है यहाँ बाबा गोरखनाथ जी ने बहुत काल तक तप किया था । इन दोनो शिखर के बीच में एक तीसरा शिखर है जो अघोरी टेकड़ी कहलाता है । इसकी चोटी में एक धूनि हमेशा प्रज्वलित रहती है, और यहाँ अनेक औघड़ साधु गुप्त रुप से तपस्या रत रहते हैं ।

गिरनार की प्रसिद्धि के तीन कारक गिनाए जाते हैं ।

पहला, भगवान दत्तात्रेय जी का कमण्डलु तीर्थ । भगवान दत्तात्रेय भगवान सदाशिव के पश्चात अघोरपथ के अन्यतम आचार्य हो गये हैं । उन्होने अपने तपोबल से गिरनार को उर्जावान बना दिया है । इस स्थल पर साधकों को सरलता से सिद्धि हस्तगत होती है । कहा तो यह भी जाता है कि जो योग्य साधक होते हैं, उन्हें भगवान दत्तात्रेय यहाँ पर प्रत्यक्ष दर्शन देकर कृतार्थ भी करते हैं ।

दूसरा, गिरनार पर्वत के मध्य में स्थित जैन मन्दिर । लगभग ५५०० सिढ़ियाँ चढ़ने पर यह स्थान आता है । यहाँ पर कई जैन मन्दिर है । इन मन्दिरों का निर्माण बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी में हुआ था । इसी स्थान पर जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर बाबा नेमीनाथ जी परमसत्य को उपलब्ध हुए थे । इस स्थल से जैन धर्म के उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लीनाथ जी का नाम भी जोड़ा जाता है । कोई कोई विद्वतजन मल्लीनाथ जी को स्त्री भी मानते हैं । सत्य चाहे जो हो मल्लीनाथ जी तिर्थंकर थे इसमें कोई संदेह नहीं है । इस प्रकार गिरनार जैन धर्मावलम्बियों के लिये भी तीर्थ है, और बड़ी संख्या में जैन तीर्थयात्री यहाँ आते भी रहते हैं ।

तीसरा, जैन मन्दिर से और ऊपर अम्बा माता का मन्दिर अवस्थित है । यह मन्दिर भी पावन गिरनार पर्वत की प्रसिद्धि का एक कारण है । यह एक जाग्रत स्थान है । वर्षभर तीर्थयात्री यहाँ माता के दर्शन के लिये आते रहते हैं ।

श्री सर्वेश्वरी समूह वाराणसी द्वारा प्रकाशित "औघड़ राम कीना कथा " ग्रँथ में अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी का जूनागढ़ , गिरनार प्रवास उल्लिखित है । कथा कुछ इस प्रकार आगे बढ़ती हैः

"महाराज श्री कीनाराम जी जब जूनागढ़ राज्य में पदार्पण किये, उन्होने कमण्डलु कुण्ड, अघोरी शिला पर बैठे हुए सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी को बड़े वीभत्स रुप में माँस का एक बड़ा सा टुकड़ा लिये हुए देखा । कीनाराम जी को इससे थोड़ी घृणा हुई । उसी माँस का एक टुकड़ा दाँतों से काटकर सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी ने महाराज श्री कीनाराम जी को दिया । उसे खाते ही महाराज श्री कीनाराम जी की रही सही शंका और घृणा भी जाती रही ।
एक बार अघोरी का रुप धारण किए हूए सिद्धेश्वर दत्तात्रेय और महाराज श्री कीनाराम जी एक ही साथ गिरनार पर्वत पर बैठे हुए थे । वहाँ से उन्होने दिल्ली में घोड़े पर जाते हुए बादशाह का दुशाला गिरते हुए देखा । सिद्धेस्वर दत्तात्रेय जी ने बाबा कीनाराम जी से कहाः " देखते नहीं हो ? दुशाला घोड़े से गिर गया है । " महाराज श्री कीनाराम जी ने कहाः " वजीर लोग दुशाला दे रहे हैं । घोड़ा काला है । बादशाह अपने महल को जा रहे हैं ।" इस पर वीभत्स रुप धारण किये हुये सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी ने कहा, अब क्या देखते हो? अब क्या गिरनार में बैठे हो?  जाओ।  प्राणियों का कल्याण करो । उनमें जो क्षोभ, मोह, ईर्ष्या और घृणा है उसे तुम दूर करो । तुम एक अँश से इसी मध्य शिखर पर विराजोगे ।" तभी से गिरनार पर्वत का मध्य शिखर " अघोरी टेकड़ी के नाम से विख्यात है । यह भी विख्यात है कि दत्तात्रेय जब गोरखनाथ की ओर चीलम बढ़ाते हैं तो औघड़ बीच में रोककर पी लेते हैं ।

" दत्त गोरख की एक ही माया, बीच में औघड़ आन समाया ।"
क्रमशः

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