सोमवार, जुलाई 13, 2015

अघोर वचन - 41


" मस्तक को खाली कर, मन को हलका कर, शरीर को ढ़ीला कर, या एक क्षण के लिये चक्षु बन्द करें । और इसलिये चक्षु न बन्द करें कि चक्षु बन्द करके अपने आप को अन्धकार में डाल दें । इसलिये चक्षु बन्द करने का प्रयोजन है कि हम अन्तराल के चक्षु की ओर मुँह करके उसमें क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है, उस परम सत्य को ढ़ूँढ़ने का प्रयत्न करें ।"
                                                      ०००

मनुष्य के पास दो चीजें हैं, १, शरीर २, चेतना । शरीर यन्त्र है और चेतना यंत्री । यन्त्र की अपनी कोई स्वतंत्र इयत्ता नहीं होती । चेतना या मन के इशारे पर शरीर को नाचना होता है । भूख और प्यास शरीर की जरूरतें हैं पर अनुभव करता है मन । मन ही जरूरत पूर्ति के उपाय भी करता है और संतोष भी वही पाता है । मन शरीर पर नियंत्रण मस्तिष्क के द्वारा रखता है ।  चूँकि मन आठोंयाम क्रियाशील रहता है अतः हमारा मस्तिष्क भी क्रियाशील रहता है ।

मस्तक को खाली करने के माने हर समय क्रियाशील रहने वाले मस्तिष्क को विराम देना है । मन को हलका करने के माने उसे उसको स्वाभाविक रूप में रखना है, अपनी ओर से कोई भी योगदान ना हो । ना कुछ सोचें, ना स्मरण करें, ना उससे लड़ें और ना ही उसके साथ हो लें ।

वचन में अन्तराल के चक्षु की ओर उन्मुख होने की बात कही गई है । हमें इस चक्षु की ना तो जानकारी है और ना अनुभव । भौतिक चक्षु से इतर यह चक्षु निश्चय ही हमारे मानस शरीर की वस्तु है । मनोमय कोष का अँग है । इसका मतलब हुआ कि मनुष्य को बताये गये ढ़ँग से इस भौतिक शरीर के अवयव को स्थगित कर मानस शरीर के अवयवों की पड़ताल करनी चाहिये । उसमें की संरचनायें, भाव और जो भी हो रहा है का स्थिर भाव से निरीक्षण, परीक्षण कर उस परम सत्य जो हमारी दृष्टि में, अनुभव में नहीं आता है, अज्ञात है को ढ़ूँढ़ने का प्रयत्न करना चाहिये ।

इसमें अघोरेश्वर ने उस परम सत्य, अज्ञात को पाने की क्रिया को सरल रूप में उद्घाटित किया है ।
                                                        ०००



सोमवार, जुलाई 06, 2015

अघोर वचन -40


" असत्य पुरूष उसे कहते हैं जो बिना पूछे दूसरे के अवगुण को बार बार दुहराता है, निन्दा करता है, अपने अवगुण को ढ़ाँकता है । वह बिल्कुल साथ करने के योग्य नहीं है, निन्दनीय विचारों से परिपूरित पात्र है ।"
                                                    ०००
मनोवैज्ञानिकों ने, महात्माओं ने, ऋषियों ने मानव के सोचने, देखने की प्रवृत्ति का गहन अध्ययन, गँभीर गवेषणा के पश्चात पाया कि पुरूष (नर, नारी दोनों ) को तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है । १, उत्तम पुरूष । २, मध्यम पुरूष । ३, अन्य पुरूष । व्यक्ति स्वयँ को हर हमेशा उत्तम पुरूष मानता है । दूसरा व्यक्ति जो सामने होता है उसमें कम मात्रा में अवगुण देखता है, इसलिये वह दूसरा व्यक्ति मध्यम पुरूष होता है । तीसरा जो अनुपस्थित व्यक्ति है वह अन्य पुरूष है । अन्य पुरूष को अवगुणों का भँडार माना, समझा जाता है ।

व्यक्ति अपने उत्तम पुरूष होने के अहँकार में दूसरों के अवगुणों को बढ़ा चढ़ा कर जगह जगह बखान किया करता है । दूसरों पर हँसता है । निन्दा करता है । नीचा दिखाने का प्रयास करता है । ऐसा वह अपने अवगुणों को ढ़कने के लिये करता है, और ज्यादातर अपने को ऊँचा दिखाने के लिये भी करता है । ऐसा मनुष्य हमारे सामने भले ही हमारा आत्मीय बना रहे । हमारे अवगुणों को प्रचारित ना करे । हमारी निन्दा ना करे, पर हमारी अनुपस्थिति में, हमारे सामने जैसे दूसरों की गलतियाँ छाँटता है, भला बुरा कहता है, हमारी भी करेगा । ऐसे व्यक्ति का साथ रहने से, उसके परनिन्दा से भरे विचार हमारे मन को भी कलुषित कर देंगे । सँग साथ का हम पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता । इसलिये ऐसे व्यक्ति से हमें दूर ही रहना चाहिये ।

पुरूषमात्र के लिये सत्यनिष्ठा को आवश्यक माना गया है । इसके अनुपालन के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य को सत्य का ज्ञान हो । समझे । देखे । व्यवहार में उतारे । यह वह पथ है कि जिसमें चलकर मनुष्य मन, कर्म और वचन से पवित्रता को पाता है । यही पवित्रता उसके अस्तित्व को सत या सत्य में परिणत कर देती है और वह मनुष्य सत्य पुरूष कहलाने के योग्य हो जाता है । इसके बिरूद्धाचरण वाला मनुष्य असत्य पुरूष की श्रेणी में गिना जाता है ।
                                                     ०००


 




शनिवार, जुलाई 04, 2015

अघोर वचन -39


"बहुत से ईर्ष्या, कलह, भय से आदमी भयभीत है । अपने बन्धु बान्धवों से भयभीत है, अपने बच्चों पत्नी से भयभीत है, अड़ोस पड़ोस से भयभीत है, अपने मिलने जुलनेवालों से भयभीत है । भय से आक्राँत हम लोगों का जीवन ग्रस्त है । यह निर्भय होने के लिये, भय रहित होने के लिये हम प्रार्थना करते हैं ।"
                                                      ०००
मानव ने विकास के विभिन्न चरणों में अपनी बुभुक्षा मिटाने, शरीर रक्षा, सामाजिकता जिसमें राजनीति शामिल है, श्रम कम करने के उपाय, यात्रा को सुगम बनाने आदि आदि उपाय विकसित किये है । इन उपायों ने मनुष्य जीवन में सुख की अभिबृद्धि तो की है, पर उसे जटिल से जटिलतर बनाता जा रहा है । इसमें एक बड़ी गलती हुई है, वह है विकास की दौड़ में हमने मानवीयता को एकदम से भुला दिया है । परिणामतः मनुष्य इकाई के रूप में तो समृद्ध हो गया, पर मानवमात्र के स्तर पर वह अँतिम साँसें गिन रहा है । कभी भी उसकी मृत्यु की घोषणा हो सकती है ।

जब मनुष्य इकाई के रूप में समृद्ध होता जाता है तो वह अन्यों के प्रति शँकालु हो जाता है । आशँका कलह और भय को जन्म देती है । वह अपने आसपास उपस्थित सभी लोगों से भय खाता है । यहाँ तक कि उसका परिवार, बन्धु बाँधव, पड़ोसी और मित्र भी भय के कारण बन जाते हैं । भय उसके मन में ग्रँथी का रूप धरकर गहराई तक पैठ जाता है ।

आज हमारी यही स्थिति है । हम चौबीस घँटा, सातों दिन भय में जीते हैं । भय हमारे भीतर इतनी गहराई में उतर गया है कि हम उसकी उपस्थिति को भुलाकर जीते चले जाते हैं । हमारा यह भय कभी अकारण आक्रोश के रूप में प्रकट होता है, तो कभी घमँड का रूप धर लेता है । इनसे कलह की उत्पत्ति होती है और कलह हमारे भय को और भी बढ़ाता जाता है ।

भय का दुष्प्रभाव हमारे शरीर और मन दोनों पर पड़ता है । हम कुँठित हो जाते हैं ।  हमारी प्रगति रूक जाती है । समय का अपव्यय होता है । जीवन निरर्थक बातों में व्ययगत हो जाता है और हम अपने आप से ही दूर होते जाते हैं ।
                                                                  ०००

मंगलवार, जून 30, 2015

अघोर वचन -38


" जिसे जीवित जागृत प्राणियों से प्रेम नहीं होता उसे मँदिर में बैठे पत्थर के देवता और मस्जिद के शून्य निराकार ईश्वर से प्रेम नहीं हो सकता । "
                                                      ०००
प्रेम सकारात्मक ऊर्जा है । जब हम स्वस्थ होते हैं, प्रसन्न होते हैं, तनाव में नहीं होते हैं तभी प्रेम की ऊर्जा सक्रीय होती है । अस्वस्थता में, दुःख में मानव आत्म केन्द्रित हो जाता है । उसके मन की भाव दशा नकारात्मक हो जाती है । उसका सरोकार सिमट कर अपने शरीर अथवा दुःख के कारणों तक सीमित हो जाता है । ऐसी दशा में वह प्रेम नहीं कर सकता । आज धरती पर चहुँ ओर नकारात्मक ऊर्जा व्याप्त है । मानव ने स्वयँ ही अपने आप को, अपने सरोकारों के साथ सीमित कर लिया है । उसके हृदय में प्रेम के पुष्प खिलने बन्द होते जा रहे हैं । प्रेम के नाम पर वासना का घिनौना खेल चल रहा है ।

हृदय में जब प्रेम के पुष्प खिलते हैं, सारे संसार का रँग बदल जाता है । दृष्टि बदल जाती है । स्वाद बदल जाता है । आनन्द के अनोखे श्रोत फूट पड़ते हैं । सर्वत्र उल्लास  का वातावरण स्वयमेव निर्मित होने लगता है । मनुष्य में सकारात्मक ऊर्जा का अतिरेक हो जाता है जो उसके चाल, ढ़ाल, व्यवहार के माध्यम से आसपास बहने लगता है । प्रेम में जाति, धर्म, लिंग, जीवित, निर्जीव, मनुष्य, पशु, अपना, पराया जैसा कुछ नहीं होता । इसीलिये प्रेम को ईश्वर का रूप निरूपित किया जाता रहा है ।

वचन में इँगित किया गया है कि जिसके हृदय में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह हो रहा होता है, वह एक सीमित दायरे में अपने आप को कैद कर लेता है । वह प्रेम के आस्वाद से वँचित हो जाता है । उसे किसी भी प्राणी से प्रेम नहीं होता । ऐसा व्यक्ति प्रेम की क्रिया से अनभिज्ञ हो जाता है । इसीलिये वह चाहे कितना ही पूजा के उपचार कर ले, मँदिर में, मस्जिद में समय बिता ले उसे पत्थर के देवता या उस निराकार से प्रेम नहीं हो सकता । प्रेम के बिना उसकी पूजा, पाठ, प्रार्थना निरर्थक हो जाते हैं ।

हमें हृदय को नकारात्मक ऊर्जा से रहित कर फूल के जैसा कोमल, सुगन्धित और पवित्र बनाना होगा, फिर प्रेम की गँगा में अवगाहन करना होगा । यदि हम इतना कर पाये तो हमारी साधना पूर्ण हुई समझो । हमें आत्म साक्षात्कार के लिये अलग से प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होगी ।
                                                                          ०००



 

मंगलवार, जून 23, 2015

अघोर वचन - 37


" दैहिक प्रेम प्रेम नहीं है । वह तो मोह ममता है । वास्तविक प्रेम तो उस ममता को नष्ट कर देने में है । आत्मिक प्रेम ही वास्तविक प्रेम है । आत्मिक प्रेम का जो आचार्य है उसकी शरण में जाओ । वह तुम्हें प्रेम का विराट् रूप दिखलाएगा । वह तुम्हारे हृदय में ही है ।"
                                           ०००
प्रेम एक सापेक्ष शब्द है । इसका स्वरूप में भी पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है । कभी यह माँ की ममता के रूप में निखरता है तो कभी देशप्रेम के रूप में दिब्यत्व की ओर कदम बढ़ाते दिखता है । कभी हृदय की अतल गहराईयों से आकर मन को अभिभूत कर देता है तो कभी दैहिक आकर्षण का रूप धरकर विकृत होता नजर आता है । प्रभु प्रेम में मीरा दीवानी हो जाती है, देशप्रेम में सैनिक आत्म बलिदान के लिये तत्पर हो जाता है, यौवन की दहलीज चढ़कर दो प्रेमी समाज को अमान्य कर घर से भाग जाते हैं, पुत्रमोह में पिता अपने वँश का सर्वनाश कर लेता है, कुर्सी के लिये नेता जनता को ठगता है, लूटता है और किसी भी सीमा को लाँघ जाता है, ऐसे प्रेम के कई रूप हैं, रँग हैं, ढ़ँग हैं । आजतक प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सका है ।

दैहिक प्रेम प्रेम का स्थूल रूप है । न इसमें गहराई है और न विस्तार । यह देह से शुरू होकर देह में ही समाप्त भी हो जाता है । इसमें प्राप्ति की उत्कंठा है । अप्राप्ति में निराशा और दुःख है । इसीलिये कहा गया है कि यह प्रेम नहीं है । मोह ने, ममता ने रूप बदला है । वास्तविक प्रेम या आत्मिक प्रेम में उतरने के लिये इस मोह को हमें हटाना होगा ।

आत्मिक प्रेम का आचार्य कौन है ? हम कैसे जानेंगे ? इस कठिन प्रश्न को हल करने के लिये हमें लाहिड़ी महाशय, रामकृष्ण परमहँस, बाबा कीनाराम, अघोरेश्वर भगवान राम जी, साईंराम, आदि संतों के जीवन को देखना होगा । यदि ऐसे कोई आचार्य मिलें तो उनकी शरण जाना चाहिये । वही हमारे हृदय में छुपे प्रेम के उस विराट स्वरूप को उदघाटित करेंगे । उस आत्मिक दिव्य प्रेम से हमारा परिचय करायेंगे । यही उदघाटन, परिचय हमें आत्म कल्याण के पथ पर अग्रसर करेगा ।
                                                                              ०००







शुक्रवार, जून 19, 2015

अघोर वचन -36


" जहाँ नीति बरतनी है, अनुशासन बनाये रखना है वहाँ पर व्यवहार में साधुताई की आवश्यकता नहीं होती । साधुताई से काम नहीं चलेगा । वहाँ पर किसी के भी अनिष्ट की भावना का त्यागकर " हृदय प्रीति मुँह वचन कठोरा " वाली नीति का पालन करना होगा । हृदय में प्रीति अवश्य हो मगर शब्द इतने कठोर हों कि शायद वचन सुनकर वह सही रास्ते पर लौट आवे । उस समय वाणी की नम्रता घातक होगी तथा बुरी स्थिति को जन्म देगी ।"
                                                       ०००
व्यक्ति को साधु प्रकृति का होना चाहिये । साधु की जिस प्रकार आवश्यकतायें कम होती हैं, दुसरों के लिये जीता है, अपना समय सेवा में लगाता है, सबकी हित चिन्ता किया करता है, अपने आप को स्वच्छ और पवित्र रखता है आदि आदि, ठीक वैसे ही पूरा पूरा तो सम्भव नहीं है परन्तु जितना सम्भव हो सके हमें भी साधु के ढ़ँग को अपनाना चाहिये । इस कार्य, व्यवहार की साधुताई से हमारा जीवन तो सुखमय होगा ही होगा हमारे आसपास भी अच्छा वातावरण बनेगा, लोगों को सत्कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा मिलेगी ।

नीति, अनुशासन और व्यवहार में साधुताई के विषय में एक कथा है । एक स्थान में एक विषैला सर्प निवास करता था । जो भी उस ओर जाता सर्प उसे काट लेता । सर्प के काटने से कई लोग मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे । लोगों ने उस ओर जाना छोड़ दिया । एक संत अनजाने ही सर्प के निवास की ओर आ निकले । सर्प संत को काटने के लिये दौड़ा पर संत के उपदेश से उनका शिष्य बन गया । गुरू को वचन दिया कि वह लोगों के मृत्यु का कारण नहीं बनेगा । उस दिन से उसने लोगों को काटना छोड़ दिया । लोगों को धीरे धीरे इस बात की जानकारी होती गई । लोग उधर से आने जाने लगे । उसे चुपचाप पड़ा देखकर कभी कभी यूँही पत्थर मार देते । हालत यह हो गई कि बच्चों के लिये वह खेल का वस्तु बन गया । बच्चे डर से पास तो नहीं जाते थे पर दूर से पत्थर, कँकड़ मारते थे । सर्प लहुलुहान हो जाता पर संत को दिये वचन के कारण किसी को नहीं काटता था । एक दिन वही संत उस ओर से निकले । वहाँ पहुँचने पर उन्हें सर्प का ध्यान आया । वे उस स्थान पर गये देखा तो सर्प लहुलुहान होकर अधमरा पड़ा है । उनके पूछने पर सर्प ने सारा किस्सा कह सुनाया । संत उसकी बात सुनकर दुखी हुये । उन्होने सर्प से कहा कि तुम्हें लोगों को काटना नहीं था परन्तु अपने बचाव में फुंफकार तो सकते थे । यही है हृदय प्रीति मुँह वचन कठोरा का सुन्दर उदाहरण ।

आज शासन प्रशासन में बैठे लोगों से इसी प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा की जाती है ।
                                                                 ०००
 


 

रविवार, जून 14, 2015

अघोर वचन -35


" गलत कर्मों की तरफ प्रेरित करने वाले मित्र नहीं होने चाहिये । क्योंकि उससे हमारा स्वास्थ्य खराब होता है, मस्तिष्क क्षीण होता है और हम तरह तरह की व्याधियों को जन्म दे सकते हैं ।"
                                                              ०००

कर्म का गलत सही होना कब होता है ? यह विचारणीय प्रश्न है । इस पर विचार करने से पता चलता है कि जिन कर्मों से मानव शरीर के विकास में बाधा आती है, शारीरिक नुकसान झेलना पड़ता है, मानसिक दशा बिगड़ती है, मन अनुशासन, नैतिकता जैसे सामाजिक मुल्यों की अवहेलना करता है, मानव पशु वृत्ति अपना लेता है, को गलत कर्म कहा जाता है । इनसे इतर जो कर्म हैं वे सत्कर्म कहलाते हैं ।

हम गलत कर्म में मित्रों के बहकावे में, उकसावे में, संग साथ में, प्रेरित करने से प्रवृत होते हैं । कई बार हम स्वयँ ही गलत कर्म की ओर आकर्षित होकर शुरू कर देते हैं, परन्तु ऐसा कम ही होता है । हम देखते हैं कि नशेड़ियों का, भँगेड़ियों का, जूआड़ियों का, शोहदों का, छेड़छाड़ करने वालों का, मारपीट करनेवालों का, आदि आदि गलत कर्म करने वालों का गुट होता है । वे आपस में मित्र होते हैं । एक दूसरे को प्रेरित करते हैं । साथ देते हैं ।

वचन में कहा गया है कि हमारे ऐसे मित्र यदि हों तो हमें उनका संग साथ छोड़ देना चाहिये । गलत कर्म से तत्काल किनारा कर लेना चाहिये । कहा जाता है " जब जागे तभी सबेरा ।" यह सही है कि गलत कर्म व्यक्ति को बहुत आकर्षित करते हैं । यदि हमारा मन थोड़ा भी कमजोर हुआ कि हम गलत कर्म में प्रवृत हो जाते हैं । यह भी सही है कि गलत कर्मों का छूटना असम्भव सा लगता है । बड़ी कठिनाई से छूटता है । मौका पाकर फिर पकड़ लेता है । यह बताता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क क्षीण होता जा रहा है । उसकी आत्म शक्ति बलवान नहीं रही । उसका शरीर गलत कर्मों के प्रभाव से व्याधियों की क्रिया स्थली भी बनता जाता है ।
                                                                  ०००


मंगलवार, जून 09, 2015

अघोर वचन -34

" हमारी बातें शायद आप ठीक से सुन नहीं पाते हैं या सुन पाते हैं तो समझ नहीं पाते हैं । समझ पाते हैं तो कर नहीं पाते हैं और कर भी पाते हैं तो शायद जिस ढ़ँग से होना चाहिये उस ढ़ँग को अपने ढ़ँग में जोड़ नहीं पाते हैं । यही कारण है कि आप सब कुछ से वँचित रह जाते हैं ।"
                                                       ०००
यह गुरू शिष्य संवाद का अँश है । शिष्य की ठीक ठीक आत्मोन्नति न होते पाकर गुरू कारणों की पहचान करा रहे हैं ।

कहा जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त जब भी कोई संत के समीप जाता है । उनकी मनोदशा को पहचान कर, जब वे प्रसन्न हों, निकट जाना चाहिये । उनके सामने हमें मुद्रित होकर स्थिर बैठना चाहिये । उनसे अपना मन्तव्य स्पष्ठ, कम शब्दों में और कोमल स्वरों में निवेदन करना चाहिये । उसके बाद अपने श्रवणेन्द्रिय, हृदय तथा मन को स्थिर कर सावधान मुद्रा में संत वचन को हृदयंगम करना चाहिये ।

संत और श्रद्धालु, गुरू और शिष्य, शिक्षक और बिद्यार्थी के बीच घटने वाली कथन और श्रवण की यह महत्वपूर्ण घटना के विषय में योगाचार्य रजनीश जी ने बड़ी महत्व की बात कही है, जो इस प्रकार है  "तुम थोड़े से शब्द सुनते हो और बाकी के खाली स्थानों पर अपने शब्द डाल लेते हो और सोचते हो कि तुमने मुझे सुना। और तुम जो भी यहां से ले जाते हो वह तुम्हारी अपनी रचना है, तुम्हारा अपना धंधा है। तुमने मेरे थोड़े से शब्द सुने और खाली जगहों को अपने शब्दों से भर दिया; और तुम जिनसे खाली जगहों को भरते हो वे पूरी चीज को बदल देते हैं ।"

इस वचन में एक महत्वपूर्ण बात और है, वह है " जिस ढ़ँग से होना चाहिये उस ढ़ँग को अपने ढ़ँग में जोड़ नहीं पाते हैं ।" इससे स्पष्ठ है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग ढ़ँग होता है । सँत, गुरू जो बताते हैं उसका भी एक ढ़ँग होता है । श्रद्धालु, शिष्य को प्राप्त ढ़ँग और अपने ढ़ँग में तारतम्य बैठाना होता है और अपने ढ़ँग में आवश्यक फेर बदल करके सँत के, गुरू के ढ़ँग में ढ़ल जाना होगा । तभी हम उन्नति के पथ पर अग्रसर होंगे । हमारा ईष्ट, हमारा लक्ष्य हमें मिलेगा । हम सफलकाम हो पायेंगे ।
                                                          ०००




रविवार, जून 07, 2015

अघोर वचन ‍- 33

" साधु के वेश में जो अपकृत्य करते हैं, देवी देवताओं के नाम पर धोखा देते हैं, जो अपनी जिव्हा पर नियँत्रण नहीं रखते हैं, अपकृत्य करके हाथ गँदे करते हैं, वे जिस बाजार में जाते हैं तौल दिये जाते हैं जैसे २, ४ रूपये पर रास्ते के दरिद्र सिपाही तौल दिये जाते हैं ।"
                                                         ०००

साधु की पहचान उसका वेश है । साधु नाना प्रकार की वेशभूषा धारण करते हैं । सामान्यतः गेरूआ रँग के वस्त्र धारण करने वाले साधु बहुतायत में मिलते हैं । इसके अलावा काली कफनी ताँत्रिकों, फकीरों का, स्वेत वस्त्र कीनारामी, वैष्णव एवँ जैन साधुओं का, लँगोटी तथा भभूत रमाये शैव तथा अघोरियों का, बिना वेशभूषा के नग्न रहना नागा तथा दिगम्बर जैन साधुओं का आदि आदि साधुओं की वेशभूषा होती है ।

लोग घरबार त्यागकर भगवत भजन में जीवन लगाने के उद्देश्य से साधु बनते हैं । कई बार ऐसा होता है कि घरबार को त्यागना, काम, क्रोध, लोभ, मोह से दूर रहना और भक्ति में साधु का मन नहीं रमता । उसका मन वासनाओं के वशीभूत होकर अपकृत्य यानि ऐन्द्रिक सन्तुष्टि के लिये गलत रास्ते पर चल पड़ता है । ठगी करता है । भक्तों को देवी, देवताओं के नाम पर डराता है । धोखा देता है । कुकृत्य करता है । छुपकर वह सब कार्य करता है जो सांसारिक मनुष्य भी करने के लिये हिचकते हैं ।

पिछले दिनों अनेक साधुओं की पोल खुली है । कुछ तो जेल में हैं । कुछ न्यायिक प्रक्रिया झेल रहे हैं । कुछ दुबककर अपने फैले हुये कारबार को गुपचुप ढ़ँग से चलाये हुये हैं । आज स्थिति यह हो गई है कि लोग साधु के नाम से ही बिदकने लगे हैं । श्रद्धा तो दूर की बात है लोगों का मन विश्वास करने के लिये भी राजी नहीं है । जब भी कभी आमना सामना हो जाता है कुछ दान दक्षिणा देकर पिण्ड छुड़ा लेते हैं । इसी को कहते हैं तौल दिया जाना यानि साधु का मोल चन्द रूपयों से लगा दिया जाता है ।
                                                            ०००  

मंगलवार, जून 02, 2015

अघोर वचन - 32

" यदि कोई ऐसे संत मिलें जो थिर हों, भक्तिपूर्ण हों, अपने अभ्यन्तर की चेतना के प्रकाश के प्रति जागृत हों, तृप्त हों, जिनकी बुद्धि पर पोथी नहीं लदी हो, सरल हों सु - भाव में, ऐसे व्यक्ति का उसी प्रकार अनुसरण करें जैसे गौ के बछड़े अपनी माँ गाय का अनुसरण करते हैं ।"
                                                         ०००

इस वचन में कही गई बातों, स्थितियों की जानकारी पाना या परीक्षा करना एक सामान्य मनुष्य के लिये असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । उसे जब स्थिरत्व की न तो अनुभव है और न जानकारी ही है तो कैसे जाने कि संत महाराज थिर हैं कि नहीं । अभ्यंतर की चेतना का प्रकाश तो और भी सूक्ष्म है और जानना उतना ही कठिन भी । हाँ संत के स्वभाव तथा पोथी के विषय में कही गई बातों को संत का साथ करके, गहन निरीक्षण से किसी हद तक जाना जा सकता है । पहचाना जा सकता है ।

आज जो संत बहुप्रचारित, बहुश्रुत और प्रसिद्ध हैं उनकी बुद्धि पर लदी हुई पोथी दूर से ही दीखती है । उनका मूल्याँकन उनके शास्त्र ज्ञान से ही किया जाता है । उनका आडंबर पूर्ण प्रवचन, कौतुक पूर्ण व्याख्यान तथा अनुसरण करने की कठिनाईयाँ उनका सरल नहीं होना दर्शाती हैं । सु भाव के विषय में तो कुछ कह पाना यथार्थ की जगह आरोपित ही अधिक रहता है ।

उक्त कठिनाईयों के हल के लिये हमें कुछ बातों का ख्याल रखना होगा । पहला यह कि जिन किन्ही के विषय में हम जानना चाहते हैं वे प्रवचनकार या व्याख्याकार न होकर संत होना चाहिये । संत शास्त्र की नहीं अनुभव की बात करते हैं । शास्त्र में उनकी बातों का विवरण मिल जाय ऐसा हो भी सकता है । दूसरा यह कि संत को शिष्य बनाने, प्रचारित होने या ज्ञान बघारने की उत्कँठा नहीं होती । तीसरा यह कि संत के समीप जाने मात्र से मन थिर होने लगे, शाँति का अहसास हो और ईश्वर की याद आये । चौथा और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि हमारा अभ्यँतर यह कहने लगे कि यही वे हैं जिनकी मुझे खोज है ।

इन सब गुणों से युक्त व्यक्ति को गुरू के रूप में ग्रहण करना चाहिये । उनका संग साथ करना चाहिये । उनका अनुसरण करना चाहिये । श्रद्धा करना चाहिये । पूजा करनी चाहिये ।
                                                                                  ०००



गुरुवार, मई 28, 2015

अघोर वचन -31

" जगत के किसी भी नाशवान पदार्थ, यहाँ तक कि पार्थिव शरीर तक से जिसको अनभिज्ञता हो जाय उसे ही सहज समाधि, स्वात्मा, अज्ञात और बोधमय चित्त की उपलब्धि होती है । बोधमय चित्त में फिर कोई, किसी का चिंतन नहीं होता । उसमें चित्त ही चित्त का चिंतन करता है । यह अवस्था प्राप्त करने पर इस पार्थिव शरीर में अपने आप कुंठित कंठ से धुन उत्पन्न होने लगती है, तरंगें उत्पन्न होने जगती हैं, इन्द्रियाँ निगृहित हो जाती हैं और मस्तिष्क के शुष्क तंतु जागृत हो उठते हैं ।"
                                                    ०००

जगत में जितने भी पदार्थ हैं सभी नाशवान हैं । महाप्रलय में यह धरती, ग्रह, नक्षत्र सभी का नाश हो जाता है । मनुष्य अपना शरीर सामान्यतः 70 से 100 वर्षों के भीतर छोड़ देता है ।

अनभिज्ञता को समझने के लिये एक कथा सुनते हैं । महर्षि व्यास पुत्र सुकदेव घर छोड़कर अरण्य जाने लगे । पुत्र मोह में व्यास जी घर लौटने के लिये गुहार लगाते उनके पीछे दौड़े । सुकदेव आगे आगे व्यास देव पीछे पीछे । आगे एक तालाब था जिसमें युवा कन्यायें वस्त्रहीन होकर स्नान कर रही थीं । सुकदेव अपने में मस्त उस तालाब से आगे निकल गये । कन्यायें यथावत स्नान करती रहीं । जब महर्षि व्यास तालाब के पास पहुँचे तो कन्याओं ने झट दौड़कर वस्त्र उठा लिया और अपने शरीर को ढ़ँक लिया । कन्याओं को ऐसा करते देखकर महर्षि व्यास जी ने पूछा कि उनके इस व्यवहार का क्या कारण है । उन कन्याओं ने कहा कि सुकदेव जी इस संसार से अनभिज्ञ हैं । उन्हें तो स्त्री और पुरूष के भेद का भी नहीं पता, जबकि आपकी स्थिति ऐसी नहीं है । इसलिये हमने ऐसा व्यवहार किया । सुकदेव जी सहज समाधि में निमग्न रहते थे । संसार से अनभिज्ञ थे ।

अनभिज्ञता की स्थिति की प्राप्ति के लिये उपाय के रूप में संत कबीर दास जी ने इस प्रकार कहा है ।
" तनथिर मनथिर सुरतनिरतथिर होय ।
कह कबीर इस पलक को, कलप न पावे कोय ।।"

साधक जब आसनस्थ होकर शरीर को स्थिर कर लेता है, मन को विक्षेपों से अलग हटाकर एक लक्ष्य पर स्थिर करता है और स्मृति को गुरू प्रदत्त मँत्र में लगाकर स्थिर हो जाता है तब उसे न तो यह संसार भाषता है और न शरीर की ही सुध बुध रह जाती है । तभी अनभिज्ञता घटित होती है ।
                                                                   ०००



  

सोमवार, मई 25, 2015

अघोर वचन -30

" देवता का आगमन.......पहले अपने में उसका आविर्भाव होता है । अपना मन खुद ही महसूस कर लेता है । हाँ ! यह ऐसा ही होगा, हो जायेगा । पहले ही महसूस कर लेता है । जब अपना मन महसूस नहीं करता है तब आप सोचिये कि कहीं मुझमें त्रुटि है । और उस त्रुटि के कारण मुझे बहुत दूर दिख रहा है, अन्धकार दिख रहा है । वह त्रुटि मैं कैसे सुधारूँ ? यह अपने उन महाजनों से पूछिये ।"
                                                     ०००

धरती के सभी मनुष्य उस अज्ञात को अपनी भाषा में कोई नाम देकर, कल्पना के रँगों से रँगा हुआ कोई आकार देकर, निराकार मानकर भी अनेक गुण आरोपित कर, आदि नाना प्रकार से जानते है, मानते हैं, पूजते हैं, प्रार्थना करते हैं । इस प्रकार की क्रियाओं में शरीर तो नियुक्त रहता ही रहता है, धन भी लगता है और समय भी लगता है । जहाँ कहीं भी किसी मनुष्य पर उस अज्ञात की कृपा बरसती है तो उसे मालुम चल जाता है । उसके मन में कुछ अलग प्रकार का अनुभव होने लगता है । सबकुछ सुहावना सा हो जाता है । गुनगुनाने का मन करता है । नाचने का मन करता है । एकाँत में रहने का मन होता है । उस समय वह बिल्कुल नहीं सोचता कि लोग क्या कहेंगे । मैं कैसा दिख रहा हूँ । उसे समय, काल आगा, पीछा, सुन्दर असुन्दर कुछ भी तो नहीं सूझता । यह सब दिव्यत्व का आविर्भाव होने से होता है ।

अधिकाँश मनुष्य में दिव्यत्व का आविर्भाव नहीं होता या वह जान नहीं पाता । अघोरेश्वर कहते हैं हर मनुष्य में इसकी पूरी संभावना मौजूद है कि उस अज्ञात का, दिव्यत्व का आविर्भाव हो, तभी तो वे कहते हैं कि यदि कोई ऐसा महसूस नहीं करता तो वह समझे कि उसमें, उसकी पूजा में, प्रार्थना में कहीं कोई त्रुटि है ।

अपनी त्रुटि मनुष्य को खुद पहचाननी होती है । उसे भगवत तत्व दूर दिखता है । चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखता है । मुँह से प्रार्थना के रटेरटाये बोल फूटते रहते है और दृष्टि कहीं होती है तो मन कहीं और होता है । फूल चढ़ाना, दीप दिखाना, घन्टी बजाना या शँख फूकना रोज के नियम की तरह निपटाये जाते हैं व्यक्ति उस समय कहीं और होता है । जाप करते समय ध्यान सुमेरू की तरफ लगा रहता है कि कब आये । दिखावा एक ऐसा तत्व है जो हमारी पूजा, प्रार्थना में अनिवार्य रूप से उपस्थित होता है । ये सब अपनी त्रुटियाँ हैं जो हमें नहीं दिखती ।

यदि मनुष्य अपनी त्रुटियाँ पहचान लेता है तो सुधार के लिये उसे संत, महात्माओं के निकट बैठकर सीखना चाहिये ।
                                                                ०००   

शनिवार, मई 23, 2015

अघोर वचन- 29

"जब किसी काम को होना होता है तो उसका पहला एक लक्षण, दो लक्षण अपने सामने से गुजर जाता है । हम मार्क करें तो हम यह समझ सकते हैं कि अब उसका आगमन होने वाला है, और सचेत हो जाँय, और सचेत हो जाँय । और नहीं यदि हम ऐसे ही गुमराह में पड़े हैं तो गुमराह में पड़े रहेंगे ।"
                                                             ०००

मनुष्य विशेष करके गृहस्थ के जीवन में अनेक काम बड़े महत्व के होते हैं जैसे बच्चों की शिक्षा, शादी, मकान बनाना, आदि आदि । व्यक्ति पहले किसी काम के होने की कामना करता है, फिर प्रयत्न । कभी काम सध जाता है कभी नहीं सधता । वचन में कहा गया है कि हम थोड़ा स्थिर चित्त होकर घट रही घटनाओं पर ध्यान दें, संयोगों को पहचानने के लिये सचेष्ट हों तो जब काम को होना होता है तब उसके आसार दिखने लगते हैं । ऐसा संयोग बनता चला जाता है कि काम यथासमय पूर्ण हो जाता है । हम साधारणतः इन लक्षणों को, संयोगों को कभी पहचान पाते हैं और कभी नहीं पहचान पाते । स्थिर चित्त होंगे तो पहचानने लगेंगे ।

भगवत भक्त, साधक के जीवन में साधना के कई पड़ाव होते हैं । वही उसका काम है । जब गुरू कृपा या भगवत कृपा साधक पर होने वाली होती है तो उसके लक्षण पहले ही प्रकट होने लगते हैं । साधक का हृदय उल्लास से भरने लगता है । बिघ्न बाधायें दूर भाग जाती हैं । उपासना में मन रमने लगता है, आदि । साधक इन लक्षणों को देख समझ कर सचेत हो जाता है । वह जान जाता है कि उस अज्ञात की कृपा उस पर होने ही वाली है । वह धन्य हो उठेगा ।

काम के सधने में इस प्रकार की जानकारी का बड़ा महत्व है । कभी कभी जब काम होने वाला ही होता है हम अनजाने में वापस हो लेते हैं, काम को छोड़ देते हैं, प्रयत्न में शिथिलता आ जाती है और होने वाला काम भी नहीं होता । जब मनुष्य लक्षण पहचान लेता है, वह प्रयत्न में और भी अधिक गँभीरता से जुट जाता है । उसे छोड़ता
नहीं ।
                                                              ०००

गुरुवार, मई 21, 2015

अघोर वचन - 28

" वह पूर्ण विश्वास दे कि तुम्हें मैं अपनाया, और तुम अपना ही हमें भी मानो, और हम, जो तुम में है, उसे ही समझो । वही मेरी आत्मा, वह है । जो इस तरह करने के लिये मुझे बाध्य कर के इस विशेष अवस्था तक पहँचाया, जब इतना हो जाता है तब उसका दुलार, प्यार, लाड़ और वह आनन्द और वह सुख विभोर होता है । उसे कहा जाता है अवधूत, सन्त, महात्मा, महापुरूष ।"
                                                       ०००

यह वचन आध्यात्मिक साधना की सम्पूर्ण क्रिया विधि का विवरण समेटे हुये है । गुरू के समक्ष शिष्य के समर्पण करने से लेकर संत में रूपान्तरित होने तक की त्रुटिहीन प्रक्रिया का आलेखन अघोरेश्वर जैसे अधिकारी पुरूष द्वारा ही संभव है । जो जिस राह चला हो वही उस रास्ते का हाल बता सकता है । उसके अवरोधों, कठिनाईयों, आलोक या अँधकार का विवरण देकर मार्गदर्शन कर सकता है । ऐसा ही मार्गदर्शन साधक को सिद्ध और फिर महापुरूष बनने में सहायक होता है । अघोरियों में एक कहावत प्रचलित है कि गुरू शिष्य नहीं बनाता, वह तो गुरू बनाता है ।

श्रद्धालु जब अवधूत, संत, महात्मा के समक्ष ज्ञान के लिये निवेदन करता है तब दीक्षा देकर गुरू रूप में वे विश्वास देते हैं कि वे शिष्य के अपने हैं । यहाँ गुरू शिष्य की आत्म स्थिति एकीकरण की ओर बढ़ती है । गुरू आगे स्पष्ठ करते हैं कि हे ! शिष्य हम ही तुममें हैं । तुम कोई और नहीं हो । यह अद्वैत की स्थिति है । आगे है कि तुममें जो मैं, आत्मा के रूप में हूँ, उसी को तुम्हें समझना है । जानना है । मानना है ।

गुरू, शिष्य के हृदय में स्थापित हो जाता है । यह स्थापना शिष्य को हर समय सचेत करती रहती है । शिष्य कभी भी अपने को अपने ईष्ट से, अपने देवता से दूर नहीं पाता । उसके लिये सब कुछ आसान हो जाता है । धीरे धीरे उसके संचित संस्कारों का क्षय होता जाता है और वह परमानन्द में डूबकर सुखविभोर हो जाता है । इसी स्थिति को कहते हैं अवधूत, सन्त, महात्मा और महापुरूष ।
                                                                ०००

मंगलवार, मई 19, 2015

अघोर वचन - 27

"पाप के हटने ना हटने से, पुन्य के उदय होने न होने से जीव का उद्धार हो जाय सो समझ में नहीं आता । पूर्णतः मान्य नहीं होता । पूर्णतः मान तो तभी होता है कि उस अज्ञात के साथ वार्तालाप हो, पहुँचें, मिलें, मिलने के बाद देखा देखी हो, देखा देखी के बाद वह के पास हम बैठें और वह मुझे बैठावे, और इसको क्या कहते हैं... उपासना । उप्य आसन ।"
                                           ०००

तीन बातें हैं । पाप, पुन्य और उद्धार । संसार के सभी धर्मों में किसी ना किसी नाम, रूप से ये तीनों बातें पाई जाती हैं । कहा जाता है कि पापी का उद्धार नहीं होता, उद्धार के लिये पुन्यात्मा होना जरूरी है । अब यह कौन बताये कि मनुष्य का उद्धार कैसे होगा, क्या करना होगा, पाप कैसे हटे, पुन्य कैसे उदय हो, आदि आदि । इसका उत्तर तो उद्धारकर्ता ही दे सकता है और उद्धारकर्ता है वह अज्ञात, परमेश्वर ।

अघोरेश्वर साफ साफ कहते हैं कि पाप और पुन्य का मनुष्य के उद्धार में कोई सरोकार नहीं है । पाप न करने भर से किसी का उद्धार होने से रहा । पुन्य एकत्र करके कोई उद्धार हो लेगा सही नहीं लगता क्योंकि दोनों ही स्थितियों में उद्धारकर्ता वह ईश्वर अनुपस्थित है । उद्धार करना नहीं करना उसी का निर्णय है ।

वचन कहता है कि मनुष्य का उद्धार तभी होता है जब वह उस अज्ञात, जो उद्धारकर्ता है, से मिले । अज्ञात से कैसे मिलें ? उपासना से । हमारी उपासना ऐसी हो कि उनके आसन के समीप हमारा भी आसन लगे और उन्हें हम साकार देखें, बात करें, उनके पास बैठें आदि आदि । परन्तु मनुष्य के लिये उस अज्ञात से ऐसा होना सम्भव नहीं दिखता । फिर क्या हो?

इसके लिये दो वाक्य की एक कविता कही गई है । " भजन तजन के मध्य में हम करें विश्राम । हमारी भजन राम करें, हम करें आराम ।" अर्थात उपासना के मध्य में ऐसी स्थिति बने कि अपने में ना कुछ उदय हो ना अस्त । स्वयँ को खो दें यानि विश्राँति में चले जाँय और हमारी जो उपासना है, भजन है वह करे हमारा आत्माराम । अब बात स्पष्ठ हो गई कि जब मनुष्य का आत्माराम भजन करेंगे तो वह अज्ञात अज्ञात नहीं रह जायेगा । और उस मनुष्य का उद्धार निसंदेह होना है ।
                                                                  ०००
  

रविवार, मई 17, 2015

अघोर वचन - 26

" शुद्ध मन जिन कार्यों की अनुमति नहीं देता, उन्हें ऐसे कार्यों के लिये मत मनाओ, मत उकसाओ, अन्यथा वह बोझिल एवँ दुस्सह हो उठेगा । अनुचित कार्यों के लिये मन पर दबाव डालने से मस्तिष्क पर कुप्रभाव पड़ेगा और कंठ कुण्ठित हो जायेगा ।"
                                                               ०००

विकार रहित मन शुद्ध मन कहा जायेगा । मन के मुख्यतः चार विकार कहे गये हैं । १, काम २, क्रोध ३, लोभ ४, मोह । मनुष्य का मन इन जैसे अनेक वृत्तियों से मिलकर बना है अतः मन अपनी वृत्तियों से रहित नहीं हो सकता । जब तक मन की ये वृत्तियाँ अपनी स्वाभाविक अवस्था में होती हैं तब तक ये विकार नहीं कहलाती । लेकिन जब मनुष्य काम, क्रोध, लोभ और मोह का दास हो जाता है । मन हर हमेशा इनकी चिन्ता में लगा रहता है, ये अस्वाभाविक रूप से उग्र हो जाते हैं और मनुष्य का सम्पूर्ण अस्तित्व उस वृत्तिमय हो जाता है तब मन शुद्ध नहीं रह जाता अशुद्ध कहा जाता है । ऐसा अशुद्ध हुआ मन मनुष्य को गलत रास्तों की ओर ले जाता है ।

मन की शुद्धि के लिये उससे लड़ने की जरूरत नहीं है । महापुरूषों, संतों ने इसके लिये दो उपाय बताये हैं ।

पहला यह कि हम जागरूक हों । मन के क्रियाकलापों पर दृष्टि रखें । ये वृत्तियाँ जब भी विकार का रूप ग्रहण करने लगें हम इन्हें पहचानें, देखें और विचार करें । इतना ही विकार के शमन के लिये पर्याप्त है ।  

दूसरा है मन को किसी लक्ष्य पर टिकाये रखना । इसके लिये अजपा जाप की विधि सर्वोत्तम है, हालाँकि सबके लिये यह सँभव नहीं होता । कई लोग स्वाँस पर मन को टिकाने, गुरू मँत्र का निरँतर जाप करते रहने और सद् वृत्तयों जैसे मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा आदि को बढ़ावा देने की विधि भी बतलाते हैं ।

कोई भी कार्य, चाहे वह गलत हो या सही, को करने का कारण हमारा मन है । यही मन गलत सही का निर्णय भी करता है । हमें रोकता भी है । हमें टोकता भी है । वचन में यही कहा गया है कि जब भी मन रोके, टोके हम उस पर ध्यान दें । सही गलत को परखें । ना कि मन को ही मनाने लग गये । इससे मन जो सूक्ष्म है स्थूल होने लगेगा । बोझिल हो जायेगा । हम भ्रमित हो जायेंगे । हमारा मस्तिष्क इस अवस्था में अस्वाभाविक व्यवहार करने लगेगा जो निश्चय ही हमारे लिये शुभ नहीं हो सकता ।
                                                                 ०००




शुक्रवार, मई 15, 2015

अघोर वचन - 25

" हम अभ्यन्तर से अपने इस त्रिगुणात्मक स्थिति से अवगत हो जायें और इस पीठ में हम अपने आप को स्थापित कर लेते हैं तो इसी में वह गुरूपीठ है, इसी में वह शक्तिपीठ है और यही हमारी ही आत्मा, हम ही वह सर्वगुण और रूपों में और अच्छे कर्मो की तरफ प्रेरित करती है ।"
                                                       ०००

गुण तीन बतलाये गये हैं, सत्, रज और तम । सत् गुण में सात्विकता, नैतिकता और पवित्रता होती है । रज गुण की राजस प्रकृति होती है । तम गुण में तामसिक प्रकृति यानि नष्ट भ्रष्ट करने की प्रवृत्ति होती है । यह संसार त्रिगुणात्मक कहा गया है । कोई भी गुण बन्धन से अछूता नहीं है । मनुष्य में तीनों ही गुण होते हैं, परन्तु मात्रा की भिन्नता होती है । जिस गुण की प्रधानता होती है शरीर के अवयव भी उसी गुण के अनुरूप ढ़ले होते हैं । जो स्वच्छ मन और निर्मल दृष्टि सम्पन्न हैं उन्हें गुणों की यह मात्रात्मक भिन्नता दिखती है ।

वचन में कहा गया है कि मनुष्य अपने भीतर इन तीन गुणों की मात्रात्मक भिन्नता और उसके प्रभाव को पहचाने । यह नैसर्गिक स्थिति है । ईश्वर प्रदत्त है । पहचान होने पर हम जान सकेंगे कि हममें कौन सा गुण प्रबल है । किस गुण की मात्रा कम है । इससे हम अपने जीवन की वास्तविक दशा और दिशा भी जान सकेंगे । यह वैसा ही है जैसा कि खुद को जानना । पहचानना । यह है अपने भीतर झाँकना । अभ्यँतर में प्रवेश ।

मनुष्य के भीतर के इन गुणों की पहचान हो जाने पर वह एक स्थिति पर पहुँच जाता है । वह स्थिति ही पीठ कहा गया है और स्थापित कर लेने का अर्थ है स्थिति को यथावत रखना । इतनी यात्रा पूर्ण कर लेने के बाद मनुष्य स्वभावतः गुरू तत्व, शक्ति तत्व एवँ आत्म तत्व से परिचित हो जाता है । गुरू तत्व से ज्ञान, शक्ति तत्व से शक्ति तथा आत्म तत्व से निर्मलता, पवित्रता आती है । ऐसे व्यक्ति के कर्म बन्धन धीरे धीरे शिथिल होते जाते हैं और वह साधारण मनुष्य की श्रेणी से उपर उठ जाता है ।
                                                          ०००


बुधवार, मई 13, 2015

अघोर वचन - 24

" यदि आप विवाहित हैं तो उस एक नारी ब्रह्मचारी के नियम का पालन करें । जब कोई आसक्ति नहीं, उस मातृय को आप जानने लगेंगे तो आप का मन वैसे ही सुगम हो जायेगा । आप जो भी कार्य करेंगे सफलता को प्राप्त करेंगे ।"
                                                                ०००

अविवाहित, सन्यासी के लिये क्या सभी साधकों के लिये ब्रह्मचर्य पालन करना आवश्यक है । यदि साधक विवाहित है तो उसे एक नारी ब्रह्मचारी के नियम का पालन करना चाहिये । यहाँ तक तो बात सहज लगती है । सरल लगती है । कुछ एक अपवादों को छोड़कर सभी विवाहित कहेंगे कि हाँ वे इस नियम का पालन करते हैं । ये बात कुछ अँशों में सत्य भी है ।

एक नारी ब्रह्मचारी का यह सरल सा नियम उस समय कठिन या असम्भव सा जान पड़ने लगता है जब आसक्ति का प्रश्न उपस्थित होता है । मानव मन के अनेक रँग हैं । इसी संदर्भ का एक छोटा सा वाकया है । युरोप के एक जगत प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ने लिखा है कि उसकी शादी एक चर्च में हुई । उसकी प्रेमिका जिसे वह दिलोजान से चाहता था, उसकी पत्नि बनी । दोनों विवाह के बाद एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले चर्च से घर जाने के लिये निकले । चर्च के गेट से बाहर आते ही उस मनोवैज्ञानिक को एक अत्यँत सुन्दर सी महिला दिखी । वह ठगा सा उसे देखता रह गया । उसने स्पष्ट शब्दों में उस समय की अपनी मनःस्थिति को और अपने इस कृत्य को स्वीकार किया है । यह आसक्ति का ही एक रूप है ।

जब विवाहित साधक एक नारी ब्रह्मचारी के नियम से बँधा होगा, उसके मन में लेस मात्र भी आसक्ति नहीं होगी तब वह मातृय यानिकि मातृ तत्व से अपरिचित नहीं रह सकता । साधक में इस स्थिति के विकास होते होते इतनी निर्मलता, इतनी पवित्रता आ जाती है कि वह फलों से लदी डाली की तरह झुक जाता है । सुगम हो जाता है ।   सहज हो जाता है ।

साधना पथ के पथिकों के लिये यह किसी सिद्धि से कम महत्व की नहीं है ।
                                                                       ०००






मंगलवार, मई 12, 2015

अघोर वचन - 23

" सुधर्मा ! तुम्हें यह पूर्णतः जान लेना होगा और जान कर अपने आप में, उस अज्ञात के चरणों में, व्यवहारिक अन्वेषण करना होगा । व्यवहारिक न होने के कारण दर्शन या फिलासफी बिल्कुल अधूरे हैं । दर्शन और फिलासफी अपने को, अपनी बुद्धि को, सत्य से अपरिचित रखता है । सत्य एवँ उस अज्ञात की दया और कृपा ही व्यवहारिक है ।"
                                                         ०००

मनुष्य का मन भी बड़ा विचित्र है । वह जानता है पर अनजान सरीखे जिये चला जाता है । मृत्यु अकाट्य सत्य है सब जानते हैं पर धन, सम्पत्ति, मान, सम्मान जोड़ते हुये ऐसे जीते हैं जैसे अनजान हों । यह जानना अपूर्ण है । अघोरेश्वर सुधर्मा यानिकि धर्म के, अघोर पथ के पथिक को कहते हैं कि जो तुम जानते हो उसे पूर्णतः जानना ।  उस जानने को मानना भी । शँका, अविश्वास के रहते पूर्णतः जानना नहीं होगा । दुनियाँ से अपने आप को अलग करके मत देखना । अपने पक्ष में कोई अतिरिक्त आशा मत पालना कि जानकर भी अनजान बन जाओ ।

जानना क्या है ? यह मूल प्रश्न है । मनुष्य को उपलब्ध शरीर और मन में नित्य जो घट रहा है उसे जानना है । संसार में अपने आसपास जो घट रहा है उसे भी जानना है । स्थिति निरपेक्ष होकर जानना है । समय निरपेक्ष होकर जानना है । और पूर्णतः जानना है । इस जानने के बाद अपने आप में उस जानने वाले को भी जानना है । उस अज्ञात को भी जानने सरीखे होना होगा । यही जानना व्यवहारिक अन्वेषण होगा ।

प्राचीन काल से ही भारत में दर्शन या फिलासफी की बहुलता रही है । डा० आंबेडकर ने अपनी पुस्तक " भगवान बुद्ध और उनका धर्म " में उल्लेख किया है कि भगवान बुद्ध के समय भारत में तिरसठ दर्शन प्रचलित थे । इन सभी दर्शनों ने अलग अलग या मिलकर भी एक बुद्ध पैदा नहीं कर सके क्योंकि दर्शन अधूरे हैं । कोरे सिद्धांत हैं । व्यवहारिक नहीं हैं । जल पर बड़े बड़े सिद्धांत रचकर प्यास नहीं बुझाई जा सकती । उसके लिये तो जल पीना पड़ेगा । जल पीना सत्य है । व्यवहार में आता है ।

सत्य जब व्यवहार में आ जाता है तो कुछ भी अनजाना नहीं रहता । सब कुछ दिखने लगता है । यही उसकी दया है । परमेश्वर, अज्ञात भी सत्य व्यवहार के पक्ष में होते हैं । सत्यनिष्ठ पर उनकी कृपा होती है ।
                                                            ०००




रविवार, मई 10, 2015

अघोर वचन - 22

" मैं नहीं कहता हूँ कि तुम इतना ही समझकर स्थिर हो जाओ । वह पूरी समझ नहीं है । इससे और आगे बढ़ो । इससे आगे और कुछ है, उससे भी आगे बहुत कुछ है, जिन्हें तुम्हे जानना है, जानकर अपनाना है, अपनाकर अपनापन समाप्त करना है ।"
                                                                   ०००

यह वचन गुरू का गूढ़ वाक्य है । यह शिष्य के लिये है और भक्त, श्रद्धालु के लिये भी है । गुरू ज्ञान देते हैं । रास्ता बताते हैं । रास्ते की कठिनाईयों के प्रति आगाह करते हैं । वे अपने से किसी भी रूप में जुड़े व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति पैनी निगाह रखते हैं ताकि वह आगे बढ़ता जाय । उसका पतन ना हो ।

गुरू द्वारा पथ दिखाकर पथिक को मँत्र, क्रिया और औषधि जैसे अस्त्र शस्त्रों से सज्जित कर दिया जाता है । लक्ष्य बता दिया जाता है । अब बच जाता है पथिक का चलना । पथिक को अपनी मँजिल पाने के लिये अपने पैरों चलना पड़ता है । इसमें गुरू हस्तक्षेप नहीं करते । इसीलिये वचन में कहा गया है कि जो तुमको बताया गया है, दिखाया गया है उसे ही सम्पूर्ण मानकर ठहर मत जाओ । स्थिर मत हो जाओ । आगे बढ़ो । चरैवेति, चरैवेति, चरैवेति ।

अघोरेश्वर अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को, शास्त्रीय संदर्भों को, कठिनतम क्रिया विधियों को भी सहज और सरल भाषा में बता दिया करते हैं । यहाँ पर भी वे कह रहे हैं कि अपनापन समाप्त करना है । साधक जब आगे बढ़ते बढ़ते अपने लक्ष्य को पा लेता है फिर वहाँ अद्वेत की स्थिति आ जाती है । साधक और परमब्रह्म एकाकार हो जाते हैं । साधक की सत्ता, अपनापन ब्रह्म सत्ता में  विलीन हो जाता है ।

 यही है अध्यात्म की परमगति । भवसागर पार करना । मुक्ति । मोक्ष । या और भी जो नाम दिया गया हो ।
                                                                       ०००


शनिवार, मई 09, 2015


अघोर वचन - 21

" जिसने मान, बड़ाई और स्तुति को तिलाँजलि दे रखी है, उसे खाक लपेटने, अपने को तपाने या समाज सम्मान की आवश्यकता नहीं होती । वह तो जाति और कुल के लक्षणों, यहाँ तक की प्राँतियता, राष्ट्रीयता और भाषा की सीमाओं, बन्धनों, संकीर्णताओं, विशिष्टताओं से भी अपने को विमुक्त रखता है ।"
                                                                ०००

सामान्यतः धरती के समस्त भू भाग में निवासरत मनुष्यों में यह देखा गया है कि वह अपने वँश, परिवार एवँ स्वयँ माननीय होना चाहता है । वह इसके लिये वास्तविक, अवास्तविक कारण या तो खोज लेता है या गढ़ लेता है । इसे हम उसका अहँकार कह सकते हैं ।

बड़ाई मीठा जहर के समान है । जब कोई व्यक्ति किसी प्रलोभन के कारण किसी दूसरे मनुष्य के बारे में उसके सामने ही बढ़ा चढ़ा कर बखान करता है तो यह बड़ाई है । जैसे किसी हवलदार को दरोगा कहकर पुकारना, पुराने जमाने में राजा को धरतीपति कहना, सामान्य से थोड़ा ज्यादा ज्ञानी को महापँडित या जगतगुरू कह देना । ये सबके सब वास्तविकता के धरातल पर असत्य हैं, परन्तु बड़ाई के अच्छे उदाहरण ही नहीं बड़ाई करने वाले के लिये फलदायी भी सिद्ध होते हैं ।

स्तुति और प्रार्थना समानार्थी शब्द हैं । विकृत अर्थ में यह खुशामद कहलाता है तथा पवित्र होकर यह देवस्तुति बन जाता है । यहाँ स्तुति का खुशामद रूप ही अभिप्रेत प्रतीत होता है ।

वचन में कहा गया है कि उपरोक्त तीनों बुराईयों से जो दूरी बना लेता है । जिसे इनमें रस नहीं मिलता । उसे सन्यासी के समान, मशानचारी के समान अपने शरीर में भभूत रमाने, कठिन तपस्या कर शरीर को गलाने की आवश्यकता नहीं रहती । वह स्वभाव से ही वचन में बताये गये समस्त सीमाओं, बन्धनों, संकीर्णताओं से मुक्त रहता है । उसका जीवन किसी संत महापुरूष के जैसा जान पड़ता है ।
                                                      ०००  



गुरुवार, मई 07, 2015

अघोर वचन -20

" अपने लिये जीविका का अधिक संग्रह न करना । समाज के जो लोग निस्सहाय, साधनविहीन हो गये हैं, उन्हें अपनी जीविका में से बाँटकर देना । इसी को समसमाधि, समान तद्रूपता कहते हैं ।"
                              ०००

जीविका एक बृहत् अर्थवाला शब्द है । कृषि, व्यापार, नौकरी सभी कुछ इसके अन्दर सम्मिलित हैं । यहाँ पर जीविका से धन अभिप्रेत होता प्रतीत होता है । कहा गया है कि धन का संग्रह अपने और अपने परिवार के भरण पोषण, आवश्यकता की पूर्ति के लिये मात्र करना चाहिये ।

आज पश्चिमी संस्कृति को स्वीकार कर भारतीय जनों की आवश्यकता भी अनन्तगुना बढ़ गई है । इन बढ़ी हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रचूर मात्रा में धन चाहिये होता है जो बहुधा हमारी जीविका से प्राप्त नहीं होता । हमें नैतिक, अनैतिक किसी भी तरह से धन प्राप्ति हेतु प्रयत्न करने होते हैं । हम बिना संकोच प्रयत्न करते हैं, चाहे इसके लिये हमें अपनी आत्मा ही क्यों ना गिरवी रखनी पड़े । हमें मीडिया इन प्रयत्नों के प्रकार और दुश्परिणाम रोज ही तो दिखाता रहता है ।

समाज में शारीरिक विकलाँगता, मानसिक अक्षमता, प्राकृतिक विपदा से पीड़ित, विधवा जिन्हें परिवार ने निष्कासित कर दिया है जैसे लोग निस्सहाय व साधन विहिन हो जाते हैं । इनके समक्ष शरीर रक्षा के निमित्त भोजन प्राप्ति की भी समस्या उत्पन्न हो जाती है । आकाशवृत्ति या भिक्षाटन के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता । ऐसे लोगों को अपनी जीविका में से बाँटकर देना सर्वथा उचित माना गया है । कुछ महात्मा इसके लिये अपनी आय का दस प्रतिशत दान देने की प्रेरणा देते हैं । अघोरेश्वर जीविका में से कितना बाँटा जाय इसका निर्धारण नहीं करते । वे यह मनुष्य के विवेक पर छोड़ दिये हैं ।

जब मनुष्य में निस्सहाय एवँ साधनविहीन लोगों के लिये अपनी जीविका में से कुछ बाँटने की इच्छा जागती है और वह इसे मूर्तरूप देता है तब उसकी मनःस्थिति विशेष प्रकार की हो जाती है । इसे अघोरेश्वर ने समाधि के समान माना है और तपस्या से प्राप्त मनःस्थिति जैसा या तद्रूप कहा है ।
                                                                   ०००



बुधवार, मई 06, 2015

  अघोर वचन -19

" समाज में रहकर अमानी बने रहो । यह ध्यान रहे कि सम्मान, आदर और किसी भी प्रकार के प्रलोभन के पीछे अपने इस मुल्यवान जीवन का अधिकांश निकल न जाय । इसी को ध्यान भी कहते हैं ।"
                                    ०००

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । उसने विपरीत लिंग के साथ जुड़कर सबसे पहले परिवार संस्था का निर्माण किया । तत्पश्चात कई परिवारों को जोड़कर समूह बनाया । समूहों में जब जुड़ाव घटित हुआ तो समाज बना । विकास की इस प्रक्रिया में आचार, व्यवहार, नैतिकता, जैसे जाने कितने नियम बने । कुछ समय की धारा में टिक नहीं पाए, परिवर्तित हो गये । नये रूप में पुन: स्थापित हुए । आज हम समाज को जिस रूप में देख रहे हैं वह इसी सतत प्रक्रियागत विकास का परिणाम है ।

अघोरेश्वर इस वचन में मानव मात्र, चाहे वह गृहस्थ है या सन्यासी, या अन्य कोई, से कह रहे हैं कि समाज के भीतर समाज के अंग बनकर रहो । समाज को त्याग कर मशानचारी, हिमालय जाकर एकान्तसेवी बनने की आवश्यकता नहीं है । अमानी बनने की जरूरत है यानिकि समाज के भीतर भी रहो और समाज तुमको छुए भी नहीं । कमल के पत्ते की तरह समाज रूपी जल से निर्लिप्त ।

समाज में अमानी बनकर रहना अत्यंत कठिन है । मनुष्य के लिए काम, क्रोध, लोभ, और मोह वृत्तियों को सब समय सम अवस्था में रखना दुस्कर होता है । मानव मन इतना विलक्षण है कि कब और कहाँ, क्या कर जायेगा कुछ कहा नहीं जा सकता है । वचन में यह कहा गया है कि मनुष्य जीवन भर अपने कार्यकलापों पर दृष्टि रखे ताकि उसका मन उसे सांसारिक प्रलोभनों में फंसाकर उसको तिगनी का नाच न नचा सके और उसका जीवन लोभ, मोह के चक्कर में निकृष्ट जीवन न कहलाने लगे । उससे सुख, शाँति की धारायें दूर भाग जाँय । वह अपने पशुत्व से हार जाय ।

इस प्रकार की सतर्कता बरतना ध्यान की श्रेणी में गिना जाता है ।
                                                               ०००    

मंगलवार, मई 05, 2015

अघोर वचन - 18

" कहने को तो हम बहुत कुछ कह डालते हैं, सुनने के लिये हम लोगों का बहुत कुछ सुनते हैं, पढ़ने के लिये बहुत कुछ पढ़ लेते हैं मगर यह सब उसी छाया को पकड़ने सरीखे है‍ जैसे आगे आगे छाया भागता जाय, हम पकड़ने जाँय, वह कभी धराता नहीं, ले जाकर गड्ढ़े में गिरा देता है । हमें गुरूजनों ने इतना ही खाली कहा है कि तूँ घूम जा । यह संसार रूपी जो छाया है, यह तुम्हारे पीछे पीछे घूम जाएगा ।"
                                                             ०००

मनुष्य जीवन बहुधा निरूद्देश्य बीत जाता है । पशु से थोड़ा उपर पढ़ना, लिखना, कहना, सुनना और सपना बुनते हुए हम जीवन को जीते हैं । सुख, दुःख, काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसी मन की वृत्तियाँ हमें जैसा और जिधर ले चलती हैं हम चल देते हैं । कभी कभी तो हम बिना सोचे समझे ऐसा काम कर जाते हैं कि बाद में हमें पछताना पड़ता है । एक एक पैसे के लिये रोते हैं और देह छोड़ने के समय लाखों छोड़ जाते हैं । मान सम्मान के ऐसे भूखे हैं कि उसके लिये कितना ही नीचे गिर सकते हैं । इसके अलावा अनेक बार हम पशु भी बन जाते हैं और काम संज्ञा के अधिन होकर रेप जैसा अमानुषिक कृत्य भी कर जाते हैं । इन सबका कारण है कि हम यह नहीं जानते कि हम क्या चाहते हैं । हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है । इस शरीर के अलावा भी हमारा अपना कहने के लिये कुछ है कि नहीं । हम मनुष्य तो हैं पर पशु भाव हमको नहीं छोड़ा है ।

पश्चिम जब जीवन को आसान बनाने के लिये पदार्थ जगत के अनुसंधानों में लगा हुआ था, हम मानसिक जगत और अध्यात्म की गहराईयों में उतरकर सुख चैन, आनन्द और भवसागर से पार उतरने के उपायों की खोज कर रहे थे । हमारे ऋषियों, मुनियों, अध्यात्मिक रूप से उन्नत संतों, महापुरूषों ने पाया कि मनुष्य जबतक इन्द्रियों को उनका इच्छित भोग चढ़ाता रहेगा, मन की सुनता रहेगा और अपने आत्म तत्व की अवहेलना करता रहेगा आनन्द नहीं पा सकता । परमात्म तत्व की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है । उन्होने इसके लिये एक सहज मार्ग बतलाया वह यह कि तूँ घूम जा । घूम जा का अर्थ है जो आज तक करता आया है उसके उलट कर । मन की सुनता था अब ध्यान बँटाकर उसको सुनाने का मौका ही मत दे । वृत्तियों को देख कि वे व्यर्थ के कार्यों में उलझाकर मनमानी तो नहीं करा रहे हैं । अपनी औकात और प्रयत्न के अनुसार सपना देख और सच करने की चाहना कर । वे कहते हैं कि यदि हम ऐसा करेंगे तो यह जो दुःख और अशांति रूप संसार है, वह तेरे अनुरूप होता जायेगा । मनुष्य को इस प्रकार सुख, शान्ति और आनन्द की प्राप्ति होगी ।
                                                                  ०००
















सोमवार, मई 04, 2015

अघोर वचन -17

" हम अपने जीवन में तरह तरह के स्वप्न देखते हैं । कोई मार रहा है । कोई काट रहा है । कोई मर रहा है । कोई जी रहा है । यह जो निशा है जिसमें हम स्वप्न देखते हैं, इसके कारण ऐसा होता है यह भी नहीं है । इसी तरह से उस उषा को ढ़ूँढ़ता रहता है कि उषा के आगमन से मेरी निद्रा भँग होगी । मैं प्रयत्नशील पुरूष होऊँगा । हर तरह का प्रयत्न करूँगा, जतन करूँगा और नया संसार बनाउँगा ।"
                                                        ०००

स्वप्न बड़ा अर्थपूर्ण शब्द है । लगभग प्रत्येक मनुष्य कुछ बड़ा काम करने का, बड़ा पद प्रतिष्ठा पाने का, बड़ी धनराशि का, परिवार का आदि नाना प्रकार के स्वप्न देखता है । उसमें से कितने पूरे होते हैं । कितने अधूरे रह जाते हैं । कितने छूट जाते हैं । मनुष्य अपने प्रयत्न, अपनी क्षमता और परिस्थिति के अनुसार अपने स्वप्न में से कुछ एक को ही पूरा कर पाता है । संत महात्माओं ने तो जीवन को ही स्वप्नवत माना है । आचार्य रजनीश का कथन इस सम्बन्ध में बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रतीत होता है । वे कहते हैं कि साधक को हर पल, शरीर के प्रत्येक क्रिया कलाप के प्रति चैतन्य होना चाहिये । यानि कि मनुष्य निद्रावस्था में स्वप्नवत जीता है । जीवन ही स्वप्न है ।

मनुष्य सोते हुये भी स्वप्न देखता है । उसमें वह जीवन के सभी आयामों को जीता है । युद्ध भी होते हैं, प्रेम भी करते हैं, मृत्यु भी देखते है और जीवन भी जीते हैं । इन स्वप्नों का कारण वह अँधकार पूर्ण निशा रात्रि नहीं होती । निद्रावस्था में देखे गये स्वप्न के विषय में पातँजल योगसूत्र के समाधिपाद के ३८ वें सूत्र में कहा गया है कि " स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनँ वा ।" अर्थात स्वप्नावस्था में कभी कभी जो अपूर्व ज्ञानलाभ होता है, उसका तथा सुषुप्ति अवस्था में प्राप्त सात्विक सुख का ध्यान करने से भी चित्त प्रशान्त होता है ।

अघोरेश्वर जी के वचन अनुभवजन्य हैं । स्वानुभूत हैं । व्यवहारिक हैं । तदपि द्रष्टा ऋषियों के शास्त्रोक्त कथन से मेल खाते हैं । स्वप्न चाहे जाग्रत हो, चाहे निद्रागत हो स्वप्न ही है । स्वप्न की पूर्णता उषाकाल में प्रकाश के आगमन, व्यक्ति के प्रयत्न और जतन से ही सँभव होता है ।

                                                                ०००




रविवार, मई 03, 2015

अघोर वचन -16

" यदि हम अपने आप को धोका देने से बचा लें तो हम सबकुछ बचा सकते हैं । यदि हम वास्तविकता से आँख बन्द करना छोड़ दें तो हम सबकुछ देख सकते हैं ।"
                                                       ०००
एक समय था जब भारत में गँभीर ज्ञान की बातों को सूत्र रूप में कहने की परम्परा थी । परवर्ती काल में उन सूत्रों पर भाष्य के बड़े बड़े ग्रँथ लिखे गये । सूत्र स्मृति में सहज ही समा जाते थे । अपनी ठौर बना लेते थे । व्यक्ति सहज ही स्मृतिमान हो जाता था । यह वचन भी सूत्र जैसा प्रतीत होता है ।

सामान्य ढ़ँग से कोई भी मनुष्य यह मानने के लिये तैयार नहीं होगा कि वह स्वयँ को धोका दे रहा है । मनुष्य तो यह समझता है कि वह जो सोचता है, करता है वही ठीक है, सत्य है, समयानुकूल है । फिर इसमें ठगी की गुँजाइस कहाँ है ।

ठग क्या करता है ? वह झूठी बातों को मोहक तरीके से आपके समक्ष रखता है और आप उसे सच मान लेते है । यहीँ आप ठग लिये जाते हैं । ठीक इसी प्रकार जब आप किसी विचार, दृश्य या अनुभव पर अपना पूर्व निर्धारित रूप को आरोपित करते हैं तो वह सत्य झूठ में बदल जाता है और जैसा आप चाहते हैं वैसा हो जाता है । इसका प्रभाव उस विचार, दृश्य या अनुभव पर नहीं पड़ता । आप ठगे जाते हैं । स्वयँ द्वारा स्वयँ की ठगी ।

जब हम वस्तुओं, दृश्यों में अपनी दृष्टि आरोपित कर अपने इच्छित ढ़ँग से देखते है तो वास्तविकता से वँचित रह जाते हैं । लाभ की जगह हानि होती है । ईश्वर द्वारा भेजा गया भोग हमसे छूट जाता है । इसीलिये कहा गया है हमें अपने आप को धोका देने से बचना चाहिये । अपनी दृष्टि खुली रखनी चाहिये ।

अनेक बार ऐसा होता है कि हम अपनी ओर से एवँ सामने वाले की ओर से आँखें चुरा लेते है । जो हम हैं वह जानते तो हैं पर स्वीकार नहीं करते । घटा, बढ़ाकर बताते हैं और वैसा ही व्यवहार खुद करते हैं या दूसरों से अपेक्षा करते हैं । यही है वास्तविकता से आँख बन्द करना । यदि हम अपने आप में रहें । अपनी औकात को स्वीकारें तो हमारी दृष्टि निर्मल हो जायेगी और हमें सब कुछ अपने मूल रूप में दिखाई देने लगेगा ।
                                                                          ०००
 

शनिवार, मई 02, 2015

अघोर वचन -15

"दुःखों को ऋषियों ने संसार सागर कहकर सम्बोधित किया है । बिना नौका, पतवार, मल्लाह के इस संसार सागर को पार करने में प्रयत्नशील लोगों को तुफानी वेग, झँझावात और प्रचण्ड वायु के झकोरे नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं । महर्षियों ने इसे दुर्देव पिशाच की संज्ञा दी है, जिसने सौम्य और सुन्दर आकृति वाले, अतीव शीलवान, देदीप्यमान और संवेदनशील मानवों को भी अपनी चपेट से मुक्त नहीं किया है ।"
                                                          ०००
दुःख बड़ा व्यापक शब्द है । दुःख मनुष्य के साथ जन्म से लेकर मृत्यु तक जुड़ा हुआ है । हम अपनी ओर से एक दुःख और जोड़ लेते है वह है जाति दुःख । स्त्री जाति और शूद्र जाति । ये दोनो वँचित जातियाँ हैं । इन दोनों जातियों को संसार सागर या भव सागर के पार जाने हक नहीं माना जाता । अवसर भी नहीं दिया जाता । जबकि ईश्वर की तरफ से ऐसा भेद नहीं किया गया है । सबको समान संभावनाओं के साथ धरती पर भेजा जाता है । इस बात को अनेक संत जैसे संत रबिदास, संत कबीर, संत घासीदास, संत रैदास, महिला संत राबिया आदि महात्माओं ने सिद्ध भी कर दिया है ।

दुःख क्या है । मनुष्य के शरीर में दश इन्द्रियाँ ( पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ ) होती हैं और ग्यारहवाँ होता है मन । मनुष्य का सारा कार्य व्यापार इन्ही से चलता है । मनुष्य को भोग और मोक्ष दोनों ही इन्ही के द्वारा प्राप्त होता है । इन्ही के चलते मनुष्य की अवनति और दुर्गति भी होती है । इन इन्द्रियों का साम्या भाव सुख है अन्यथा दुःख है । इसे हम यों समझें कि हमारी दर्शनेन्द्रिय आँखों को चाहे हुये सौन्दर्य के दर्शन नहीं होते या जिव्हा को चाहे गये रस का स्वाद नहीं मिलता तो यह हमारे दुःख का कारण हो गया । दुःख का जन्म हो गया । इसी प्रकार हमारे जीवन में मनोनुकूल कुछ भी नहीं होने से दुःख ही दुःख होते हैं । मनुष्य का इतना ही संसार होता है । यही भव सागर है । दुःखों से निवृत्ति ही भवसागर के पार जाना है ।

नौका, पतवार, और मल्लाह प्रतीक हैं । नदी के पार जाने के लिये इन तीनों ही की जरूरत होती है । इनके बिना नदी का पार उतरना कठिन होता है । डूबने की संभावना रहती है । जीवन संकट आ उपस्थित होता है । ठीक उसी प्रकार यह संसार भी सागर कहलाता है । इससे मुक्ति के लिये, भव सागर से पार उतरने के लिये भी मनुष्य को नौका रूप दीक्षा, पतवार रूप मँत्र एवँ मल्लाह रूप गुरू की आवश्यकता होती है । इनके बिना संसार सागर से पार उतरने के प्रयास करने वाले मुक्ति कामी, सचरित्र, सदाचारी और भले लोगों को भी पतन का मुख देखना पड़ता है । जीवन व्यर्थ कार्यों में ही व्यतीत हो जाता है । लक्ष्य से भटकन की स्थिति बन जाती है ।
                                                                     ०००






























शुक्रवार, मई 01, 2015

अघोर वचन -14

" जब अपना वह इष्ट, अपना वह आत्माराम अपने अनुकूल हो जायेगा तो आपकी सभी इन्द्रियाँ, जो देवताओं के भोग का साधन हैं, शान्त हो जायेंगी । आप उस महान समाधि को प्राप्त करेंगे ।"
                                  ०००

आध्यात्मिक साधना की शुरूआत गुरू प्राप्ति से होती है । जब किसी सँत पुरूष के दर्शन मात्र से मन स्थिर होने लगे, आन्तरिक उल्लास जगे और ईश्वर याद आये तो समझिये आप गुरू के समक्ष खड़े हैं । जब गुरू का निश्चय हो जाय तो समय काल देखकर, गुरू की मनोदशा पहचान कर उनके चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करें और निवेदन करें कि अपनी शरण में लें एवँ दीक्षा प्रदान कर कृतार्थ करें । आपकी श्रद्धा, मुद्रा, निवेदन की गँभीरता गुरू के हृदय में करूणा का संचार करेगी और आपको दीक्षा दान हो सकता है ।

दीक्षा में सामान्यतः गुरू मँत्र देंगे और क्रिया बतलायेंगे । इष्ट, देवता या देवी के विषय में ज्ञान देंगे और रोज की साधना का निर्देश देंगे । उसके बाद शुरू होती है साधना । साधक जप करता है, अनुष्ठान करता है, क्रिया करता है, स्वयँ को साधता है और यह सब करके अपने इष्ट को, आत्माराम को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करता है । साधक की साधना जैसे जैसे सही दिशा में एवँ सही रूप से बढ़ती जाती है, उसे अनुभूतियों का प्रसाद मिलता जाता है । उसकी इन्द्रियाँ निग्रहित होती जाती हैं । वह समाधि के निकट होता जाता है ।

इसमें ये बातें अत्यँत महत्वपूर्ण है । वे हैं गुरू, मँत्र और देवता पर अटूट श्रद्धा एवँ निश्छल विश्वास । अपनी साधना में लगन । मन में जन्म लेने वाली तृष्णा की उपेक्षा ।
                                                               ०००

  

गुरुवार, अप्रैल 30, 2015

अघोर वचन -13

"कोई देव मूर्ति ध्वनि नहीं उत्पन्न करती है । उसके बन्द कण्ठ और बन्द वचन से आपके शरीर में एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया होती है जिससे रक्त, मांस, मज्जा में एक अजीब तरह का रसायन बन जाता है जो यह महसूस कराता है कि मेरे इष्ट, मेरे देवता, मेरे गुरू ने बहुत कुछ दिया । बहुत तृप्ति होती है ।"
                                                                ०००

भारत में उपासना की सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार समान रूप से व्यवहृत होता आया है । सगुण उपासना का अपना विस्तृत दर्शन एवँ पद्धति है जो अपने आप में अन्यतम है और पूर्ण भी । इसके अँतरर्गत मूर्तियों और यँत्रों की उपासना की जाती है । ये मूर्तियाँ पत्थर, धातु, मृत्तिका, और काष्ठ आदि की बनाई जाती हैं । ये मूर्तियाँ चूँकि निर्जीव पदार्थ से निर्मित होती हैं, इनसे न तो ध्वनि उत्पन्न होती है और न कोई हलचल ही होती है ।

मूर्तिपूजा के आधार तत्व के रूप में हम मूर्ति में पहले जिवन्यास प्राणप्रतिष्ठा करते है । यानि कि उसमें जान डालते हैं । मूर्ति को सजीव करते हैं । मूर्ति सजीव होकर ही पूजा के योग्य होती है ।

अघोरेश्वर यहाँ पर पूजा की आन्तरिक प्रक्रिया बतला रहे हैं । भली प्रकार से प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति के भले ही कण्ठ बन्द होते हैं यानि देवता बोलते नहीं, वचन या वाणी निनादित नहीं होते परन्तु पूजा करने वाले साधक में उसकी निष्ठा, श्रद्धा एवँ विश्वास के अनुरुप रसायनिक परिवर्तन होने लगते हैं । ध्वनि, सुगन्ध आदि की अनुभूति होने लगती है और साधक को आभास होने लगता है कि गुरू ने सही क्रिया बताई है । मँत्र चैतन्य है । देवता प्रसन्न हो रहे हैं ।
                                                                    ०००




बुधवार, अप्रैल 29, 2015

अघोर वचन -12

" जब तक गुरू में श्रद्धा और विश्वास नहीं होता है पूर्ण रूप से, तब तक कोई विद्या भी नहीं फलता फुलता । यह बड़ा मुश्किल है जीवन में । ऐसे अनेक व्यवहार, और विनोद से आप उबकर, आपकी अश्रद्धा भी हो सकता है । जिस समय जिस मँत्र के प्रति ,गुरू के प्रति, देवता के प्रति थोड़ा भी अश्रद्धा हुआ तो वह सारा विद्या का लम्बी आयु बढ़ जाता है । फिर नहीं प्राप्त होता । वह चला जाता है ।"
                                                   ०००

श्रद्धा और विश्वास सापेक्ष शब्द हैं । आज के युग में गुरू यदि चमत्कार दिखा सकते हैं, लोक लुभावन नौटँकी कर सकते हैं, बड़े बड़े नेताओं, अधिकारियों द्वारा चरण स्पर्ष कराते हैं, एक बड़े जन सैलाब को अपने पीछे चलाते हैं तो हमारी श्रद्धा बढ़ती जाती है । गुरू यदि आशीर्वाद देकर हमारा रूका हुआ कार्य करा देते हैं, पदोन्नति, स्थानान्तरण, व्यवसाय में बृद्धि, लड़की की शादी जैसे कार्य आसान करते रहते हैं तो उन पर हमारा विश्वास दृढ़ होता जाता है । यद्यपि सद्गुरू का इन कार्यों से कोई सम्बन्ध नहीं होता । वह तो शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति का कारक होते हैं । सत्पथ पर चलने के लिये मार्ग दर्शक होते हैं । मोक्ष का सेतु होते हैं ।

गुरू दीक्षादान करते हैं । विद्या प्रदान करते हैं । देवता का परिचय देते हैं । उन्नति की राह बताते हैं । राह के अवरोधों को दूर करते हैं । चूँकि ये कार्य मानसिक या आध्यात्मिक धरातल पर होते हैं शिष्य उन्हें न तो देख पाता है और न जान ही पाता है । उसे तो निष्ठा पूर्वक निर्देशित क्रिया कलापों में रमे रहना होता है । उसे यह भी पता नहीं चलता कि उसकी कितनी उन्नति हुई है । कभी कभी अहँकार के वशीभूत होकर वह अपनी शक्तियों का उपयोग भी करना चाहता है और असफल हो जाता है । ऐसी स्थिति में शिष्य में अश्रद्धा उपजती है । गुरू से प्राप्त विद्या का अभ्यास तो करता है पर बेमन से ।

सँशय या बेमन से किया गया कोई भी कार्य सफल नहीं होता । अघोरेश्वर कहते हैं कि अश्रद्धा के परिणाम स्वरूप गुरू से प्राप्त विद्या के साधन में जो समय, शक्ति लगना था वह बढ़ जाता है । साधक अपने लक्ष्य से न केवल दूर हो जाता है वरन् कभी कभी लक्ष्यभ्रष्ट या मार्ग हीन होकर लक्ष्य को खो देता है । यह स्थिति बड़ी विकट है । साधक में यह अश्रद्धा कब उत्पन्न हो जायेगी नहीं कहा जा सकता । गुरू, मँत्र और देवता इनमें से किसके प्रति अश्रद्धा होगी यह जानकर सतर्क हो पाना कठिन है । इसका एक ही उपाय हो सकता है कि साधक को हर तीन माह में गुरू के चरणों के दर्शन करना चाहिये । सेवा करनी चाहिये और अपनी स्थिति, विचार से उनको अवगत कराकर मार्गदर्शन हेतु निवेदन करना चाहिये । इस बीच गुरू के वचनों का पारायण तथा मनन चिंतन तो चलते ही रहना चाहिये ।
                                                                ०००


मंगलवार, अप्रैल 28, 2015

अघोर वचन -11

" यह हाड़ मांस की देह गुरु नहीं है गुरू वह पीठ है जिसके द्वारा व्यक्त किया हुआ विचार तुम में परिपक्वता का पूरक होगा । यदि तुम उसे पालन करते रहोगे, तो गुरूत्व को जानने में सर्व प्रकार से समर्थ होओगे । गुरू तुम्हारे विचार की परिपक्वता, निष्ठा की परिपक्वता, विश्वास की परिपक्वता हैं ।"
                                                                     ०००
अघोर पथ में गुरु का स्थान सर्वोपरी है । अध्यात्म के अन्य क्षेत्रों में सामान्यतः शिष्य गुरु बनाता है, लेकिन अघोर पथ में ऐसा नहीं है । श्रद्धालु का, भक्त का, औघड़, अवधूत से निवेदन करने से दीक्षा, संस्कार हो जावे यह अवश्यक नहीं है । यहाँ गुरु शिष्य को चुनता है । हमें यह प्रक्रिया अन्य सिद्धों के मामले में भी दिखाई देती है । पूर्व में लाहिड़ी महाशय का चुनाव उनके गुरु बाबा जी महाराज ने किया था और अपने पास बुलाकर उन्हें दीक्षा देकर साधना पथ पर अग्रसर कराया था । स्वामी विवेकानन्द जी का चुनाव रामकृष्ण देव ने किया था । और भी अनेक उदाहरण हैं । स्पष्ठ है कि यह शिष्य के अधिकार की बात है । अनेक जन्मों के संचित सत् संस्कार जब फलीभूत होते हैं तो शिष्य का क्षेत्र, अधिकार, पात्र तैयार हो जाता है और दीक्षादान हेतु गुरु के हृदय में करुणा का संचार हो जाता है । इस प्रकार दीक्षा घटित होती है । शिष्य के अधिकार के अनुसार गुरू उसका संस्कार करते हैं ।

महात्मन रामानन्द जी ने कहा थाः "निगुरा बाभन न भला, गुरुमुख भला चमार ।" यदि चमार गुरुमुख था तो रसोई से लेकर पूजा तक और रामानन्द जी के सानिध्य में उसको वही आदर का स्थान प्राप्त था जो किसी भी उच्च वर्ण वाले को था ।

हम देखते हैं कि दीक्षा दान गुरू (सशरीर) करते हैं । गुरू के मुखारबिन्द से निर्देश, ज्ञान का प्रकाश, विचार आदि निनादित होते हैं । इन सब के कारण गुरू को सशरीर हम पूजते हैं । श्रद्धा करते हैं । आदर देते हैं और शरीर के बिना हम उनकी कल्पना भी नहीं करते ।

अघोरेश्वर हाड़, मांस का देह, जो कि नश्वर है, गुण धर्म से बंधा हुआ है, को गुरू नहीं मानने के लिये कहते हैं । गुरु का चिन्मय रूप ही यथार्थ में गुरू है । गुरू की आत्म सत्ता से ही शिष्य को दीक्षा दान प्राप्त होता है, आगे का मार्ग तय होता है, अँगुली पकड़ कर चलाया जाता है और मानव जीवन के लक्ष्य मोक्ष को हस्तगत कराया जाता है । वे कहते हैं कि शरीर नहीं गुरू तत्व को अपनाओ । उनके विचार को हृदयंगम करो । उनके द्वारा बतलाये गये मार्ग में चलो । उन्होने जिस समय, जिस ढ़ँग से, जो कार्य सम्पन्न किया है उसका अनुशरण करो । यही सब आपको चैतन्य करेगा । गुरूपीठ का पहचान करायेगा एवँ सब प्रकार की वाँक्षा को पूर्ण करेगा ।

जब मनुष्य गुरू तत्व से सँयुक्त हो जाता है फिर उसे मँत्र, क्रिया, देवता किसी की भी आवश्यकता नहीं रह जाती । वह सर्व समर्थ, परिपक्व एवँ चिन्मय हो जाता है ।
                                                                                    ०००



सोमवार, अप्रैल 27, 2015

अघोर वचन - 10

" लोग कहते हैं कि यह मन यदि अच्छे से मान जाय तो बहुत कुछ हो सकता है । मगर मैं कहता हूँ कि नहीं होता है । मन को मानने से नहीं होगा । मगर हाँ, मन यदि मन में हो, मन बेमन का न हो, तब तो कुछ काम सुलझेगा । यदि मन, मन में ही न हो और मन बेमन का हो गया हो, तब तो मन के वन में मन को ढ़ूढ़ते हुए क्लेश, वेदना सहना ही होगा ।"
                                                                               ०००

भारतीय ॠषि महर्षियों से लेकर आधुनिक युग के फ्रायड और कार्ल जुँग जैसे मनोवैज्ञानिक मन को जानने, पहचानने और साधने के लिये बहुत मेहनत करते रहे हैं । उन्हें किन्ही स्तरों पर सफलता भी मिली है । सबने मानव मात्र को मन के विषय में अपने अनुसंधान के परिणामों से अवगत भी कराया है । अब हम मन के विषय में पहले से अधिक जानकारी रखते हैं । मन अच्छे से मान जाय का अर्थ है मन सहज ही एकाग्र हो जाय । ऐसा माना जाता है कि एकाग्रता से बहुत कुछ पाया जा सकता है ।

साधारण मनुष्य के लिये एकाग्रता बड़ी उपलब्धि हो सकती है । एकाग्र मन शक्तिशाली हो उठता है । अध्ययन, चिंतन, मनन के लिये एकाग्रता की बड़ी आवश्यकता होती है । अघोरेश्वर कहते हैं कि मन की एकाग्रता से कुछ हो सकता है पर बहुत कुछ नहीं । क्योंकि मन की एकाग्रता एक क्रिया है जो करने से होता है । इसकी अवधि सीमित है ।  इसके बाद मन फिर अपने रास्ते चल पड़ता है ।

हम देखते हैं कि हमारा शरीर कहीं होता है और मन कहीं और । हम कुछ कार्य करते हैं पर उस कार्य में हमारा मन नहीं लगता । कभी कभी हम अपने आस पास से निर्लिप्त हो जाते हैं । हमें पता ही नहीं चलता कि क्या हो रहा है । इसे कहते हैं मन का बेमन होना । वचन में कहा गया है कि मन यदि मन में हो यानि हम चैतन्य हों । वर्तमान में हों । स्थान, काल से निरपेक्ष न हों तो कहा जायेगा मन मन में है । इसके विपरीत की स्थिति को बेमन कहा जायेगा ।

मनुष्य को हमेशा चैतन्य होना चाहिये । वर्तमान में रहना चाहिये । शरीर और मन का तारतम्य बनाये रखना चाहिये । इससे मन अपने आप में रहेगा । बेमन का नहीं होगा और हमें मन में उठने वाले विचारों के महा सागर में स्थिरता, शाँति हेतु महत् प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होगी । मानसिक क्लेश और वेदना से भी हमारा बचाव हो जायेगा ।
                                                                                         ०००

शुक्रवार, अप्रैल 24, 2015

अघोर वचन - 9

" आज मनुष्य राम, कृष्ण, शिव, साधु और महात्माओं का ध्यान तो करते हैं किन्तु क्या वे कभी अपना भी ध्यान करते हैं ? मनुष्य जब तक स्वयँ अपने प्रति दया नहीं करेगा, अपने को गन्दगी में गिरने से रोकने का प्रयास नहीं करेगा तब तक उसकी सभी पूजा अर्चना निरर्थक है ।"
                                                          ०००

समग्र धरती पर निवास करने वाले मनुष्य ईश्वर को मानते हैं, उसकी पूजा करते हैं । ईश्वर को स्थान, भाषा, जाति, धर्म के अनुसार अलग अलग नाम, रूप दिया गया है, पर आस्था में समानता है । इस पूजा, ध्यान, या और जो भी नाम हो से मनुष्य क्या पाता है, कैसे पाता है, यह एक बृहद विषय है । अलग विषय है । ध्यान, पूजन अर्थपूर्ण है । उससे मनुष्य को वाँक्षित लाभ प्राप्त होता है यह निश्चित है ।

हम देखते हैं मनुष्य नियम से रोज पूजा अर्चना करता है, पर न तो उसकी समस्यायें दूर होती हैं और न उसे सुःख शाँति ही नसीब होती है । इसके कारणों की चर्चा इस वचन में किया गया है । आप्त वाक्य है " ध्येय जितना पवित्र होगा साधन को भी उतना ही पवित्र होना चाहिये" । यहाँ ध्येय ईश्वर है और साधन मनुष्य है । ईश्वर तो परम पवित्र है, पर साधन रूप मनुष्य भी क्या उतना ही पवित्र है । यदि है तो ध्येय प्राप्ति सरल है और नहीं तो कठिन से भी कठिनतर है ।

मनुष्य को पहले अपने मन और शरीर को साधना चाहिये । शरीर स्वस्थ रहे । सबल रहे । यह परम आवश्यक है । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है । मन के कलुश अनेक हैं, जैसे लोभ, मोह, काम, क्रोध, आदि आदि, उन्ही के कारण मन हर समय चलायमान रहता है । हम इनको मन से हटा नहीं सकते । इनको दबाने से ये छुटकारे की प्रबल चेष्टा करते हैं जिससे मन और भी अधिक असंतुलित होकर मनुष्य को तृष्णा के भँवर में फँसा देता है । मनुष्य को सदैव सचेष्ट रहकर मन के इन विकारों पर दृष्टि रखनी चाहिये । मन में उठती तृष्णा की विचार लहरियों पर न अटक कर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये । इससे मन निर्मल होगा एवँ स्थिरता आयेगी जो धीरे से शाँति में बदल जायेगी । इस शाँत मन से की गई प्रत्येक पूजा, अर्चना सफल होगी और वाँक्षित लाभ प्राप्त होगा ।
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शनिवार, अप्रैल 18, 2015

अघोर वचन - 8

" बन्धुओ ! मैत्री और मित्र की बहुत बड़ी परिभाषा है । मित्र का दुःख सच्चे मित्र के लिये सभी दुःखों से बड़ा होता है । मित्र हमेशा अच्छे कार्यों के लिये प्रेरणा देता है । घटिया कार्यों के लिये प्रेरणा न देकर हमेशा मुनाफा के कार्य करने की प्रेरणा देता है ।"
                                                               ०००
दो लोगों के जब विचार मिलते हैं, मन मिलता है, निकटता होती है, आकर्षण होता है तब मैत्री की शुरूआत होती है, फिर वे एक दू्सरे का सुख - दुःख बाँटने लगते हैं । कुछ अँतराल के पश्चात उनके सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती जाती है और वे मित्र बन जाते हैं । मित्रता न तो आर्थिक, सामाजिक स्तर से प्रभावित होती है और न ज्ञान, शरीर सौष्ठव, या अन्य किसी बात से । इतिहास मित्रों की कथाओं से भरा पड़ा है । पुरातन काल में हुये कृष्ण और सुदामा की कथा इसका एक अन्यतम उदाहरण है ।

आज के जमाने में मित्र सस्ता एवँ बहु उपयोगी शब्द के रूप में व्यवहृत होने लगा है । सोशल मिडिया में बिना परिचय, केवल इन्टरनेट पर चित्र तथा व्यक्तित्व की दी गई सही - गलत जानकारी के आधार पर मित्र बन जाते हैं । एक व्यक्ति के हजारों मित्र होते हैं । इस मित्रता के पीछे सबका अपना, अपना स्वार्थ छिपा होता है । इस प्रकार की मित्रता का फेस - बुक - मित्रता एक अच्छा उदाहरण है । अन्य और अनेक इसी तरह की मित्रता के मँच हैं ।

विपरीत लिंग के आकर्षण में काम - तुष्टि के लिये भी मित्रता का उपयोग करते अनेक लोग देखे जाते हैं । इस प्रकार के मित्र बनने बनाने के लिये अनेक वेब - साइटें प्रचलित हैं । वेब - साइट संचालित करने वालों के लिये यह व्यापार है जबकि उसमें सम्मिलित होने वाले स्त्री पुरूष के लिये वासना तृप्ति का साधन । यह किसी भी तरह से मित्रता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता ।

मनुष्य के जीवन में बड़े भाग्य से एक या दो सच्चे मित्र मिलते हैं । ये निस्वार्थ भाव से मित्र के हर सुख दुःख में साथ निभाते हैं और अपने सुख दुःख में मित्र को सम्मिलित करते हैं । ये मित्र को कुमार्ग में जाने से रोकते हैं । अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा ही नहीं देते स्वयँ भी साथ चलते हैं ।

जीवन में कभी कभी दुर्भाग्यवश मनुष्य को सच्चा मित्र नहीं भी मिलता, अतः मित्र को जाँचे - परखे बिना अपनी गोपनीय बातें नहीं बतानी चाहिये अन्यथा मान - हानि होने की संभावना है ।
                                                                   ०००





शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

अघोर वचन - 7

" हम दुसरों के बारे में ही चिंतन करने, दूसरों के अनाप - सनाप विचारों की चोरी डकैती करके उसे अपना विचार कहकर अपने साथी मित्र तथा स्वजनों में बाँटकर वाहवाही लूटने जैसे दुष्कृत्य में संलग्न हैं । ठीक ऐसी ही मनोदशा है हमारे देश की ।"
                                                               ०००
आत्मविश्वास की कमी, मेहनत से बचने की प्रवृत्ति, नैतिक पतन और लालसा आदि कुछ ऐसे कारण हैं कि हम एक ऐसे दुष्चक्र में फँस चुके हैं जिसके कारण हम पका पकाया माल खाना चाहते है । पकाने का कष्ट करना नहीं चाहते । हमारी दृष्टि दूसरों पर लगी रहती है कि वे क्या नया कर रहे हैं । हमें उनसे आसानी से क्या मिल सकता है । इस मनोदशा के कारण न तो हम कुछ नया कर पाते हैं और न हमें पुराने के विषय में ज्ञान ही होता है । हम दूसरों पर निर्भर रहने के लिये अभिशप्त हो चुके हैं । इस मनोदसा के कारण हम पतन की गहरी खाई की ओर खिंचते चले जा रहे हैं और हमें पता भी नहीं है ।

इस क्रम में हमारा इतना अधिक नैतिक पतन हो चुका है कि हम नजर बचाकर हथियाने, दूसरों के विचार या रचनाओं को मामुली फेर बदल कर अपने नाम से प्रचारित करने, सरकारी सहायता से जीवन चलाने एवँ आगे बढ़ने हेतु जोड़तोड़ करने आदि कृत्यों को बिना लाज, संकोच के करने लगे हैं । ये कृत्य दुष्कृत्य ही कहे जायेंगे ।

स्वराज प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी हम अपने में वैज्ञानिक दृष्टि विकसित नहीं कर सके हैं । आज भी तकनीक के मामले में हम पिछड़े ही कहे जायेंगे । भ्रष्टाचरण, अनुशासनहीनता और कामचोरी हमारे खून में शामिल हो चुका है । दूसरे देशों पर हमारी निर्भरता, यहाँ तक कि सुरक्षा मामलों में, हमें कमजोर, परमुखापेक्षी, तथा दीन हीन बना देती है । यह एक खतरनाक एवँ विचारणीय तथ्य है ।
                                                                 ०००

गुरुवार, अप्रैल 16, 2015

अघोर वचन - 6

" मनुष्य की दुर्बलतायें उसकी दृष्टि तथा वाणी को विक्षुब्ध कर देती है । उस विक्षुब्धता की स्थिति में वह गलत और सही को समझ नहीं पाता है । यदि समझता भी है तो सिर्फ यही समझता है कि हमीं सब समझ बैठे हैं । ऐसे समझने वाला अपमानित एवँ प्रताड़ित होकर निरादर का पात्र होता है ।"
                                                                ०००
दुर्बलता दो प्रकार की होती है । पहली है शारीरिक दुर्बलता । कोई अँग भँग हो जाय, जीर्ण रोग हो जाय या बृद्धावस्था आ जाय तब शरीर दुर्बल हो जाता है । अपना कार्य सुचारू रूप से नहीं कर सकता । नित्य नैमित्यिक कार्यों के लिये भी दूसरों पर निर्भर हो जाता है । दूसरी है मानसिक दुर्बलता । कहा गया है कि पुष्ट एवँ सबल शरीर में ही स्वस्थ्य मन रहता है यानि शरीर यदि निर्बल हो गया तो मन भी दुर्बल हो जायेगा । चेतन मन और अवचेतन मन में किन्ही कारणों से असँतुलन हो जाय तो मन दुर्बल हो जाता है । ऐसी अवस्था आ जाती है कि मनुष्य पागलपन की सीमा में चला जाता है । कुछ ऐसे कारण भी होते हैं जिनकी जानकारी नहीं हो पाती पर मन को दुर्बल कर देते हैं ।

इन दुर्बलताओं के चलते मनुष्य अपनी सहज अवस्था को खो देता है और आचार, विचार और व्यवहार से असंतुलित हो जाता है । उसे अपनी गलती का भान ही नहीं होता । वह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या सही है क्या गलत । वह वाणी से, जो कि उसके मन का प्रतिबिम्ब होता है, अनर्गल बातें कहता है । इसे ही दृष्टि और वाणी का बिक्षुब्ध होना कहा जाता है ।

मनुष्य यदि अपने आचार, व्यवहार और वाणी से संतुलन खोकर अपव्यवहार में संलग्न हो जाता है, दूसरों के कष्ट का कारण बनने लगता है तो लोग उसे बुद्धिहीन कहकर अपमानित करने लग जाते हैं । समाज में उसका आदर जाता रहता है । वह इस कारण से प्रताड़ित भी होता है ।
                                                                ०००


बुधवार, अप्रैल 15, 2015

अघोर वचन - 5

" यों तो मलमूत्र का हमारा शरीर है फिर भी हम कहते हैं कि बड़ा पवित्र है । सभी लोग बड़े पवित्र भी बने रहते हैं । दुष्कृत्यों में लिप्त होकर भी अपनी पवित्रता का प्रदर्शन करते हैं ।"
                                                            ०००

शरीर का निर्माण पँच तत्वों ( धरती या मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश ) से हुआ है । इन तत्वों के सँयोग और बियोग से या यों कहें रासायनिक क्रियाओं से शरीर के अवयव, रस, रक्त, धातु तथा अवशिष्ट के रूप में मल, मूत्र आदि का निर्माण होता है । शरीर के रहते तक यह प्रक्रिया अनवरत रूप से चलती रहती है । शरीर इन अवशिष्ट पदार्थों से कभी भी खालि नहीं होता, वरन् आयुर्वेद कहता है " मलं ही बलं च" अर्थात शरीर का बल मल है ।

पवित्रता एक मनः - सापेक्ष शब्द है । जिन कार्यों से मन में सद् विचार उदय हों, भगवद् भक्ति में मन रमे, परोपकार करने की इच्छा जगे एवँ प्रफुल्लता का भान हो पवित्रता में शामिल होते हैं । साधारणतः हम स्नान करके धुले वस्त्र धारण कर स्वयँ को पवित्र मान लेते हैं जबकि शरीर में मल, मूत्र और अन्य गँदगियाँ भरी रहती हैं । अनेक बार हम शार्टकट अपनाते हैं और हाथ पाँव धोकर, मन्त्र स्नान करके या गँध, चन्दन मलकर भी पवित्र होना मान लेते हैं । समाज में जाति मूलक पवित्रता का भी अस्तित्व दिखता है ।

पिछले कुछ समय में हमने कुछ तथाकथित पवित्र आत्माओं को देखा है जिनके अनेक दुष्कृत्य उजागर हुये हैं । समाज को ऐसी पवित्रता से सदा ही हानि उठनी पड़ती है । ये पवित्रता के नाम पर मानव मात्र को अपवित्र कर रहे हैं ।
                                                              ०००



मंगलवार, अप्रैल 14, 2015

अघोर वचन - 4

" हम लोग जो स्वर्ग और नर्क इत्यादिक में जो बाँटते हैं और कामना करते हैं कि हमें वह मिलेगा, तो स्वर्ग कोई दूसरी चीज नहीं है जो शरीर के बगैर भोगा जा सकता है । शरीर के बगैर स्वर्ग क्या करेगा ? सत्कर्म ही स्वर्ग का स्वरूप है । कर्म शरीर के माध्यम से होते हैं । जब व्यक्ति अच्छे कर्म करता है तो वह नर से नारायण का पद प्राप्त कर लेता है । परन्तु यदि नर रहा और नर्क के कीड़े मकोड़ों की तरह जीवन बिताता रहा तो कीड़े मकोड़े की तरह जन्म लेकर मर जायेगा ।"
                                                                 ०००

धरती पर के सभी धर्मों के आचार्यों ने स्वर्ग और नर्क का बखान किया है । नाम कुछ भी हो चीज वही है । इन दोनों को मनुष्य की घुट्टी में ऐसे पिला दिया गया है कि मनुष्य स्वर्ग की कामना करता है । वहाँ जाना चाहता है । वहाँ के भोगों को भोगना चाहता है । नर्क कोई भी जाना नहीं चाहता ।

अघोरेश्वर किसी वैज्ञानिक की तरह स्थिति को विश्लेषित करते हैं और कहते हैं कि मानव शरीर कर्म का आधार है । शरीर के बिना कोई भी कर्म या भोग सँभव ही नहीं है । इसे मानव के लाखों वर्षों की विकास यात्रा में देखा भी जा चुका है कि मनुष्य जब तक जीवित है, यानि कि शरीर है, तभी तक कर्म है, धर्म है, काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, सुख है, दुःख है । शरीर त्यागने के बाद क्या कहाँ जाता है किसी ने न देखा है और न कोई लौट आकर बताया है, क्योंकि मृत्यु के तत्काल बाद शरीर के तत्वों का विघटन शुरू हो जाता है, जिसे न तो रोका जा सकता है और न ही उलटाया ही जा सकता है ।

मानव के कर्म को नैतिकता के प्रतिमानों, सामाजिक नियमों, विकास के मानदन्डों के आधार पर सत्कर्म और दुष्कर्म इन दो श्रेणियों मे बाँट दिया गया है । जीवन कर्म बन्धन से बँधा हुआ है । शरीर और मन के सभी हलचल यहाँ तक कि स्वाँस भी कर्म के अन्तर्गत गिने जाते हैं । मनुष्य के वे कर्म जिनसे उसे सुख की प्राप्ति होती है एवँ अन्य किसी को दुःख नहीं पहुँचता, जिनसे स्वयँ सुखी होता है और अन्य को भी सुख मिलता है, जिनसे अन्य को सुख मिलता है और अपनी हानि नहीं होती या कभी कभी हानि हो भी जाती है, सत्कर्म कहलाते हैं । इस प्रकार के कर्मों से मनुष्य को सुख तो मिलता ही मिलता है, उसे अन्यों से प्रेम, श्रद्धा, विश्वास तथा आदर मिलता है । यही स्वर्गोपम उपलब्धि है । स्वर्ग लाभ है । स्वर्ग में रहना है । इसके विपरीत के सारे कर्म व्यक्ति को हीन अवस्था की ओर ले जाते हैं और उसका जीवन कीड़े मकोड़े की भाँति कहा जाता है ।
                                                                    ०००









सोमवार, अप्रैल 13, 2015

अघोर वचन - 3

" मन के चलते भोगों का सुख चिरस्थायी नहीं होता । क्षणिक है और क्षणिक सुख में दुःख ही दुःख भरा हुआ है । हम सीमित रहें । हर परिस्थिति में अपनी खुशियों को ढ़ूढ़ें । मन की गुलामी की बेड़ी से छूटना मुश्किल है । सबकी बेड़ी से छूटा जा सकता है लेकिन मन की बेड़ी से गुलाम बना हुआ व्यक्ति हर जगह मार खाता है ।"
                                                            ०००
मन बड़ा वेगवान है । विचार, कल्पनाओं, की धारायें प्रतिपल मन को जाने कहाँ कहाँ बहा ले जाती रहती हैं । स्थिरता इसके स्वभाव में ही नहीं है । मन इन्द्रियों को नियँत्रण में लेकर भोगों का सुख लेता है । इन्द्रियों की सीमा है । वे उसके बाद अशक्त हो जाती हैं । उनमें बिरूपता आ सकती है, अक्षमता आ सकती है , परन्तु मन की कोई सीमा नहीं होती । शरीर के बृद्ध हो जाने, शिथिल हो जाने, अशक्त हो जाने के बाद भी मन नित नवीन बना रहता है । वह शरीर की शिथिलता, अक्षमता की उपेक्षा कर अपने ढ़ँग से सुखोपभोग की चेष्टा करता है । मन की इसी चँचलता के कारण भोगों का सुख चिरस्थायी नहीं हो पाता । मन सुख भोग के क्षण ही सँयुक्त रहता है । उसके तत्काल बाद वह और कहीं रमने लगता है । इसी कारण सुख भोग क्षणिक बन जाता है । मन बार बार उस सुख को पाना चाहता है और न पाने से दुःख उपजता है ।
दुःख से निवृत्ति के उपाय के रूप में बतलाया गया है कि भोग के लिये मन और शरीर की सीमा होती है, उसे पहचानना होगा । मन और शरीर का संतुलन बिठाकर पहचानी गई सीमा तक सुख भोग करना उचित है । मनुष्य को अपनी परिस्थिति जानकर उसके अनुरूप ढ़लना सीखना चाहिये तथा उसी के भीतर सुख प्राप्ति की आकाँक्षा करनी चाहिये । चेष्टा करनी चाहिये ।

मन जब मनुष्य के इन्द्रियों पर अधिकार कर लेता है एवँ उसे अपने ढ़ँग से सँचालित करने लगता है तब उसे कहते हैं मन की गुलामी की बेड़ी में जकड़ा हुआ । अष्ट पाशों की बेड़ी से मनुष्य छूट सकता है यदि मन उनमें सँयुक्त ना हो । यदि मन ही अनियँत्रित हो गया और मनुष्य मनमाना करने लगा तो ऐसा व्यक्ति का भगवान ही मालिक है । उसका क्या होगा यह कोई नहीं कह सकता ।
                                                             ०००

रविवार, अप्रैल 12, 2015

अघोर वचन - 2

" हम सब जगे हुए भी सोये रहते हैं, और सोये हुए भी मनुष्य जगा हुआ रहता है । जो जगा हुआ रहता है वह दुःख से भगा हुआ रहता है । जो सोया हुआ रहता है वह हर दुःख का सपना देखता रहता है ।"
                                                                   ०००
सामान्यतः सोना, जागना को हम शारीरिक क्रिया में गिनते हैं । वास्तव में यह क्रिया मानसिक है । शरीर जब थक जाता है, स्थिर होकर शक्ति सँचय करता है । शरीर तो यँत्र मात्र है । उसमें सोने जागने जैसा कुछ भी नहीं है । सोता मन है । मन जब शरीर की सारी इन्द्रियों से अपना सम्पर्क शिथिल कर लेता है, विचारों के वेग को अत्यँत धीमा कर लेता है और एकाग्रता की ओर बढ़ने लगता है तब हम कहते हैं कि व्यक्ति सो गया । इससे उलट अवस्था जागरण की होती है ।

उपरोक्त के अलावा भी सुसुप्ति की एक और अवस्था होती है । इस अवस्था में व्यक्ति सामान्य रूप से तो जगा रहता है परन्तु इन्द्रियों के भोग, नानाप्रकार की तृष्णाओं, अहँकार, आदि के विचारों में उसका मन इस कदर वेगवान होकर लिप्त रहता है कि उसे सँसार नहीं दिखता । अपने कर्तव्य से वह विमुख हो जाता है । दुःख और अशान्ति उसे घेर लेते हैं । इसे कहते हैं । जगे हुए सोना ।

लगभग सभी मनुष्य सोते समय भी अपनी शरीर की ओर आने वाले खतरे से सावधान हो जाने का नैसर्गिक गुण रखते हैं । इसे सोये हुए मनुष्य का जगा होना नहीं कह सकते । जब मनुष्य अपने समस्त क्रिया कलाप तो समान्य ढ़ँग से करता रहता है परन्तु उसका मन उनमें लिप्त नहीं होता । उदासीन रहता है । निरपेक्ष रहता है । निरहँकार भाव को प्राप्त हो जाता है । तब हम उसे सोया हुआ मान सकते हैं । ऐसे व्यक्ति बाह्य रूप से तो सोया रहता है लेकिन उसका आँतरिक सँसार सजग रहता है । अपने लक्ष्य के प्रति सचेष्ट रहता है । सँसारिक सम्बन्धों, इन्द्रियों के भोग की वास्तविकता, तथा अपने नैसर्गिक स्वरूप की उसे स्पष्ठ जानकारी रहती है ।
                                                                    ०००

शनिवार, अप्रैल 11, 2015

अघोर वचन - 1



"भगवान ने हमें दूसरों के उपकार और सत्कार के लिये दो हाथ दिये हैं । यदि हम इनसे दूसरों का उपकार- सत्कार नहीं कर सके तो कम से कम अपना तो कर ही सकते हैं । ये दोनों हाथ किसी पर कीचड़ या ईंट - पत्थर फेंकने के लिये नहीं हैं ।"
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भारतीय मनीषा ने मानव जीवन के विविध पहलुओं पर गहन चिंतन कर व्यक्ति तथा समाज के सर्वांगीण विकास तथा आनन्द को उपलब्ध करने की महती आकाँक्षा को परिपूर्ण करने के लिये कतिपय नियम, निर्देश तथा परम्पराओं की पहचान की है ।  उपकार और सत्कार ये दो सत्कर्म उन्ही में से हैं । यहाँ धन एवँ समयदान से उपकार करने की अनिवार्यता नहीं है । ये स्वेक्षिक हैं । हाँ ! दो हाथ को हम मन कर्म वचन मान सकते हैं ।

मानव का स्वयँ पर उपकार तभी सँभव है जब वह कर्म करे । लक्ष्य प्राप्ति एवँ लाभ की गलियाँ कठिन परिश्रम से होकर ही जाती हैं, जिसके बिना मानव जीवन में सुखभोग दिवा स्वप्न बनकर रह जाता है ।


कीचड़, ईँट और पत्थर प्रतीक हैं मानव के अपव्यवहार के । इनसे आलोचना, निंदा, चुगली, गाली-गलौज तथा धन जन की हानि जैसे और भी सारे कर्मज दोषौं से मुक्ति  पाने के लिये अभिप्रेत है ।
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