शुक्रवार, मई 15, 2015

अघोर वचन - 25

" हम अभ्यन्तर से अपने इस त्रिगुणात्मक स्थिति से अवगत हो जायें और इस पीठ में हम अपने आप को स्थापित कर लेते हैं तो इसी में वह गुरूपीठ है, इसी में वह शक्तिपीठ है और यही हमारी ही आत्मा, हम ही वह सर्वगुण और रूपों में और अच्छे कर्मो की तरफ प्रेरित करती है ।"
                                                       ०००

गुण तीन बतलाये गये हैं, सत्, रज और तम । सत् गुण में सात्विकता, नैतिकता और पवित्रता होती है । रज गुण की राजस प्रकृति होती है । तम गुण में तामसिक प्रकृति यानि नष्ट भ्रष्ट करने की प्रवृत्ति होती है । यह संसार त्रिगुणात्मक कहा गया है । कोई भी गुण बन्धन से अछूता नहीं है । मनुष्य में तीनों ही गुण होते हैं, परन्तु मात्रा की भिन्नता होती है । जिस गुण की प्रधानता होती है शरीर के अवयव भी उसी गुण के अनुरूप ढ़ले होते हैं । जो स्वच्छ मन और निर्मल दृष्टि सम्पन्न हैं उन्हें गुणों की यह मात्रात्मक भिन्नता दिखती है ।

वचन में कहा गया है कि मनुष्य अपने भीतर इन तीन गुणों की मात्रात्मक भिन्नता और उसके प्रभाव को पहचाने । यह नैसर्गिक स्थिति है । ईश्वर प्रदत्त है । पहचान होने पर हम जान सकेंगे कि हममें कौन सा गुण प्रबल है । किस गुण की मात्रा कम है । इससे हम अपने जीवन की वास्तविक दशा और दिशा भी जान सकेंगे । यह वैसा ही है जैसा कि खुद को जानना । पहचानना । यह है अपने भीतर झाँकना । अभ्यँतर में प्रवेश ।

मनुष्य के भीतर के इन गुणों की पहचान हो जाने पर वह एक स्थिति पर पहुँच जाता है । वह स्थिति ही पीठ कहा गया है और स्थापित कर लेने का अर्थ है स्थिति को यथावत रखना । इतनी यात्रा पूर्ण कर लेने के बाद मनुष्य स्वभावतः गुरू तत्व, शक्ति तत्व एवँ आत्म तत्व से परिचित हो जाता है । गुरू तत्व से ज्ञान, शक्ति तत्व से शक्ति तथा आत्म तत्व से निर्मलता, पवित्रता आती है । ऐसे व्यक्ति के कर्म बन्धन धीरे धीरे शिथिल होते जाते हैं और वह साधारण मनुष्य की श्रेणी से उपर उठ जाता है ।
                                                          ०००


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें