अघोर वचन - 26
" शुद्ध मन जिन कार्यों की अनुमति नहीं देता, उन्हें ऐसे कार्यों के लिये मत मनाओ, मत उकसाओ, अन्यथा वह बोझिल एवँ दुस्सह हो उठेगा । अनुचित कार्यों के लिये मन पर दबाव डालने से मस्तिष्क पर कुप्रभाव पड़ेगा और कंठ कुण्ठित हो जायेगा ।"
०००
विकार रहित मन शुद्ध मन कहा जायेगा । मन के मुख्यतः चार विकार कहे गये हैं । १, काम २, क्रोध ३, लोभ ४, मोह । मनुष्य का मन इन जैसे अनेक वृत्तियों से मिलकर बना है अतः मन अपनी वृत्तियों से रहित नहीं हो सकता । जब तक मन की ये वृत्तियाँ अपनी स्वाभाविक अवस्था में होती हैं तब तक ये विकार नहीं कहलाती । लेकिन जब मनुष्य काम, क्रोध, लोभ और मोह का दास हो जाता है । मन हर हमेशा इनकी चिन्ता में लगा रहता है, ये अस्वाभाविक रूप से उग्र हो जाते हैं और मनुष्य का सम्पूर्ण अस्तित्व उस वृत्तिमय हो जाता है तब मन शुद्ध नहीं रह जाता अशुद्ध कहा जाता है । ऐसा अशुद्ध हुआ मन मनुष्य को गलत रास्तों की ओर ले जाता है ।
मन की शुद्धि के लिये उससे लड़ने की जरूरत नहीं है । महापुरूषों, संतों ने इसके लिये दो उपाय बताये हैं ।
पहला यह कि हम जागरूक हों । मन के क्रियाकलापों पर दृष्टि रखें । ये वृत्तियाँ जब भी विकार का रूप ग्रहण करने लगें हम इन्हें पहचानें, देखें और विचार करें । इतना ही विकार के शमन के लिये पर्याप्त है ।
दूसरा है मन को किसी लक्ष्य पर टिकाये रखना । इसके लिये अजपा जाप की विधि सर्वोत्तम है, हालाँकि सबके लिये यह सँभव नहीं होता । कई लोग स्वाँस पर मन को टिकाने, गुरू मँत्र का निरँतर जाप करते रहने और सद् वृत्तयों जैसे मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा आदि को बढ़ावा देने की विधि भी बतलाते हैं ।
कोई भी कार्य, चाहे वह गलत हो या सही, को करने का कारण हमारा मन है । यही मन गलत सही का निर्णय भी करता है । हमें रोकता भी है । हमें टोकता भी है । वचन में यही कहा गया है कि जब भी मन रोके, टोके हम उस पर ध्यान दें । सही गलत को परखें । ना कि मन को ही मनाने लग गये । इससे मन जो सूक्ष्म है स्थूल होने लगेगा । बोझिल हो जायेगा । हम भ्रमित हो जायेंगे । हमारा मस्तिष्क इस अवस्था में अस्वाभाविक व्यवहार करने लगेगा जो निश्चय ही हमारे लिये शुभ नहीं हो सकता ।
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" शुद्ध मन जिन कार्यों की अनुमति नहीं देता, उन्हें ऐसे कार्यों के लिये मत मनाओ, मत उकसाओ, अन्यथा वह बोझिल एवँ दुस्सह हो उठेगा । अनुचित कार्यों के लिये मन पर दबाव डालने से मस्तिष्क पर कुप्रभाव पड़ेगा और कंठ कुण्ठित हो जायेगा ।"
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विकार रहित मन शुद्ध मन कहा जायेगा । मन के मुख्यतः चार विकार कहे गये हैं । १, काम २, क्रोध ३, लोभ ४, मोह । मनुष्य का मन इन जैसे अनेक वृत्तियों से मिलकर बना है अतः मन अपनी वृत्तियों से रहित नहीं हो सकता । जब तक मन की ये वृत्तियाँ अपनी स्वाभाविक अवस्था में होती हैं तब तक ये विकार नहीं कहलाती । लेकिन जब मनुष्य काम, क्रोध, लोभ और मोह का दास हो जाता है । मन हर हमेशा इनकी चिन्ता में लगा रहता है, ये अस्वाभाविक रूप से उग्र हो जाते हैं और मनुष्य का सम्पूर्ण अस्तित्व उस वृत्तिमय हो जाता है तब मन शुद्ध नहीं रह जाता अशुद्ध कहा जाता है । ऐसा अशुद्ध हुआ मन मनुष्य को गलत रास्तों की ओर ले जाता है ।
मन की शुद्धि के लिये उससे लड़ने की जरूरत नहीं है । महापुरूषों, संतों ने इसके लिये दो उपाय बताये हैं ।
पहला यह कि हम जागरूक हों । मन के क्रियाकलापों पर दृष्टि रखें । ये वृत्तियाँ जब भी विकार का रूप ग्रहण करने लगें हम इन्हें पहचानें, देखें और विचार करें । इतना ही विकार के शमन के लिये पर्याप्त है ।
दूसरा है मन को किसी लक्ष्य पर टिकाये रखना । इसके लिये अजपा जाप की विधि सर्वोत्तम है, हालाँकि सबके लिये यह सँभव नहीं होता । कई लोग स्वाँस पर मन को टिकाने, गुरू मँत्र का निरँतर जाप करते रहने और सद् वृत्तयों जैसे मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा आदि को बढ़ावा देने की विधि भी बतलाते हैं ।
कोई भी कार्य, चाहे वह गलत हो या सही, को करने का कारण हमारा मन है । यही मन गलत सही का निर्णय भी करता है । हमें रोकता भी है । हमें टोकता भी है । वचन में यही कहा गया है कि जब भी मन रोके, टोके हम उस पर ध्यान दें । सही गलत को परखें । ना कि मन को ही मनाने लग गये । इससे मन जो सूक्ष्म है स्थूल होने लगेगा । बोझिल हो जायेगा । हम भ्रमित हो जायेंगे । हमारा मस्तिष्क इस अवस्था में अस्वाभाविक व्यवहार करने लगेगा जो निश्चय ही हमारे लिये शुभ नहीं हो सकता ।
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