अघोर वचन - 24
" यदि आप विवाहित हैं तो उस एक नारी ब्रह्मचारी के नियम का पालन करें । जब कोई आसक्ति नहीं, उस मातृय को आप जानने लगेंगे तो आप का मन वैसे ही सुगम हो जायेगा । आप जो भी कार्य करेंगे सफलता को प्राप्त करेंगे ।"
०००
अविवाहित, सन्यासी के लिये क्या सभी साधकों के लिये ब्रह्मचर्य पालन करना आवश्यक है । यदि साधक विवाहित है तो उसे एक नारी ब्रह्मचारी के नियम का पालन करना चाहिये । यहाँ तक तो बात सहज लगती है । सरल लगती है । कुछ एक अपवादों को छोड़कर सभी विवाहित कहेंगे कि हाँ वे इस नियम का पालन करते हैं । ये बात कुछ अँशों में सत्य भी है ।
एक नारी ब्रह्मचारी का यह सरल सा नियम उस समय कठिन या असम्भव सा जान पड़ने लगता है जब आसक्ति का प्रश्न उपस्थित होता है । मानव मन के अनेक रँग हैं । इसी संदर्भ का एक छोटा सा वाकया है । युरोप के एक जगत प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ने लिखा है कि उसकी शादी एक चर्च में हुई । उसकी प्रेमिका जिसे वह दिलोजान से चाहता था, उसकी पत्नि बनी । दोनों विवाह के बाद एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले चर्च से घर जाने के लिये निकले । चर्च के गेट से बाहर आते ही उस मनोवैज्ञानिक को एक अत्यँत सुन्दर सी महिला दिखी । वह ठगा सा उसे देखता रह गया । उसने स्पष्ट शब्दों में उस समय की अपनी मनःस्थिति को और अपने इस कृत्य को स्वीकार किया है । यह आसक्ति का ही एक रूप है ।
जब विवाहित साधक एक नारी ब्रह्मचारी के नियम से बँधा होगा, उसके मन में लेस मात्र भी आसक्ति नहीं होगी तब वह मातृय यानिकि मातृ तत्व से अपरिचित नहीं रह सकता । साधक में इस स्थिति के विकास होते होते इतनी निर्मलता, इतनी पवित्रता आ जाती है कि वह फलों से लदी डाली की तरह झुक जाता है । सुगम हो जाता है । सहज हो जाता है ।
साधना पथ के पथिकों के लिये यह किसी सिद्धि से कम महत्व की नहीं है ।
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" यदि आप विवाहित हैं तो उस एक नारी ब्रह्मचारी के नियम का पालन करें । जब कोई आसक्ति नहीं, उस मातृय को आप जानने लगेंगे तो आप का मन वैसे ही सुगम हो जायेगा । आप जो भी कार्य करेंगे सफलता को प्राप्त करेंगे ।"
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अविवाहित, सन्यासी के लिये क्या सभी साधकों के लिये ब्रह्मचर्य पालन करना आवश्यक है । यदि साधक विवाहित है तो उसे एक नारी ब्रह्मचारी के नियम का पालन करना चाहिये । यहाँ तक तो बात सहज लगती है । सरल लगती है । कुछ एक अपवादों को छोड़कर सभी विवाहित कहेंगे कि हाँ वे इस नियम का पालन करते हैं । ये बात कुछ अँशों में सत्य भी है ।
एक नारी ब्रह्मचारी का यह सरल सा नियम उस समय कठिन या असम्भव सा जान पड़ने लगता है जब आसक्ति का प्रश्न उपस्थित होता है । मानव मन के अनेक रँग हैं । इसी संदर्भ का एक छोटा सा वाकया है । युरोप के एक जगत प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ने लिखा है कि उसकी शादी एक चर्च में हुई । उसकी प्रेमिका जिसे वह दिलोजान से चाहता था, उसकी पत्नि बनी । दोनों विवाह के बाद एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले चर्च से घर जाने के लिये निकले । चर्च के गेट से बाहर आते ही उस मनोवैज्ञानिक को एक अत्यँत सुन्दर सी महिला दिखी । वह ठगा सा उसे देखता रह गया । उसने स्पष्ट शब्दों में उस समय की अपनी मनःस्थिति को और अपने इस कृत्य को स्वीकार किया है । यह आसक्ति का ही एक रूप है ।
जब विवाहित साधक एक नारी ब्रह्मचारी के नियम से बँधा होगा, उसके मन में लेस मात्र भी आसक्ति नहीं होगी तब वह मातृय यानिकि मातृ तत्व से अपरिचित नहीं रह सकता । साधक में इस स्थिति के विकास होते होते इतनी निर्मलता, इतनी पवित्रता आ जाती है कि वह फलों से लदी डाली की तरह झुक जाता है । सुगम हो जाता है । सहज हो जाता है ।
साधना पथ के पथिकों के लिये यह किसी सिद्धि से कम महत्व की नहीं है ।
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