अघोर वचन - 32
" यदि कोई ऐसे संत मिलें जो थिर हों, भक्तिपूर्ण हों, अपने अभ्यन्तर की चेतना के प्रकाश के प्रति जागृत हों, तृप्त हों, जिनकी बुद्धि पर पोथी नहीं लदी हो, सरल हों सु - भाव में, ऐसे व्यक्ति का उसी प्रकार अनुसरण करें जैसे गौ के बछड़े अपनी माँ गाय का अनुसरण करते हैं ।"
०००
इस वचन में कही गई बातों, स्थितियों की जानकारी पाना या परीक्षा करना एक सामान्य मनुष्य के लिये असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । उसे जब स्थिरत्व की न तो अनुभव है और न जानकारी ही है तो कैसे जाने कि संत महाराज थिर हैं कि नहीं । अभ्यंतर की चेतना का प्रकाश तो और भी सूक्ष्म है और जानना उतना ही कठिन भी । हाँ संत के स्वभाव तथा पोथी के विषय में कही गई बातों को संत का साथ करके, गहन निरीक्षण से किसी हद तक जाना जा सकता है । पहचाना जा सकता है ।
आज जो संत बहुप्रचारित, बहुश्रुत और प्रसिद्ध हैं उनकी बुद्धि पर लदी हुई पोथी दूर से ही दीखती है । उनका मूल्याँकन उनके शास्त्र ज्ञान से ही किया जाता है । उनका आडंबर पूर्ण प्रवचन, कौतुक पूर्ण व्याख्यान तथा अनुसरण करने की कठिनाईयाँ उनका सरल नहीं होना दर्शाती हैं । सु भाव के विषय में तो कुछ कह पाना यथार्थ की जगह आरोपित ही अधिक रहता है ।
उक्त कठिनाईयों के हल के लिये हमें कुछ बातों का ख्याल रखना होगा । पहला यह कि जिन किन्ही के विषय में हम जानना चाहते हैं वे प्रवचनकार या व्याख्याकार न होकर संत होना चाहिये । संत शास्त्र की नहीं अनुभव की बात करते हैं । शास्त्र में उनकी बातों का विवरण मिल जाय ऐसा हो भी सकता है । दूसरा यह कि संत को शिष्य बनाने, प्रचारित होने या ज्ञान बघारने की उत्कँठा नहीं होती । तीसरा यह कि संत के समीप जाने मात्र से मन थिर होने लगे, शाँति का अहसास हो और ईश्वर की याद आये । चौथा और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि हमारा अभ्यँतर यह कहने लगे कि यही वे हैं जिनकी मुझे खोज है ।
इन सब गुणों से युक्त व्यक्ति को गुरू के रूप में ग्रहण करना चाहिये । उनका संग साथ करना चाहिये । उनका अनुसरण करना चाहिये । श्रद्धा करना चाहिये । पूजा करनी चाहिये ।
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" यदि कोई ऐसे संत मिलें जो थिर हों, भक्तिपूर्ण हों, अपने अभ्यन्तर की चेतना के प्रकाश के प्रति जागृत हों, तृप्त हों, जिनकी बुद्धि पर पोथी नहीं लदी हो, सरल हों सु - भाव में, ऐसे व्यक्ति का उसी प्रकार अनुसरण करें जैसे गौ के बछड़े अपनी माँ गाय का अनुसरण करते हैं ।"
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इस वचन में कही गई बातों, स्थितियों की जानकारी पाना या परीक्षा करना एक सामान्य मनुष्य के लिये असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । उसे जब स्थिरत्व की न तो अनुभव है और न जानकारी ही है तो कैसे जाने कि संत महाराज थिर हैं कि नहीं । अभ्यंतर की चेतना का प्रकाश तो और भी सूक्ष्म है और जानना उतना ही कठिन भी । हाँ संत के स्वभाव तथा पोथी के विषय में कही गई बातों को संत का साथ करके, गहन निरीक्षण से किसी हद तक जाना जा सकता है । पहचाना जा सकता है ।
आज जो संत बहुप्रचारित, बहुश्रुत और प्रसिद्ध हैं उनकी बुद्धि पर लदी हुई पोथी दूर से ही दीखती है । उनका मूल्याँकन उनके शास्त्र ज्ञान से ही किया जाता है । उनका आडंबर पूर्ण प्रवचन, कौतुक पूर्ण व्याख्यान तथा अनुसरण करने की कठिनाईयाँ उनका सरल नहीं होना दर्शाती हैं । सु भाव के विषय में तो कुछ कह पाना यथार्थ की जगह आरोपित ही अधिक रहता है ।
उक्त कठिनाईयों के हल के लिये हमें कुछ बातों का ख्याल रखना होगा । पहला यह कि जिन किन्ही के विषय में हम जानना चाहते हैं वे प्रवचनकार या व्याख्याकार न होकर संत होना चाहिये । संत शास्त्र की नहीं अनुभव की बात करते हैं । शास्त्र में उनकी बातों का विवरण मिल जाय ऐसा हो भी सकता है । दूसरा यह कि संत को शिष्य बनाने, प्रचारित होने या ज्ञान बघारने की उत्कँठा नहीं होती । तीसरा यह कि संत के समीप जाने मात्र से मन थिर होने लगे, शाँति का अहसास हो और ईश्वर की याद आये । चौथा और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि हमारा अभ्यँतर यह कहने लगे कि यही वे हैं जिनकी मुझे खोज है ।
इन सब गुणों से युक्त व्यक्ति को गुरू के रूप में ग्रहण करना चाहिये । उनका संग साथ करना चाहिये । उनका अनुसरण करना चाहिये । श्रद्धा करना चाहिये । पूजा करनी चाहिये ।
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