अघोर वचन -12
" जब तक गुरू में श्रद्धा और विश्वास नहीं होता है पूर्ण रूप से, तब तक कोई विद्या भी नहीं फलता फुलता । यह बड़ा मुश्किल है जीवन में । ऐसे अनेक व्यवहार, और विनोद से आप उबकर, आपकी अश्रद्धा भी हो सकता है । जिस समय जिस मँत्र के प्रति ,गुरू के प्रति, देवता के प्रति थोड़ा भी अश्रद्धा हुआ तो वह सारा विद्या का लम्बी आयु बढ़ जाता है । फिर नहीं प्राप्त होता । वह चला जाता है ।"
०००
श्रद्धा और विश्वास सापेक्ष शब्द हैं । आज के युग में गुरू यदि चमत्कार दिखा सकते हैं, लोक लुभावन नौटँकी कर सकते हैं, बड़े बड़े नेताओं, अधिकारियों द्वारा चरण स्पर्ष कराते हैं, एक बड़े जन सैलाब को अपने पीछे चलाते हैं तो हमारी श्रद्धा बढ़ती जाती है । गुरू यदि आशीर्वाद देकर हमारा रूका हुआ कार्य करा देते हैं, पदोन्नति, स्थानान्तरण, व्यवसाय में बृद्धि, लड़की की शादी जैसे कार्य आसान करते रहते हैं तो उन पर हमारा विश्वास दृढ़ होता जाता है । यद्यपि सद्गुरू का इन कार्यों से कोई सम्बन्ध नहीं होता । वह तो शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति का कारक होते हैं । सत्पथ पर चलने के लिये मार्ग दर्शक होते हैं । मोक्ष का सेतु होते हैं ।
गुरू दीक्षादान करते हैं । विद्या प्रदान करते हैं । देवता का परिचय देते हैं । उन्नति की राह बताते हैं । राह के अवरोधों को दूर करते हैं । चूँकि ये कार्य मानसिक या आध्यात्मिक धरातल पर होते हैं शिष्य उन्हें न तो देख पाता है और न जान ही पाता है । उसे तो निष्ठा पूर्वक निर्देशित क्रिया कलापों में रमे रहना होता है । उसे यह भी पता नहीं चलता कि उसकी कितनी उन्नति हुई है । कभी कभी अहँकार के वशीभूत होकर वह अपनी शक्तियों का उपयोग भी करना चाहता है और असफल हो जाता है । ऐसी स्थिति में शिष्य में अश्रद्धा उपजती है । गुरू से प्राप्त विद्या का अभ्यास तो करता है पर बेमन से ।
सँशय या बेमन से किया गया कोई भी कार्य सफल नहीं होता । अघोरेश्वर कहते हैं कि अश्रद्धा के परिणाम स्वरूप गुरू से प्राप्त विद्या के साधन में जो समय, शक्ति लगना था वह बढ़ जाता है । साधक अपने लक्ष्य से न केवल दूर हो जाता है वरन् कभी कभी लक्ष्यभ्रष्ट या मार्ग हीन होकर लक्ष्य को खो देता है । यह स्थिति बड़ी विकट है । साधक में यह अश्रद्धा कब उत्पन्न हो जायेगी नहीं कहा जा सकता । गुरू, मँत्र और देवता इनमें से किसके प्रति अश्रद्धा होगी यह जानकर सतर्क हो पाना कठिन है । इसका एक ही उपाय हो सकता है कि साधक को हर तीन माह में गुरू के चरणों के दर्शन करना चाहिये । सेवा करनी चाहिये और अपनी स्थिति, विचार से उनको अवगत कराकर मार्गदर्शन हेतु निवेदन करना चाहिये । इस बीच गुरू के वचनों का पारायण तथा मनन चिंतन तो चलते ही रहना चाहिये ।
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" जब तक गुरू में श्रद्धा और विश्वास नहीं होता है पूर्ण रूप से, तब तक कोई विद्या भी नहीं फलता फुलता । यह बड़ा मुश्किल है जीवन में । ऐसे अनेक व्यवहार, और विनोद से आप उबकर, आपकी अश्रद्धा भी हो सकता है । जिस समय जिस मँत्र के प्रति ,गुरू के प्रति, देवता के प्रति थोड़ा भी अश्रद्धा हुआ तो वह सारा विद्या का लम्बी आयु बढ़ जाता है । फिर नहीं प्राप्त होता । वह चला जाता है ।"
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श्रद्धा और विश्वास सापेक्ष शब्द हैं । आज के युग में गुरू यदि चमत्कार दिखा सकते हैं, लोक लुभावन नौटँकी कर सकते हैं, बड़े बड़े नेताओं, अधिकारियों द्वारा चरण स्पर्ष कराते हैं, एक बड़े जन सैलाब को अपने पीछे चलाते हैं तो हमारी श्रद्धा बढ़ती जाती है । गुरू यदि आशीर्वाद देकर हमारा रूका हुआ कार्य करा देते हैं, पदोन्नति, स्थानान्तरण, व्यवसाय में बृद्धि, लड़की की शादी जैसे कार्य आसान करते रहते हैं तो उन पर हमारा विश्वास दृढ़ होता जाता है । यद्यपि सद्गुरू का इन कार्यों से कोई सम्बन्ध नहीं होता । वह तो शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति का कारक होते हैं । सत्पथ पर चलने के लिये मार्ग दर्शक होते हैं । मोक्ष का सेतु होते हैं ।
गुरू दीक्षादान करते हैं । विद्या प्रदान करते हैं । देवता का परिचय देते हैं । उन्नति की राह बताते हैं । राह के अवरोधों को दूर करते हैं । चूँकि ये कार्य मानसिक या आध्यात्मिक धरातल पर होते हैं शिष्य उन्हें न तो देख पाता है और न जान ही पाता है । उसे तो निष्ठा पूर्वक निर्देशित क्रिया कलापों में रमे रहना होता है । उसे यह भी पता नहीं चलता कि उसकी कितनी उन्नति हुई है । कभी कभी अहँकार के वशीभूत होकर वह अपनी शक्तियों का उपयोग भी करना चाहता है और असफल हो जाता है । ऐसी स्थिति में शिष्य में अश्रद्धा उपजती है । गुरू से प्राप्त विद्या का अभ्यास तो करता है पर बेमन से ।
सँशय या बेमन से किया गया कोई भी कार्य सफल नहीं होता । अघोरेश्वर कहते हैं कि अश्रद्धा के परिणाम स्वरूप गुरू से प्राप्त विद्या के साधन में जो समय, शक्ति लगना था वह बढ़ जाता है । साधक अपने लक्ष्य से न केवल दूर हो जाता है वरन् कभी कभी लक्ष्यभ्रष्ट या मार्ग हीन होकर लक्ष्य को खो देता है । यह स्थिति बड़ी विकट है । साधक में यह अश्रद्धा कब उत्पन्न हो जायेगी नहीं कहा जा सकता । गुरू, मँत्र और देवता इनमें से किसके प्रति अश्रद्धा होगी यह जानकर सतर्क हो पाना कठिन है । इसका एक ही उपाय हो सकता है कि साधक को हर तीन माह में गुरू के चरणों के दर्शन करना चाहिये । सेवा करनी चाहिये और अपनी स्थिति, विचार से उनको अवगत कराकर मार्गदर्शन हेतु निवेदन करना चाहिये । इस बीच गुरू के वचनों का पारायण तथा मनन चिंतन तो चलते ही रहना चाहिये ।
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