सोमवार, दिसंबर 20, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः आशीर्वचन

सत्य
एक बार अघोरेश्वर भगवान राम जी ने अपने प्रिय शिष्य बाबा प्रियदर्शी राम जी के समक्ष सत्य की निम्नंकित व्याख्या की थी ।

" दर्शी ! जिसे प्रायः सत्य कहा जाता है, वह वस्तुस्थिति का कण मात्र है । लोग सत्य को जानते हैं , समझते नहीं । इसलिये बहुधा सत्य कड़ुआ तो लगता ही है । वह भ्रम भी उत्पन्न कर सकता है, जिसके फलस्वरुप बड़े बड़े दिग्गज और चोटी के विद्वान भी दिगभ्रमित हो जाते हैं , पथभ्रष्ट हो जाते हैं । जन सामान्य के लिये यह सामान्य बात है । कहीं कहीं पर सत्य, असत्य सा जीवन जीने को प्रेरित करने लगता है । इसमें आश्चर्य नहीं है ।

दर्शी ! सत्य सर्वत्र, सब देश में , और सब काल में एक सा नहीं होता है । माता पुत्र ही के लिये मिष्ठान्न छिपाकर डिब्बे में बन्द कर रखती है, किन्तु अधिक मिष्ठान्न खाने से अस्वस्थ हो जाने की संभावना से, वह उस बच्चे के समक्ष, प्रचलित सत्य के बदले यह असत्य बोलती है कि अब मिष्ठान्न समाप्त हो गया है । यदि माता सत्य बोल देती तो पुत्र अस्वस्थ हो जाता । इस लिये सर्वत्र समान सत्य, सत्य नहीं होता । "

क्रमशः

गुरुवार, नवंबर 18, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः आशीर्वचन

भगवती, सोगड़ा आश्रम ( माँ सर्वेश्वरी )


शक्ति

"जब से सृष्टि की रचना हुई, उसी समय से शक्ति की प्रधानता चली आ रही है और तब से ही सारा समाज शक्ति की ही आराधना करता रहा है । शक्ति का अर्थ है कार्य करने की क्षमता । जीवन में यदि शक्ति शब्द की व्याख्या  की जाय तो यह स्वतः सिद्ध है कि शक्तिहीन मानव ही मृत्यु की सँज्ञा पाता है । वह किसी भी कार्य को करने में समर्थ नहीं हो सकता । अस्तु प्रत्येक प्राणी के लिये शक्ति संचय का अभ्यास डालना आवश्यक है । आज के समाज में इसका नितान्त अभाव है जिसके कारण लोग आत्मबल और विवेक शून्य सा हो गये हैं । शक्ति मनुष्य के जीवन की आधारभूत जननी है और इसी के द्वारा संसार में उसकी उत्पत्ति भी होती है । शक्ति की ही कृपा पर संसार में जीवनयापन एवँ उसके लिये आवश्यक साधन स्रोतों का संकलन भी होता है । तात्पर्य यह है कि आदि स्वरुप शिव भी शक्ति में ही निहित हैं । शक्ति के अभाव में,  शिव भी शून्य सदृश हैं और अन्तिम रुप उसे शव का दिया जाता है ।

गायत्री जाप, पृथ्वी लीपकर पूजा करना आदि शक्ति उपासना ही है । धनी व्यक्तियों के मंदिरों एवँ विग्रहों में वह आभा एवँ प्रेरणा या गु्दगुदी नहीं मिलती । शक्ति उपासना आदि उपासना है । पहले केवल शक्ति की ही उपासना होती थी । आपसी मतभेदों ने अनेक देवताओं को जन्म दिया । कुजात काढ़ने पर देवता बंट जाते हैं । बैकुण्ट और कैलाश की कल्पना बाद में हुई । पहले मणिद्वीप की ही कल्पना थी । बाद में मुसलमानों के मुकाबला में वैष्णव आँदोलन चला । " ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः " का नारा लगा । अवतार वाद भी बाद में आया । श्री रामानंद जी इलाहाबाद के ब्राह्मण थे । उन्होंने वैष्णवी दीक्षा लेकर भी  हिन्दूत्व को बचाया । उन्होने अपने मत में समन्वय किया । उन्होंने यह व्यवस्था दी कि कंठी धारण करने वाला व्यक्ति चमार भी हो तो पंक्ति में बैठकर एक साथ खा सकता है । रविदास, नाभा, कूवा आदि जैसे महात्मा उनके पन्थ में हुए । चूँकि मुसलमान मँदिर तोड़ते थे, उन्होने उपासना पद्धति की सुरक्षा के लिये शालिग्राम की उपासना प्रारँभ कराई । उनके भक्त उद्यमी हैं । धार्मिक सेनाओं का लाभ राजाओं ने उठाया । वैष्णव, नागा सेनाओं ने मुसलमानों को लूटा । उसी से मठों का निर्माण हुआ । निद्रा देवी बिष्णु को सुलाती हैं । ब्रह्मा की स्तुति पर वे जगे, मधु कैटभ को मारे । इनसे उस परमेश्वर को आप जानेंगे । निजी प्राण को जगाओ । सद् बुद्धि एवँ गुणों से भी  अनुभूति होगी ।


चराचर में सभी प्राणी शक्ति के प्रतीक हैं और सभी शक्ति के बिना शवतुल्य हैं । किसी भी देवी देवता के पूजन में आस्थापूर्वक विश्वास करने का ही फल प्राप्त होता है । विश्वास के वगैर कोई भी सजीव धारणा उत्पन्न ही नहीं हो सकती । शक्ति का आदिरुप सर्वेश्वरी है, जिनकी कृपा से सभी कुछ सुलभ है । अतः आज के मानव के लिये यह आवश्यक है कि अपने में आत्मबल उत्पन्न करे और भौतिक चमत्कारों के बाह्याडम्बर से अपने को परे रखकर सादा जीवन और उच्च विचार का अभ्यास डाले । इसका परिणाम यह होगा कि आज का अधोगति प्राप्त मानव पुनः नई ज्योति प्राप्त करेगा जिससे उसके अज्ञान और अन्धकार का विनाश होकर एक नये युग का निर्माण होगा ।

मातृत्व की उपासना भारत माता की उपासना तो है ही, वन्देमातरम् माँ की उपासना का महामन्त्र है । इसी मन्त्र से प्ररित होकर हमारे लोगों ने मातृत्व उपासना का जाप करके उसे हृदय, वाणी और कर्मों में जागृत किया तथा पवित्रता और शक्ति उपलब्ध की । उन्होने स्वराज्य के लिये संघर्ष किया । फलस्वरुप विदेशी भागे । अपना राज स्थापित हुआ । तमाम निर्माण कार्य हुए । लोगों को धर्म, विचार और क्रिया की स्वतंत्रता मिली । इतिहास बना । उसमें बन्देमातरम् का एक अध्याय जुड़ा । हमारा इतिहास मातृत्व उपासना की ऐसी कितनी ही प्रेरणाओं से भरा है । लोगों को उससे प्रेरणा मिलती है । 

मानव प्रकृति पर कुछ विजय पाने के कारण अहं भाव में अपने को समर्थ और शक्तिमान समझने लगा है । समर्थ होने के वास्तविक कारण पर कभी भी विचार करने का उसके पास समय ही नहीं रह गया है । वह अपने कार्यकलाप और गतिविधियों में शक्ति की उपेक्षा कर रहा है । यही कारण है कि दीर्घायु होने की बात स्वप्नवत दीखने लगी है । लोग अल्पायु होते जा रहे हैं । पूर्व की अपेक्षा शरीर का गठन जर्जर होता जा रहा है । मनुष्य असुर प्रवृत्ति का पोषक हो गया है । दानवता की लहर सजीव है । घृणा, द्वेष, अनाचार और अत्याचार आज सदगुण माने जाने लगे हैं । इन सभी बुराइयों का एकमात्र कारण शक्ति का ह्रास होना है । यदि समाज ने शक्ति का संतुलन न खोया होता तो आज की विकट समस्याएँ कभी भी उत्पन्न न होतीं । इनके निराकरण के निमित्त प्रत्येक मानव का कर्तव्य है कि वह शक्तिपूजन के साथ साथ शक्तिसंचय का भी अभ्यास डाले । तभी कल्याण होगा ।"

क्रमशः 

बुधवार, नवंबर 03, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः आशीर्वचन


भगवत् कृपा प्राणीमात्र के कल्याण के निमित्त सन्त, महात्मा, अवधूत, अघोरेश्वर, ॠषि, महर्षि, की वाणी के रुप में प्रकाशित होती रही है । आज भी हो रही है । भविष्य में भी होती रहेगी ।
यहाँ पर स्वनाम स्वरुप, योगीराज, करुणामय, परम पूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी के श्रीमुख से प्रवाहित कतिपय वाणी का सँकलन प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा  है । इन वाणियों का अध्ययन, तद् नुसार आचरण, मानव मात्र के लिये कल्याणकारी हो, यही अघोरेश्वर से विनम्र निवेदन है ।

शाँति

" मन रुपी शिला पर पद्मासन लगाइये और चित्त को एकाग्र कर आत्माराम को प्राप्त कीजिये । जिस प्रकार कापालिक वेशधारी भगवान शाँत रहते हैं, उसी प्रकार सब लोग इन्द्रियों की लोलुपता को त्यागकर शाँत हों । जिस प्रकार आकाश के उड़ते हुए पक्षी वृक्ष देख लेने पर उस पर जा बैठते हैं और विश्राम पाते हैं , उसी प्रकार सब लोग पावें । जिस प्रकार जीव मन, वाणी और शरीर से अलग होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और जगत अशान्ति से शान्ति को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार सब लोग शान्ति को प्राप्त होवें । यह प्रपञ्च रुप दृष्य मृगतृष्णा की तरह भासता है । उसको त्यागकर अभिलषित चित्त में जाकर सब लोग शाँत हों । अमावस्या तिथि को जैसे समुद्र शाँत रहता है उसी की तरह हम लोग शाँत हों । जिस तरह हिमालय शाँत है, जैसे साधु लोग अपनी इन्द्रियों का दमन कर शाँत होते हैं, जैसे अवधूत लोग मान और अपमान से अलग होकर शाँत होते हैं, जैसे ब्रह्मनिष्ठ लोग प्राणीमात्र में अपनी आत्मा को देखकर शाँत होते हैं, उसी प्रकार हम लोग शाँत हों । जैसे निर्विकल्प आत्मा का साक्षात्कार हो जाने पर मन भुने बीज के समान परिकल्पित होता है, उसी प्रकार हम लोग भी परिकल्पित हों । " 

एक अन्य अवसर पर अघोरेश्वर जी ने कहाः

" इन्द्रियों का समुदाय है । उनकी अपनी खुराक है । इनको बाँधकर नहीं रख सकते । इनका स्वभाव है विषयों की ओर दौड़ना । केवल सँयम रखें । इच्छाओं को अवरुद्ध कर हम आस्तिकता की गठरी नहीं प्राप्त कर सकते । हमें विषयों के प्रति आकर्षण की प्रवृत्ति को मारना चाहिये ।  सहस्त्रों वृक्षों को काटकर व्यक्ति छाया नहीं पा सकता, शाँति नहीं पा सकता । आप अपने को तपायेंगे तो शाँति मिलेगी । हालांकि आपको यह पता नहीं चलेगा । ठीक उसीतरह से जिस तरह से सेन्ट के दुकानदार को सेन्ट की गन्ध नहीं मालूम होती, किन्तु उसी गन्ध को अनुभव कर दूसरे लोग उससे सेन्ट खरीदकर ले जाते हैं ।उसी तरह आपकी तपस्या, आनन्द, गौरव को दूसरे ही देख सकेंगे ।"

क्रमशः


रविवार, अक्तूबर 03, 2010

अवधूत गुरुपद सँभव राम जी

















सन् १९८२ ई० में अर्ध कुम्भ पड़ा था । प्रयाग में त्रिवेणी स्थल पर अघोरेश्वर का केम्प लगा हुआ था । केम्प में अघोरेश्वर विराजमान थे । पूरे क्षेत्र में साधूओं का मेला सा लगा हुआ था । सभी सम्प्रदाय, अखाड़ा, मठ, आश्रम, आदि से साधुजन तथा धर्मप्रेमी, तीर्थवास के अभिलाषी श्रद्धालुजन पुण्यसलिला गँगा के तट पर बालुका पर छोलदारियों में निवास कर रहे थे । ध्यान, धारणा, प्रवचन, आशीर्वचन की अविरल धारा निरन्तर प्रवहमान हो रही थी । इस धारा में जिसकी जैसी मति, गति थी अवगाहन कर अपनी तृप्ति हेतु प्रयास रत था ।
एक दिन केम्प में प्रातःकालीन नित्यकर्म की चहल पहल शान्त हो चुकी थी । जगह जगह रात में जलाये गये अलाव शाँत हो चुके थे । कुछ साधुओं | मठाधीशों के स्थान पर प्रवचन सुनने के लिये श्रद्धालुओं का जुटना शुरु हो चुका था । लगभग सभी जगह भोग राँधने की तैयारी होने लगी थी । रविनारायण थोड़ा ऊपर चढ़ चुके थे । ऐसे समय एक किशोर अपना सँक्षिप्त सा सामान उठाये श्री सर्वेश्वरी समूह वाली छोलदारी में प्रवेश करते हैं । किशोर का उच्च ललाट, चौड़ा सीना, लम्बी और बलिष्ट भुजाएँ और ओज पूर्ण चेहरा देखकर सहज ही ठह अनुमान लगाया जा सकता है यह किसी सम्पन्न और सुसँस्कृत परिवार के लाल हैं ।
अघोरेश्वर के निकट पहुँचकर किशोर उनके चरण कमल में अपना माथा रखकर प्रणाम निवेदित करते हैं और अघोरेश्वर का इशारा पाकर चरणों के निकट ही बैठ जाते हैं ।
ये किशोर हैं महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी, नरसिँहगढ़, मध्यप्रदेश ।



 यह आना कुमार का अँतिम आना था क्योंकि उसके बाद जाना नहीं हुआ । वे अघोरेश्वर के साथ अर्धकुम्भ की समाप्ति तक प्रयाग में मेला स्थल पर ही रहे । उसके बाद उनके साथ बनारस चले आये ।

अघोरेश्वर ने महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को मुड़िया दीक्षा सँस्कार के बाद नाम दिया गुरुपद सँभव राम ।
जन्मः
आपका जन्म दिनाँक १५ मार्च १९६१ को मध्यप्रदेश के इँदौर शहर में हुआ था । आपका बाल्यकाल नरसिंह गढ़ के भानूनिवास पैलेश में बीता । आपके जन्म तक राजपरिवार नरसिंहगढ़ के किले में रहता था । सन् १९६२ ई० में भानूनिवास पैलेश बनकर तैयार हुआ और राजवँश इस नये पैलेश में रहने आ गया । भारतवर्ष के राजवँशों में शायद यह अकेला राजवँश है जो आजादी के बाद तक अपने किले में रहता था ।
कुल परम्परा
आपकी कुल परम्परा परमार कुल का क्षत्रीय राजवँश है । यह परमार राजवँश वही है जिसमें उज्जयिनी के महाप्रतापी, धर्मपरायण, न्यायकुशल एवँ अक्षुण्ण कीर्ति के स्वामी सम्राट विक्रमादित्य हो चुके हैं । विक्रम सँवत् सम्राट विक्रमादित्य ने ही चलाया था । आपकी बेताल कथाएँ जगत प्रसिद्ध हैं तथा सभी आयु वर्ग के पुरुष और नारियों को आज भी आकर्षित करती हैं ।
सम्राट विक्रमादित्य के पश्चात इसी परमार वँश में एक सम्राट हुए महामहिम भर्तृहरि । आपका हृदय परिवर्तन हो गया और आप राजपाट त्यागकर सन्यस्त हो गये । आप जिस गुफा में रहकर साधना करते थे वह आज भी विद्यमान है तथा देश विदेश के पर्यटक यहाँ आते रहते हैं । सम्राट भर्तृहरि जी की प्रसिद्धि साधु भरथरी के रुप में अक्षुण्ण बनी हुई है । आपके द्वारा रचित नीति शतक, श्रृँगार शतक, वैराग्य शतक साहित्यिक निधि मानी जाती हैं । आपकी स्तुतियाँ, प्रार्थनायेँ, गीत आदि आज भी देश के कोने कोने में गाये जाते हैं । इस गायन का नाम ही भरथरी पड़ गया है ।
इसी परमार राजवँश में तीसरे महा प्रतापी, न्याय प्रिय, प्रजा वत्सल, सम्राट भोज हुए ।
परमार राजवँश मगध, अवँतिका, उत्तराखण्ड, राजस्थान, सिन्ध, तथा नेपाल में शासन करते थे । प्रसिद्धी है कि " परमार यानि पृथ्वी, पृथ्वी यानी परमार । " ये पृथ्वी पति कहलाते थे तथा समय समय पर सप्त खण्ड पृथ्वी पर राज करते रहे हैं । 


पिता













महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह (अवधूत गुरुपद सँभव राम जी ) के पिता परमार कुलभूषण नरसिंहगढ़ के महाराजा श्रीमन्त भानूप्रकाश सिंह जी हैं । महाराजा साहब की शिक्षा दीक्षा डॉली कालेज, इन्दौर तथा मेयो कालेज, अजमेर में हुई थी । आप अपनी जवानी के दिनों में शिकार करने के शौकीन रहे हैं, तथा बड़े अच्छे शिकारी भी हैं  । आपका विवाह सन् १९५० ई० को बिकानेर के प्रसिद्ध शासक हि. हा. सर गँगा सिंह जी की पौत्री और महाराज कुमार बिजल सिंह जी की पुत्री  लक्ष्मी कुमारी के साथ हुआ था । आपका राज्याभिषेक १७ जुलाई १९५७ ई० को नरसिंहगढ़ के किले में स्थित पैलेश में सम्पन्न हुआ था । आपने किले से बाहर शहर में झील के किनारे नया महल "भानू निवास" बनवाया और सन् १९६२ ई० में सपरिवार किला छोड़कर रहने चले गये ।
महाराजा भानूप्रकाश सिंह जी सन् १९६२ ई० में देश की राजनीति में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज कराई । सन् १९६७ ई० में आपके ज्ञान और योग्यता को परखकर आपको केन्द्र में राज्यमँत्री बनाया गया । स्वतँत्र विचारों और त्वरित निर्णय शक्ति के कारण आप ज्यादा समय तक सक्रिय राजनीति में नहीं रह सके । पार्टी तथा देश के प्रति आपके अवदानों को मान्यता देते हुए आपको गोवा का राज्यपाल बनाया गया । आप राज्यपाल के रुप में गोवा में  १८.०३.१९९१ से लेकर ०४.०४.१९९४ तक रहे । यह वही समय था जब कोंकण रेलवे की नीँव पड़ रही थी । कोंकण रेल के निर्माण में आपका योगदान अतुलनीय है । गोवा के तत्कालीन मुख्यमँत्री तथा ईसाइ धर्मगुरु कोकण रेलवे नहीं बनने देना चाहते थे । ये दोनो मुखर विरोधी थे । राज्यपाल के रुप में आपके लिये यह एक बड़ी चुनौती थी । ईसाइ धर्म गुरु को तो आपने राजभवन बुलवाकर कोंकण के प्रकरण से दूर रहने की चेतावनी देकर शाँत कर दिया, परन्तु मुख्यमँत्री समझाइस नहीं मान रहे थे । अँततः आपने राज्यपाल के सँवैधानिक अधिकारों का उपयोग करते हुए मुख्यमँत्री एवँ उनके मँत्री मँडल को बर्खास्त कर दिया । ऐसा साहसपूर्ण कार्य महाराजा साहब जैसे शासक से ही सँभव था ।

माता
 









महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह (अवधूत गुरुपद सँभव राम जी ) की माता का नाम महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा है । आप बीकानेर के महाराज कुमार बिजल सिँह जी की पुत्री हैं । आप धर्म परायण एवँ विदुषी महिला हैं । आपकी अघोरेश्वर पर अपार श्रद्धा एवँ भक्ति है । महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह को बालपन में माता द्वारा दिये गये उच्च सँस्कारों का भी उनके सन्यस्त होने में पर्याप्त योगदान रहा है ।
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह अपने माता पिता के सबसे छोटे सुपुत्र हैं । महाराजा भानूप्रकाश सिंह जी और  महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा जी के पाँच पुत्र हुए ।
१, महाराज कुमार शिलादित्य सिंह,  १९५१
२, महाराज कुमार राज्यवर्धन सिंह,  १९५३
३, महाराज कुमार गिरिरत्न सिंह,       १९५५
४, महाराज कुमार भाग्यादित्य सिंह,  १९५७
५, महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह,    १९५९

 महारानी लक्ष्मी कुमारी साहिबा जी का मायका बीकानेर है और अघोरेश्वर के सखा, भक्त जशपुर के महाराजा बिजयभुषण सिंह देव जी की धर्मपत्नि महारानी जयाकुमारी साहिबा जी का मायका भी बीकानेर है । इसके अलावा महाराज कुमार राज्यवर्धन सिंह जी का विवाह जशपुर के महाराजा बिजयभुषण सिंह देव जी की सुपुत्री राजकुमारी कल्पनेश्वरि देवी जी के सा् हुआ है । यह दोनों राज परिवार इस प्रकार से अति  निकट के सम्बंधी होते हैं । यह निकट सम्बन्ध निश्चय ही महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को अघोरेश्वर के निकट पहुँचाने में किसी न किसी रुप में सहयोगी रहा है ।

शिक्षा
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह (अवधूत गुरुपद सँभव राम जी ) की शिक्षा का प्रबन्ध महाराजा साहब ने राजकुमारों के लिये बने डॉली कालेज, इन्दौर में किया तथा स्नातकोत्तर शिक्षा के लिये देश की राजधानी दिल्ली भेजा । सन् १९८२ ई० में आप दिल्ली से ही प्रयाग आये थे ।

मुड़िया दीक्षा या सन्यास दीक्षा
महाराज कुमार यशोवर्धन सिंह जी को सन् १९८२ ई० में अघोरेश्वर भगवान राम जी द्वारा सन्यास दीक्षा प्रदान किया गया । दीक्षा के उपराँत आपको नाम दिया गया गुरुपद सँभव राम । आप सन्यास क्रम में अवधूत सिंह शावक राम जी, अवधूत प्रियदर्शी राम जी के पश्चात तीसरे मुड़िया साधु हुए ।
सन्यस्त होने के पश्चात आपकी कठोर तप और साधना शुरु हुई जो बरसों चलती रही । अघोरेश्वर साधना की गूढ़ प्रक्रियाओं, जीवनादर्शों , तथा सामाजिक आदर्शों के विषय में अपने शिष्यों, भक्तों को शिक्षा देते समय प्रायः आपको और अवधूत प्रियदर्शी राम जी को सम्बोधित करते रहे हैं । इस क्रम में अघोरेश्वर आपको कभी सँभव, कभी सँभव साधक, कभी सौगत उपासक, कभी मुड़िया साधु आदि विभिन्न नामों से सम्बोधित करते रहे हैं । इससे ज्ञात होता है कि आप अघोरेश्वर के प्रिय शिष्य रहे हैं । उनकी अपरिमित कृपा दृष्टि प्राप्त होने के कारण निश्चय ही आप आध्यात्मिक उँचाईयों पर आरुढ़ होने में सक्षम रहे हैं । सन् १९८२ ई० से सन् १९९२ ई० तक अघोरेश्वर के श्री चरणों में सतत निरत रहकर अघोर दर्शन, परम्परा एवँ दृष्टि से आपने ज्ञान के भँडार को परिपूरित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है ।
आप अवधूत पद पर प्रतिष्ठित हैं ।
आप वर्तमान में श्री सर्वेश्वरी समूह के अध्यक्ष हैं । इसकी चर्चा हम यथासमय करेंगे ।
क्रमशः

 













मंगलवार, सितंबर 21, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जी के मुड़िया साधु शिष्य

औघड़ सिंह शावक राम जी

सन् १९६६ ई० में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने प्रथम सन्यासी शिष्य के रुप में औघड़ सिंह शावक राम जी को सँस्कारित किया था । पूर्व में आपके विषय में प्राप्त समस्त जानकारी दी जा चुकी है । साधना की दस वर्ष की अवधि बीत जाने के पश्चात आपको गुरु ने मुक्त कर दिया । आप यात्रा पर निकल पड़े । आपने सन् १९७७ ई० में दिलदारनगर , गाजीपुर में गिरनार आश्रम की स्थापना कर " अघोर सेवा मण्डल " नामक एक संस्था बनाया । इसके पश्चात आपने अनेक जगहों पर आश्रम, कुटिया का निर्माण कराया । आपके द्वारा स्थापित अघोर सेवा मण्डल प्राकृतिक विपदा के समय सेवा का उत्कृष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है ।

अवधूत सिंह शावक राम जी ने अपना अँतिम समय मसूरी , हिमाचल प्रदेश में निर्मित " हिमालय की गोद" आश्रम में बिताया । ११ सितम्बर सन् २००२ ई० को आपने शिवलोक गमन किया ।

औघड़ सिंह शावक राम जी



अवधूत प्रियदर्शी राम जी

अघोरेश्वर भगवान राम जी के सानिध्य में अनगिनत लोग आये । उनमें गृहस्थ थे, साधु थे, श्रद्धालु थे, भक्त थे, सेवक थे, योगी थे, तान्त्रिक थे, मान्त्रिक थे, हिन्दु के अलावा मुसलमान थे, क्रिस्चियन थे, सिक्ख थे, बौद्ध थे, पारसी थे, भारतीयों के अलावा अफगान थे, इटेलियन थे, अमरीकी थे, अँग्रेज थे, और न जाने कौन कौन थे । अघोरेश्वर देश, काल, जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि से उपर थे । वे ब्रह्म में सदैव रमण करने वाले चिदानन्द स्वरुप थे ।

सन् १९८० ई० में एक किशोर अघोरेश्वर की शरण में आये । किशोर का दीक्षा सँस्कार हुआ और अघोरेश्वर ने नामकरण किया प्रियदर्शी राम । अघोरेश्वर के साथ लम्बे समय तक अवधूत प्रियदर्शी राम जी रहे हैं । अघोरेश्वर अघोर साधना, समाज, तथा जीवन दर्शन के अनेक विषयों में दर्शी जी को सम्बोधित कर प्रवचन दिया है । इन प्रवचनों को लिपिबद्ध किया गया और सर्वेश्वरी समूह द्वारा अनेक ग्रँथों के रुप में प्रकाशित कर साधकों, श्रद्धालुओं को सुलभ कराया गया है । अवधूत प्रियदर्शी राम जी प्रारँभ से ही गुरु भक्त एवँ नैष्ठिक साधक रहे हैं । अघोरेश्वर के श्री चरणों में बैठकर अवधूत प्रियदर्शी राम जी ने मानस तीर्थों का अवगाहन तो किया ही किया , मानसिक पारमिता भी सिद्ध करने में लगे रहे । उन्होंने अघोरेश्वर के आदेशानुसार देश के स्थावर और जँगम तीर्थों का साक्षात्कार भी किया ।

आजकल आप अपने बनोरा, रेणुकूट, शिवरीनारायण, आदर, डभरा तथा आश्रमों में रमते रहते हैं ।

अघोरेश्वर के प्रिय मुड़िया योगी अवधूत प्रियदर्शी राम जी के जीवन वृत्त के विषय में अधिकाँश जानकारी के अभाव में हम यहाँ पर अभी इतना लिखकर ही सन्तोष कर रहे हैं । जानकारी एकत्र करने की प्रक्रिया जारी है । हम बाद में आपके विषय में अलग से अधिकतम जानकारी देने का प्रयास करेंगे ।

हमारा योगीराज, अवधूत बाबा प्रियदर्शी राम जी के श्री चरणों में कोटिशः प्रणाम ।

अवधूत प्रियदर्शी राम जी


क्रमशः











रविवार, अगस्त 29, 2010

अघोरेश्वर वन्दे जगत् गुरुम्

 परमपूज्य अघोरेश्वर कीनाराम जी महाराज

गुरुदेव अघोरेश्वर भगवान राम जी 


ईश्वरानुग्रँहादेव पुँसानद्वेत वासना ।
महद्भयपरित्राणा विप्राणामुपजायते ।।
( महान भय (मृत्यु भय) से रक्षा करनेवाली अद्वेत की वासना मनुष्यों में, विप्रों में ईश्वर के अनुग्रह से ही उत्पन्न होती है । )

सन १९७३ का मई का महीना था । अघोरेश्वर भगवान राम जी जशपुर के आश्रमों में आये हुए थे । वे  कभी सोगड़ा आश्रम में निवास करते तो कभी गम्हरिया में । कभी नारायणपुर भी चले जाते थे । जशपुर में सभी जानते रहते थे कि अघोरेश्वर आज कहाँ हैं । जिसको जब समय सुविधा होती अघोरेश्वर का सानिध्य प्राप्त करने के लिये पहुँच जाते थे । अघोरेश्वर भी उन दिनों सबको भरपूर समय देते । सबकी सुनते । सबको कहते । वार्तालाप की यह कड़ी घँटों चलती ।  इसी बीच श्रद्धालुओं, भक्तों , शिष्यों की शिक्षा भी चलती रहती । वे जिसको जो सिखाना चाहते बात बात में सिखा देते । उनकी अचिंत्य लीला वही जानते थे ।

लेखक का विवाह जशपुर के राज ज्योतिषी महापात्र परिवार में सात आठ माह पूर्व ही हुआ था । वहीं आदरणीय बाबू पारस नाथ जी सहाय से भेंट हुई थी । साधु पुरुष सहाय बाबू जब भी भेंट होती लेखक को अघोरेश्वर का दर्शन करने तथा  दीक्षा की याचना करने के लिये अभिप्रेरित करते रहते थे । लेखक भी बचपन से ही साधु सँगत में रस पाते थे । लेखक पूर्व में दो तीन बार अघोरेश्वर के दर्शन की मँशा से जशपुर की यात्रा कर चुके थे, पर दर्शन नहीं हो पाया था । जब तक लेखक जशपुर पहुँचते अघोरेश्वर का बनारस प्रस्थान हो चुका होता था ।

इस बार समय पर समाचार मिला था । लेखक तत्काल चल पड़े थे । तीन मई १९७३ को गम्हरिया आश्रम के सामने उस महा विभूति का दर्शन लाभ हुआ । जीवन धन्य हो गया । दर्शन मात्र से हृदय में यह भाव जागा कि जिस पथ प्रदर्शक, शिक्षक, ज्ञानी, ध्यानी, गुरु की खोज आज तक लेखक करते आ रहे थे वे यही हैं । इन्ही की शरण में, छत्रछाया में इस जीवन का कल्याण होना है । भटकन समाप्त हो गया । 

उसके बाद लगभग सालभर का समय बीत गया । अघोरेश्वर का या तो दर्शन लाभ नहीं हुआ या दर्शन हुआ भी तो उचित समय, सुयोग नहीं मिला कि अघोरेश्वर से शरण हेतु विनय किया जा सके ।

सन् १९७४ ई० के नवम्बर माह की १९ तारीख को अघोरेश्वर  का सोगड़ा आश्रम में पुनः दर्शन लाभ हुआ । समय सुयोग सब अनुकूल थे । लेखक अघोरेश्वर के श्री चरणों में विनयावनत होकर अपनी शरण में लेने हेतु निवेदन किया । लेखक का निवेदन तत्काल स्वीकार हो गया । आदेश हुआ कि दूसरे दिन यानि दि. २०. ११. १९७४ को सुबह छै बजे उनके चरणकमल की छाँह लेखक के सिर पर होगी । उस दिन जशपुर लौट जाने का निर्देश हुआ ।

उस दिन का बचा हुआ भाग और रात्री कैसे कटी अभिव्यक्त कर पाना दूष्कर कार्य है । शरीर इतना हल्का हो गया था कि पाँव मानो जमीन पर नहीं पड़ रहे थे । मन स्वतः अन्तर्मुखी होता जा रहा था । न किसी से बात करने का मन होता था और न किसी को देखने का । रात्री अर्ध सुसुप्ति की अवस्था में कब कट गई पता ही नहीं चला । भोर में चार बजे बिस्तर त्याग दिया । नित्यकर्म से निवृत होकर दीक्षा संस्कार हेतु निर्दिष्ट सामग्री के साथ सुबह पाँच बजे सोगड़ा आश्रम जाने के लिये तैयार हो गया ।

जशपुर नगर से सोगड़ा आश्रम की दूरी तेरह किलोमीटर है । उन दिनों कोई पव्लिक ट्राँसपोर्ट की सुविधा उपलब्ध नहीं थी । लोग पैदल जाते थे या सायकल से जाते थे । बीच में एक नदी पड़ती है, जिसपर उन दिनों पुल नहीं बना था । जशपुर से सोगड़ा इन बाधाओं को पार कर पहुँचने में ४५ मिनट से एक घँटा का समय लग जाता था ।  लेखक भोर में पाँच बजे जशपुरनगर से सोगड़ा के लिये चलकर छै बजे के कुछ मिनट पहले अघोरेश्वर के चरणों में पहुँच गये ।

सोगड़ा आश्रम के बाहरी गेट से थोड़ा ही आगे एक विशाल महुवे का वृक्ष खड़ा था । वृक्ष के नीचे अलाव जल रहा था । अघोरेश्वर अपनी चिर परिचित मनमोहिनी मुद्रा में वृक्ष और अलाव के बीच रखी कुर्सी पर विराजमान थे । अघोरेश्वर के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदन करते ही उनके श्रीमुख पर स्मित की रेखा उभर आई । बोलेः "आ गये हो बबुआ । बइठ ।"

" जी बाबा । "

कुछ समय उपराँत उन्होने कहाः " अच्छा चल मँदिर में चल ।"


लेखक मँदिर की ओर चले । अघोरेश्वर भी उठे पर कहाँ गये नहीं पता ।

लेखक के मँदिर पहुँचने के तीन चार मिनट के भीतर अघोरेश्वर भी मँदिर पहुँच गये ।

दीक्षा सँस्कार के पश्चात लेखक को लौट जाने का आदेश हो गया । लेखक सोगड़ा से जशपुर लौटे तथा उसी दिन सँध्या समय निर्देशानुसार उन्होने जशपुर भी छोड़ दिया ।

येनेदं पुरितं सर्वमात्मनैवात्मनात्मनि ।
निराकारं कथं वन्दे ह्याभिन्नं शिवमव्ययम् ।।


( यह दृश्यमान सम्पूर्ण जगत जिस आत्मा द्वारा, आत्मा से, आत्मा में ही पूर्ण हो रहा है, उस निराकार ब्रह्म का, मैं किस प्रकार वन्दन करुँ क्योंकि वह जीव से अभिन्न है, कल्याण स्वरुप है, अव्यय है । )


क्रमशः



मंगलवार, अगस्त 24, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम कुष्ट सेवा आश्रम , वाराणसीः कुछ चित्र





गुरुदेव निवास, पड़ाव वाराणसी 
एको व्यापक अव्यय सर्वज्ञ परम रम्य, हर कारण सृष्टि स्थिति, नित्य व्यापक आद्या ।
अघोर घोर महाकपालेश्वर, भुक्ति मुक्ति दातार, तिनके पद बन्दन करौं, कोटी कोटी प्रणाम ।

श्री सर्वेश्वरी मँदिर, पड़ाव वाराणसी
 

गणेश पीठ , पड़ाव , वाराणसी
अघोर चक्र
अघोरेश्वर भगवान राम कुष्ट चिकित्सालय
अघोरेश्वर भगवान राम महा विभूति स्थल, गँगातट, पड़ाव वाराणसी
अघोरेश्वर भगवान राम महा विभूति स्थल, गँगातट, पड़ाव वाराणसी

रविवार, जुलाई 25, 2010

गुरु पूर्णिमा २०१० दि. २५.०७.२०१०

गुरुमूर्ति अघोरेश्वर भगवान राम जी

                                                                                                                                     

।  वन्दे गुरुपद द्वंद्वँ, वाङ् मनश्चित्तगोचरम् ।
।।  श्वेत रक्तप्रभाभिन्नं,  शिवशक्त्यात्मकं परम् ।।

मैं शक्ति से युक्त शिव, वाणी, मन, चित्त आदि इन्द्रियों में व्याप्त, श्वेत रक्त प्रभा से अभिन्न श्रेष्ठ गुरुपदकमलयुगल की वन्दना करता हूँ ।

अघोरेश्वर भगवान राम जी के चरण कमल की वन्दना कर उनके मुखारबिन्द से निनादित वाणी में से गुरुतत्व का सूत्र सँकलित है । अघोरेश्वर कहते हैंः


" गुरु कोई खास हाड़, चाम के नहीं होते या कोई खास जाति, कास्ट के व्यक्ति नहीं होते हैं । गुरु तो वही होता है जिसे देखने पर हमें ईश्वर याद आये,  जिसे देखने पर माँ जगदम्बा के चिँतन की तरफ उत्सुकता हो ।

आप तो अपने कहीं , किसी भी पीठ में चाहे जड़ हो या चेतन हो, उसमें गुरुपीठ स्थापित करके, उस गुरुत्व आकर्षण की तरफ खिंचा सकते हैं । पर कभी स्थापित ही नहीं किये हों तो उस गुरुत्व के आकर्षण की तरफ आप जा भी नहीं सकते । भले आप ब्रह्मा, विष्णु, शिव या बहुत बड़े व्यक्ति भी हो सकते हैं । मगर अपनी निजी जो प्राणमयी भगवती हैं, उनके साथ आपकी तन्मयता नहीं हो सकती ।"

रविवार, जुलाई 18, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः शिष्य समुदाय

अघोरेश्वर को पहचानकर उनकी शरण में आने वाले योगियों में से कुछ लोगों की विचित्रता ने जन मानस को गहरे तक प्रभावित किया था । उन्हीं बीर साधकों, सिद्धों, अवधूत पद पर प्रतिष्ठित औघड़ों के विषय में हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं । अघोरेश्वर का आशीष इन साधकों को कितनी ऊँचाई प्रदान किया  जानने लायक है ।

तपसी बाबा जी

छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में उँचे उँचे पर्वतों की उपत्यका में बगीचा नामक एक कस्बा बसा है । यहाँ की जलवायू पूरे छत्तीसगढ़ से अलग है । सभी दिशाओं में स्थित उँचे उँचे पर्वतों के कारण यहाँ सूर्योदय देर से तथा सूर्यास्त जल्दी हो जाता है । यहाँ की भूमि पर्वतों से उतरने वाली प्राकृतिक खाद से उपजाऊ तथा झरनों के जल से सिंचित है । पर्वतों से छनकर आती शीतल एवँ मन्द बयार इस क्षेत्र को निवास हेतु सुखकर एवँ स्वाश्थ्यप्रद बनाती है । इस क्षेत्र में ही एक आश्रम और है, जिसे कैलाशगुफा कहा जाता है । इस आश्रम की स्थापना सँत गहिरा गुरु जी महाराज ने किया था । आश्रम के अलावा देव वाणी संस्कृत के पठन पाठन हेतु एक रेसिडेंन्सियल स्कूल की  स्थापना  भी गहिरा गुरु जी ने किया है ।

बगीचा कस्बे के बीच में एक छोटा परन्तु सुन्दर सा आश्रम है । इसी आश्रम में तपसी बाबा निवास करते थे । क्षेत्र की जनता में बाबा का बड़ा सम्मान था । 

कहते हैं बाबा अपनी युवावस्था में ही गृह त्याग कर सन्यास ग्रहण कर लिये थे । साधना के क्रम में उन्होने सँकल्प लेकर चित्रकूट में भगवान काँतानाथ जी की परिक्रमा करने लगे । आपने सँकल्प बारह वर्ष की परिक्रमा का लिया था और परिक्रमा लगातार बारह वर्षोँ तक चलती भी रही थी । अभी परिक्रमा को  बारह वर्ष पूर्ण होने में तीन दिन शेष रह गये थे कि इस कठोर तपश्चर्या के सुफल के रुप में आपको अघोरेश्वर भगवान राम जी का दर्शन प्राप्त हुआ । आपने अघोरेश्वर को पहचान लिया । आपने इतने वर्षों की कठोर तपश्चर्या , जिसे पूर्ण होने में मात्र तीन दिन ही शेष थे, छोड़ दिया और अघोरेश्वर का अनुगमन करने लगे । अघोरेश्वर की कृपा पाकर आपने कुछ ही समय में अपना इष्ट प्राप्त कर लिया । 

बाबा अब समाधि ले चुके हैं ।

क्रमशः



शनिवार, जुलाई 03, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः शिष्य समुदाय


सन् १९६७ ई० के नेपाल भ्रमण के पश्चात बाबा जशपुरनगर के आश्रमों की व्यवस्था तथा अनुष्ठान आदि के लिये सोगड़ा चले गये । बाबा के पास विभिन्न मन्तव्य लेकर अनेकानेक लोग आने लगे थे । उनका ध्येय ज्यादातर लौकिक समृद्धि, आल औलाद, नौकरी चाकरी, शादी ब्याह आदि के लिये याचना करना और अघोरेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करना होता था । अघोरेश्वर इस बात से दुखी हो उठते थे । उनके पास अध्यात्म की विशाल सम्पदा थी और वे उस सम्पत्ति को मुक्त हस्त से बाँटना भी चाहते थे, पर उनके पास आने वालों में से ज्यादातर लोगों की रुचि अध्यात्म की ओर नहीं थी। उन्ही के बीच कुछ दिब्य आत्माओं ने भी बाबा से सम्पर्क साधा और उनका आशीर्वाद पाकर कृतकृत्य भी हुए । कतिपय ऐसी ही आत्माओं का संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ।

आदरणीय पारस नाथ जी सहाय

सहाय जी का जन्म पटना में हुआ था । पिता दीवान थे अतः आपका लालन पालन राजपरिवार में हुआ । गौर वर्ण, लम्बा, दुबला पर स्वस्थ काया, अजान बाहू, भेदक दृष्टी, आप दिब्य दर्शन पुरुष हैं । आप दो भाई हैं । आपकी बहनें भी दो थीं । सबसे बड़ी बहन आरा बिहार में ब्याही थी । दूसरी बहन पूर्व रायगढ़ जिला में जशपुरनगर में व्याही थी । दूसरी बहन के पास रहने के उद्देश्य से आप जशपुरनगर आ बसे तथा क्लर्क की सरकारी नौकरी करने लगे थे । सभी लोग इसीलिये आपको सहाय बाबू के नाम से ही जानते हैं ।
एकबार आपने बतलाया था कि "वे अभी किशोर ही थे । अपनी दीदी के यहाँ आरा गये हुए थे । वहीं अघोरेश्वर से उनकी भेंट किसी एकाँत जगह पर हो गई थी और गुरू का आशीर्वाद अनायास ही प्राप्त हो गया था । "

बाद में आपकी शादी हो गई और आप जशपुरनगर आ गये थे । एक बार आपने लेखक को बतलाया था कि सोगड़ा आश्रम में आपका दीक्षा संस्कार हुआ था । आप उस समय के साधक हैं जब अघोरेश्वर मुक्तहस्त से साधनाएँ बाँटा करते थे । जिसने जो माँगा वह मिला । जिसने जो जानना चाहा बता दिया । बाद में तो बाबा भी ठोक बजाकर शिष्य बनाते थे और उसके पात्र के अनुसार ही साधना बतलाते थे ।
इस लेखक की भेंट सहाय बाबू से सन् १९७२ ई० में हुई थी तथा आज भी सम्पर्क बना हुआ है । आदरणीय सहाय बाबू ने ही लेखक को अघोरेश्वर के चरणों में शरण लेने के लिये प्रेरित किया था ।
सहाय बाबू मुड़िया साधू तो नहीं हैं । गृहस्थ हैं , परन्तु योगी दीक्षा प्राप्त सम्पूर्ण योगी हैं । अघोरेश्वर के जशपुर आगमन के पश्चात प्रारंभिक शिष्यों में से एक सहाय जी गृहस्थ होते हुए भी साधू का जीवन जीते हैं । लेखक को सहाय बाबू को पास से देखने का अनेक बार अवसर मिला है । वे अत्यंत ही सादा जीवन जीते हैं । उनकी आवश्यकताएँ अत्यंत ही अल्प मात्रा में होती हैं । उनकी साधना बड़े ही गोपनीय ढ़ँग से चलती रहती है । यदि आप साथ हैं तो वे आपको कभी सोते हुए नहीं मिलेंगे । आज लगभग ७५ वर्ष की आयु में भी आप अधेड़ दिखते है तथा शरीर में वही चुस्तीफुर्ती विद्यमान है । चेहरे का तेज तो बस देखते ही बनता है ।
आदरणीय सहाय बाबू सिद्ध महात्मा हैं । उनके अनेक अलौकिक कृत्य लेखक ने देखा सुना है । आप " आत्म चरितम् न प्रकाशयेत " में विश्वास रखते हैं । आजकल आप साधारण गृहस्थ का जीवन जीते हुए रायगढ़, छत्तिसगढ़ में निवास कर रहे हैं ।

अवधूत श्याम राम जी

आपका पूर्व नाम श्री विरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव था । आपका जन्म छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में धर्मजयगढ़ में हुआ था । आपका परिवार धर्मजयगढ़ का उच्च और सम्मानित कायस्थ परिवार है । आपका परिवार पढ़ा लिखा बुद्धिजीवीयों के परिवार के रुप में जाना जाता है । आप पूर्व धर्मजयगढ़ स्टेट में थानेदार के पद पर कार्यरत थे । स्टेट बिलय के पश्चात आप मलेरिया इन्स्पेक्टर के पद पर कार्य करने लगे । आप शुरू से ही नैतिकवान तथा सच्चरित्र अधिकारी के रुप में विख्यात थे ।
एक बार अपनी नौकरी के सिलसिले में दौरा करते समय आपको जँगल में अघोरेश्वर भगवान राम जी का दर्शन लाभ हो गया । दर्शन लाभ होते ही आपका मन सँसार से उचाट हो गया । आप नौकरी छोड़कर अघोरेश्वर की शरण में सोगड़ा आश्रम पहुँच गये । आपके साधु बनने के समय पत्नि, सन्तान, भाईयों सहित भरा पूरा परिवार था । परिवार ने भी प्रसन्नतापूर्वक आपको अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त कर साधु जीवन स्वीकारने में सहयोग प्रदान किया था ।
दीक्षा के उपराँत आपका नाम श्याम बाबा अघोरी हो गया । आप यौगिक क्रियाओं में अत्यँत ही प्रवीण थे । आपकी गुरु निष्ठा अद्वितीय थी । क्षेत्रीय जनता के लिये आप बड़े विचित्र अघोरी थे । आपने ज्यादातर समय जशपुरनगर के पास स्थित " गम्हरिया आश्रम " में ही बिताया था ।

इस लेखक को धर्मजयगढ़ निवास काल में यदाकदा श्याम बाबा के आतिथ्य का सुयोग मिलता था । चर्चा भी होती थी । आप सदैव लेखक को अघोरेश्वर के और निकट जाने तथा साधना हेतु मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिये अभिप्रेरित किया करते थे । आप कहा करते थे " दौड़िये पण्डा जी दौड़िये, बाद में मौका नहीं मिलेगा । " आपकी बात सच हो गई ।

श्याम बाबा देश के विभिन्न राज्यों में बहुत घूमे हैं । आपको भूतपूर्व राज परिवारों से सम्मान और सहयोग मिलता रहता था ।

एक बार साधना विषयक चर्चा में आपने लेखक को बतलाया थाः

" वे हमारी साधना के प्रारंभिक दिन थे । गुरु का आदेश हुआ कि जाइये भ्रमण कीजिये । यह भी आदेश था कि भ्रमण में पैसा को नहीं छूना है । हम भ्रमण पर निकल पड़े । पास में कुछ था नहीं । कपड़ा लत्ता हमने लिया नहीं । जशपुर बस स्टैण्ड पर राँची जाने वाली बस खड़ी थी । कण्डक्टर पहचानता था । पूछाः "बाबा कहाँ जाइयेगा ? ।" हम कहेः " चलते हैं ! जहाँ मन करेगा उतर जायेंगे ।" हम बस में सवार हो गये । बस चली । रास्ते में मन विरक्त होने लगा । एक बस स्टाप पर हम उतर गये ।

जहाँ हम उतरे थे वह छोटा सा गाँव था । हमें कोई पहचानता नहीं था । हम किधर जावें सोचते सड़क पर खड़े थे । हमने देखा कि एक ओर हरियाली दिख रही है । हम उधर ही पैदल चलने लगे । साँझ को किसी श्मशान में रात बिताने के लिये ठहर जाते । भोर में फिर चल पड़ते । कोई खाना दे देता तो खा लेते नहीं तो दो, दो तीन दिन तक जल पीकर गुजारा करना पड़ जाता था । उस समय हम तिथि, वार, दिशा , समय से मुक्त हो गये थे । पता नहीं कितने दिनों के बाद बाबा का आदेश मिला और हम गम्हरिया आश्रम लौट आये ।"


श्याम बाबा की अँतिम यात्रा भी विचित्र ढ़ँग से हुई थी ।

"उन दिनों अघोरेश्वर गम्हरिया आश्रम में ही थे । एक दिन प्रातःकाल में श्याम बाबा अघोरेश्वर के निकट उपस्थित हुए । उन्होने दोनो हाथ जोड़कर अघोरेश्वर के चरणों में प्रणिपात करने के बाद निवेदन किया कि वे भ्रमण में जाना चाहते हैं । अघोरेश्वर कुछ काल तक श्याम बाबा को अपलक देखते रहे, फिर पास खड़े एक सेवादार से कहा कि वे जाकर उनका बड़ा वाला टार्च ले आवें । टार्च आ जाने के बाद अघोरेश्वर ने श्याम बाबा को पास बुलाया और टार्च देते हुए कहा कि लीजिये रास्ता देखने में काम आयेगा ।

श्याम बाबा गुरू की आज्ञा पाकर भ्रमण में निकल पड़े । कुछ दिनों के पश्चात आप बगीचा नामक कस्बे में अपने भक्त के यहाँ पहुँचे । भक्त बड़ा आनन्दित हुआ । दुसरे दिन प्रातः पद्मासन में बैठकर आपने यौगिक क्रिया द्वारा शरीर से प्राण को मुक्त कर दिया ।"

श्याम बाबा की समाधि का समाचार सुनकर अघोरेश्वर भी उदास हो गये थे ।

क्रमशः


रविवार, जून 13, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः भ्रमण


प्रकृति के अवयव गुणों के भीतर रचित हैं । गुण तीन हैं । १, सत्वगुण  २, रजोगुण  ३, तमोगुण  । गुण विभाग से यह सृष्टि है अतः सर्वत्र तीनों गुण विद्यमान हैं । जिस गुण की विद्यमानता जहाँ अधिक परिमाण में होती है वहाँ उसका प्रभाव सहज दृष्टिगोचर होता है, बाकी दो गुण रहते तो हैं परन्तु गौण रूप से । प्रभावहीन या अल्प प्रभाववान । सत्वगुण प्रभावान्वित स्थलों पर गुण प्रभाव के चलते  व्यक्ति का हृदय, देह, मन आदि शुद्ध हो जाता है । ऐसे स्थलों को तीर्थ कहते हैं ।

कुछ स्थान स्वाभाविक सत्व गुण प्रधान हैं, जैसे कि " वाराणसी, तीर्थ राज प्रयाग, पुरी, आदि" । जिन स्थलों पर ॠषि लोग तपस्या कर चुके हैं, जहाँ साधकों ने उच्चतर शक्ति आहरित किया है, जहाँ पर सन्त, महापुरुष, अघोरेश्वर उपदेश देते रहे हैं, ज्ञान संचार या दीक्षा संस्कार करते रहे हैं , सिद्ध अवस्था या परमतत्व को प्राप्त कर लिया है, किसी महापुरुष का जन्म या निर्वाण हुआ है, ऐसे सभी स्थल उक्त  निमित्त के कारण सत्वगुण प्रधान हो गये हैं । जिन लोगों में शक्ति अनुभव की क्षमता है, उन स्थलों में जाकर उन्मुक्त भाव से बैठते हैं तो स्पन्दन होता है, क्रियाएँ होती हैं, मन उर्घ्वगतिमान होता है । ये सभी स्थल भी तीर्थ हैं ।

उपरोक्त तीर्थ स्थावर तीर्थ कहलाते हैं । इनके अलावा दो प्रकार के तीर्थ और होते हैं । वे हैं, १, मानस तीर्थ २, जँगम तीर्थ ।

मानस तीर्थ के लिये कहीं जाना आना नहीं पड़ता । ये मनुष्य के मानसिक गुण हैं । ये हैं, सत्य, दया, परोपकार, अहिंसा,  क्षमा आदि । इनमें से एक तीर्थ में स्नान कर लेने वाला व्यक्ति भी सिद्ध हो जाता है । महाराज हरिश्चन्द्र ने सत्य की,  महाराज शिवि ने त्याग की साधना करके ही परमपद प्राप्त कर लिया था ।  राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने पूर्व जन्मों में बोधिसत्व रुप में इन्ही मानस तीर्थों की परमिति साधकर दश पारमिताएँ प्राप्त करके बुद्धत्व प्राप्त किया था ।

 मनुष्य रुप में जन्म लेकर जिन्होंने त्याग, तपस्या, ज्ञान, विज्ञान, योग, उपासना, भक्ति तथा मानस तीर्थों में अवगाहन कर सिद्ध हो चुके हैं ऐसे समस्त संतों को जँगम तीर्थ कहते हैं । सदगुरु जँगम तीर्थ हैं । ऐसे जँगम तीर्थों से सम्पर्क करने से, सानिध्य में रहने से, मेधा शुद्ध होती है, आत्मा का उन्नयन होता है,  मन निर्मल एवं निश्छल होता है । वृत्तियाँ भी सुकोमल होकर सात्विक हो जाती हैं ।

भारतवर्ष में तीर्थ यात्रा और परिभ्रमण का बड़ा महत्व माना गया है ।

अघोरेश्वर भगवान राम जी ने मानस तीर्थों का अवगाहन अब तक कर चुके थे, उनकी पारमिता भी सिद्ध कर लिया था । अब उन्होंने देश की प्राचीन सन्त परिपाटी का अनुगमन करते हुए समग्र पृथ्वी के स्थावर और जँगम तीर्थों का साक्षात्कार करने का निश्चय किया । वैसे तो साधना काल में ही  आप मुख्य मुख्य तीर्थों की यात्रा कर चुके थे । कभी भी वे एक जगह स्थायी निवास नहीं करते थे । आगे बढ़ते जाना उनके स्वभाव में था ।

२१ सितम्बर सन् १९६१ ई० को श्री सर्वेश्वरी समूह की स्थापना हो चुकी थी । बाबा का तीर्थाटन चित्रकूट यात्रा से शुरु हो चुका था । सन् १९६२ ई० के मध्य तक औघड़ भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम, पड़ाव वाराणसी में कुष्ठ अस्पताल बाबा का निवास बन गया । बाबा ने पड़ाव में निवास करना शुरु भी कर दिया । आनेवाले भक्तों श्रद्धालुओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी ।

चित्रकूट यात्रा  

इस यात्रा में कालिंजर की भैरवी के आग्रह पर घोरा देवी के मन्दिर में एक  अनुष्ठान सम्पन्न हुआ था । इस अनुष्ठान में अघोरेश्वर भगवान राम जी के साथ अघोराचार्य श्री सोमेश्वर राम जी, भरतमिलाप के महन्थ तथा भैरवी ने सक्रिय भूमिका का निर्वहन किया था । चक्रार्चन के समय आकाशगामिनी भैरवियाँ भी शामिल हुईं थीं ।
बाबा की यह यात्रा एक सप्ताह तक चली ।
नेपाल यात्रा
सन् १९६८ ई० के फागुन मास मे शिवरात्री के समय यह यात्रा हुई थी । बाबा की यह यात्रा इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि आज जो श्री परमेश्वरी सेवा केन्द्र, काठमान्डु, श्री माँ गुरु नारी समूह, काठमान्डु आदि देखते हैं उसका बीजारोपण इसी यात्रा के द्वारा हुआ था ।
अवधूत सिंह शावक राम
कहा जाता है कि अघोरेश्वर भगवान राम जी के प्रथम सन्यासी शिष्य होने का गौरव औघड़ सिंह शावक राम जी को ही है । आपका जन्म बिहार राज्य में भोजपुर जनपद के पाथर नामक गाँव में जगत प्रसिद्ध महाराज बिक्रमादित्य के कुल में सन् १९२१ ई० को हुआ था । आप कोलकाता विश्वविद्यालय के स्नातक थे । आप गुरु अघोरेश्वर भगवान राम जी से भेंट के पहले विभिन्न जागतिक प्रश्नों के समाधान के लिये हिमालय की उपत्यकाओं में स्थित विभिन्न प्रदेशों की अनेक बार यात्रा कर चुके थे । इन यात्राओं में अनेक साधु, सन्त महात्मा से हुई भेंट आपको आपके प्रश्नो का उत्तर नहीं दिला सकी । आप थक हारकर घर बैठ गये ।
सन् १९६६ ई० में आपको सदप्रेरणा हुई और आप अघोरेश्वर भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम , पड़ाव , वाराणसी पहुँच गये । आश्रम के मन्दिर में भगवती की आराधना करते हुए आपको आश्चर्यजनक अनुभूति हुई । आपने निश्चय कर लिया कि अपने पिछले जीवन को विराम देकर गुरु चरणों में शरण पायेंगे । बाबा की कृपा हुई और कुछ ही समय के पश्चात आपका दीक्षा संस्कार हो गया ।
कुछ काल तक आप गुरु चरणों में विधिवत अघोर साधना बिषयक शिक्षा ग्रहण करते रहे, फिर गुरु ने आपको आदि आश्रम हरिहरपुर  भेज दिया । आप हरिहर आश्रम में दस वर्षों तक रहे । आपने अपनी समस्त साधना, अनुष्ठान यहीं रहकर पूर्ण किया । साधना की अवधि बीत जाने के पश्चात आपको गुरु ने मुक्त कर दिया । आप यात्रा पर निकल पड़े ।
आपने सन् १९७७ ई० में दिलदारनगर , गाजीपुर में गिरनार आश्रम की स्थापना कर " अघोर सेवा मण्डल " नामक एक संस्था बनाया । इसके पश्चात आपने अनेक जगहों पर आश्रम, कुटिया का निर्माण कराया । अघोर सेवा मण्डल प्राकृतिक विपदा के समय सेवा का उत्कृष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है ।

शावक बाबा को सदैव नेपाल आकर्षित करता रहा है । उन्होने अनेक बार नेपाल की यात्रा की थी । नेपाल के आश्रमों का निर्माण की प्रेरणा आपने ही दी ।
अवधूत सिंह शावक राम जी ने अपना अँतिम समय मसूरी , हिमाचल प्रदेश में निर्मित " हिमालय की गोद" आश्रम में बिताया । ११ सितम्बर सन् २००२ ई० को आपने शिवलोक गमन किया ।

क्रमशः          

बुधवार, मई 19, 2010

अघोरपथ के प्रसिद्ध स्थल

चित्रकूट
अघोर पथ के अन्यतम आचार्य, भगवत स्वरुप दत्तात्रेय जी की जन्मस्थली चित्रकूट सभी के लिये तीर्थस्थल है । औघड़ों की कीनारामी परम्परा का उत्स यहीं से हुआ माना जाता है । माता अनुसूया जी का आश्रम तथा शरभंग ॠषि जो एक सिद्ध अघोराचार्य थे, का आश्रम, अघोर साधकों के लिये साधना की भूमि प्रदान करते हैं । यहाँ का स्फटिक शिला नामक महा श्मशान तथा पार्श्व में स्थित घोरा देवी का मन्दिर हमेशा से अघोर साधकों को आकर्षित करता रहा है । कहा जाता है कि स्फटिक शिला श्मशान में भगवान राम चन्द्र जी ने माता सीता का भगवती रुप में पूजन किया था और उसी उपलब्धि से वे असुरों का विनाश कर भारत में रामराज्य स्थापित करने में सफलमनोरथ हो सके थे ।

कवि रहीम खानखाना ने शासक का कोप भाजन बनने पर अपना अज्ञातवास काल यहीं पर बिताया था और कहा थाः

"चित्रकूट में रमि रहै रहिमन अवध नरेस ।
जापै विपदा पड़त है सो आवत यहि देस ।।"


अघोरेश्वर भगवान राम जी ने कई बार चित्रकूट की यात्रा की थी ।

प्रभासपत्तन

कलियुग के प्रारम्भ में यादवों ने आपस में लड़कर इसी स्थान पर अपने कुल का नाश कर लिया था । बाद में बाहरी आक्रान्ताओं ने यहाँ पर स्थित सोमनाथ मन्दिर की सम्पत्ति लूटने की गरज से अनेक बार आक्रमण कर व्यापक नर संहार किया । भयंकर नरसंहार होने के कारण यह एक महा श्मशान है । इस श्मशान में एक औघड़ आश्रम प्रतिष्ठित है जहाँ रहकर अनेक साधक तप करते रहते हैं । यहाँ भगवान सोमनाथ विराजते हैं ।

अघोरीकिला
बिहार में चोपन शहर के पास एक बहुत पुराने किले का अवशेष आज भी विद्यमान है । यह कालिंजर का किला पंद्रहवीं सदी से ही निर्जन प्राय रहता आया है । तभी से इस निर्जन किले को अघोरियों ने अपनी साधनास्थली बना रखा है । अभी कुछ वर्ष पहले तक एक सिद्ध अघोराचार्य की कीर्ति सुनने में आती थी । आजकल कुछ एक साधक यहाँ रहकर अपनी साधना में लगे रहते हैं । कुछ भैरवियों की उपस्थिति के भी प्रमाण मिलते हैं ।

जगन्नाथ पुरी

जगत प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर और विमला देवी मन्दिर, जहाँ सती का पाद खण्ड गिरा था, के बीच में एक चक्र साधना वेदी अवस्थित है । यह वेदी वशिष्ठ वेदी के नाम से प्रसिद्ध है । इसके अलावा पुरी का स्वर्गद्वार श्मशान एक पावन अघोर स्थल है । इस श्मशान के पार्श्व में माँ तारा मन्दिर के खण्डहर में ॠषि वशिष्ठ के साथ अनेक साधकों की चक्रार्चन करती हुई प्रतिमाएँ स्थापित हैं ।

श्री जगन्नाथ मन्दिर में भी श्रीकृष्ण जी को शुभ भैरवी चक्र में साधना करते दिखलाया गया है ।

कालीमठ
हिमालय तो सदा दिन से साधकों में आकर्षण जगाता आया है । कितने, किस कोटी के,और कैसे कैसे साधक हिमालय में साधनारत हैं कुछ कहा नहीं जा सकता । नैनीताल से आगे गुप्तकाशी  से भी ऊपर कालीमठ नामक एक अघोर स्थल है । यहाँ अनेक साधक रहते हैं । कालीमठ में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने एक बहुत बड़ा खड्ग स्थापित किया है । यहाँ से ५००० हजार फीट उपर एक पहाड़ी पर काल शिला नामक स्थल है जहाँ मनुष्य और पशु कठिनाई से पहुँच पाते हैं । कालशिला में भी अघोरियों का वास है ।

मदुरई

दक्षिण भारत में औघड़ों को ब्रह्मनिष्ठ कहा जाता है । यहाँ कपालेश्वर का मन्दिर है साथ ही ब्रह्मनिष्ठ लोगों का आश्रम भी है । आश्रम के प्राँगण में एक अघोराचार्य की मुख्य समाधि है । और भी समाधियाँ हैं । मन्दिर में कपालेश्वर की पूजा औघड़ विधि विधान से की जाती है ।

उपरोक्त स्थलों के अलावा अन्य जगहों पर भी जैसे रामेश्वरम, कन्याकुमारी, मैसूर,  हैदराबाद, बड़ौदा, बोधगया आदि अनेक औघड़, अघोरेश्वर लोगों की साधना स्थली, आश्रम, कुटिया पाई जाती है ।

कतिपय अन्य देशों में भी औघड़ , अघोरेश्वर ने भ्रमण के क्रम में जाकर मौज में आकर अपना निवास बना लिया है ।

नेपाल
नेपाल में तराई के इलाके में कई गुप्त औघड़ स्थान पुराने काल से ही अवस्थित हैं । अघोरेश्वर भगवान राम जी के शिष्य बाबा सिंह शावक राम जी ने काठमाण्डु में अघोर कुटी स्थापित किया है।  उन्होने तथा उनके बाद बाबा मंगलधन राम जी ने समाज सेवा को नया आयाम दिया है। कीनारामी परम्परा के इस आश्रम को नेपाल में बड़ी ही श्रद्धा से देखा जाता है ।

अफगानिस्थान
अफगानिस्तान के पूर्व शासक शाह जहीर शाह के पूर्वजों ने काबुल शहर के मध्य भाग में कई एकड़ में फैला जमीन का एक टुकड़ा कीनारामी परम्परा के संतों को दान में दिया था । इसी जमीन पर आश्रम, बाग आदि निर्मित हैं । औघड़ रतन लाल जी यहाँ पीर के रुप में आदर पाते हैं । उनकी समाधि तथा अन्य अनेक औघड़ों की समाधियाँ इस स्थल पर आज भी श्रद्धा नमन के लिये स्थित हैं ।

क्रमशः






 

शनिवार, मई 08, 2010

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल

बिंध्याचल
बिंध्य की पर्वत श्रृँखला एवं उसमें अवस्थित माँ बिंध्यवासिनी का शक्तिपीठ भारत ही नहीं अपितु समग्र विश्व में प्रसिद्ध है । मिरजापुर इस स्थल का रेलवे स्टेशन है, जहाँ से इसकी दूरी मात्र आठ किलोमीटर है । सड़क मार्ग से यह स्थान बनारस, इलाहाबाद, मऊनाथभंजन, रीवा, और औरंगाबाद से जुड़ा हुआ है । बनारस से ७० किलोमीटर तथा इलाहाबाद से ८३ किलोमीटर की दूरी पर बिंध्याचल धाम स्थित है ।

कहा जाता है कि महिषासुर बध के पश्चात माता दूर्गा इसी स्थान पर निवास हेतु ठहर गईं थीं, इसीलिये यहाँ की अधिष्ठात्री देवी माता दूर्गा को बिंध्यवासिनी के रुप में पूजन किया जाता है । इस स्थल में तीन मुख्य मन्दिर हैं । विन्ध्यवासिनी, कालीखोह और अष्टभुजा । इन मन्दिरों की स्थिति त्रिकोण यन्त्रवत् है । इनकी त्रिकोण परिकरमा भी की जाती है । इस पर्वत में अनेक गुफाएँ हैं, जिनमें रहकर साधक साधना करते हैं । आज भी अनेक साधक , सिद्ध, महात्मा, अवधूत, कापालिक आदि से यहाँ भेंट हो सकती है । इनके अलावा इस स्थल में सैकड़ों मन्दिर बिखरे पड़े हैं ।
बिंध्याचल पर्वत में तीन मुख्य कुण्ड हैं । प्रथम सीताकुण्ड है । कहते हैं रावण बध के पश्चात भगवान रामचन्द्र जी की वापसी यात्रा के समय भगवती सीता जी को बड़ी प्यास लगी । रामअनुज लक्ष्मण जी के तीर चलाने से इस कुण्ड का निर्माण हुआ और भगवती सीता माई की प्यास का शमन हुआ । यहीं से मन्दिर के लिये सीढ़ियाँ जाती हैं । पहले अष्टभुजा मन्दिर है । अष्टभुजा मन्दिर में ज्ञान , विवेक की देवी माता सरस्वती बिराजती हैं । उससे उपर कालीखोह है । यह स्थान यथा नाम काली जी का है । फिर आता है बिंध्याचल का मुख्य मन्दिर माता बिंध्यवासिनी मन्दिर ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी अपने साधना काल में कई वर्षों तक बिंध्याचल में रहे थे । बिंध्याचल में अष्टभुजा मन्दिर से कालीखोह की तरफ थोड़ी दूरी पर एक स्थान आता है, भैरव कुण्ड । यहाँ से प्रायः तीन सौ मीटर की उँचाई पर एक गुफा है । इसी गुफा में अघोरेश्वर रहते थे । आपको याद होगा इसी गुफा में जशपुर के महाराजा स्वर्गीय बिजयभूषण सिंह देव ने अघोरेश्वर का प्रथम दर्शन किया था । बाबा के इस स्थल पर निवास, तपस्या की स्मृति में एक कीर्ति स्तम्भ स्थापित किया गया है, जिसके चारों ओर बाबा के संदेश अँकित हैं । गुफा के भीतर भक्तों, श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ अघोरेश्वर की चरण पादुका एक चट्टान में जड़ दी गई है । यहाँ कई एक साधक आकर नाना प्रकार की साधनाएँ करते और अघोरेश्वर की कृपा से सिद्धी पाकर कृतकृत्य होते हैं ।
भैरवकुण्ड के स्वामी अक्षोभ्यानन्द सरस्वती , जो अघोरपथ के पथिक तो नहीं थे, परन्तु आचार, व्यवहार, शक्ति,और विद्या के मामले में अधिकारी विद्वान थे । स्बामी जी शाक्त परम्परा के कुलावधूत थे । आपको वाक् सिद्धी थी । आपकी प्रसिद्धी दूर दूर तक थी । गृहस्थ से तप के मार्ग में चलकर जिन गिनेचुने महान आत्माओं ने अध्यात्म की उच्चावस्था को प्राप्त किया है, उनमें से एक भैरवकुण्ड के स्वामी अक्षोभ्यानन्द सरस्वती जी भी हैं ।
क्रमशः



रविवार, मई 02, 2010

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल

तारापीठ

इस स्थान पर दक्ष यज्ञ विध्वंश के पश्चात मोहाविष्ट शिव जी के कंधों से शिव भार्या दाक्षायणी, सती की आँखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर गिरी थीं, इसीलिये यह शक्तिपीठ बन गया और इसीलिये इसे तारापीठ कहते हैं । मातृ रुप माँ तारा का यह स्थल तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सब में समान रुप से श्रद्धास्पद, पूजनीय माना जाता है ।
शताब्दियों से साधकों, सिद्धों में प्रसिद्ध यह स्थल पश्चिम बँगाल के बीरभूम अँचल में रामपुर हाट रेलस्टेशन के पास द्वारका नदी के किनारे स्थित है । कोलकाता से तारापीठ की दूरी लगभग २६५ किलोमीटर है । यह स्थल रेलमार्ग एवं सड़क मार्ग दोनो से जुड़ा है । इस जगह द्वारका नदी का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर है, जो कि भारत में सामान्यतः नहीं पाया जाता । नाम के अनुरुप यहाँ माँ तारा का एक मन्दिर है तथा पार्श्व में महाश्मशान है । द्वारका नदी इस महाश्मशान को चक्राकार घेरकर कच्छपपृष्ट बनाते हुए बहती है ।

यह स्थल तारा साधन के लिये जगत प्रसिद्ध रहा है । पुरातन काल में महर्षि वशिष्ठ जी इस तारापीठ में बहुत काल तक साधना किये थे और सिद्धि प्राप्त कर सफल काम हुए थे । उन्होने इस पीठ में माँ तारा का एक भव्य मन्दिर बनवाया था जो अब भूमिसात हो चुका है । कहते हैं वशिष्ठ जी कामाख्या धाम के निकट नीलाचल पर्वत पर दीर्घकाल तक संयम पूर्वक भगवती तारा की उपासना करते रहे थे , किन्तु भगवती तारा का अनुग्रह उन्हें प्राप्त न हो सका, कारण कि चीनाचार को छोड़कर अन्य साधना विधि से भगवती तारा प्रसन्न नहीं होतीं । एकमात्र बुद्ध ही भगवती तारा की उपासना और चीनाचार विधि जानते हैं । महर्षि वशिष्ठ , यह जानकर भगवान बुद्ध के समीप उपस्थित हुए और उनसे आराधना विधि एवं आचार का ज्ञान प्राप्तकर इस पीठ में आये थे । बौधों में बज्रयानी साधक इस विद्या के जानकार बतलाये जाते हैं । औघड़ों को भी इस विद्या की सटीक जानकारी है ।

वर्तमान मन्दिर बनने की कथा दिलचस्प है । कथा इस प्रकार है




" जयब्रत नाम के एक व्यापारी थे । उनका इस अँचल में लम्बाचौड़ा व्यापार फैला हुआ था । श्मशान होने के कारण तारापीठ का यह क्षेत्र सुनसान हुआ करता था । भय से लोग इधर कम ही आते थे । विशेष दिनों में इक्का दुक्का साधक इस ओर आते जाते दिख जाया करते थे । व्यापार के सिलसिले में जयब्रत को प्रायः इस क्षेत्र से गुजरना पड़ता था । एक बार जयब्रत को पास के गाँव में रात्रि विश्राम हेतू रुकना पड़ा । ब्राह्म मुहुर्त में जयब्रत को स्वप्न में माँ तारा के दर्शन हुए । माँ ने आदेश दिया कि श्मशान की परिधि में धरती के नीचे ब्रह्मशिला गड़ा हुआ है । उसे उखाड़ो और वहीं पर विधिपूर्वक प्राण प्रतिष्ठित करो । स्वप्न में प्राप्त आदेश के अनुसार जयब्रत ब्रह्मशिला उखड़वाया और वर्तमान मन्दिर का निर्माण कराकर माँ तारा की भव्य मूर्ति स्थापित किया ।"




मातृरुपा माँ तारा की मूर्ति दिव्य भाव लिये हुए है । माता ने अपने वाम बाजु में शिशु रुप में शिव जी को लिया हुआ है । शिव जी माता के वाम स्तन से दुग्धामृत का पान कर रहे हैं और माता के स्नेहसिक्त नयन अपलक शिशु शिव जी को निहार रहे हैं । कहते हैं समुद्र मँथन से निकले विष का देवाधिदेव भगवान शिव जी ने पान कर संसार की रक्षा की थी । इस विषपान के प्रभाव से भगवान शँकर को उग्र जलन एवं पीड़ा होने लगी । कोई उपाय न था । माता ने तब शिव जी को इस प्रकार अपना स्तनपान कराकर उन्हें कष्ट से त्राण दिलाया था । इसीलिये माँ को तारिणी भी कहते हैं ।



अघोराचार्य बामाखेपा

तारापीठ में साधना कर अनेक सिद्धियाँ हस्तगत करने वाले एक महान अघोराचार्य हो गये हैं । उनका नाम है " वामाक्षेपा" । बंगाल के बीरभूम जिलान्तर्गत अतला ग्राम में सर्वानन्द चट्टोपाध्याय एवं श्रीमति राजकुमारी के घर आपका जन्म सन् १८३७ ई० में हुआ था । माता, पिता ने आपका नाम रखा था बामा । बामा चट्टोपाध्याय । आप जन्मना सिद्ध पुरुष थे । माता पिता ने आपको स्कूल भेजा , लेकिन पढ़ाई की ओर आपका ध्यान नहीं था । बचपन से ही आप आँख मूँदकर घँटों चुपचाप बैठे रहते थे । आप सांसारिक नियमों की अवहेलना करने के कारण ग्रामवासियों के द्वारा पागल घोषित कर दिये गये और आपके नाम बामा के साथ खेपा, जिसका अर्थ पागल होता है, जोड़ दिया गया ।
किशोर बामा रात के किसी समय पड़ोसियों के घर से देवताओं की मुर्तियाँ चुराकर पूरी रात पूजा किया करते थे । सुबह मुर्तियों की चोरी के कारण बामा को कड़ा दण्ड भुगतना पड़ता परन्तु वे अगली रात फिर वही काम करते । इसीबीच आपके पिता का स्वर्गवास हो गया । परिवार तो पहले ही गरीब था, अब तो फाके की नौबत आ गयी । बामा कोई भी कार्य करने के योग्य न थे, क्योंकि वे कभी भी अपना होश गँवा बैठते थे । ऐसा कभी भी हो जाता था । कभी लाल फूल देखकर तो कभी कुछ और , उन्हें माँ तारा की स्मृति हो आती थी और वे समाधि में चले जाते थे । अब तो उनकी माता ने भी मान लिया कि उनका पुत्र पागल हो चुका है । माता ने बामा को घर के अँदर बन्द करके रख दिया, परन्तु बामा कहाँ मानने वाले थे । वे रात में चुपचाप दरवाजा खोलकर घर से भाग निकले और द्वारका नदी को तैरकर तारापीठ के महाश्मशान में पहुँच गये ।


बामाखेपा को तारापीठ के महाश्मशान के पार्श्व में कुटी बनाकर साधनरत बाबा कैलाशपति ने अपना शिष्य स्वीकार कर ताँत्रिक विधि विधान सिखाने लगे । आपकी माता द्वारा पुत्र बामा को वापस लौटा ले जाने के सभी प्रयास बिफल हो जाने पर तारा मन्दिर में फूल एकत्र करने के काम पर लगवा दिया गया । आपसे यह काम नहीं सधा । आप अपने आप में डूबे तारापीठ के महाश्मशान में ,जहाँ बिषधर, श्रृगाल, कुत्तों और अन्य बनैले जन्तुओं के साथ रहने लगे । आपको भावावेश की अवस्था में रात, दिन, शीत, गर्मी, आदि कुछ नहीं भाषता था । आप आठों प्रहर माँ तारा के ध्यान में निमग्न रहते थे ।
इस प्रकार एक लम्बा समय बीत गया । आपकी साधना चलती रही । तारापीठ का महाश्मशान बाबा बामाखेपा को परम सत्य को उपलब्ध होते देखता रहा । बाबा का माँ तारा की भक्ति में रोज आनन्दोत्सव होता । बाबा कभी नाचते, कभी गाते और कभी अजगर वृत्ति से पड़े रहते किसी कोने में । बाबा को अब शरीर का भी ध्यान नहीं रह गया था । कमर में लिपटा वस्त्र कब निकल कर गिर जाता उन्हें पता ही नहीं चलता था । वे अवधूत अवस्था में दिगम्बर ही घूमते रहते ।
बाबा का अपनी लौकिक माता के साथ कोई सम्पर्क नहीं रह गया था, परन्तु माँ से वे बहुत प्यार करते थे । अपनी जन्मदात्री को वे माँ तारा के जैसा ही मानते थे । माँ के स्वर्गवास के समय यह बात सिद्ध भी हो गई थी । कहते हैः
" बाबा बामाखेपा को सूचना मिली कि जन्मदात्री माता का स्वर्गवास हो गया । उस समय घनघोर वर्षा हो रही थी । द्वारका नदी उफान पर थी । माता के शव को अँतिम संस्कार के लिये तारापीठ के महाश्मसान तक लाना असंभव हो गया । सगे सम्बन्धी सब किंकर्तब्यविमूढ़ की स्थिति से उबर ही नहीं पा रहे थे । बाबा उफनती द्वारका नदी को तैरकर पार किये और अपने गाँव " अतला" जाकर माता के शव को कँधे में लेकर फिर बाढ़ भरी द्वारका नदी को तैरकर पार करके तारापीठ के महाश्मशान में ले आये । पीछे से सब सगे सम्बंधी भी आ गये । उन्होने अपने भाई रामचरन से माता का अँतिम संस्कार कराया । जनश्रुति है कि बाबा की माता के शवदाह के समय चारों ओर घनघोर वर्षा हो रही थी, परन्तु शवदाह के लिये एकत्रित जनों पर एक बूँद भी पानी नहीं गिरा ।"


तारापीठ का यह पागल संत अब अनेक सिद्धियों का स्वामी हो गया था । आसपास के लोग बाबा के पास बड़ी संख्या में आने लगे थे । अनेक लोगों का बाबा के आशीर्वाद से कष्टनिवारण भी हो जाया करता था । बाबा के चमत्कार की, अलौकिक क्रियाकलाप की अनेक कथाएँ कही सुनी जाती हैं ।


बाबा बामाखेपा की महासमाधि सन् १९११ ई० को हुई थी ।


तारापीठ में साधना हेतु न केवल पूर्वाँचल अपितु समग्र देश और विदेशों से भी साधक आते रहते हैं । साधक प्रायः अधिक संख्या में अमावश्या को दिखते हैं । अन्य अवसरों पर श्रद्धालुओं, भक्तों, पर्यटकों आदि की ही भीड़ होती है ।

क्रमशः

रविवार, अप्रैल 25, 2010

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल



हिंगलाज धाम

अघोरपथ के अनेक पुन्य स्थलों में से एक हिंगलाज वर्तमान पाकिस्तान देश के बलुचिस्तान राज्य में अवस्थित है । यह स्थान सिंधु नदी के मुहाने से १२० किलोमीटर और समुद्र से २० किलोमीटर तथा कराची नगर के उत्तर पश्चिम में १२५ किलोमीटर की दूरी पर हिंगोल नदी के किनारे स्थित है । यह अँचल मरुस्थल होने के कारण इस स्थल को मरुतीर्थ भी कहा जाता है । इस स्थल के श्रद्धालु पूरे भारतवर्ष में पाये जाते हैं ।

भारतवर्ष के ५२ शक्तिपीठों में इस पीठ को भी गिना जाता है । कथा है कि एक बार महाराज दक्ष प्रजापति यज्ञ करा रहे थे । उन्होने समस्त देवताओं को निमंत्रित किया था । उस यज्ञ में उनके अपने जामाता शिव जी को आमंत्रित नहीं किया गया था । दक्ष पुत्री, शिव भार्या दाक्षायनी, सती शिव जी के मना करने पर भी अनिमन्त्रित ही  पिता के घर यज्ञस्थल पहुँच गईं । महाराज दक्ष के द्वारा शिव जी को सादर आमन्त्रित कर पूजन करने के सती के प्रस्ताव को अमान्य कर देने पर इसे अपना और अपने पति का अपमान माना और सती क्रुद्ध हो गईं । उन्होने अपमान की पीड़ा में योगाग्नि उत्पन्न कर अपना शरीर दग्ध कर त्याग दिया । सती  के इस प्रकार से शरीर त्याग देने से शिव जी को मोह हो गया । शिव जी ने सती के अधजले शव को कन्धे पर उठाये उन्मत्त होकर इधर उधर घूमने लगे । शिव जी की मोहाभाविष्ट दशा से चिन्तित देवताओं ने भगवान विष्णु से उपाय करने की प्रार्थना की । भगवान विष्णु अपने आयुध सुदर्शन चक्र से शिव जी के कन्धे पर के सती के शव को खण्ड खण्ड काटकर गिराने लगे  । हिंगलाज स्थल पर सती का सिरोभाग कटकर गिरा । अन्य इक्यावन शक्तिपीठों में सती के विभिन्न अँग कटकर गिरे थे ।  इस प्रकार ५२ शक्तिपीठों की स्थापना हुई ।

जनश्रुति है कि रघुकुलभूषण मर्यादा पुरुषोत्तम राम चन्द्र जी शक्ति स्वरुपा सीता जी के साथ रावण बध के पश्चात ब्रह्म हत्या दोष के निवारण के लिये हिंगलाज गये और देवी की आराधना किये थे । यह भी कहा जाता है कि पुरातन काल में इस  क्षेत्र के शासक भावसार क्षत्रीयों की कुल देवी हिंगलाज थीं । बाद में यह क्षेत्र  मुसलमानों के अधिकार में चला गया । यहाँ के स्थानीय मुसलमान हिंगलाज पीठ को "बीबी नानी का मंदर"  कहते हैं । अप्रेल के महीने मे स्थानीय मुसलमान समूह बनाकर हिंगलाज की यात्रा करते हैं और इस स्थान पर आकर लाल कपड़ा चढ़ाते हैं, अगरबत्ती जलाते है, और शिरीनी का भोग लगाते हैं । वे इस यात्रा को "नानी का हज" कहते हैं । आसपास के निवासी जहर से सम्बिधित विमारीयों के निवारण के लिये इस स्थल की यात्रा करते हैं, माता का पूजन , प्रार्थना करते हैं । उनकी मान्यता है कि हिंगुल में जहर को मारने की शक्ति होती है अतः हिंगलाज देवी भी जहर से सम्बंधित रोगों से त्राण दिलाने में सक्षम हैं ।

हिंगलाज देवी की गुफा रंगीन पत्थरों से निर्मित है । गुफा में प्रयुक्त विभिन्न रंगों की आभा देखते ही बनती है । माना जाता है कि इस गुफा का निर्माण यक्षों के द्वारा किया गया था,  इसीलिये रंगों का संयोजन इतना भव्य बन पड़ा है । पास ही एक भैरव जी का भी स्थान है । भैरव जी को यहाँ पर "भीमालोचन" कहा जाता है ।

अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी की हिंगलाज यात्रा की कथा हमें प्राप्त होती है । कथा कुछ इस प्रकार हैः

"उन दिनों बाबा कीनाराम जी गिरनार में तप कर रहे थे । भ्रमण के क्रम में एकबार बाबा कच्छ की खाड़ियों, दलदलों को, जिनको पार करना असम्भव है, अपने खड़ाऊँ से पार कर हिंगलाज जा पहुँचे । हिंगलाज पहुँचकर बाबा कीनाराम मंदिर से कुछ दूरी पर घूनी लगाये तपस्या करने लगे ।  बाबा कीनाराम जी को हिंगलाज देवी एक कुलीन घर की महिला के रुप में प्रतिदिन स्वयं भोजन पहुँचाती रहीं । बाबा की धूनी की सफाई, व्यवस्था १०,११ वर्ष के बटुक के रुप में, भैरव स्वयं किया करते थे । एक दिन महाराज श्री कीनाराम जी ने पूछ दियाः " आप किसके घर की महिला हैं ?  आप बहुत दिनों से मेरी सेवा में लगी हुई हैं । आप अपना परिचय दीजिये नहीं तो मैं आप का भोजन ग्रहण नहीं करुँगा ।"  मुस्कुराकर हिंगलाज देवी ने बाबा कीनाराम जी को दर्शन दिया और कहाः " जिसके लिये आप इतने दिनों से तप कर रहे हैं, मैं वही हूँ । मेरा अब समय हो गया है । मैं अपने नगर काशी में जाना चाहती हूँ। अब आप जाइये और जब कभी स्मरण कीजियेगा मैं आप को मिल जाया करूँगी "।  महाराज श्री कीनाराम ने पूछाः माता, काशी में कहाँ निवास करियेगा ? हिंगलाज देवी ने उत्तर दियाः मैं काशी में केदारखण्ड में क्रीं कुण्ड पर निवास करूँगी" ।  उसीदिन से ॠद्धियाँ महाराज श्री कीनाराम के साथ साथ चलने लगीं और बटुक भैरव की उस धूनी से महाराज श्री का सम्पर्क टूट गया । महाराज ने धूनी ठंडी की और चल दिये ।"

क्रीं कुण्ड स्थल वाराणसी में एक गुफा है । उक्त गुफा में बाबा कीनाराम जी ने हिंगलाज माता को स्थापित किया है । सामान्यतः यह एक गोपनीय स्थान है ।
इन दो स्थलों के अलावा हिंगलाज देवी एक और स्थान पर विराजती हैं, वह स्थान उड़ीसा प्रदेश के तालचेर नामक नगर से १४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । जनश्रुति है कि विदर्भ क्षेत्र के राजा नल माता हिंगलाज के परम भक्त हो गये हैं । उनपर हिंगलाज देवी की महती कृपा थी । एकबार पूरी के महाराजा गजपति जी ने विदर्भ नरेश नल से सम्पर्क साधा और निवेदन किया कि जगन्नाथ मंदिर में भोग पकाने में बड़ी असुविधा हो रही है, अतः माता हिंगलाज अग्नि रुप में जगन्न्थ मंदिर के रंधनशाला में विराजमान होने की कृपा करें । माता ने राजा नल द्वारा किया गया निवेदन स्वीकार कर लिया और जगन्नाथ मंदिर परिसर में अग्नि के रुप में स्थापित हो गईं । उन्हीं अग्निरुपा माता हिंगलाज का मंदिर तालचेर के पास स्थापित है ।

छत्तिसगढ़ में हिंगलाज देवी का शाक्त सम्प्रदाय में प्रचूर प्रचार रहा है । यहाँ शक्ति साधकों, मांत्रिकों को बैगा कहा जाता रहा है । इस अँचल में अनेक शक्ति साधकों के अलावा समर्थ आचार्य भी हुये हैं । उनमें से कुछ का नाम इस प्रकार हैः १, देगुन गुरु, २, धनित्तर गुरु, ३ बेंदरवा गुरु |इससे रुद्र के अँशभूत हनुमान इँगित होते हैं |   ४, धरमदास गुरु | धरमदासजी कबीरपँथ के आचार्य थे |  ५, धेनु भगत, ६, अकबर गुरु |आप मुसलमान थे | आदि । इन सब गुरुओं ने हिंगलाज देवी को सर्वोपरी माना है और बोल मंत्रों में देवी को गढ़हिंगलाज में स्थिर हो जाने का निवेदन करते हैं । हिंगलाज के सन्दर्भ का एक बोल मन्त्र दृष्टव्य हैः

" सवा हाथ के धजा विराजे, अलग चुरे खीर सोहारी,
ले माता देव परवाना, नहिं धरती, नहिं अक्कासा,
जे दिन माता भेख तुम्हारा, चाँद सुरुज के सुध बुध नाहीं,
 चल चल देवी गढ़हेंगुलाज, बइठे है धेनु भगत,
 देही बिरी बंगला के पान,  इक्काइस बोल,  इक्काइस परवाना,
 इक्काइस हूम, धेनु भगत देही, शीतल होके सान्ति हो ।"

क्रमशः













 

मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल

अघोरपथ के पथिक, सिद्ध, महात्मा, संत,अवधूत,अघोरेश्वर जिन स्थलों में रहकर साधना किये हैं , तप किये हैं, वे स्थल जाग्रत अवस्था में आज भी साधकों को साधना में नई उँचाइयाँ प्राप्त करने में सहयोगी हो रहे हैं ।  इन स्थलों में उच्च स्तर के साधकों को सिद्ध, अवधूत, अघोरेश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन , मार्गदर्शन भी प्राप्त हो जाया करता  है । हम यहाँ कतिपय ऐसे ही स्थलों की चर्चा करेंगे ।

१, गिरनार

 गुजरात राज्य में अहमदाबाद से लगभग ३२७ किलोमीटर की दूरी पर अपने सफेद सिंहों के लिये गीर के जगत प्रसिद्ध अभयारण्य के पार्श्व में  एक नगर बसा है,  नाम है जूनागढ़ । इस शहर के आसपास से शुरु होकर पहाड़ों की एक श्रृँखला दूर तक चली गई है । इसी पर्वत श्रृखला का नाम ही गिरनार पर्वत है । इस पर्वत श्रृँखला का सबसे उँचा पर्वत जूनागढ़ शहर से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है । इस पर्वत की तीन चोटियाँ हैं । इन तीनों में से सबसे उँची चोटी पर भगवान दत्तात्रेय जी का एक छोटा सा मन्दिर है, जिसके अंदर भगवान दत्तात्रेय जी की चरणपादुका एवं कमण्डलु तीर्थ स्थापित हैं । दूसरे शिखर का नाम बाबा गोरखनाथ के नाम है । कहा जाता है यहाँ बाबा गोरखनाथ जी ने बहुत काल तक तप किया था । इन दोनो शिखर के बीच में एक तीसरा शिखर है जो अघोरी टेकड़ी कहलाता है । इसकी चोटी में एक धूनि हमेशा प्रज्वलित रहती है, और यहाँ अनेक औघड़ साधु गुप्त रुप से तपस्या रत रहते हैं ।

गिरनार की प्रसिद्धि के तीन कारक गिनाए जाते हैं ।

पहला, भगवान दत्तात्रेय जी का कमण्डलु तीर्थ । भगवान दत्तात्रेय भगवान सदाशिव के पश्चात अघोरपथ के अन्यतम आचार्य हो गये हैं । उन्होने अपने तपोबल से गिरनार को उर्जावान बना दिया है । इस स्थल पर साधकों को सरलता से सिद्धि हस्तगत होती है । कहा तो यह भी जाता है कि जो योग्य साधक होते हैं, उन्हें भगवान दत्तात्रेय यहाँ पर प्रत्यक्ष दर्शन देकर कृतार्थ भी करते हैं ।

दूसरा, गिरनार पर्वत के मध्य में स्थित जैन मन्दिर । लगभग ५५०० सिढ़ियाँ चढ़ने पर यह स्थान आता है । यहाँ पर कई जैन मन्दिर है । इन मन्दिरों का निर्माण बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी में हुआ था । इसी स्थान पर जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर बाबा नेमीनाथ जी परमसत्य को उपलब्ध हुए थे । इस स्थल से जैन धर्म के उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लीनाथ जी का नाम भी जोड़ा जाता है । कोई कोई विद्वतजन मल्लीनाथ जी को स्त्री भी मानते हैं । सत्य चाहे जो हो मल्लीनाथ जी तिर्थंकर थे इसमें कोई संदेह नहीं है । इस प्रकार गिरनार जैन धर्मावलम्बियों के लिये भी तीर्थ है, और बड़ी संख्या में जैन तीर्थयात्री यहाँ आते भी रहते हैं ।

तीसरा, जैन मन्दिर से और ऊपर अम्बा माता का मन्दिर अवस्थित है । यह मन्दिर भी पावन गिरनार पर्वत की प्रसिद्धि का एक कारण है । यह एक जाग्रत स्थान है । वर्षभर तीर्थयात्री यहाँ माता के दर्शन के लिये आते रहते हैं ।

श्री सर्वेश्वरी समूह वाराणसी द्वारा प्रकाशित "औघड़ राम कीना कथा " ग्रँथ में अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी का जूनागढ़ , गिरनार प्रवास उल्लिखित है । कथा कुछ इस प्रकार आगे बढ़ती हैः

"महाराज श्री कीनाराम जी जब जूनागढ़ राज्य में पदार्पण किये, उन्होने कमण्डलु कुण्ड, अघोरी शिला पर बैठे हुए सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी को बड़े वीभत्स रुप में माँस का एक बड़ा सा टुकड़ा लिये हुए देखा । कीनाराम जी को इससे थोड़ी घृणा हुई । उसी माँस का एक टुकड़ा दाँतों से काटकर सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी ने महाराज श्री कीनाराम जी को दिया । उसे खाते ही महाराज श्री कीनाराम जी की रही सही शंका और घृणा भी जाती रही ।
एक बार अघोरी का रुप धारण किए हूए सिद्धेश्वर दत्तात्रेय और महाराज श्री कीनाराम जी एक ही साथ गिरनार पर्वत पर बैठे हुए थे । वहाँ से उन्होने दिल्ली में घोड़े पर जाते हुए बादशाह का दुशाला गिरते हुए देखा । सिद्धेस्वर दत्तात्रेय जी ने बाबा कीनाराम जी से कहाः " देखते नहीं हो ? दुशाला घोड़े से गिर गया है । " महाराज श्री कीनाराम जी ने कहाः " वजीर लोग दुशाला दे रहे हैं । घोड़ा काला है । बादशाह अपने महल को जा रहे हैं ।" इस पर वीभत्स रुप धारण किये हुये सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी ने कहा, अब क्या देखते हो? अब क्या गिरनार में बैठे हो?  जाओ।  प्राणियों का कल्याण करो । उनमें जो क्षोभ, मोह, ईर्ष्या और घृणा है उसे तुम दूर करो । तुम एक अँश से इसी मध्य शिखर पर विराजोगे ।" तभी से गिरनार पर्वत का मध्य शिखर " अघोरी टेकड़ी के नाम से विख्यात है । यह भी विख्यात है कि दत्तात्रेय जब गोरखनाथ की ओर चीलम बढ़ाते हैं तो औघड़ बीच में रोककर पी लेते हैं ।

" दत्त गोरख की एक ही माया, बीच में औघड़ आन समाया ।"
क्रमशः

गुरुवार, अप्रैल 08, 2010

अष्टाँग साधना


अघोरपथ में यह एक अत्यंत ही गोपनीय साधना है । अवधूत, अघोरेश्वर समय काल पाकर इस साधना को करते हैं । संभव है प्रकृति विजय के क्रम में इस साधन प्रणाली का सहारा लिया जाता हो । इसके विषय में गुरु और अधिकारी शिष्य के अलावा अन्य व्यक्ति को कुछ भी ज्ञान होना संभव नहीं है, क्योंकि साधना काल में अन्य व्यक्ति की उपस्थिति वाँछनीय नहीं होती, वरन् व्यवधान ही माना जाता है । श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा प्रकाशित साहित्य में एक स्थान पर अति सामान्य ढ़ंग से इस साधना का विवरण दिया गया है । विवरण भी इतना अल्प है कि हम इसे साधना की ओर इँगित करना ही कह सकते हैं । वैसे तो जैसा कि हम पूर्व में कह आये हैं अघोर साधना गुरुमुखी साधना है, परन्तु सामान्य जानकारी के लिये उक्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है ।

" एक बार अघोरेश्वर भगवान राम जी छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में स्थित सोगडा आश्रम में निवास कर रहे थे । उनका शिष्य मुड़िया साधु वहीं अपनी कुटी में रहकर बाबा की सेवा में लीन था । बाबा की शिष्या योगिनी मेघमाला अपने गुरु के दर्शन के लिये आई हुई थीं ।
एक दिन अघोरेश्वर चाँदनी रात के शून्यायतन में वहाँ की पर्वताट्टालिका में चट्टान पर ध्यानस्थ बैठे थे । योगिनी मेघमाला तथा मुड़िया साधु उनके समक्ष उपस्थित होकर साष्टाँग प्रणाम, अभिवादन किये और सत्संग के लिये चरणों में बैठ गये ।

बाबा की आज्ञा पाकर योगिनी ने मुड़िया साधु की ओर इशारा करते हुए निवेदन कियाः " गुरुदेव, कल रात्रि में जब मैं टहलने के क्रम में  इनकी कुटी के पास से गुजरी तो देखी कुटी के भीतर  इनके शरीर के सब अंग अलग अलग पड़े हैं । कटि भाग अलग है, वक्षस्थल अलग है, बाहें अलग हैं, पाँव अलग हैं । मुझे शंका हुई कि किसी क्रूरकर्मी ने हमारे इन गुरुभाई मुड़िया साधु के शरीर को काटकर , उनके अंगों को अलग अलग कर दिया है ।

इनकी कुटी झंझरीदार है, उसमें से भीतर का दृश्य थोड़ा बहुत दिख जाता है ।

 मैं बहुत भयभीत हो गई और तीव्रगति से आपके कुटी के पास गई तो देखा कि कुटी का द्वार बन्द है । कुछ उपाय न सूझ रहा था । मैं पुनः इनकी कुटी की परिधि में लौट आई । मेरी घबराहट इतनी बढ़ गई थी कि मैं एकाएक जोर से चिल्ला उठी, परम्मा ! परम्मा! यह क्या हुआ ? मेरी आवाज को सुनते ही मैंने देखा कि हमारे ये मुड़िया गुरुभाई स्वस्थ शरीर आसनस्थ बैठे हुये हैं । मेरे बार बार पूछने पर भी इन्होंने कुछ नहीं बतलाया । गुरुदेव क्या ये मेरा भ्रम था या सत्य था ?

बाबा ने पूछाः " मेघमाले ! तुमने वहाँ रक्त भी देखा था ?

जब मेघमाला ने कहा कि उसने रक्त नहीं देखा था, तब बाबा जी ने कहा किः " उस स्थिति में आश्चर्य की क्या बात है ? औघड़, अघोरेश्वर लोग, जब अनुकूल स्थिति पाते हैं तो दिब्य संकल्पों के द्वारा भाव भावनाओं से रहित अपनी कुटी में आसनस्थ हो इस क्रिया को भी करते हैं । जो कुछ इसने किया है, वह क्रिया और कला दोनों है । यह कोई बिद्या नहीं है, अष्टांग अभ्यास है ।"

हमने इस साधना, क्रिया, अभ्यास, जैसा कि अघोरेश्वर जी ने बतलाया है, का संकेत शिरडी वाले सांई राम जी के लीला चरित में भी पाया है । वे भी अष्टाँग साधना किया करते थे । उन्हें ऐसा करते साधुओं की एक टोली ने देखा था, जो रात्री के अंधकार में उन्हें नुकसान पहुँचाने की नियत से द्वारका माई में प्रवेश किया था । निश्चय ही वे भी इस साधना, अभ्यास में पारंगत थे । उनके विषय में इस लेखक को ज्यादा जानकारी तो नहीं है, लेकिन उनके नाम में राम लगना तथा औघड़ों के गोप्य साधना पद्धतियों का अनुशरण करना, पारंगत होना  इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि शिरडी वाले सांई राम जी कीनारामी परम्परा के साधु थे ।

औघडों में और भी अनेकों गोपनीय साधनाओं, क्रियाओं का प्रचलन है, जिनसे वे शक्तिमान बनते हैं तथा समाज और देश का कल्याण करते हैं ।

क्रमशः