शनिवार, जनवरी 30, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः आश्रम योजना

आदि आश्रम हरिहरपुर
मुगलसराय से पूरब दिशा में जी. टी. रोड पर एक किलोमीटर की दूरी पर अलिनगर नाम का एक शहर है । अलिनगर से एक पक्की सड़क सकलडीहा तक जाती है । सकलडीहा चौमुहानी से उत्तर लगभग एक डेढ़ किलोमीटर पर हरिहरपुर आश्रम अवस्थित है ।
सन् १९५३ ई० में बाबा महड़ौरा श्मशान में साधनारत थे । मनिहरा ग्राम के ठा. देवी सिंह के आग्रह पर मनिहरा ग्राम में तालाब के तट पर फूस की झोपड़ी में कुछ दिन निवास किये थे । उनकी आयु उस समय मात्र सोलह बरस की ही थी । उनकी ख्याति की सुगन्ध निकट के गाँव ताजपुर तक पहुँची, जो मनिहरा से लगभग २ कि. मी. दक्षिण में अवस्थित है । फिर क्या था ताजपुर निवासी ठा० मुक्तेश्वर सिंह, ठा० श्यामधाता सिंह, ठा० कालिका प्रसाद सिंह , ठा० मेवा सिंह आदि कई श्रद्धालु महाप्रभु के दर्शन के लिये मनिहरा पहुँच गये । इन श्रद्धालुओं के अर्जी बिनती करने पर बाबा ताजपुर में निवास हेतु आश्रम बनाना स्वीकार कर लिये परन्तु जब वे लोग सब बाबा के साथ ताजपुर के लिये चले तो रास्ते में हरिहरपुर का वह स्थल दिखाई पड़ा, जहाँ तीन चार बेल और कुछ आम और महुआ के पेड़ खड़े थे । बेल बृक्ष के पास ही एक कुआँ भी था । लोगों ने बताया कि अंधेरा पड़ने के बाद गाँव के निवासी भूत परेत के डर से इस स्थल के समीप से भी नहीं गुजरते हैं । अघोरेश्वर ने स्थल का निरीक्षण कर वहीं रहने का निर्णय सुना दिया । स्थल की सफाई कर सर्वप्रथम फूस का एक घर बना दिया गया और कुएँ का जीर्णोद्धार कर दिया गया ।
इस प्रकार आदि आश्रम हरिहरपुर का निर्माण हो गया । अघोरेश्वर इस आश्रम में लगभग नौ वर्षों तक अनुष्ठान, साधना करते रहे हैं । वे यहाँ से बनारस बराबर जाया करते थे । उन दिनों किसी को भी आश्रम में रात में रहने की आज्ञा नहीं होती थी ।
अघोरेश्वर के हरिहरपुर आश्रम के प्रवास काल में श्रावण मास में आश्रम की छटा निराली रहती थी । भारत भर से बिशिष्ट कोटी के कलाकार आश्रम में आते और अपने नृत्य संगीत से महाप्रभु की आराधना करते थे ।
जनसेवा अभेद आश्रम, चिटक्वाइन, नारायणपुर, जिला जशपुर
जशपुर नगर से दक्षिण दिशा में रायगढ़ रोड पर लगभग ३० किलोमीटर के बाद एक तिराहा आता है । वहाँ से पक्की सड़क पश्चिम में बगीचा जनपद की ओर जाती है । आठ दस किलोमीटर पर नारायणपुर गाँव अवस्थित है । आश्रम इस गाँव के उत्तर में चिटक्वाइन गाँव की सीमा में बना है । इस आश्रम की जमीन एवं खेती योग्य भूमि महाराजा विजयभूषण सिंह जू देव, जशपुरनगर ने दान में दी थी । आश्रम में पूर्ण तान्त्रोक्त बिधि से देवी पीठ का निर्माण अघोरेश्वर ने कराया है । निवास हेतु भवन एवं अन्य साधन जुटाये गये हैं । बाबा ने इस आश्रम में अनेक अनुष्ठान कर इस पीठ को जागृत कर दिया है । यहाँ समय, काल से अनुष्ठान , पूजन करने से सिद्धी लाभ आवश्यम्भावी है ।
ब्रह्मनिष्ठालय, सोगड़ा आश्रम
जशपुर जनपद के उत्तर में लगभग तेरह किलोमीटर पर सुरम्य वादियों में यह आश्रम अवस्थित है । सदाशिव के उपर बैठी हुई भगवती की प्रतिमा पूरे संसार में अकेली है । गुरुघर यन्त्रवत बहुकोणीय है । नीचे साधना हेतु गुफा है । अघोरेश्वर की यह प्रिय साधना स्थली रही है । इस आश्रम में देश के अनेक शिर्षस्थ अधिकारी, नेता, मनस्वी, तपस्वी, सिद्ध, महात्मा एवं साधक अघोरेश्वर का सानिध्य लाभ के लिये आते रहे हैं । बाबा जी ने बहुत काल तक इस आश्रम में निवास किया है, साधना, अनुष्ठान किया है । दक्षिण दिशा के अनेक साधकों को इसी आश्रम में बाबा का अनुग्रह प्राप्त हुआ है । इस लेखक को भी बाबा के चरण में शरण इसी स्थल में प्राप्त हुआ था ।
इस आश्रम के चारों ओर सैकड़ों एकड़ की खेती है । आश्रमवासी खेती करते हैं, खुद भी खाते हैं और आगत, अभ्यागत को भी खिलाते हैं ।
आश्रम के उत्तर में देवीबिहार नामक पर्वत है । इस पर्वत पर अघोरेश्वर ने भैरव जी का स्थान बनाया है, जहाँ बैशाख शुक्ल चतुर्दशी की निशा रात्रि में पूजन होता है और बली दी जाती है ।
अघोरपीठ वामदेवनगर, जशपुर
जशपुरनगर से तीन किलोमीटर पूरब रायगढ़ जाने वाली सड़क पर "गम्हरिया" नामक एक गाँव है । पुरातन काल में इस गाँव में महाराजा विजयभूषण सिंह जू देव का भण्डार हुआ करता था, जिसे उन्होने अघोरेश्वर को दान कर दिया । उसी गम्हरिया गाँव के टीले पर बाबा का आश्रम स्थापित है । अब यह आश्रम जशपुर नगरपालिका की सीमा में आ गया है । शहर से समीप होने के कारण शहरवासी बहुतायत में इस आश्रम का लाभ लेते हैं । श्री मोरार जी देसाई, जब भारत के प्रधान मन्त्री थे, इसी आश्रम में बाबा से भेंट किये थे । आश्रम भवन चतुष्त्रिकोणाकार बना है । मंदिर के ठीक बाहर भैरव जी बिद्यमान हैं । मुख्य भवन के पीछे एक दो औघड़ों की समाधियाँ हैं । आश्रम में एक वैद्यशाला तथा एक औषधि निर्माणशाला है ।
अवधूत भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम, पड़ाव, वाराणसी
श्री सर्वेश्वरी समूह की स्थापना के पश्चात यह निश्चय हुआ कि संस्था का कुछ कार्यक्रम भी होना चाहिये । बाबा बोले कि देखो, परिवार के लोग भी कुष्ठी बन्धु को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, समाज के हर वर्ग के लोग तो उनसे घृणा करते ही हैं । तुम लोग कुष्ठी बन्धुओं की सेवा करो। उनका उपचार करो । उन्हें आरोग्य करो ।
बाबा उस समय हाजी सुलेमान के बगीचे में रह रहे थे । कुष्ठ सेवा के लिये सेवाश्रम बनाना था अतः भूमि की आवश्यकता पड़ी । बाबा के एक भक्त ईश्वरगंगी के श्री कमाल साहू जी की नौ डिसमिल भूमि गँगा जी के उस पार पड़ाव नामक स्थान पर थी , जिसे वे अघोरेश्वर को दान करना चाहते थे । अघोरेश्वर को वह भूमि पसन्द आ गयी । श्री कमाल साहू जी के प्रयत्न से आसपास की कुछ और जमीन प्राप्त हो गयी । दो मास के भीतर कुष्ठ सेवाश्रम के लिये आउटडोर विभाग का भवन बनकर तैयार हो गया । दिनांक १० मई सन् १९६२ ई० को भवन का उदघाटन हुआ और रोगियों की चिकित्सा का कार्य भी शुरु हो गया । बाद में धीरे धीरे करके साठ बिस्तरों वाला विशाल अंतर्कक्ष बनकर तैयार हो गया, जहाँ कुष्ठ रोगियों के लिये हर आधुनिक सुविधा की व्यवस्था की गई ।
कुष्ठ सेवाश्रम का बाद में बहुत विस्तार हुआ । आश्रम परिसर में अघोरेश्वर के लिये सर्वेश्वरी निवास बना । सर्वेश्वरी मंदिर बना । श्री सर्वेश्वरी समूह का प्रधान कार्यालय लाया गया । शिशुओं के लिये " अवधूत भगवान राम नर्सरी विद्यालय " की स्थापना हुई । अतिथि कक्ष बना । अघोरी प्रेस की स्थापना हुई । औषधि निर्माण शाला बना ।
यह आश्रम अघोरेश्वर का स्थायी निवास बन गया ।
अन्य आश्रम
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, राय बरेली ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, रेणुकूट, जिला मिरजापुर ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, बलरामपुर, गोंडा ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, भुजौना, बिलथरा रोड, बलिया ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, डाल्टेनगंज, पलामू ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, नगर उँटारी, पलामू ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, धनबाद ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, लेक रोड, राँची ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, मानगो , जमशेदपुर ।श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, सिमडेगा , राँची ।
श्री सर्वेश्वरी समूह प्रार्थनागृह, गुमला, राँची ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, घाघरा, राँची ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, सोनुमूड़ा, रायगढ़, छत्तीसगढ़ ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, भाटापारा, रायपुर ।
श्री सर्वेश्वरी समूह आश्रम, जगदलपुर, बस्तर ।
इसके अलावा भारत के अन्य अनेक प्रदेशों में भी श्री सर्वेश्वरी समूह की शाखाएँ, आश्रम स्थापित हैं ।
क्रमशः

रविवार, जनवरी 24, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः श्री सर्वेश्वरी समूह










बाबा जी क्रींकुण्ड स्थल से निकलने के बाद से ही बनारस में अनेक स्थानों पर घूमते रहते थे । उनकी यात्रा कहीं ठहरती नहीं थी । आज इस जगह तो कल दूसरी जगह । मौज के दिन थे । जिधर मन किया निकल लिये । बन्धन कुछ था नहीं । बन्धन उन्हें स्वीकार भी नहीं था । इसी बीच आदि आश्रम हरिहरपुर का निर्माण भी हो गया था । वहाँ भी जाना होता था । जशपुर के आश्रमों के निर्माण के पश्चात कभी कभी वहाँ भी चले जाते थे । नवरात्री का अनुष्ठान प्रायः सोगड़ा आश्रम में होता था । बाबा बनारस में रहते थे तो १९५५, ५६ तक कोई एक ठिकाना नहीं था । पहले तो काशी के उत्तरी छोर पर ईश्वरगंगी के अखाड़े में कई साल तक छेदी बाबा के साथ अघोर साधना में रत रहे । औघड़ छेदी बाबा के निधन हो जाने के बाद पूना स्टेट के बाग में चले गये । उसके बाद राय पनारु दास के नाटी इमली वाली शीशे की बारादरी में ४ , ५ साल तक स्वच्छन्द रुप से अनुष्ठान और साधना करते रहे । यहाँ पर सत्संग और साधना में विश्वनाथ मंदिर के महँत लक्ष्मीशँकर तथा राय साहब का साथ बना रहा । यहीं पर काशी के एक मुसलमान भक्त हाजी इमामीसुलेमान मियाँ आपके सम्पर्क में आये । महँत लक्ष्मीशँकर जी के स्वर्गवास के उपराँत भक्त सुलेमान मियाँ के अनुरोध पर आपका आसन मंडुआडीह स्थित उनके बाग में लगा । यहाँ पर आप लम्बे समय तक रहे । बीच बीच में आप हरिहरपुर, सोगड़ा, नारायणपुर, तथा वामदेवनगर आदि आश्रमों में जाते रहे, परन्तु काशी लौटकर आप यहीं आते थे ।
श्रद्धालुओं और भक्तों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी । हर समय ५०,६० लोग आसपास रहते थे । कीर्तन भजन चलता रहता था । बातें भी होतीं रहतीं । बाबा के सम्मुख नाना प्रकार के प्रस्ताव रखे जाते । पूजा अर्चना यज्ञ आदि की चर्चा होती ही रहती थी । सन् १९६१ ई० के मध्य से ही भक्तों ने बाबा से निवेदन करना शुरु कर दिया था कि धर्म, जाति, राजनीति की कलुशता से मुक्त स्वच्छ और सार्वभौम मानव हितकारी भावनाओं एवं व्यवहारों से प्रेरित एक सँस्था होनी चाहिये । इस सँस्था निर्माण हेतु हाजी इमामीसुलेमान मियाँ भी भक्तों के साथ थे और अनुरोध करते रहते थे ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी को भक्त लोग अब बाबा के अलावा सरकार भी कहने लगे थे । कोई कोई मालिक कहकर भी सम्बोधित करता था ।
सरकार मान गये । प्रत्यक्ष में तो भक्तों को यही लगा कि उनका प्रस्ताव सरकार ने स्वीकार कर लिया, परन्तु सत्य कुछ दूसरा ही था । बाबा बहुत पहले से ही परिस्थितियों को सँस्था निर्माण के लिये अनुकूल बनाते जा रहे थे । इसी क्रम में ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी तदनुसार जून १९६१ ई० को सरकार के आदेश से मड़ुवाडीह स्थित हाजी सुलेमान के बगीचे में ही , जहाँ आप निवास करते थे, सभी शाखाओं के लगभग तीस वैदिकों ने एकत्र होकर बसन्त पूजा की थी । बाद में निर्णय हुआ कि २१ सितम्बर सन् १९६१ ई० को सँस्था की स्थापना की जायेगी । सँस्था का नाम रखा गया "श्री सर्वेश्वरी समूह"
२१ सितम्बर सन् १९६१ ई० को श्री सर्वेश्वरी समूह की स्थापना बड़े ही धूमधाम से की गई । हाजी सुलेमान के बगीचे में जहाँ सरकार का निवास था, सुबह से ही चहल पहल शुरु हो गयी थी । दोपहर बाद पँडित रामधारी शास्त्री जी ने स्थापना पूजन हेतु तैयारी शुरु कर दिया । श्री लल्लू सिंह जी एडवोकेट यजमान बने । उनके यजमान बनने की भी दिलचस्प कथा है । श्री लल्लूसिंह जी के शब्दों में हुआ कुछ इस प्रकार थाः
" शाम को साढ़े सात बजे हाजी सुलेमान के बगीचे में पहुँचा । देखा कि बगीचे में तमाम गाना बजाना , जलसा हो रहा है ।
बाबा को प्रणाम किया तो उन्होने कहा , " जा मामाजी से भेंट कई ल, ताहरा लायक कउनो काम होई त ऊ बता दिहें ।"
मैने जाकर मामाजी को प्रणाम किया और कहा कि मेरे लायक कोई काम हो तो बता दीजिये । उन्होने कहा कि सब कुछ है । बस पूजा का कलश नहीं है । मैंने कहा फिर सोच लीजिये । लाइन पार करके रात को नौ बजे हम जायेंगे । फिर ऐसा न हो कि कोई चीज छूट जाय । देखकर उनने कहा, बस, पूजा का कलश ले आइये । मैं गया । रात को साढ़े नौ बजे पूजा का कलश लाकर रख दिया । हमारे पंडित अंजनीनंदन मिश्र के मित्र रामधारी शास्त्री जी पूजा का संचालन कर रहे थे । साढ़े बारह बजे रात को उन्होंने बाबा से जाकर कहा, " बाबा कोई ऐसा व्यक्ति दीजिये जिसके हाथों से सँस्था को प्राण दिया जावे ।"
बाबा बोले, " हमरा ओकील के बुलाव ।"
गये तो बाबा बोले, " ई पंडित जी जौन कहें, तौन कुल कर दिह ।"
पंडित जी ले गये । उन्होंने हवन, पूजन, संकल्प सब कराया । उनकी आज्ञा से हमने अपने जीवन की प्रथम और आखिरी बलि भी वहाँ दी । श्री सर्वेश्वरी समूह की स्थापना हो गई । उसके बाद पूज्य अघोरेश्वर अध्यक्ष, महाराजा जशपुर और महारानी जशपुर उपाध्यक्ष, लल्लूसिंह मंत्री, श्यामनारायण पाण्डेय संयुक्त मंत्री, भैयालाल सर्राफ कोषाध्यक्ष बने । सँस्था का लखनऊ में रजिस्ट्रेशन करवाकर, सन् १९६१ में ही ले आये । सँस्था रजिस्टर हो गई और हाजी सुलेमान के बगीचे में संस्था का प्रथम कार्यालय स्थापित हुआ । बाबा की आज्ञा से २१६४ नंबर का टेलीफोन उसी स्थान पर लगवाया गया । "










सँस्था रजिस्टर हो जाने के बाद बाबा ने समूह के पदाधिकारियों से बोले कि संस्था बन गई है तो उसका कार्यक्रम भी होना चाहिये । उन्होंने आगे कहा कि देखो, परिवार के लोग भी कुष्टी बन्धु को घृणा की दृष्टि से देखते हैं , समाज के हर वर्ग के लोग तो उनसे घृणा करते ही हैं । तुम लोग कुष्टी बन्धुओं की सेवा करो । उनका उपचार करो । उन्हें आरोग्य करो ।
इस प्रकार श्री सर्वेश्वरी समूह का संगठन हो गया ।
क्रमशः

रविवार, जनवरी 17, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः जशपुर नरेश महाराज बिजयभूषण सिंह जू देव

भारत में छत्तीसगढ़ प्रदेश के उत्तर पूर्वी कोने में झारखण्ड प्रदेश की सीमा में एक स्टेट हुआ करता था । अब यह राजस्व जिला बन गया है । यह पहाड़ों और जँगलों वाला स्टेट था । इस स्टेट में मुख्यतः आदिवासी निवास करते थे । इस स्टेट की राजधानी जशपुर नगर में थी । जशपुर नगर चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा छोटा, परन्तु सुन्दर सा शहर है । शहर के बीचों बीच राजा का पुराना महल जीर्णावस्था में अब भी खड़ा है । पुराने महल का सामने का हिस्सा ठीक ठाक कराकर कुछ दुकान, एक बैंक, तथा एक दो सरकारी कार्यालयों हेतु किराये पर दिया गया है । राजपरिवार अब नये महल में रहता है । इस अँचल में आज भी राजपरिवार का वही पुराना मान सम्मान देखा जाता है ।
भारत सँघ में राज्य बिलीनीकरण के समय इस स्टेट के राजा की गद्दी पर महाराज विजयभूषण सिंह जू देव आसीन थे । अब वे स्वर्गवासी हो चुके हैं । राजा साहब धर्मपरायण एवं चरित्रवान व्यक्ति थे । महाराजा साहब की सहधर्मिणी महारानी जयकुमारी देवी उदारमना, धर्मकर्म में आस्था रखने वाली सहृदय महिला हैं ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी , जिन्हें अब हम बाबा कहेंगे, का जशपुर आगमन अलग अलग व्यक्तियों को अलग अलग अनुभवों से गुजरने का मौका प्रदान कर दिया । जशपुर नगर के गणमान्य नागरिकों में से एक श्री नूना बाबू ने " अघोरेश्वर का सानिध्य मेरे संस्मरण" नामक पुस्तक में , जो श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा प्रकाशित कराया गया है, अपने अनुभवों, श्रद्धा एवं भक्ति को बड़े ही सजीव ढ़ंग से संजोया है ।
"१९५५ ई० की बात है । स्वर्गीय महाराजा विजय भूषण सिंह जू देव विंन्ध्यवासिनी देवी के मंदिर में सहस्त्र चण्डी यज्ञ के अनुष्ठान हेतु विन्ध्याचल में ठहरे हुए थे । यज्ञ का कार्यक्रम चल रहा था । इसी बीच किसी ने उन्हें सूचित किया कि एक महान तेजस्वी संत निकटस्थ एक गुफा में टिके हुए हैं । जिनके दर्शनार्थी, श्रद्धालु, भक्त बहुत बड़ी संख्या में प्रतिदिन उपस्थित हो रहे हैं । स्वर्गीय महाराजा को भी उस संत के दर्शन की तीव्र इच्छा हुई और वे शीघ्र ही गुफा के पास पहुँच गये । उस समय गुफा के बाहर पाँच सात व्यक्ति बैठे हुए थे । उन्होने बतलाया कि उस समय अवधूत महाराज गुफा के भीतर विश्राम कर रहे थे । काफी समय बीत जाने पर भी जब अवधूत महाराज गुफा से बाहर नहीं निकले, तब स्वर्गीय महाराज ने अपने एक सेवक को गुफा के बाहर इस निर्देश के साथ बिठा दिया कि जैसे ही अवधूत महाराज बाहर निकलें महाराज को तत्छण सूचना दी जाय, ताकि वे वहाँ यथाशिघ्र पहुँच सकें । सेवक ने महाराज के आदेश का अक्षरशः पालन किया । वाँक्षित सूचना मिलते ही स्वर्गीय महाराज वहाँ पहुँच गये और अघोरेश्वर महाप्रभु का दर्शन कर अत्यंत ही भाव विभोर हो गये । जब तक महाप्रभु वहाँ निवास किये, स्वर्गीय महाराजा साहब प्रतिदिन नियमित रुप से वहाँ जाते, दर्शन करते और अपनी अटूट श्रद्धा निवेदित कर, महाप्रभु से अनुनय विनय करते । उनकी अगाध श्रद्धा और एकान्त प्रेम भाव को समझकर एक दिन परमपूज्य....बाबा ने निम्नांकित शब्दों में अपनी स्वीकारोक्ति दे दीः
" एक बार रउवा इहाँ जशपुर जायेब । "
वापस आकर महाराजा साहब ने अपने सेक्रेटेरी ह्रषिकेश मिश्र को कार से बाबा को जशपुर लाने के लिये भेजा । बाबा जशपुर आए ।
इसके अलावा जशपुर राज के राज ज्योतिषी परिवार की बहू स्वर्गीया श्रीमति सावित्री महापात्र, जो बाबा की आरम्भिक दिनों के शिष्यों में से एक थीं , ने इस लेखक को बाबा के प्रथम जशपुर आगमन का विवरण निम्नाँकित शब्दों में सुनाया था ।
"मैं नयी नयी शादी होकर जशपुरनगर आई थी । उस समय बहुएँ घर से बाहर नहीं निकलती थीं । मंदिर जाने के नाम पर जशपुर नगर को थोड़ाबहुत ही देख पाई थी । एक दिन शाम के समय डौँडी पिटाने लगा । महाराजा का कारिंदा डौंडी पीटने वाला जोर जोर से चिल्ला रहा थाः "सुनो, सुनो, सुनो । हर आम ओ खास के लिये सूचना । महाराजा साहेब एक औघड़ को पकड़ कर लाये हैं । औघड़ को शिव मंदिर में रखा गया है ।" औघड़ शब्द मेरे लिये नया नहीं था । उस जमाने में औघड़ से सभी डरते थे । इस इलाके में औघड़ द्वारा दारु, गाँजा, भाँग आदि का सेवन करने , कच्चा माँस खाने, जटा से दूध या पानी निकाल देने तथा नाराज हो जाने पर किसी का भी बुरा कर देने की कितनी ही कहानियाँ कही सुनी जाती थीं । औघड़ शब्द ही लोगों को भयभीत करने के लिये काफी होता था । डौंडी पिटाने के समय से ही मेरा मन व्याकुल हो उठा था । एक अजीब तरह का आकर्षण अनुभव हो रहा था । मैं औघड़ को देखने के लिये उतावली हो रही थी , परन्तु पारिवारिक मर्यादा मेरा पाँव बाँधे रही । उस रात और दूसरा पूरा दिन मैं बैचेन रही । मेरे पतिदेव को साथ चलने के लिये बड़ी मुश्किल से तैयार कर सकी । ये साथ जा रहे थे इसलिये सासु माँ को मनाना आसान हो गया । वे भी साथ हो लीं ।
दूसरे दिन साँझ के समय हम लोग शिव मंदिर गये । मंदिर में आज और दिनों से ज्यादा चहल पहल दिखी । मंदिर के बरामदे में पूरब तरफ कोने में एक कम्बल बिछा हुआ था, और उस पर एक दुबला पतला सा लड़का बैठा था । उनकी आयु उस समय लगभग १७ या १८ वर्ष की रही होगी । उनके शरीर पर कपड़े के नाम पर एक लंगोटी भर थी, बाकी शरीर में भस्म रमा हुआ था । हाथ पाँव लम्बे थे । बड़ी बड़ी आँखों में एक अजीब सा आकर्षण था । आँखें लाल, दृष्टि भेदक थी । मुखाकृति तेज से दप दप कर रहा था । उनके चेहरे पर ज्यादा देर आँखें ठहरतीं नहीं थीं । सामने हुक्का रखा था । बगल में मदिरा के एक दो बोतल इधर उधर लुढ़के पड़े थे ।
हम लोगों ने दूर से ही प्रणाम किया । बाबा जी ने मुझे घूरकर देखा फिर उनकी गम्भीर वाणी निनादित हुईः "कुछ कहना है, माता जी ? " मैं चुप रही । उस दिन हम लोग इसके बाद घर लौट आये ।

महाराजा साहब का बनारस जाना होता ही रहता था । वे जब भी बनारस जाते बाबा का पता करवाते और उनके दर्शन के निमित्त अवश्य ही जाते थे । महाराजा साहब बाबा को यदाकदा अनाज आदि भेंट स्वरुप भेजा करते थे । अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी ने एक बार बतलाया थाः
" ईस्वी सन् १९६० तक न मालुम कैसे उस "अज्ञात" ने अकस्मात स्थान स्थान पर अपार लोगों के साथ, सम्बन्ध तारतम्य जोड़ दिया । तब से अन्नपूर्णा के आगमन का एक न एक श्रोत बराबर उपलब्ध रहा । इसे अनवरत प्राप्ति नहीं भी कहा जाय तो अपर्याप्त भी नहीं कहा जा सकता । इसी अवधि में, एक दिन जिस ग्राम के बाहर बाटिका में निर्मित कुटी में निवास करता था वहीं पर भूतपूर्व जशपुर नरेश, स्वर्गीय राजर्षि श्री विजय भूषण सिंह देव ने सर्व प्रथम एक बैलगाड़ी में लदा हुआ चावल, गेहूँ, दाल इत्यादि सामग्रियाँ पहुँचा दी । अब क्या पूछना था । बहुतेरे अतिथि आने लगे । एक दूसरे के यहाँ कमीबेशी होने पर मेरे यहाँ से याचक बनकर ले भी जाने लगे । यह कारवाँ भी धीरे धीरे चलता रहा ।"
तीन चार बरस इसी प्रकार बीत गये । महाराजा बनारस जाते , बाबा से भेंट होती । बाबा भी दो तीन बार महाराजा साहब का निवेदन स्वीकार कर जशपुर आते थे । बाबा को जशपुर आने पर पैलेश में ठहरना होता था । उन्हे यह ठीक नहीं लगता था । वे महाराजा से कहतेः " महाराजा साहेब! हमरा के कहाँ जेल में बन्द कर देलन । " महाराजा विजय भूषण सिंह जू देव का मन जशपुर के निवासियों , अपनी प्रजा के लिये बैचैन था । वे चाहते थे कि कुछ ऐसा हो कि बाबा ज्यादा से ज्यादा समय तक जशपुर में रहें । सितम्बर सन् १९५९ ई० को महाराजा साहेब ने बाबा को दो गाँव दान देने हेतु कागज तैयार कराकर अपने सेक्रेटेरी के हाथों बनारस भेजे । दो दिनों के बाद उनके सेक्रेटेरी बनारस से लौट कर बतलाये कि उन कागजात को देखकर बाबा बहुत अप्रसन्न हुए और कागज को फैंकते हुए बोलेः " हमरा के महाराज गृहस्थ बनावे चाहतारन ।"
निकट बैठे हुए बाबा के भक्तों ने समझाया तो बाबा ने कागज अपने पास रख लिये और बोलेः " महाराजा साहेब हमरा के ई सब काहे देले बारन ऊ सब हम समझ गइलीं ।"
उन दो गाँवों में एक था लोदाम के पास "ढ़ौठा टोली" और दूसरा गाँव था नारायण पुर गाँव से लगा हुआ " चिटक्वायन" ग्राम । सन् १९६० ई० में बाबा ने चिटक्वायन गाँव में अपना आश्रम बनवाया, और उसका नाम रखा " जनसेवा अभेद आश्रम" । अघोरेश्वर जी ने इस आश्रम को तन्त्रपीठ के रुप मे विकसित किया है । आश्रम प्राँगण में देवी की स्थापना पूर्ण तन्त्रोक्त विधि से की गई है । दक्षिण दिशा से कई तान्त्रिक आकर इस पीठ पर तंत्र साधना करते एवं सिद्धी लाभ करते हैं ।
इसी साल महारानी जयकुमारी देवी, जशपुर जी ने जशपुर नगर के उत्तर पश्चिम कोण में लगभग तेरह किलोमीटर दूर स्थित सोगड़ा नामक गाँव के अपने भंडार को खेती की जमीन समेत बाबा को दान कर दिया । इसके अलावा भँडार घर में एक काली जी का छोटा परन्तु सुन्दर मंदिर भी बनवा दिया । उसी वर्ष कार्तिक अमावस्या के दिन काली जी की प्राण प्रतिष्ठा एवं पूजन का कार्यक्रम बड़े ही धूमधाम से सम्पन्न हुआ था । यह आश्रम " ब्रह्म निष्ठालय सोगड़ा" के नाम से विख्यात है । सोगड़ा आश्रम चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा सुरम्य स्थान है । यह वैदिक काल के आश्रमों की कल्पना को साकार कर देता है । बाबा जी ने आश्रम के उत्तर दिशा में स्थित पहाड़ पर भैरव जी को स्थापित किया है, जहाँ पहुँचना श्रमसाध्य होने के अलावा कठिन भी है । बाबा के भैरव गुफा को जागृत कर देने के बाद हर बैशाख माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की मध्यरात्रि को पूजा तथा बलिदान आदि किया जाता है । वर्ष १९८० ई० में आश्रम में बाबा जी के निवास हेतु एक भवन बनवाया गया जिसे " गुरुघर" कहते हैं । यह भवन यन्त्रवत बहु कोणीय है । इसके भीतर एक तलघर या गुफा भी है, जो शून्यायतन में ध्यान धारणा के लिय बहुत ही उपयुक्त है । इसी आसपास आश्रम के मंदिर में माँ काली की नई प्रतिमा स्थापित की गई । यह प्रतिमा अपने आप में अन्यतम है । माँ काली महादेव के उपर खड़ी न होकर बैठी हुई हैं । अघोरेश्वर जी ने भी इस आश्रम में बहुत काल तक तप, नवरात्र, अनुष्ठान आदि किया है । अतः यह माँ काली का जाग्रत पीठ है ।
महारानी जशपुर जी ने अपना एक और भंडार दान किया है, जोकि जशपुर नगर से रायगढ़ रोड पर तीन किलोमीटर कि दूरी पर स्थित है । इस आश्रम का नाम " अघोर पीठ , वामदेव नगर" है । अब तो यह आश्रम जशपुर नगर की सीमा में आ गया है । इस आश्रम का मुख्य भवन चतुःत्रिकोणाकृति है । देवी एक त्रिकोण के शीर्ष बाग में अवस्थित हैं, बाहर भैरव जी विराजमान हैं । बाग, बगीचा, बैद्यशाला, यात्री निवास आदि से समृद्ध यह आश्रम देश के प्रधानमंत्री तथा अन्य उच्च पदस्थ महानुभावों का आतिथ्य कर चुका है ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी का महाराजा जशपुर के दान तथा आश्रमों के महत्व के विषय में निम्नाँकित कथन " अघोरेश्वर स्मृति वचनामृत " ग्रँथ में सँगृहित है ।
" जशपुर के राजा श्री विजय भूषण सिंह देव ने बड़ी श्रद्धा के साथ, स्नेह के साथ, भक्तिभाव से परिपूरित हो आश्रम निर्माण के लिये अनुनय विनय किया । पाँच गाँव की भूमि, जो सैकड़ों एकड़ के रुप में है, श्री सर्वेश्वरी समूह को यह कहकर दान किया कि हरदम आपका आगमन जशपुर जनपद के क्षेत्रों में होता रहे । इससे औघड़, श्रद्धालु, संतमहात्मा, सर्वेश्वरी समूह के लोग जशपुर जनपद की शोभा बढ़ाते रहेंगे । साथ ही यहाँ के भोले भाले लोग आपके परिवार से, आपके आदर्श जीवन से सदैव प्रेरणा लेते रहेंगे । मैंने उसे स्वीकार किया और तीन आश्रमों को बड़े ही रमणीक पीठ के रुप में प्रतिष्ठित किया और निवास स्थान बनाया । कितने ही वर्षों यहाँ वर्षावास किया । बसंतॠतु और आश्विन महीने में अनुष्ठान किया और दिव्य पवित्र विचारों से बहुतेरे प्राणियों को दीन की तरफ प्रेरित किया ।"
महाराजा जशपुर सांसद बनेने के बाद ज्यादातर दिल्ली रहने लगे । उनका जशपुर और बनारस आनाजाना लगा ही रहता था । दिल्ली में महाराजा साहब का निवास विनय नगर के एक फ्लैट में होता था । कभी कभी अघोरेश्वर भी दिल्ली जाते थे और महाराजा साहब के फ्लैट मे ठहरते थे । धीरे धीरे दिल्ली में बाबा की चर्चा फैलने लगी । राजनेता लोग बाबा के सम्पर्क में आने लगे । इनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैंः श्री मोरारजी देशाई, श्री जगजीवन राम, श्री के. हनुमंथैया, श्रीमति इंदिरा गाँधी, आदि। बाद में तो यह संख्या बढ़ती ही गई ।
सन् १९६१ ई० में अघोरेश्वर ने श्री सर्वेश्वरी समूह नामक एक संस्था की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष स्वयं अघोरेश्वर थे एवं प्रथम उपाध्यक्ष बने हि. हा. महाराज जशपुर, विजय भूषण सिंह देव एवं दूसरे उपाध्यक्ष बनीं ह. हा. महारानी जशपुर, जयकुमारी देवी ।
इसी प्रकार एक लम्बा समय बीत गया । सन् १९८२ ई० के अगस्त माह में अघटित घट गया । महाराजा जशपुर श्री विजय भूषण सिह जू देव ने अपना शरीर त्याग दिया और उनका शव १९ अगस्त १९८२ ई० को कुष्ट सेवा आश्रम लाया गया । इस घटना के प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार अघोरेश्वर को इतना शोकाकुल कभी किसी ने नहीं देखा था । सर्वेश्वरी मंदिर में, अघोरेश्वर की उपस्थिति में प्रार्थना हुई और आपकी ही देखरेख में दिवंगत महाराजा का अँतिम संस्कार सम्पन्न हुआ ।
महाराजा विजय भूषण सिंह जू देव अघोरेश्वर के सखा थे, मित्र थे और प्रिय भक्त भी थे । कहा जाता है कि महाराजा के निधन का अघोरेश्वर के स्वाश्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था ।
क्रमशः

रविवार, जनवरी 10, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः गँगातट भ्रमण


अवधूत भगवान राम जी क्रींकुण्ड आश्रम से बाहर आकर सीधे पुण्यसलिला जाह्नवी की ओर बढ़े । गँगा जी को हम आपके जीवन के केन्द्र में पाते हैं । आपकी अधिकाँश साधनाएँ या तो गँगा जी के तट पर सम्पन्न हुई हैं या फिर बिन्ध्याचल पर्वत की कन्दराओं में । आप सोते , जागते, खाते, पीते,घूमते, फिरते, निरन्तर साधना में होते थे । सामान्यतः आपके साथ का व्यक्ति उन्हें पूजा पाठ करते नहीं देखता था । जब कभी आप कोई बड़ा अनुष्ठान करते तभी लोग जान पाते कि आप साधना कर रहे हैं ।
गँगा तट पर आकर आप उस शाश्वत के संकेत के अनुसार एक ओर बढ़ चले । आपके पास एक छोटे से मलमल के टुकड़े के अलावा एक नारियल का खप्पर भर था । आप इस खप्पर में ही सब कार्य निपटाते था । इसी खप्पर में भिक्षा ग्रहण करते, पीने के लिये जल भी इसी में लाते, पर पैखाना में भी इसी का उपयोग करते थे । दिन भर चलते रहते । किसी ने कुछ भोजन दे दिया तो ठीक, अन्यथा निराहार । एकाकी जहाँ साँझ होती रात्री विश्राम के लिये ठहर जाते ।
उस समय की घटनाओं का तिथिवार विवरण पाना तो संभव नहीं है, हाँ अघोरेश्वर जी ने स्वयं तथा अन्य श्रद्धालुओं, भक्तों, और शिष्यों ने अपने अनुभव को बाँटा है, वही जानकारी का श्रोत बना है । हम इन घटनाओं को १९५२ ई० से १९५५ ई० के बीच का मानकर चलते हैं । घटनाओं का क्रम आगे पीछे हो सकता है ।
अघोररुप
आपके परिजन अब भी आपको खोज लेते और वापस घर चलने के लिये जोर देते । आप स्वयं को भी ममतामयी माँ की याद बराबर विह्वल कर देती । आपकी आँखों से घंटों प्रेमाश्रु की धारा अविरल बहती रहती । आप अधीर हो उठते । आपने निश्चय कर लिया कि अब अष्टपाशों को तोड़ना ही होगा । इसी के साथ आपकी गुण्डी तथा बगवाँ की यात्रा का कार्यक्रम बन गया ।
गुण्डी में परिजनों, ग्रामवासियों ने अचानक एक दिन सुबह सुबह देखा कि उनके बीच के बालक भगवान सिंह केवल लंगोटी लगाये, पूरे शरीर में राख पोते, शराब के नशे में धुत्त, एक हाथ में मदिरा की बोतल तथा दूसरे हाथ में श्वान शव खींचते हुए गलियों में से जा रहे हैं । कुत्तों और बच्चों का दल शोर मचाते हुए पीछे पीछे चल रहा है ।
साधारण जन के लिये यह दृश्य बड़ा ही विभत्स तथा असहनीय था । आपके परिवार वालों को इसी दिन अनुभव हो गया कि अब भगवान सिंह परिवार में पुनः सम्मिलित करने लायक नहीं रहे । उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया जाय । इस यात्रा में आपने अपनी जननी से भी भेंट नहीं की । आप गुण्डी में बिना रुके आगे बगवाँ, अपनी ननिहाल गाँव के लिये चल दिये ।
बगवाँ में आप जब ननिहाल पहुँचे आपके नाना नानी अश्वस्थ थे । चलना फिरना नहीं कर पाते थे । वे दालान में खटिया पर लेटे हुए थे । आप जाकर पास में लगे चौकी में बैठ गये । आप पूरा अघोरी वेश में थे । वहाँ आपका पहुँचना था कि दरबार लग गया । उस समय तक दुधुवा या मदिरा खूब चलने लगा था । तम्बाखू भी चलता था । चिलम पर चिलम चढ़ता था । आप एक फूँक मारकर किसी को भी पकड़ा देते, सब प्रसादी पाते थे । भजन कीर्तन चलने लगा तो आधी रात हो गई । रात में बारह , एक बजे के लगभग आप उठ गये और टहलने लगे । बगल में मशान था, वहाँ चले गये और राख वाख लपेट लिये । लोगों ने सवेरे आपको फिर उसी दालान में पाया । बगवाँ में आप तीन चार दिन रहे ।
लगभग छह, सात माह के बाद आप फिर बगवाँ गये । शीत ॠतु थी । आपका आसन इस बार पंचायत भवन के बाहर में लगा । इस यात्रा में आपके साथ कृष्णाराम अघोरी उर्फ उड़िया बाबा छाया की भाँति लगे रहते थे । पंचायत भवन में आपने आठ दिन के लिये समाधि लगा लिया । जिस कमरे में आप थे, उसका दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया । खाना, पीना, नित्यकर्म आदि सब टहर गये । लोगों ने दरवाजा पीटा, आवाज दिया , जब किवाड़ी नहीं खुली तो बारी बारी से रखवारी करने लगे । आठ दिन के बाद दरवाजा खुला । आप बाहर आकर अपने आसन पर विराजमान हुए । कमरे से टोकरी भर ताजे ताजे सेवफल निकाल कर सबको प्रसाद बाँटा । लोग अचम्बित हो गये कि यहाँ ताजा सेव फल एक दूर्लभ वस्तु है, फिर बाबा जी आठ दिन से कमरे में बन्द थे । कोई आया न गया । फिर ये सेव कहाँ से आया ।
यज्ञ आयोजन
इसी समय , थोड़े थोड़े अन्तराल में आपने कई यज्ञ का आयोजन किया । यज्ञ तो देश में और भी बहुत लोग करते कराते हैं, परन्तु जो विचित्रता , अलौकिकता का दर्शन, अनुभव यज्ञ के यजमान तथा अन्य श्रद्धालुओं ने किया वह आश्चर्यजनक है । ऐसे ही एक यज्ञ की कथा का , अघोरेश्वर के प्रिय भक्त " अकिंचन राम जी द्वारा लिखित और अघोर गुरुपीठ ट्रस्ट, बनोरा जिला रायगढ़, छत्तिसगढ़ द्वारा प्रकाशित ग्रँथ " भगवान राम लीलामृत" में बड़े ही रोचक ढ़ँग से वर्णन किया गया है ।
कथा कुछ इस प्रकार हैः
"बारादरी में एक बार बाबा ने तीन दिन का महाविष्णु यज्ञ किया था । उसमें एक दिन सियार लोगों का भोजन करवाया था शाम को । उन सबको आमन्त्रित करने के लिये बाबा ने कागज के छोटे छोटे पुर्जों पर दिन तारीख और समय लिखवाकर , यह भी लिखवा दिया था कि आप लोग सादर आमन्त्रित हैं । उन कागज के पुर्जों को जितनी भी बाँसबाड़ियाँ थीं आसपास, वहाँ डलवा दिया गया था । निर्धारित दिन पर शाम के समय बाबा भोज का पत्तल और पुरवा में पानी लाइन से लगवा दिये और सबको वहाँ से हटा दिये । एक विश्वनाथ साव थे, जो उस यज्ञ के यजमान थे और एक ठाकुर साहब थे , ये दि व्यक्ति ही वहाँ रहे । बाबा की यही हिदायत थी कि बोलना मत एक भी शब्द चाहे कुछ भी हो जाय । नियत समय पर सियार लोग आकर भोजन करने लगे । भोजन करने के बाद सियार लोग सब वहाँ से बिदा हो गये ।"
राय पनारुदास के बगीचे में चन्द्र ग्रहण के अवसर पर बाबा एक और यज्ञ का आयोजन किये थे । इस यज्ञ में घटी एक घटना कुछ इस प्रकार हैः
" उस यज्ञ की व्यवस्था बड़े पैमाने पर की गई थी । आठ छोलदारियाँ लगाई गईं थीं । लगभग सत्तरह अठारह हजार साधु आये थे । साधुओं का जैसे जैसे आना होता गया, व्यवस्थापक लोग चिन्तित हो गये । बाबा के पास जाकर बोले कि देखिये, इतने सारे लोग आ रहे हैं और हमारे पास गल्ला है महज पाँच पाँच किलो । अब क्या किया जाय ।
बाबा बोले, "घबड़ाव मत । अइसन कर कि गल्ला वाला गोदाम के ताला लगा द । एकदम्म केहू के भीतर मत जाय द । अउर तू अपन काम करत रह ।"
तो यज्ञ हुआ, और बड़ा ही अच्छा यज्ञ हुआ । उसके बाद साधु लोगों को भोजन पानी दिया जाने लगा । लोगों ने खाया और खूब छककर खाया । उसी थोड़े से गल्ले में से सबको परोसा गया, लेकिन किसी को कुछ भी कम नहीं हुआ । जब आखिरी पाँत बैठी तो उसमे एक बूढ़े से साधु भी थे । वे जिद करने लगे कि हम गोदाम के अन्दर जायेंगे । व्यवस्थापक के मना करने पर वह साधु गाली गलौज करने लगे । बात बढ़ गई । आखिर अत्यन्त क्रोध में उन्होंने अपना हाथ श्राप देने को उठाया और कहा, " भस्म कर दूँगा ।"
अब देखिये । जहाँ पर यह घटना घट रही थी बाबा वहाँ से काफी दूरी पर थे । जहाँ बैठे हुए थे राय पनारुदास के बगीचे के चबूतरे पर, वहाँ से इस पाँत का दृश्य दिखता भी नहीं था , आवाज उन तक पहुँचने का प्रश्न ही नहीं था । लेकिन जैसे ही उस साधु ने अपना हाथ श्राप देने के लिये ऊपर उठाया बाबा दौड़ते हुए उन दोनो के बीच आ गये । दोनों हाथ उठाकर उन्होंने उस साधु को रोका , और बड़ी जोर से डाँटते हुए कहाः " कुल साधना हियईं दिखलावे के बा तो के अपन ? मत कर ई सब ।" मतलब यह कि उस साधु में जरुर भस्म कर देने की शक्ति रही होगी ।"
अघोरेश्वर एक विष्णु यज्ञ मनिहरा गाँव में भी कराये थे । बाबा की प्रेरणा से इस याग से बची हुई धनराशि से श्री गणेश जी का एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया गया ।
सकलडीहा बाजार के निकट, श्री विश्वनाथ साव जी के अनुरोध पर बाबा ने एक रूद्र याग भी करवाया था ।
वाराणसी के बाबू रघुनाथ प्रसाद जी ने इन्ही दिनों बाबा भगवान राम जी से आग्रह किया कि मुझे "माँ" का दर्शन करा दीजिये । बाबा ने उन्हें देवी याग करने का आदेश दिया । बाबू रघुनाथ प्रसाद यजमान होकर देवी याग करने लगे । बाबा भी वहाँ जाते थे । आपने बाबू रघुनाथ जी से कहा कि जो भूखा आए उसको सादर भोजन कराना । यज्ञानुष्ठान के बीच ही एक रात्रि को फटे वस्त्र पहनकर एक बूढ़ी स्त्री आई । आदेशानुसार यजमान ने उसका यथोचित स्वागत किया और स्वयं भोजन लाकर उसके आगे रखा । कुछ ही क्षणों में भोजन करके वह स्त्री न जाने किधर चली गई । उसके इस प्रकार चले जाने से यजमान को संदेह हुआ । दूसरे दिन बाबा ने उनसे पूछा कि कल रात को माँ के दर्शन मिले ? बाबू रघुनाथ जी को आश्चर्य मिश्रित हर्ष हुआ, क्योंकि उक्त घटना को उन्होने किसी को भी नहीं बतलाया था । जिस उद्देश्य से यज्ञ हो रहा था , उसकी सफलता से वे परम प्रसन्न हुए ।
इसके अलावा संवत २०१८ की ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को मड़ुवाडीह स्थित बगीचे में अघोरेश्वर के आदेश से सभी शाखाओं के लगभग तीस वैदिकों ने एकत्र होकर वसन्त पूजा की थी ।
क्रमशः