प्रकृति के अवयव गुणों के भीतर रचित हैं । गुण तीन हैं । १, सत्वगुण २, रजोगुण ३, तमोगुण । गुण विभाग से यह सृष्टि है अतः सर्वत्र तीनों गुण विद्यमान हैं । जिस गुण की विद्यमानता जहाँ अधिक परिमाण में होती है वहाँ उसका प्रभाव सहज दृष्टिगोचर होता है, बाकी दो गुण रहते तो हैं परन्तु गौण रूप से । प्रभावहीन या अल्प प्रभाववान । सत्वगुण प्रभावान्वित स्थलों पर गुण प्रभाव के चलते व्यक्ति का हृदय, देह, मन आदि शुद्ध हो जाता है । ऐसे स्थलों को तीर्थ कहते हैं ।
कुछ स्थान स्वाभाविक सत्व गुण प्रधान हैं, जैसे कि " वाराणसी, तीर्थ राज प्रयाग, पुरी, आदि" । जिन स्थलों पर ॠषि लोग तपस्या कर चुके हैं, जहाँ साधकों ने उच्चतर शक्ति आहरित किया है, जहाँ पर सन्त, महापुरुष, अघोरेश्वर उपदेश देते रहे हैं, ज्ञान संचार या दीक्षा संस्कार करते रहे हैं , सिद्ध अवस्था या परमतत्व को प्राप्त कर लिया है, किसी महापुरुष का जन्म या निर्वाण हुआ है, ऐसे सभी स्थल उक्त निमित्त के कारण सत्वगुण प्रधान हो गये हैं । जिन लोगों में शक्ति अनुभव की क्षमता है, उन स्थलों में जाकर उन्मुक्त भाव से बैठते हैं तो स्पन्दन होता है, क्रियाएँ होती हैं, मन उर्घ्वगतिमान होता है । ये सभी स्थल भी तीर्थ हैं ।
उपरोक्त तीर्थ स्थावर तीर्थ कहलाते हैं । इनके अलावा दो प्रकार के तीर्थ और होते हैं । वे हैं, १, मानस तीर्थ २, जँगम तीर्थ ।
मानस तीर्थ के लिये कहीं जाना आना नहीं पड़ता । ये मनुष्य के मानसिक गुण हैं । ये हैं, सत्य, दया, परोपकार, अहिंसा, क्षमा आदि । इनमें से एक तीर्थ में स्नान कर लेने वाला व्यक्ति भी सिद्ध हो जाता है । महाराज हरिश्चन्द्र ने सत्य की, महाराज शिवि ने त्याग की साधना करके ही परमपद प्राप्त कर लिया था । राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने पूर्व जन्मों में बोधिसत्व रुप में इन्ही मानस तीर्थों की परमिति साधकर दश पारमिताएँ प्राप्त करके बुद्धत्व प्राप्त किया था ।
मनुष्य रुप में जन्म लेकर जिन्होंने त्याग, तपस्या, ज्ञान, विज्ञान, योग, उपासना, भक्ति तथा मानस तीर्थों में अवगाहन कर सिद्ध हो चुके हैं ऐसे समस्त संतों को जँगम तीर्थ कहते हैं । सदगुरु जँगम तीर्थ हैं । ऐसे जँगम तीर्थों से सम्पर्क करने से, सानिध्य में रहने से, मेधा शुद्ध होती है, आत्मा का उन्नयन होता है, मन निर्मल एवं निश्छल होता है । वृत्तियाँ भी सुकोमल होकर सात्विक हो जाती हैं ।
भारतवर्ष में तीर्थ यात्रा और परिभ्रमण का बड़ा महत्व माना गया है ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी ने मानस तीर्थों का अवगाहन अब तक कर चुके थे, उनकी पारमिता भी सिद्ध कर लिया था । अब उन्होंने देश की प्राचीन सन्त परिपाटी का अनुगमन करते हुए समग्र पृथ्वी के स्थावर और जँगम तीर्थों का साक्षात्कार करने का निश्चय किया । वैसे तो साधना काल में ही आप मुख्य मुख्य तीर्थों की यात्रा कर चुके थे । कभी भी वे एक जगह स्थायी निवास नहीं करते थे । आगे बढ़ते जाना उनके स्वभाव में था ।
२१ सितम्बर सन् १९६१ ई० को श्री सर्वेश्वरी समूह की स्थापना हो चुकी थी । बाबा का तीर्थाटन चित्रकूट यात्रा से शुरु हो चुका था । सन् १९६२ ई० के मध्य तक औघड़ भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम, पड़ाव वाराणसी में कुष्ठ अस्पताल बाबा का निवास बन गया । बाबा ने पड़ाव में निवास करना शुरु भी कर दिया । आनेवाले भक्तों श्रद्धालुओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी ।
चित्रकूट यात्रा
इस यात्रा में कालिंजर की भैरवी के आग्रह पर घोरा देवी के मन्दिर में एक अनुष्ठान सम्पन्न हुआ था । इस अनुष्ठान में अघोरेश्वर भगवान राम जी के साथ अघोराचार्य श्री सोमेश्वर राम जी, भरतमिलाप के महन्थ तथा भैरवी ने सक्रिय भूमिका का निर्वहन किया था । चक्रार्चन के समय आकाशगामिनी भैरवियाँ भी शामिल हुईं थीं ।
बाबा की यह यात्रा एक सप्ताह तक चली ।
नेपाल यात्रा
सन् १९६८ ई० के फागुन मास मे शिवरात्री के समय यह यात्रा हुई थी । बाबा की यह यात्रा इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि आज जो श्री परमेश्वरी सेवा केन्द्र, काठमान्डु, श्री माँ गुरु नारी समूह, काठमान्डु आदि देखते हैं उसका बीजारोपण इसी यात्रा के द्वारा हुआ था ।
अवधूत सिंह शावक राम
कहा जाता है कि अघोरेश्वर भगवान राम जी के प्रथम सन्यासी शिष्य होने का गौरव औघड़ सिंह शावक राम जी को ही है । आपका जन्म बिहार राज्य में भोजपुर जनपद के पाथर नामक गाँव में जगत प्रसिद्ध महाराज बिक्रमादित्य के कुल में सन् १९२१ ई० को हुआ था । आप कोलकाता विश्वविद्यालय के स्नातक थे । आप गुरु अघोरेश्वर भगवान राम जी से भेंट के पहले विभिन्न जागतिक प्रश्नों के समाधान के लिये हिमालय की उपत्यकाओं में स्थित विभिन्न प्रदेशों की अनेक बार यात्रा कर चुके थे । इन यात्राओं में अनेक साधु, सन्त महात्मा से हुई भेंट आपको आपके प्रश्नो का उत्तर नहीं दिला सकी । आप थक हारकर घर बैठ गये ।
सन् १९६६ ई० में आपको सदप्रेरणा हुई और आप अघोरेश्वर भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम , पड़ाव , वाराणसी पहुँच गये । आश्रम के मन्दिर में भगवती की आराधना करते हुए आपको आश्चर्यजनक अनुभूति हुई । आपने निश्चय कर लिया कि अपने पिछले जीवन को विराम देकर गुरु चरणों में शरण पायेंगे । बाबा की कृपा हुई और कुछ ही समय के पश्चात आपका दीक्षा संस्कार हो गया ।
कुछ काल तक आप गुरु चरणों में विधिवत अघोर साधना बिषयक शिक्षा ग्रहण करते रहे, फिर गुरु ने आपको आदि आश्रम हरिहरपुर भेज दिया । आप हरिहर आश्रम में दस वर्षों तक रहे । आपने अपनी समस्त साधना, अनुष्ठान यहीं रहकर पूर्ण किया । साधना की अवधि बीत जाने के पश्चात आपको गुरु ने मुक्त कर दिया । आप यात्रा पर निकल पड़े ।
आपने सन् १९७७ ई० में दिलदारनगर , गाजीपुर में गिरनार आश्रम की स्थापना कर " अघोर सेवा मण्डल " नामक एक संस्था बनाया । इसके पश्चात आपने अनेक जगहों पर आश्रम, कुटिया का निर्माण कराया । अघोर सेवा मण्डल प्राकृतिक विपदा के समय सेवा का उत्कृष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है ।
शावक बाबा को सदैव नेपाल आकर्षित करता रहा है । उन्होने अनेक बार नेपाल की यात्रा की थी । नेपाल के आश्रमों का निर्माण की प्रेरणा आपने ही दी ।
अवधूत सिंह शावक राम जी ने अपना अँतिम समय मसूरी , हिमाचल प्रदेश में निर्मित " हिमालय की गोद" आश्रम में बिताया । ११ सितम्बर सन् २००२ ई० को आपने शिवलोक गमन किया ।
क्रमशः
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