अघोर वचन -11
" यह हाड़ मांस की देह गुरु नहीं है गुरू वह पीठ है जिसके द्वारा व्यक्त किया हुआ विचार तुम में परिपक्वता का पूरक होगा । यदि तुम उसे पालन करते रहोगे, तो गुरूत्व को जानने में सर्व प्रकार से समर्थ होओगे । गुरू तुम्हारे विचार की परिपक्वता, निष्ठा की परिपक्वता, विश्वास की परिपक्वता हैं ।"
०००
अघोर पथ में गुरु का स्थान सर्वोपरी है । अध्यात्म के अन्य क्षेत्रों में सामान्यतः शिष्य गुरु बनाता है, लेकिन अघोर पथ में ऐसा नहीं है । श्रद्धालु का, भक्त का, औघड़, अवधूत से निवेदन करने से दीक्षा, संस्कार हो जावे यह अवश्यक नहीं है । यहाँ गुरु शिष्य को चुनता है । हमें यह प्रक्रिया अन्य सिद्धों के मामले में भी दिखाई देती है । पूर्व में लाहिड़ी महाशय का चुनाव उनके गुरु बाबा जी महाराज ने किया था और अपने पास बुलाकर उन्हें दीक्षा देकर साधना पथ पर अग्रसर कराया था । स्वामी विवेकानन्द जी का चुनाव रामकृष्ण देव ने किया था । और भी अनेक उदाहरण हैं । स्पष्ठ है कि यह शिष्य के अधिकार की बात है । अनेक जन्मों के संचित सत् संस्कार जब फलीभूत होते हैं तो शिष्य का क्षेत्र, अधिकार, पात्र तैयार हो जाता है और दीक्षादान हेतु गुरु के हृदय में करुणा का संचार हो जाता है । इस प्रकार दीक्षा घटित होती है । शिष्य के अधिकार के अनुसार गुरू उसका संस्कार करते हैं ।
महात्मन रामानन्द जी ने कहा थाः "निगुरा बाभन न भला, गुरुमुख भला चमार ।" यदि चमार गुरुमुख था तो रसोई से लेकर पूजा तक और रामानन्द जी के सानिध्य में उसको वही आदर का स्थान प्राप्त था जो किसी भी उच्च वर्ण वाले को था ।
हम देखते हैं कि दीक्षा दान गुरू (सशरीर) करते हैं । गुरू के मुखारबिन्द से निर्देश, ज्ञान का प्रकाश, विचार आदि निनादित होते हैं । इन सब के कारण गुरू को सशरीर हम पूजते हैं । श्रद्धा करते हैं । आदर देते हैं और शरीर के बिना हम उनकी कल्पना भी नहीं करते ।
अघोरेश्वर हाड़, मांस का देह, जो कि नश्वर है, गुण धर्म से बंधा हुआ है, को गुरू नहीं मानने के लिये कहते हैं । गुरु का चिन्मय रूप ही यथार्थ में गुरू है । गुरू की आत्म सत्ता से ही शिष्य को दीक्षा दान प्राप्त होता है, आगे का मार्ग तय होता है, अँगुली पकड़ कर चलाया जाता है और मानव जीवन के लक्ष्य मोक्ष को हस्तगत कराया जाता है । वे कहते हैं कि शरीर नहीं गुरू तत्व को अपनाओ । उनके विचार को हृदयंगम करो । उनके द्वारा बतलाये गये मार्ग में चलो । उन्होने जिस समय, जिस ढ़ँग से, जो कार्य सम्पन्न किया है उसका अनुशरण करो । यही सब आपको चैतन्य करेगा । गुरूपीठ का पहचान करायेगा एवँ सब प्रकार की वाँक्षा को पूर्ण करेगा ।
जब मनुष्य गुरू तत्व से सँयुक्त हो जाता है फिर उसे मँत्र, क्रिया, देवता किसी की भी आवश्यकता नहीं रह जाती । वह सर्व समर्थ, परिपक्व एवँ चिन्मय हो जाता है ।
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" यह हाड़ मांस की देह गुरु नहीं है गुरू वह पीठ है जिसके द्वारा व्यक्त किया हुआ विचार तुम में परिपक्वता का पूरक होगा । यदि तुम उसे पालन करते रहोगे, तो गुरूत्व को जानने में सर्व प्रकार से समर्थ होओगे । गुरू तुम्हारे विचार की परिपक्वता, निष्ठा की परिपक्वता, विश्वास की परिपक्वता हैं ।"
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अघोर पथ में गुरु का स्थान सर्वोपरी है । अध्यात्म के अन्य क्षेत्रों में सामान्यतः शिष्य गुरु बनाता है, लेकिन अघोर पथ में ऐसा नहीं है । श्रद्धालु का, भक्त का, औघड़, अवधूत से निवेदन करने से दीक्षा, संस्कार हो जावे यह अवश्यक नहीं है । यहाँ गुरु शिष्य को चुनता है । हमें यह प्रक्रिया अन्य सिद्धों के मामले में भी दिखाई देती है । पूर्व में लाहिड़ी महाशय का चुनाव उनके गुरु बाबा जी महाराज ने किया था और अपने पास बुलाकर उन्हें दीक्षा देकर साधना पथ पर अग्रसर कराया था । स्वामी विवेकानन्द जी का चुनाव रामकृष्ण देव ने किया था । और भी अनेक उदाहरण हैं । स्पष्ठ है कि यह शिष्य के अधिकार की बात है । अनेक जन्मों के संचित सत् संस्कार जब फलीभूत होते हैं तो शिष्य का क्षेत्र, अधिकार, पात्र तैयार हो जाता है और दीक्षादान हेतु गुरु के हृदय में करुणा का संचार हो जाता है । इस प्रकार दीक्षा घटित होती है । शिष्य के अधिकार के अनुसार गुरू उसका संस्कार करते हैं ।
महात्मन रामानन्द जी ने कहा थाः "निगुरा बाभन न भला, गुरुमुख भला चमार ।" यदि चमार गुरुमुख था तो रसोई से लेकर पूजा तक और रामानन्द जी के सानिध्य में उसको वही आदर का स्थान प्राप्त था जो किसी भी उच्च वर्ण वाले को था ।
हम देखते हैं कि दीक्षा दान गुरू (सशरीर) करते हैं । गुरू के मुखारबिन्द से निर्देश, ज्ञान का प्रकाश, विचार आदि निनादित होते हैं । इन सब के कारण गुरू को सशरीर हम पूजते हैं । श्रद्धा करते हैं । आदर देते हैं और शरीर के बिना हम उनकी कल्पना भी नहीं करते ।
अघोरेश्वर हाड़, मांस का देह, जो कि नश्वर है, गुण धर्म से बंधा हुआ है, को गुरू नहीं मानने के लिये कहते हैं । गुरु का चिन्मय रूप ही यथार्थ में गुरू है । गुरू की आत्म सत्ता से ही शिष्य को दीक्षा दान प्राप्त होता है, आगे का मार्ग तय होता है, अँगुली पकड़ कर चलाया जाता है और मानव जीवन के लक्ष्य मोक्ष को हस्तगत कराया जाता है । वे कहते हैं कि शरीर नहीं गुरू तत्व को अपनाओ । उनके विचार को हृदयंगम करो । उनके द्वारा बतलाये गये मार्ग में चलो । उन्होने जिस समय, जिस ढ़ँग से, जो कार्य सम्पन्न किया है उसका अनुशरण करो । यही सब आपको चैतन्य करेगा । गुरूपीठ का पहचान करायेगा एवँ सब प्रकार की वाँक्षा को पूर्ण करेगा ।
जब मनुष्य गुरू तत्व से सँयुक्त हो जाता है फिर उसे मँत्र, क्रिया, देवता किसी की भी आवश्यकता नहीं रह जाती । वह सर्व समर्थ, परिपक्व एवँ चिन्मय हो जाता है ।
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