शुक्रवार, मार्च 26, 2010

अघोर साधना के मूल तत्वः गोप्य पूजाः श्मशान क्रिया

श्मशान शब्द से ही जलते हुए शव से चतुर्दिग फैलती चिराँध, श्रृगालों के द्वारा खोदकर निकाली गई मानव अँगों को चिचोड़ते गिद्धों की टोलियाँ, यहाँ वहाँ
हवा के हाथों बिखरे जले हुए मानव तन की भष्मी के अँश, यत्र तत्र पड़े हड्डियों और माँस के छिन्न खंड, रह रहकर आती ऊलूकों के धूत्कार, आदि दृष्य अनायास ही आँखों के सामने आकर जुगुप्सा जगाने लगते हैं । श्मशान मानव मनोविकार द्वय "भय" और  "घृणा" के चरमोत्कर्ष की स्थली है । लोग अपने प्रियजनों की शव यात्रा में अन्य अनेक सम्बन्धियों के साथ श्मशान में कम समय के लिये आते हैं और प्राण रहित देह को अग्नि या धरती के सिपुर्द कर लौट जाते हैं । जन सामान्य का श्मशान से इतना ही सम्बन्ध है । यही श्मशान अघोर पथ के साधकों, सिद्धों, अघोराचार्यों, साधुओं की साधना स्थली, निवास स्थली रहती रही है । बहुत काल तक जंगल के भीतर निर्मित किसी मंदिर के गर्भगृह के शून्यायतन में या किसी महाश्मशान के भीतरी भाग में किसी समाधी को शय्या बनाकर औघड़ साधक साधना में निमग्न रहते आये हैं ।

" औघड़ के नौ घर, बिगड़े तो शव घर ।"

साधना की पराकाष्ठा तभी होती है जब पूर्ण इन्द्रीय जय या मनोविकारों पर जय सिद्ध हो जाता है । इस शरीर में नौ द्वार होते हैं । २ आँखें, २ कान, २ नाक, १ मुँह, १ शिश्न या योनि तथा १ गुदा । इनको वश में कर लेने से आध्यात्मिक उन्नति की गति तीव्र हो उठती है । श्मशान क्रियाओं के द्वारा इनपर विजय पाना सरल हो जाता है ।

कमोवेश श्मशान साधना भारत में अघोरियों के अलावा अन्य कई सम्प्रदायों में भी की जाती है । इसका चलन पूर्वी भारत में ज्यादा दिखता है । आसाम, पूर्वी बिहार या मैथिल प्रदेश, बंगाल तथा उड़ीसा के पूर्वी भाग में, आमावश्या की निशारात्री में अनेक साधक महाश्मशानों में साधनारत रहते हैं । अन्य भू भाग में भी छिटपुट रुप से श्मशान साधक फैले हुए हैं ।

आसाम का कामरुप प्रदेश का तन्त्र साधना स्थली के रुप में बहुत नाम रहा है । पुरातन काल की कथा है, इस प्रदेश में मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था प्रचलित थी । कामरुप की स्त्रियाँ तन्त्र साधना में बड़ी ही प्रवीण होती थीं । बाबा आदिनाथ, जिन्हें कुछ विद्वान भगवान शंकर  मानते हैं, के शिष्य बाबा मत्स्येन्द्रनाथ जी भ्रमण के क्रम में कामरुप गये थे । बाबा मत्स्येन्द्रनाथ जी कामरुप की रानी के अतिथि के रुप में महल में ठहरे थे । बाबा मत्स्येन्द्रनाथ, रानी जो स्वयं भी तंत्रसिद्ध थीं, के साथ  लता साधना में इतना तल्लीन हो गये थे कि वापस लौटने की बात ही भूल बैठे थे । बाबा मत्स्येन्द्रनाथ जी को वापस लौटा ले जाने के लिये उनके शिष्य बाबा गोरखनाथ जी को कामरुप की यात्रा करनी पड़ी थी । "जाग मछेन्दर गोरख आया " उक्ति इसी सन्दर्भ में बाबा गोरखनाथ जी द्वारा कही गई थी । कामरुप में श्मशान साधना व्यापक रुप से प्रचलित रहा है । इस प्रदेश के विषय में अनेक दन्तकथाएँ प्रचलित हैं । बाहर से आये युवाओं को यहाँ की महिलाओं द्वारा भेड़ , बकरी बनाकर रख लिया जाना एक ऐसी ही दन्त कथा है ।

बंगाल में श्मशान साधना का प्रसिद्ध स्थल क्षेपा बाबा की साधना स्थली तारापीठ का महाश्मशान रहा है । आज भी अनेक साधक श्मशान साधना के लिये कुछ निश्चित तिथियों में  तारापीठ के महाश्मशान में जाया करते हैं । महर्षि वशिष्ठ से लेकर बामाक्षेपा तक अघोराचार्यों की एक अविच्छिन्न धारा यहाँ तारापीठ में प्रवहमान रही है ।

आनन्दमार्ग बिहार और बंगाल की मिलीजुली माटी की सुगन्ध है । प्रवर्तक श्री प्रभातरंजन सरकार उर्फ आनन्दमूर्ति जी थे । आनन्दमार्ग के साधु जो अवधूत कहलाते हैं श्मशान साधना करते हैं । इनकी झोली में नरकपाल रहता ही है । ये अमावश्या की रात्री में साधना हेतु श्मशान जाते है । श्मशान साधना से इन साधुओं को अनेक प्रकार की सिद्धी प्राप्त है ।

 श्मशान के बारे में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने अपने शिष्यों को बतलाया थाः
" श्मशान से पवित्र स्थल और कोई स्थान हो ही नहीं सकता । न मालूम इस श्मशान भूमि में प्रज्वलित अग्नि सदियों से कितने जीवों के प्राणरहित देहों की आहुति लेती आ रही है । न मालूम कितने महान योद्धाओं, राजाओं, महाराजाओं, सेठ साहूकारों, साधुओं सज्जनों, चोरों मुर्खों, गर्व से फूले न समाने वाले नेताओं और विद्वतजनों की देहों की आहुतियाँ श्मशान में प्रज्वलित अग्नि के रुप में महाकाल की जिव्हा में भूतकाल में पड़ी हैं, वर्तमान काल में पड़ रही हें और भविष्य काल में पड़ती रहेंगी । कितने घरों और नगरों की अग्नि शाँत हो जाती है किन्तु महाश्मशान की अग्नि सदैव प्रज्वलित रहती है, प्राणरहित लोगों के देहों की आहुति लेती रहती है । जिस प्रकार योगियों और अघौरेश्वरों का स्वच्छ और निर्मल हृदय जीवों के प्राण का आश्रय स्थल बना रहता है, ठीक उसी प्रकार श्मशान प्राण रहित जीवों के देह को आश्रय प्रदान करता है । उससे डरकर भाग नहीं सकते । पृथ्वी में, आकाश में, पाताल में, कहीं भी कोई स्थान नहीं है जहाँ छिपकर तुम बच सकते हो ।"
 

अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी की एक कथा में जो , उनके प्रथम शिष्य बाबा बीजाराम द्वारा लिखी गई तथा श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा प्रकाशित ग्रँथ " औघड़ रामकीना कथा" में संगृहित है श्मशान साधना का विवरण दिया गया है । कथा कुछ इस प्रकार हैः

" मुँगेर जनपद में गंगा के किनारे श्मशान के पास एक कुटी में बाबा कीनाराम वर्षावास कर रहे थे । मध्यरात्रि की बेला थी । पीले रंग के माँगलिक वस्त्र और खड़ाऊँ पहने, सुन्दर केशवाली  एक योगिनी ने आकाश की ओर से उतरती हुई अघोराचार्य महाराज कीनाराम जी के निकट उपस्थित होकर प्रणाम निवेदन किया । महाराज श्री के परिचय पूछने पर योगिनी ने बतलाया कि वह गिरनार की काली गुफा की निवासिनी है । प्रेरणा हई, आकर्षण हुआ और वह आकाशगमन करते हुए महाराज जी की कुटी  पर आ पहुँची । योगिनी ने अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी से निवेदन किया किः " जो साध्य है मेरा, उसे आप क्रियाओं द्वारा क्रियान्वित करें, जिससे मुझमें जो कमी है उसकी पूर्णता को प्राप्त करुँ ।"
श्मशान में एक शव के, जिसे परिजन अत्यधिक बर्षा के कारण उपेक्षित छोड़ गये थे, गंगा की कछार में मूँज की रस्सियों से, खूंटी गाड़कर, हाथ , पाँव को  बाँध दिया गया । शव को लाल वस्त्र ओढ़ाकर मुख खोल दिया गया । योगिनी और बाबा कीनाराम आसनस्थ हुए । महाराज मन्त्र उच्चारण करते रहे और योगिनी अभिमंत्रित कर धान का लावा शव के खुले मुख में छोड़ती रहीं  । थोड़े ही काल तक यह क्रिया हुई होगी कि बड़े जोर का अट्टहास करके पृथ्वी फूटी और नन्दी साँढ़ पर बैठे हुए सदाशिव, श्मशान के देवता, उपस्थित हुए । बड़े मधुर स्वर में बोलेः " सफल हो सहज साधना । दीर्घायु हो । कपालालय में, ब्रह्माण्ड में  सहज रुप से प्रविष्ठ होने का आप दोनों का मार्ग प्रशस्त है । याद रखना,  अनुकूल समय में मैं उपस्थित होता रहूँगा ।" योगिनी और महाराज श्री कीनाराम जी ने शव से उतरकर प्रणाम किया । श्मशान देवता देखते देखते आकाश में विलीन हो गये । एक कम्पन हुआ और शव पत्थर के सदृश हो गया ।

योगिनी तृप्त हुई और महाराज श्री को प्रणाम कर आकाशगमन करते हुए पश्चिम दिशा की ओर चलीं गई ।"

क्रमशः

बुधवार, मार्च 17, 2010

अघोर साधना के मूल तत्वः वेशभूषा व भिक्षाटन


हम सब ने प्रत्यक्ष या संचार माध्यमों में एकाधिक बार अघोरियों को देखा है । जटाजूट धारी, अर्धनग्न, त्रिशूल और खप्पर पकड़कर भय फैलाती छबि ही हमारे मानस पटल पर उभरती है । नागा साधु भी , जो सर्वथा नग्न अवस्था में रहते हैं, अघोरी ही हैं । उक्त विचित्र वेशभूषा में हिमाली और गिरनारी दोनों प्रकार के ही साधु दिखलाई पड़ते हैं । कुछएक ठग भी कभी कभी इस वेशभूषा को धारण किये दिखलाई पड़ते हैं ।

अघोरपथ में इस प्रकार की वेशभूषा  अँगिकार करने के पीछे साधना विषयक कारण प्रमुख रहे हैं । अघोराचार्य अपना अधिकाँश समय श्मशान में व्यतीत करते रहे हैं । श्मशान में निवास के कारण शारीरिक स्वच्छता, वस्त्र, उदर भरण आदि की न्यूनता स्वाभाविक है, तिसपर इन संतों का मन हर हमेशा उस अज्ञात की ओर ही उन्मुख रहने के कारण इनका ध्यान शरीर की ओर नहीं जाता और उक्त स्थिति सहज ही बनती जाती है ।

अघोरपथ के संत महात्मा आदिमकाल से ही कम संख्या में होते आये हैं । हिमाली घराने में बाबा गोरक्षनाथ जी और उनकी परम्परा के अन्य सिद्धों के द्वारा उत्तर भारत में आश्रम, मठ आदि स्थापित करने के बाद आश्रमवासी साधकों की संख्या अवश्य बढ़ी, जो आज तक चली आ रही है । ये साधु यदा कदा जब तिर्थाटन के लिये समूह में निकलते थे तो जगह जगह श्रद्धालुओं द्वारा दान की गई भूमि पर छोटे छोटे मठ नुमा बने हुए स्थलों पर एक दो दिन ठहरते और आगे बढ़ जाते थे । सामान्यतः उनके लिये इन्ही स्थलों पर भिक्षा की व्यवस्था हो जाया करती थी । साधुओं की टोली के आगमन पर आसपास के श्रद्धालु भक्त इन स्थलों पर जाकर अपना भेंट चढ़ाते और प्रवचन सुनते थे । इन भक्तों की समस्याओं का समाधान भी  इन स्थलों पर ऐसे मौकों पर हो जाया करता था । आजकल ऐसे स्थल या तो उजाड़ पड़े हैं या सेवादारों या अन्य लोगों के द्वारा इनपर आधिपत्य जमा लिया गया है ।

गिरनारी या किनारामी अघोरियों का निवास गुजरात में गिरनार पर्वत के आसपास और बनारस तथा बनारस के आसपास होता आया है । कभी कभी राजस्थान, महाराष्ट्र, बंगाल तथा देश के अन्य भू भाग में भी एक दो महात्माओं का सँधान मिलता है । दक्षिण भारत में अघोर पथ के पथिक ब्रह्मनिष्ठ कहलाते हैं । वे दक्षिणाँचल तक ही सीमित रहे हैं तथा दो चार महात्माओं के अलावा अन्य अघोराचार्यों की जानकारी उपलब्ध नहीं है ।

गिरनारी या कीनारामी साधु सर में बाल नहीं रखते । मुड़िया होते हैं । वस्त्र के नाम पर कफन का टुकड़ा लपेटते हैं । अघोरेश्वर भगवान राम जी  ने सफेद लुँगी और बँडी पहनना शुरू किया, तब से इस परम्परा का यही वेश हो गया है, लेकिन यह नियम नहीं है ।

बाबा कीनाराम जी ने अपने शिष्यों को इस विषय में निर्देश देते हुए कहा थाः

" यहाँ नगर और ग्राम से क्षण भर के लिये वैराग्य से प्रेरित जन श्मशान में शव को लेकर आते हैं । जाओ साधुओ, उपेक्षित वस्त्र, जो कफन है, वही साध्य है, उसे अँगिकार करना । संसार में जाग्रत होकर निवास करो । सभी जातियों, सभी धर्मों, सभी प्राणियों के पाँच घरों से उपलब्ध भिक्षाटन पर ही जीवन यापन एवँ प्राण रक्षा करो । खाद्य, अखाद्य, विधि निषेध से उपराम होकर जो रुचे सो पचे के सिद्धाँत का अवलम्बन लेकर पृथ्वी में विचरो । "

भिक्षाटन के विषय में अपने शिष्यों को शिक्षा देते हुए अघोरेश्वर भगवान राम जी ने बतलाया हैः

" मुड़िया साधु! जब दिन का मध्यान्ह बेला हो जाय तब ग्रामीण के घर भिक्षाटन के लिये जाना चाहिये । तब तक गृहस्थ मध्यान्ह का भोजन कर चुके होते हैं और जो कुछ बचा रहता है उसे देने में उन्हें हिचक नहीं होती है । तुम उन पर बोझ नहीं बनते और तुम्हें भिक्षा देकर वे अपने को वंचित नहीं समझते । ऐसा होने पर तूँ समझ जाना यही हमारा परम कर्तब्य है, साधुता है । यही औघड़ अघोरेश्वर के योग्य कृत्य है । "

क्रमशः

शनिवार, मार्च 13, 2010

अघोर साधना के मूल तत्वः होम व हवन

पुरातन काल में होम व हवन भिन्नार्थक हुआ करते थे । किसी पूजा अनुष्ठान, किसी सामाजिक कर्मकाण्ड, किसी जन बहुल उत्सव की समाप्ति की घोषणा के समय होम अनुष्ठित करने की प्रथा थी । होम में मुख्यतः समिधा की आहूति दी जाती थी । हवन होम से अलग दूसरे प्रकार की क्रिया होती थी । वैदिक देवी देवताओं को तृप्त करने तथा उनकी कृपा प्राप्ति के निमित्त यह कार्य किया जाता था । विभिन्न देवताओं के लिये हवन में समिधा के अलावा अलग अलग वस्तुओं की आहुति दी जाती थी । इसमें समिधा के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ, तण्डुल, गोधूम, पकवान, चन्दन  काष्ठ, धूप, धूनी, पशु मुण्ड, रक्त, माँस, विजित शत्रु का सिर, रक्त, माँस आदि की आहुति दी जाती थी ।

होम तो आज भी किया जाता है । सत्यनारायण कथा के अंत में, गणेशपूजा , दूर्गा पूजा, गृहारंभ के समय वास्तु पूजा, गृह प्रवेश के समय की पूजा आदि सब समय अंत में होम होता है । लोग मानते हैं कि होम के सुगन्ध भरे धुआँ मर्त्यलोक से उर्घ्वलोक में उत्थित होगा और वायु और आकाश विभिन्न गंधों से परिपूर्ण  हो जायेंगे जिससे पूजित देवता तृप्त होकर कृपा करेंगे ।

तन्त्र ग्रंथों में हवन का वर्णन विशद रुप से आता है । किसी भी मन्त्र का , देवता का अनुष्ठान की पूर्णता तभी होती है जब निश्चित मात्रा में जप किया जाय, जप का दशाँश हवन हो तथा हवन का दशाँश ब्राह्मण भोजन, जिसे आजकल भंडारा के रुप में किया जाता है , करना होता है । मन्त्र , देवता के अनुसार हवन में आहुति की मात्रा एवं सामग्री निश्चित होती है ।

अघोरपथ में भी हवन किया जाता है । अघोरपथ में हवन के बारे में निर्दिष्ठ बिधि की लिखित जानकारी तो अप्राप्य है, हाँ अघोरेश्वर भगवान राम जी के प्रवचनों में और साधकों ने अवधूत, अघोरेश्वर को जैसा हवन करते देखकर विवरण छिटपुट रूप से दिया है, उतनी ही जानकारी प्राप्त होती है । यह विवरण हवन के सर्वज्ञात स्वरुप के जैसा ही है अतः उसकी चर्चा करना पुनरुक्ति ही होगी ।
क्रमश:

शुक्रवार, मार्च 05, 2010

अघोर साधना के मूल तत्वः प्राणायाम

आज के समय में प्राणायाम कोई नया विषय नहीं है । भारत वर्ष में सभी किसी न किसी प्रकार से प्राणायाम से जुड़े हैं , वह चाहे स्वाश्थ्य रक्षा के निमित्त हो या आध्यात्मिक उन्नति के लिये साधना हो । प्राणायाम के विषय में बाजार में अनेक पुस्तकें , अनेक प्रशिक्षक , तथा अनेक संस्थाएँ  उपलब्ध हैं । हम यहाँ संक्षेप में प्राणायाम के विज्ञान की चर्चा करेंगे ।

प्राण श्वाँस प्रश्वाँस के समग्र को कहते हैं ।  श्वाँस प्रश्वाँस के सम्पूर्ण आयाम को नियंत्रित करने के विज्ञान का नाम है प्राणायाम । प्राण जीवन का आधार है । जब तक शरीर में प्राण का प्रवाह चल रहा है, मनुष्य जीवित है । प्राण की क्रियाशीलता समाप्त होते ही मनुष्य का शरीर मृत हो जाता है । जीवन के रहते तक ही संसार है, सारा प्रपञ्च है । अतः यह सिद्ध है कि मनुष्य के लिये प्राण की अहमियत और सबसे अधिक है ।

योग परम्परानुसार प्राण को पाँच विभागों में बाँटा गया है ।

१, प्राणः  शरीर के उपरी हिस्से में कण्ठनली, श्वासपटल और अन्न नलिका में यह क्रियाशील रहता है । यह श्वसन अँगों को क्रियाशील बनानेवाली माँसपेशियों को श्वास नीचे खींचने की क्रिया में सहयोग करता है । मनुष्य के जीवन का मुख्य हेतु यही प्राण है ।

२, अपानः  यह नाभि प्रदेश के नीचे क्रियाशील रहता है । वृक्क, मुत्रेंद्रिय, बड़ी आँत, गुदाद्वार के संचालन का आधार यही है । शरीर के दूषित वायू का निष्कासन यही करता है । कुण्डलिनी जागरण की क्रिया में भी इसका महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है ।
 
३,  समानः  छाती और नाभि के बीच प्रसरण करने वाला यह प्राण पाचन संस्थान, यकृत, क्लोम एवं जठर, आदि को नियंत्रित करता है । यह हृदय एव् रक्त अभिसरण को भी क्रियाशील रखने का हेतु है ।

४, उदानः नेत्र , नासिका, कान आदि इन्द्रियाँ तथा मस्तिष्क को क्रियाशील बनाये रखने का जिम्मा इसी प्राण का है । सोच विचार की शक्ति या चेतना का कारण यही पंराण है ।

५,  व्यानः  समस्त शरीर में व्याप्त रहकर यह अन्य प्राणों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य इसके द्वारा सम्पन्न होता है । माँसपेशियों , तन्तुओं, नाड़ियों तथा संधियों को क्रियाशील रखता है ।

इसके अलावा पाँच उपप्राण भी बताये गये है ।
१, नाग
२, कूर्म
३, क्रिकल
४, देवदत्त
५, धनंजय

उपप्राण शरीर की छोटी छोटी क्रियाओं जैसे छींकना, जमुहाई लेना, पलक झपकाना, हिचकी लेना आदि को सम्पादित करते हैं । अघोरपथ में धनंजय उपप्राण, जिसकी उपस्थिति कपाल में मानी गई है, के विषय में उल्लेख मिलता है । शवदाह के समय धनंजय प्राण को कपाल से मुक्त करने के लिये ही कपालक्रिया की जाती है । औघड़ या कापालिक इसी धनंजय प्राण का संधारण कपाल साधना के द्वारा करता है ।

साधारण योग प्रणाली में प्राण को नियंत्रित करना होता है । प्राण को नियंत्रित करना ही प्राणायाम है । प्राण के नियंत्रण से मन नियंत्रित होता है । ये दोनो ही निरंतर क्रियाशील रहने वाले हैं । प्राण के चंचल होने से मन चंचल होता है और मन के चंचल होने से प्राण चंचल हो जाता है । दोनो एक दूसरे के पूरक हैं । देह के तल पर प्राणायाम के लिये आसन सिद्धि नितान्त आवश्यक है । आसन सिद्ध होने पर वह एक आसन में लम्बे समय तक स्थिर बैठ सकता है । इससे शरीर में कम्पन नहीं होता, प्राण की क्रिया शाँत होती जाती है, शरीर हल्का हो जाता है और शरीर का भान मिटने लगता है । इस स्थिति का प्रभाव इन्द्रियों  और मन पर पड़ता है और योगी का सम्पर्क बाह्य जगत से बिच्छिन्न हो जाता है । यही प्रत्याहार अवस्था कहलाती है । इसके बाद योगी अन्तर जगत नें प्रवेश कर जाता है । आगे धारणा, ध्यान, और समाधि की क्रिया होती है ।

अघोरपथ में प्राण का महत्व अत्यधिक माना गया है । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने कहा हैः " प्राणवायु ही हमारा उपास्य है ।"  एक अन्य मौके पर उन्होने कहा था किः " प्राणमय गुरु सदैव, सर्वत्र, सहज में , अभ्यास से जाने जाते है, देखे जाते हैं और उनसे शक्रगामी फल प्राप्त किये जा सकते हैं । गुरु देह नहीं हैं, प्राण हैं ।"

संत, महात्मा, अघोरेश्वर आदि ने कहीं कहीं प्राण की त्रिविध गति की अत्यंत संक्षेप में चर्चा की है । एक बाह्य और आभ्यन्तरिक गति, या सामान्य श्वास प्रश्वास । दूसरी अधः ऊर्ध्व गति या शरीर के नीचे से हृदय की ओर गति । तीसरी हृदय से ब्रह्मरंध्र गति । यह तीसरी गति अत्यंत रहस्यमय है ।इस गति का परिमाण ३६ अंगुल बताया गया है । योगी के लिये इस गति का अधिकारी होना श्रेष्ठ है ।

प्राणायाम स्वयमेव नहीं करना चाहिये । किञ्चित व्यतिक्रम होने से रोग होने की सम्भावना होती है ।

क्रमशः



सोमवार, मार्च 01, 2010

अघोर साधना के मूल तत्वः ब्रह्मचर्य

संसार के सभी धर्मों में अध्यात्म के क्षेत्र में ब्रह्मचर्य को अत्यंत आवश्यक माना गया है । सन्यासी को , विरक्त को इसीलिये शुरुआत में ब्रह्मचारी भी कहा जाता है । पन्चभूतों में सामन्जस्य स्थापित करने और चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिये इसे आवश्यक माना गया है । भारत में पुरातन काल से ही शरीर विज्ञानी वीर्य संचय तथा वीर्य से ओज निर्माण की प्रक्रिया से परिचित रहे हैं । वीर्य संचय से ओज बढ़ता है और ओज ही मानव को प्राणवान बनाता है ।

आध्यात्मिक इतिहास में कुछ गिने चुने महाबीर ऐसे हुए हैं, जो गृहस्थ होते हुए भी योग की उच्चावस्था को प्राप्त किये । उनमें से हम दो महापुरुषों की चर्चा करेंगे । एक थे पूज्य श्री रामकृष्ण देव और दूसरे थे लाहिड़ी महाशय । दोनों महायोगी थे इसमें कुछ भी संशय नहीं है । श्री रामकृष्ण देव विवाहित होते हुए भी सन्यस्त का जीवन जीते थे । उनमें ब्रह्मचर्य ने अपने शिखर में उदघोषित हुआ है । श्री लाहिड़ी महाशय गृहस्थ तो थे ही , गृहस्थ धर्म का पालन भी करते थे । उन्होंने जन सामान्य के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया कि गृहस्थ भी अपने तप के बल से सिद्धावस्था प्राप्त कर सकता है । उन्होंने अपनी डायरी में एक बार स्त्रीप्रसंग के विषय में लिखा है कि साधक के लिये १५ दिनों में स्त्रीप्रसंग करना अनुकूल होता है ।

अघोरपथ में वीर्य संचय को परमावश्यक माना गया है । अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी कहते थेः

" भग बीच लिंग, लिंग बीच पारा, जो राखे सोई गुरु हमारा ।"

अघोरपथ में ब्रह्मचर्य की स्थिति को स्पष्ठ करने के लिये अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी के समय की कथा है । कथा कहती है किः

" एक बार बाबा कीनाराम जी के एक शिष्य बाबा दिगम्बर राम जी को लोगों ने फैजाबाद में वेश्याओं के साथ बैठे देखा । बाबा जी से शिकायत हुई । बाबा ने दिगम्बर राम को बुलवाया और कहाः " तुम रमणियों के साथ रहते हो जिससे बदनामी होती है । तुम कहीं ब्रह्मचर्य से च्युत तो नहीं हो गये हो ? यह बड़ा ही निन्दनीय और अशोभनीय कार्य है , और साधु के लिये उपयुक्त नहीं है । इस असराहनीय कार्य से विरत नहीं हुए और ब्रह्मचर्य से च्युत हो गये हो तो मैं तुझे देखना पसन्द नहीं करुँगा ।

अघोरेश्वर भगवान राम जी ने एक बार अपने शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहा था किः
" प्रिय शिष्यो ! नितम्बना के चक्कर में दुनियाँ के सारे मनुष्य प्राणी चिंतन में लग जाते हैं । और इसी नितम्बना के चलते, उनके अधिक मोह में लगे रहने के कारण साधु पुरुष को भी या महापुरुष को भी भय लगता है कि मार्ग कहीं बदल न जाय । हम उस देवी का आदर करते हैं । हम उनको  दूसरे रुप में आदर करते हैं । जिस रुप में गृहस्थ करते हैं, उस रुप में नहीं । अघोरेश्वर जनों को उनकी याद में ही विश्वास है, न कि उनके सम्पर्क में । कुत्ता ही है, गाय बैल भी हैं, मगर वे नितम्बना का सेवन समय, काल और साल में एक बार पूजन करते हैं । मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो नितम्बना के चिंतन में सदा लगा रहता है । उस मनुष्य से क्या आशा की जा सकती है, जिसका मस्तिष्क नितम्बना के चरणों में बन्धक रह जाता है । कुत्ता भी है तो वह कुतिया के पास साल में रजस्वला होने पर जाता है । स्वजाति में जाता है, परजाति में नहीं । अगर्भवती में जाता है, गर्भवती में नहीं । मनुष्य स्वजाति में भी, परजाति में भी जाता है और समय काल को भी तिलाञ्जलि दिये रहता है ।"

अघोरपथ में चारों अंगों से ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है । ये चार अंग हैं‍ , १, मन २, कर्म ३, वचन या जिव्हा और ४, चक्षु । साधक को हर समय सावधान रहने की आवश्यकता होती है, अन्यथा काम को अपना पाँव पसारने में समय नहीं लगता ।

क्रमशः