मंगलवार, मई 19, 2015

अघोर वचन - 27

"पाप के हटने ना हटने से, पुन्य के उदय होने न होने से जीव का उद्धार हो जाय सो समझ में नहीं आता । पूर्णतः मान्य नहीं होता । पूर्णतः मान तो तभी होता है कि उस अज्ञात के साथ वार्तालाप हो, पहुँचें, मिलें, मिलने के बाद देखा देखी हो, देखा देखी के बाद वह के पास हम बैठें और वह मुझे बैठावे, और इसको क्या कहते हैं... उपासना । उप्य आसन ।"
                                           ०००

तीन बातें हैं । पाप, पुन्य और उद्धार । संसार के सभी धर्मों में किसी ना किसी नाम, रूप से ये तीनों बातें पाई जाती हैं । कहा जाता है कि पापी का उद्धार नहीं होता, उद्धार के लिये पुन्यात्मा होना जरूरी है । अब यह कौन बताये कि मनुष्य का उद्धार कैसे होगा, क्या करना होगा, पाप कैसे हटे, पुन्य कैसे उदय हो, आदि आदि । इसका उत्तर तो उद्धारकर्ता ही दे सकता है और उद्धारकर्ता है वह अज्ञात, परमेश्वर ।

अघोरेश्वर साफ साफ कहते हैं कि पाप और पुन्य का मनुष्य के उद्धार में कोई सरोकार नहीं है । पाप न करने भर से किसी का उद्धार होने से रहा । पुन्य एकत्र करके कोई उद्धार हो लेगा सही नहीं लगता क्योंकि दोनों ही स्थितियों में उद्धारकर्ता वह ईश्वर अनुपस्थित है । उद्धार करना नहीं करना उसी का निर्णय है ।

वचन कहता है कि मनुष्य का उद्धार तभी होता है जब वह उस अज्ञात, जो उद्धारकर्ता है, से मिले । अज्ञात से कैसे मिलें ? उपासना से । हमारी उपासना ऐसी हो कि उनके आसन के समीप हमारा भी आसन लगे और उन्हें हम साकार देखें, बात करें, उनके पास बैठें आदि आदि । परन्तु मनुष्य के लिये उस अज्ञात से ऐसा होना सम्भव नहीं दिखता । फिर क्या हो?

इसके लिये दो वाक्य की एक कविता कही गई है । " भजन तजन के मध्य में हम करें विश्राम । हमारी भजन राम करें, हम करें आराम ।" अर्थात उपासना के मध्य में ऐसी स्थिति बने कि अपने में ना कुछ उदय हो ना अस्त । स्वयँ को खो दें यानि विश्राँति में चले जाँय और हमारी जो उपासना है, भजन है वह करे हमारा आत्माराम । अब बात स्पष्ठ हो गई कि जब मनुष्य का आत्माराम भजन करेंगे तो वह अज्ञात अज्ञात नहीं रह जायेगा । और उस मनुष्य का उद्धार निसंदेह होना है ।
                                                                  ०००
  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें