मंगलवार, जुलाई 28, 2009

अघोर पंथ का इतिहास

अघोर साधना का आरम्भ कब हुआ यह ठीक ठीक जानना या बता पाना आज संभव नहीं है । यद्यपि अघोर साधना ईसा के पूर्वकाल से ही चली आ रही है, परन्तु जिस रुप में अन्य देशों में तिथिक्रम और घटना क्रम के अनुसार लिखित इतिहास प्राप्त है, वैसा इतिहास हमारे यहाँ सुलभ नहीं है । इस विषय में व्यापक जिज्ञासा और परीक्षण करके अनेक विद्वानो ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अघोर सम्प्रदाय में जो अनेक प्रकार के आचार और दार्शनिक तत्व विद्यमान हैं, उन सबके मूल सूत्र शैव और शाक्त तंत्रों में कहीं न कहीं प्राप्त हो जाते हैं । इतना ही नहीं जिन अनेक साधना पद्धतियों का समावेश शैव और शाक्त दर्शन में किया गया है । उन सबका पर्यवसान अघोर पंथ में प्राप्त हो जाता है ।

हम यहाँ शैव और शाक्त दर्शन के विस्तार तथा दुरुहता से बचते हुए केवल संकेत के रुप में नाम तक ही सीमित रहेंगे । आवश्यकतानुसार संक्षेप में उन्ही तत्वों की चर्चा करेंगे जिनका सीधा और स्पष्ट सम्बंध अघोर परम्परा से है ।
शैव दर्शन
शिव या रुद्र की उपासना वैदिक काल से ही होती चली आ रही है । यजुर्वेद के शतरुद्रीय अध्याय में शिव या रुद्र का रुप और महत्व वर्णित है । इसके अलावा तैत्तिरीय आरण्यक, श्वेताश्वतर उपनिषद्, वामन पुराण, में शैव दर्शन की विशद व्याख्या उपलब्ध है । वामन पुराण में शैवों के चार सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है । शैव, पाशुपत, कालदमन और कापालिक । शैव मतानुसार शिव ही कर्मादि सापेक्ष कर्ता हैं । जीवमात्र पशु कहलाता है । उसका पति पशुपति भगवान माहेश्वर या शिव हैं । पति, पशु और पाश ये तीन पदार्थ हैं । मल, कर्म , माया और रोध शक्ति ये चार पाश हैं । भगवान शिव ही पति हैं और दीक्षादि उपाय शिवत्व प्राप्ति की साधनाएँ हैं ।
शाक्त दर्शन
शाक्त दर्शन या कौल दर्शन भी अत्यंत प्राचीन माना जाता है । कौलधर्म के प्रतिष्ठापक के रुप में मच्छन्द्र या मत्स्येन्द्र या मीनानाथ को माना जाता है । अभिनव गुप्त ने कहा है कि शिवोहँ यह अनुभव कर लेने पर मोक्ष प्राप्त होता है किन्तु कौलमत में शाम्भ उपाय से मोक्ष प्राप्त होता है । कुलाचार में पञ्चमकार का प्रयोग विहित है । कुलार्णव तंत्र के अनुसार मन की स्थिरता के लिये, मन्त्रार्थ के स्फुरण के लिये और भवपाश की मुक्ति के लिये सुरापान विहित है । कौलमत में सच्चिदानन्द ब्रह्म से अभिन्न संवित तत्व को ही महात्रिपुर सुन्दरी नाम दिया हुआ है । त्रिपुरा ही ललिता हैं और ललिता ही श्रीविद्या हैं ।
अघोर, शिव या रुद्र का ही पर्याय है । शिव के पाँच मुखों में से एक का नाम अघोर है । अघोरियों का आविर्भाव शिव से ही माना जाता है । उनके बाद की परम्परा में भगवान दत्तात्रेय, विश्वामित्र, वामदेव,वशिष्ठ, मीनानाथ, गोरखनाथ, सम्राट विक्रमादित्य, अघोराचार्य, भैरवाचार्य, अभिनव गुप्त, सिद्धि विद्या सर्वानन्द ठाकुर, अवधूत नागलिंगप्पा, ब्रह्मनिष्ठ श्रीमोहन स्वामी, अघोरी गजानन औलिया, अघोराचार्य बामाक्षेपा, बाबा कालुराम, अघोराचार्य बाबा कीनाराम , अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी, औघड़ गणेश नारायण, वर्तमान में क्रीं कुण्ड के महन्त बाबा सिद्धार्थ गौतम राम, बाबा गुरुपद संभव राम , अवधूत बाबा प्रियदर्शी राम, बाबा समूहरत्न राम, औघड़ हरीहरराम, आदि । इसमें हिमाली घराने के कई औघड़ों के नाम नहीं आ पाये हैं ।
क्रमशः

मंगलवार, जुलाई 07, 2009

अघोर क्या है ?

आषाढ़ी पूर्णिमा गुरु पुर्णिमा २०६६

अघोरपंथ के विषय में अघोर परम्परा के दैदिप्यमान नक्षत्र एवं अधिकारी सन्त , महापुरुष अनन्त श्री विभूषित परम पूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी द्वारा बतलाया गया है किः

"जो घोर न हो, कठिन न हो, कड़ुवा न हो उसे "अघोर" कहते हैं । अघोर सुगम पंथ है । इसका अनुगमन स्वभाव की मंथर गति से होता है । पापों का पक्ष, तपों की गति जहाँ न हो वही अघोर है । हम घर और बाहर सुगम उपायों को ढ़ूंढ़ते हैं । वह क्या है ? वह अघोर है । यह पावन पथ है । इसमें जीवन का रस निहित है, ये मर्मीली बातें हैं समझने पर ही मिलती हैं । यह आनन्द संग्रह का सब रस है । इसे निःसंकोच पाया जा सकता है । भटकते हुये मानवों के कृत संकल्प को यह पुराता हे । यह शिव है, यह गूंगों का रस है । इसे पाने के लिये दृष्टि भेद छोड़ना होगा । यह न पृथक है न अपना है । जगत मिथ्या या सपना नहीं होता । ब्रह्म सत्य है तो ब्रह्म की सृष्टि भी सत्य है । जिन बीजों से पौधे उगते हैं यदि वह सत्य हैं तो पौधे उससे अलग नहीं । अतः वह सत्य है और उसका जगत सत्य है । यह विचार भी सत्य है । अपने को तृप्त करने के लिये जब सुमन सा प्रसन्न मन का गौरवमय पर्णों से हार गूँथोगे तो यह हार हृदय का स्वागत करेगा । अपरिपक्व ज्ञान का त्याग करके जो पूरन है उसके पथ पर साधकों को चलना है । अनन्त आनन्द प्राप्त करने के लिये मन विचार के क्रंदन को अनसुनी करना होगा । तब शान्त हृदय होकर साधक त्रितापों को कटाकर सुख समृद्धि के घेरे में विश्राम पाता है । जन समूह के गौरव को उन्नतीशील बनाना साधना का लक्ष्य है । साधुपथ इससे भिन्न कुछ नहीं, परन्तु समझने पर ही यह दीखता है और सभी गुण दिखलाने लगते हैं, यह अविचल सत्य है ।"
अघोर का शब्दकोशीय अर्थ राजा राधाकान्तदेव विरचित, शब्दकल्पद्रुम ग्रंथ के भाग १ में इस प्रकार दिया हुआ है ।
"अघोरः, पुं ," या ते रुद्र ! शिवा तनुरघोरा पापकाशिनी" इति वेदः । महादेवः ।"

"शिवं कल्याणं विद्यते अस्य शिवः । श्यति अशुभं इतिवा, शेरतेअवतिष्ठन्ते अणिमादयो अष्टौ गुणा अस्मिन् इति वा शिवः ।"

जिनमें समस्त मँगल विद्यमान हैं , जो अशुभ का खंडन करते हैं, अथवा जिनमें अष्ट ऐश्वर्य, ।। १,अणिमा २,महिमा ३,लघिमा ४,प्राप्ति ५,प्राकाम्य ६,ईशित्व ७, वशित्व ८, कामावसायिता ।। अवस्थित हैं, वे ही शिव हैं ।

वैदिक साहित्य में शिव को ही रुद्र के नाम से अभिहित किया गया है । ॠग्वेद के अनुसार रुद्र देवता अत्यंत भीषण, क्रोधी और संहारक हैं किन्तु इतना होने पर भी वे ज्ञानी, दानी, भूमि को उर्वरता प्रदान करनेवाले, सुखदाता, औषधों का प्रयोग करनेवाले और रोग दूर करनेवाले भी माने गये हैं । रुद्र के स्वरुप का वर्णन शारदातिलक तंत्र के इस ध्यान मंत्र में निहित है ।
"सजलघन समाभं भीमदंष्ट्रं त्रिनेत्रं भुजगधरनघोरं रक्त वस्त्रांग रागं ।
परशु डमरु खडगान् खेटकं वाण चापौ त्रिशिखनरकपाले विभ्रतं भावयामि" ।।

शिव, महादेव, या रुद्र के पाँच मुख माने गये हैं।
१, ईशान २, तत्पुरुष ३, अघोर ४,वामदेव ५, सद्योजात ।

इस प्रकार शिव या रुद्र के जिन अनेक रुपों के वैदिक साहित्य, तन्त्र साहित्य और पौराणिक साहित्य में विवरण प्राप्त होता है उससे यह अत्यंत स्पष्ट है कि समस्त पश्चिम से पूर्व तक विस्तृत एशिया का दक्षिण भाग शिव या रुद्र के अनेक रुपों का ध्यान और पूजन करता था और उन रुपों के अनुसार ही अनेक दार्शनिक सम्प्रदायों और पन्थों का आविर्भाव हो चला। इन्हीं में एक अघोर पंथ भी था ।

अघोर पथ के पथिक अघोरी, औघड़, ब्रम्हनिष्ठ, सरभंग , अवधूत, कापालिक , आदि नामों से अभिहित किये जाते हैं । हमारा आलोच्य विषय रुद्र और उनकी उपरोक्त अघोरमुख या अघोरा शक्ति तथा अघोरपथ के पथिक या साधक हैं ।
क्रमशः