मंगलवार, अप्रैल 14, 2015

अघोर वचन - 4

" हम लोग जो स्वर्ग और नर्क इत्यादिक में जो बाँटते हैं और कामना करते हैं कि हमें वह मिलेगा, तो स्वर्ग कोई दूसरी चीज नहीं है जो शरीर के बगैर भोगा जा सकता है । शरीर के बगैर स्वर्ग क्या करेगा ? सत्कर्म ही स्वर्ग का स्वरूप है । कर्म शरीर के माध्यम से होते हैं । जब व्यक्ति अच्छे कर्म करता है तो वह नर से नारायण का पद प्राप्त कर लेता है । परन्तु यदि नर रहा और नर्क के कीड़े मकोड़ों की तरह जीवन बिताता रहा तो कीड़े मकोड़े की तरह जन्म लेकर मर जायेगा ।"
                                                                 ०००

धरती पर के सभी धर्मों के आचार्यों ने स्वर्ग और नर्क का बखान किया है । नाम कुछ भी हो चीज वही है । इन दोनों को मनुष्य की घुट्टी में ऐसे पिला दिया गया है कि मनुष्य स्वर्ग की कामना करता है । वहाँ जाना चाहता है । वहाँ के भोगों को भोगना चाहता है । नर्क कोई भी जाना नहीं चाहता ।

अघोरेश्वर किसी वैज्ञानिक की तरह स्थिति को विश्लेषित करते हैं और कहते हैं कि मानव शरीर कर्म का आधार है । शरीर के बिना कोई भी कर्म या भोग सँभव ही नहीं है । इसे मानव के लाखों वर्षों की विकास यात्रा में देखा भी जा चुका है कि मनुष्य जब तक जीवित है, यानि कि शरीर है, तभी तक कर्म है, धर्म है, काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, सुख है, दुःख है । शरीर त्यागने के बाद क्या कहाँ जाता है किसी ने न देखा है और न कोई लौट आकर बताया है, क्योंकि मृत्यु के तत्काल बाद शरीर के तत्वों का विघटन शुरू हो जाता है, जिसे न तो रोका जा सकता है और न ही उलटाया ही जा सकता है ।

मानव के कर्म को नैतिकता के प्रतिमानों, सामाजिक नियमों, विकास के मानदन्डों के आधार पर सत्कर्म और दुष्कर्म इन दो श्रेणियों मे बाँट दिया गया है । जीवन कर्म बन्धन से बँधा हुआ है । शरीर और मन के सभी हलचल यहाँ तक कि स्वाँस भी कर्म के अन्तर्गत गिने जाते हैं । मनुष्य के वे कर्म जिनसे उसे सुख की प्राप्ति होती है एवँ अन्य किसी को दुःख नहीं पहुँचता, जिनसे स्वयँ सुखी होता है और अन्य को भी सुख मिलता है, जिनसे अन्य को सुख मिलता है और अपनी हानि नहीं होती या कभी कभी हानि हो भी जाती है, सत्कर्म कहलाते हैं । इस प्रकार के कर्मों से मनुष्य को सुख तो मिलता ही मिलता है, उसे अन्यों से प्रेम, श्रद्धा, विश्वास तथा आदर मिलता है । यही स्वर्गोपम उपलब्धि है । स्वर्ग लाभ है । स्वर्ग में रहना है । इसके विपरीत के सारे कर्म व्यक्ति को हीन अवस्था की ओर ले जाते हैं और उसका जीवन कीड़े मकोड़े की भाँति कहा जाता है ।
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