अघोरपथ में यह एक अत्यंत ही गोपनीय साधना है । अवधूत, अघोरेश्वर समय काल पाकर इस साधना को करते हैं । संभव है प्रकृति विजय के क्रम में इस साधन प्रणाली का सहारा लिया जाता हो । इसके विषय में गुरु और अधिकारी शिष्य के अलावा अन्य व्यक्ति को कुछ भी ज्ञान होना संभव नहीं है, क्योंकि साधना काल में अन्य व्यक्ति की उपस्थिति वाँछनीय नहीं होती, वरन् व्यवधान ही माना जाता है । श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा प्रकाशित साहित्य में एक स्थान पर अति सामान्य ढ़ंग से इस साधना का विवरण दिया गया है । विवरण भी इतना अल्प है कि हम इसे साधना की ओर इँगित करना ही कह सकते हैं । वैसे तो जैसा कि हम पूर्व में कह आये हैं अघोर साधना गुरुमुखी साधना है, परन्तु सामान्य जानकारी के लिये उक्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है ।
" एक बार अघोरेश्वर भगवान राम जी छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में स्थित सोगडा आश्रम में निवास कर रहे थे । उनका शिष्य मुड़िया साधु वहीं अपनी कुटी में रहकर बाबा की सेवा में लीन था । बाबा की शिष्या योगिनी मेघमाला अपने गुरु के दर्शन के लिये आई हुई थीं ।
एक दिन अघोरेश्वर चाँदनी रात के शून्यायतन में वहाँ की पर्वताट्टालिका में चट्टान पर ध्यानस्थ बैठे थे । योगिनी मेघमाला तथा मुड़िया साधु उनके समक्ष उपस्थित होकर साष्टाँग प्रणाम, अभिवादन किये और सत्संग के लिये चरणों में बैठ गये ।
बाबा की आज्ञा पाकर योगिनी ने मुड़िया साधु की ओर इशारा करते हुए निवेदन कियाः " गुरुदेव, कल रात्रि में जब मैं टहलने के क्रम में इनकी कुटी के पास से गुजरी तो देखी कुटी के भीतर इनके शरीर के सब अंग अलग अलग पड़े हैं । कटि भाग अलग है, वक्षस्थल अलग है, बाहें अलग हैं, पाँव अलग हैं । मुझे शंका हुई कि किसी क्रूरकर्मी ने हमारे इन गुरुभाई मुड़िया साधु के शरीर को काटकर , उनके अंगों को अलग अलग कर दिया है ।
इनकी कुटी झंझरीदार है, उसमें से भीतर का दृश्य थोड़ा बहुत दिख जाता है ।
मैं बहुत भयभीत हो गई और तीव्रगति से आपके कुटी के पास गई तो देखा कि कुटी का द्वार बन्द है । कुछ उपाय न सूझ रहा था । मैं पुनः इनकी कुटी की परिधि में लौट आई । मेरी घबराहट इतनी बढ़ गई थी कि मैं एकाएक जोर से चिल्ला उठी, परम्मा ! परम्मा! यह क्या हुआ ? मेरी आवाज को सुनते ही मैंने देखा कि हमारे ये मुड़िया गुरुभाई स्वस्थ शरीर आसनस्थ बैठे हुये हैं । मेरे बार बार पूछने पर भी इन्होंने कुछ नहीं बतलाया । गुरुदेव क्या ये मेरा भ्रम था या सत्य था ?
बाबा ने पूछाः " मेघमाले ! तुमने वहाँ रक्त भी देखा था ?
जब मेघमाला ने कहा कि उसने रक्त नहीं देखा था, तब बाबा जी ने कहा किः " उस स्थिति में आश्चर्य की क्या बात है ? औघड़, अघोरेश्वर लोग, जब अनुकूल स्थिति पाते हैं तो दिब्य संकल्पों के द्वारा भाव भावनाओं से रहित अपनी कुटी में आसनस्थ हो इस क्रिया को भी करते हैं । जो कुछ इसने किया है, वह क्रिया और कला दोनों है । यह कोई बिद्या नहीं है, अष्टांग अभ्यास है ।"
हमने इस साधना, क्रिया, अभ्यास, जैसा कि अघोरेश्वर जी ने बतलाया है, का संकेत शिरडी वाले सांई राम जी के लीला चरित में भी पाया है । वे भी अष्टाँग साधना किया करते थे । उन्हें ऐसा करते साधुओं की एक टोली ने देखा था, जो रात्री के अंधकार में उन्हें नुकसान पहुँचाने की नियत से द्वारका माई में प्रवेश किया था । निश्चय ही वे भी इस साधना, अभ्यास में पारंगत थे । उनके विषय में इस लेखक को ज्यादा जानकारी तो नहीं है, लेकिन उनके नाम में राम लगना तथा औघड़ों के गोप्य साधना पद्धतियों का अनुशरण करना, पारंगत होना इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि शिरडी वाले सांई राम जी कीनारामी परम्परा के साधु थे ।
औघडों में और भी अनेकों गोपनीय साधनाओं, क्रियाओं का प्रचलन है, जिनसे वे शक्तिमान बनते हैं तथा समाज और देश का कल्याण करते हैं ।
क्रमशः
जानकारीपूर्ण.
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