अघोर वचन - 3
" मन के चलते भोगों का सुख चिरस्थायी नहीं होता । क्षणिक है और क्षणिक सुख में दुःख ही दुःख भरा हुआ है । हम सीमित रहें । हर परिस्थिति में अपनी खुशियों को ढ़ूढ़ें । मन की गुलामी की बेड़ी से छूटना मुश्किल है । सबकी बेड़ी से छूटा जा सकता है लेकिन मन की बेड़ी से गुलाम बना हुआ व्यक्ति हर जगह मार खाता है ।"
०००
मन बड़ा वेगवान है । विचार, कल्पनाओं, की धारायें प्रतिपल मन को जाने कहाँ कहाँ बहा ले जाती रहती हैं । स्थिरता इसके स्वभाव में ही नहीं है । मन इन्द्रियों को नियँत्रण में लेकर भोगों का सुख लेता है । इन्द्रियों की सीमा है । वे उसके बाद अशक्त हो जाती हैं । उनमें बिरूपता आ सकती है, अक्षमता आ सकती है , परन्तु मन की कोई सीमा नहीं होती । शरीर के बृद्ध हो जाने, शिथिल हो जाने, अशक्त हो जाने के बाद भी मन नित नवीन बना रहता है । वह शरीर की शिथिलता, अक्षमता की उपेक्षा कर अपने ढ़ँग से सुखोपभोग की चेष्टा करता है । मन की इसी चँचलता के कारण भोगों का सुख चिरस्थायी नहीं हो पाता । मन सुख भोग के क्षण ही सँयुक्त रहता है । उसके तत्काल बाद वह और कहीं रमने लगता है । इसी कारण सुख भोग क्षणिक बन जाता है । मन बार बार उस सुख को पाना चाहता है और न पाने से दुःख उपजता है ।
दुःख से निवृत्ति के उपाय के रूप में बतलाया गया है कि भोग के लिये मन और शरीर की सीमा होती है, उसे पहचानना होगा । मन और शरीर का संतुलन बिठाकर पहचानी गई सीमा तक सुख भोग करना उचित है । मनुष्य को अपनी परिस्थिति जानकर उसके अनुरूप ढ़लना सीखना चाहिये तथा उसी के भीतर सुख प्राप्ति की आकाँक्षा करनी चाहिये । चेष्टा करनी चाहिये ।
मन जब मनुष्य के इन्द्रियों पर अधिकार कर लेता है एवँ उसे अपने ढ़ँग से सँचालित करने लगता है तब उसे कहते हैं मन की गुलामी की बेड़ी में जकड़ा हुआ । अष्ट पाशों की बेड़ी से मनुष्य छूट सकता है यदि मन उनमें सँयुक्त ना हो । यदि मन ही अनियँत्रित हो गया और मनुष्य मनमाना करने लगा तो ऐसा व्यक्ति का भगवान ही मालिक है । उसका क्या होगा यह कोई नहीं कह सकता ।
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" मन के चलते भोगों का सुख चिरस्थायी नहीं होता । क्षणिक है और क्षणिक सुख में दुःख ही दुःख भरा हुआ है । हम सीमित रहें । हर परिस्थिति में अपनी खुशियों को ढ़ूढ़ें । मन की गुलामी की बेड़ी से छूटना मुश्किल है । सबकी बेड़ी से छूटा जा सकता है लेकिन मन की बेड़ी से गुलाम बना हुआ व्यक्ति हर जगह मार खाता है ।"
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मन बड़ा वेगवान है । विचार, कल्पनाओं, की धारायें प्रतिपल मन को जाने कहाँ कहाँ बहा ले जाती रहती हैं । स्थिरता इसके स्वभाव में ही नहीं है । मन इन्द्रियों को नियँत्रण में लेकर भोगों का सुख लेता है । इन्द्रियों की सीमा है । वे उसके बाद अशक्त हो जाती हैं । उनमें बिरूपता आ सकती है, अक्षमता आ सकती है , परन्तु मन की कोई सीमा नहीं होती । शरीर के बृद्ध हो जाने, शिथिल हो जाने, अशक्त हो जाने के बाद भी मन नित नवीन बना रहता है । वह शरीर की शिथिलता, अक्षमता की उपेक्षा कर अपने ढ़ँग से सुखोपभोग की चेष्टा करता है । मन की इसी चँचलता के कारण भोगों का सुख चिरस्थायी नहीं हो पाता । मन सुख भोग के क्षण ही सँयुक्त रहता है । उसके तत्काल बाद वह और कहीं रमने लगता है । इसी कारण सुख भोग क्षणिक बन जाता है । मन बार बार उस सुख को पाना चाहता है और न पाने से दुःख उपजता है ।
दुःख से निवृत्ति के उपाय के रूप में बतलाया गया है कि भोग के लिये मन और शरीर की सीमा होती है, उसे पहचानना होगा । मन और शरीर का संतुलन बिठाकर पहचानी गई सीमा तक सुख भोग करना उचित है । मनुष्य को अपनी परिस्थिति जानकर उसके अनुरूप ढ़लना सीखना चाहिये तथा उसी के भीतर सुख प्राप्ति की आकाँक्षा करनी चाहिये । चेष्टा करनी चाहिये ।
मन जब मनुष्य के इन्द्रियों पर अधिकार कर लेता है एवँ उसे अपने ढ़ँग से सँचालित करने लगता है तब उसे कहते हैं मन की गुलामी की बेड़ी में जकड़ा हुआ । अष्ट पाशों की बेड़ी से मनुष्य छूट सकता है यदि मन उनमें सँयुक्त ना हो । यदि मन ही अनियँत्रित हो गया और मनुष्य मनमाना करने लगा तो ऐसा व्यक्ति का भगवान ही मालिक है । उसका क्या होगा यह कोई नहीं कह सकता ।
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