अघोर वचन -31
" जगत के किसी भी नाशवान पदार्थ, यहाँ तक कि पार्थिव शरीर तक से जिसको अनभिज्ञता हो जाय उसे ही सहज समाधि, स्वात्मा, अज्ञात और बोधमय चित्त की उपलब्धि होती है । बोधमय चित्त में फिर कोई, किसी का चिंतन नहीं होता । उसमें चित्त ही चित्त का चिंतन करता है । यह अवस्था प्राप्त करने पर इस पार्थिव शरीर में अपने आप कुंठित कंठ से धुन उत्पन्न होने लगती है, तरंगें उत्पन्न होने जगती हैं, इन्द्रियाँ निगृहित हो जाती हैं और मस्तिष्क के शुष्क तंतु जागृत हो उठते हैं ।"
०००
जगत में जितने भी पदार्थ हैं सभी नाशवान हैं । महाप्रलय में यह धरती, ग्रह, नक्षत्र सभी का नाश हो जाता है । मनुष्य अपना शरीर सामान्यतः 70 से 100 वर्षों के भीतर छोड़ देता है ।
अनभिज्ञता को समझने के लिये एक कथा सुनते हैं । महर्षि व्यास पुत्र सुकदेव घर छोड़कर अरण्य जाने लगे । पुत्र मोह में व्यास जी घर लौटने के लिये गुहार लगाते उनके पीछे दौड़े । सुकदेव आगे आगे व्यास देव पीछे पीछे । आगे एक तालाब था जिसमें युवा कन्यायें वस्त्रहीन होकर स्नान कर रही थीं । सुकदेव अपने में मस्त उस तालाब से आगे निकल गये । कन्यायें यथावत स्नान करती रहीं । जब महर्षि व्यास तालाब के पास पहुँचे तो कन्याओं ने झट दौड़कर वस्त्र उठा लिया और अपने शरीर को ढ़ँक लिया । कन्याओं को ऐसा करते देखकर महर्षि व्यास जी ने पूछा कि उनके इस व्यवहार का क्या कारण है । उन कन्याओं ने कहा कि सुकदेव जी इस संसार से अनभिज्ञ हैं । उन्हें तो स्त्री और पुरूष के भेद का भी नहीं पता, जबकि आपकी स्थिति ऐसी नहीं है । इसलिये हमने ऐसा व्यवहार किया । सुकदेव जी सहज समाधि में निमग्न रहते थे । संसार से अनभिज्ञ थे ।
अनभिज्ञता की स्थिति की प्राप्ति के लिये उपाय के रूप में संत कबीर दास जी ने इस प्रकार कहा है ।
" तनथिर मनथिर सुरतनिरतथिर होय ।
कह कबीर इस पलक को, कलप न पावे कोय ।।"
साधक जब आसनस्थ होकर शरीर को स्थिर कर लेता है, मन को विक्षेपों से अलग हटाकर एक लक्ष्य पर स्थिर करता है और स्मृति को गुरू प्रदत्त मँत्र में लगाकर स्थिर हो जाता है तब उसे न तो यह संसार भाषता है और न शरीर की ही सुध बुध रह जाती है । तभी अनभिज्ञता घटित होती है ।
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" जगत के किसी भी नाशवान पदार्थ, यहाँ तक कि पार्थिव शरीर तक से जिसको अनभिज्ञता हो जाय उसे ही सहज समाधि, स्वात्मा, अज्ञात और बोधमय चित्त की उपलब्धि होती है । बोधमय चित्त में फिर कोई, किसी का चिंतन नहीं होता । उसमें चित्त ही चित्त का चिंतन करता है । यह अवस्था प्राप्त करने पर इस पार्थिव शरीर में अपने आप कुंठित कंठ से धुन उत्पन्न होने लगती है, तरंगें उत्पन्न होने जगती हैं, इन्द्रियाँ निगृहित हो जाती हैं और मस्तिष्क के शुष्क तंतु जागृत हो उठते हैं ।"
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जगत में जितने भी पदार्थ हैं सभी नाशवान हैं । महाप्रलय में यह धरती, ग्रह, नक्षत्र सभी का नाश हो जाता है । मनुष्य अपना शरीर सामान्यतः 70 से 100 वर्षों के भीतर छोड़ देता है ।
अनभिज्ञता को समझने के लिये एक कथा सुनते हैं । महर्षि व्यास पुत्र सुकदेव घर छोड़कर अरण्य जाने लगे । पुत्र मोह में व्यास जी घर लौटने के लिये गुहार लगाते उनके पीछे दौड़े । सुकदेव आगे आगे व्यास देव पीछे पीछे । आगे एक तालाब था जिसमें युवा कन्यायें वस्त्रहीन होकर स्नान कर रही थीं । सुकदेव अपने में मस्त उस तालाब से आगे निकल गये । कन्यायें यथावत स्नान करती रहीं । जब महर्षि व्यास तालाब के पास पहुँचे तो कन्याओं ने झट दौड़कर वस्त्र उठा लिया और अपने शरीर को ढ़ँक लिया । कन्याओं को ऐसा करते देखकर महर्षि व्यास जी ने पूछा कि उनके इस व्यवहार का क्या कारण है । उन कन्याओं ने कहा कि सुकदेव जी इस संसार से अनभिज्ञ हैं । उन्हें तो स्त्री और पुरूष के भेद का भी नहीं पता, जबकि आपकी स्थिति ऐसी नहीं है । इसलिये हमने ऐसा व्यवहार किया । सुकदेव जी सहज समाधि में निमग्न रहते थे । संसार से अनभिज्ञ थे ।
अनभिज्ञता की स्थिति की प्राप्ति के लिये उपाय के रूप में संत कबीर दास जी ने इस प्रकार कहा है ।
" तनथिर मनथिर सुरतनिरतथिर होय ।
कह कबीर इस पलक को, कलप न पावे कोय ।।"
साधक जब आसनस्थ होकर शरीर को स्थिर कर लेता है, मन को विक्षेपों से अलग हटाकर एक लक्ष्य पर स्थिर करता है और स्मृति को गुरू प्रदत्त मँत्र में लगाकर स्थिर हो जाता है तब उसे न तो यह संसार भाषता है और न शरीर की ही सुध बुध रह जाती है । तभी अनभिज्ञता घटित होती है ।
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