सोमवार, मई 30, 2011

अघोरेश्वर भगवान राम जीः पार्थिव शरीर की अँतिम यात्रा

१ दिसम्बर १९९२ को दोपहर के १.१० बजे पूज्य बाबा का पार्थिव शरीर लेकर भारतीय वायु सेना का विशेष विमान बनारस की हवाई पट्टी पर उतरा । उस समय वहाँ पर उपस्थित अनगिनत शोक विव्हल श्रद्धालुओं ने अपनी आँखों में आँसु भरकर अपने मन प्राण के अधिश्वर, अपने मसीहा, अपने माँ गुरु के पार्थिव शरीर का स्वागत किया । उस जगह हृदय विदारक दृश्य उपस्थित हो गया था । दो सौ से भी अधिक वाहनों के काफिले के बीच पार्थिव शरीर को फूल मालाओं से आच्छादित एक खुली मिनी ट्रक में पड़ाव आश्रम तक लाया गया । उसी ट्रक में बाबा के सभी प्रमुख शिष्य बैठे थे ।
पूज्य बाबा की पूर्व इच्छानुसार मालवीय पुल के पूरब, गँगा के दक्षिण तट पर सूजाबाद, डूमरी गाँव के पश्चिम, पूर्व निर्दिष्ठ स्थल पर लगभग छै एकड़ जमीन पर अँतिम संस्कार की तैयारियाँ बाबा सिद्धार्थ गौतम राम और अवधूत भगवान राम कुष्ट सेवा आश्रम, पड़ाव के तत्कालीन उपाध्यक्ष श्री हरि सिनहा जी के निर्देशन में किया जाने लगा था । माननीय श्री चन्द्रशेखर जी पूर्व प्रधान मँत्री, भारत सरकार अपने पुत्र श्री पँकज एवँ पुत्रबधु श्रीमती रश्मि जी के साथ सुरक्षा व्यवस्था की परवाह न करते हुए व्यवस्था में सक्रीय रुप से भागीदारी करते रहे ।
२ दिसम्बर १९९२ को प्रातः ८ बजे पूजन तथा आरती के पश्चात देश विदेश से आये हुए बाबा के भक्तों का दर्शन पूजन का सिलसिला जो शुरु हुआ वह देर रात तक चला ।

३ दिसम्बर १९९२ दिन बृहस्पतिवार को प्रातः स्नानोपराँत वस्त्र, गँध, विभूति तथा पुष्प माला अर्पित कर , पूज्यनीया माता जी के दर्शन कर लेने के बाद पार्थिव शरीर की अँतिम यात्रा प्रारँभ हुई । हजारों की संख्या में श्रद्धालु और भक्तगण " अघोरान्ना परो मँत्रो नास्ति तत्वँ गुरो परम" का कीर्तन करते हुये पीछे पीछे स्मृति स्थल तक गये, जहाँ पूज्य बाबा के पार्थिव शरीर की अन्त्येष्ठी की जानी थी । जिस नवनिर्मित वेदी पर अन्त्येष्ठी होनी थी उस स्थान की पूजा यन्त्रवत पहले ही की जा चुकी थी । उक्त यँत्र वेदी पर बेल और चन्दन की लकड़ी तथा सुगन्धित बनस्पतियों से सजाई गई चिता पर बाबा के पार्थिव शरीर को उत्तराभिमुख पद्मासन की मुद्रा में ही आसीन किया गया ।
विधिवत सारी औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद पूज्य सिद्धार्थ गौतम राम जी, पीठाधीश्वर अघोरपीठ, क्रींकुण्ड, बाबा कीनाराम स्थल , शिवाला वाराणसी ने चिता की परिक्रमा करके पुर्वान्ह ११.५० बजे मुखाग्नि दी ।

परम पूज्य अघोरेश्वर का नश्वर शरीर अग्निशिखाओं में लिपटकर ज्यों ज्यों पंच तत्वों में विलीन होता गया शोक की तरंगें दिशाओं को भी अपने में समेटती गईँ । लेखक उक्त अवसर पर अन्त्येष्ठी स्थल पर उपस्थित थे । अभिव्यक्ति की भी सीमा उल्लंघित हो जाय ऐसा शोकाकुल भक्तों का हुजूम वहाँ उपस्थित था ।

अघोरेश्वर का पार्थिव शरीर पंचतत्त्वों में एकाकार हो गया । वे इन लौकिक चक्षुओं से दृश्यमान नहीं रहे । हमारे पास दिव्य दृष्टि नहीं है कि हम उनके शरीर का दर्शन लाभ कर सकें । हमारे लिये तो यह क्षति अपूरणीय है । उन्होंने कहा है कि वे सर्वत्र हैं, ढ़ूँढ़ने पर मिलेंगे भी, पर वे तो अब तक सहज सुलभ थे । अब यह हमारे ऊपर है कि हम उन्हें कैसे ढ़ूँढ़ते हैं और कैसे पाते हैं । अब का उनसे मिलना हमारी व्यक्तिगत थाती होगी । उनके रहते हमने मौका गँवा दिया, अब तो जीवन भर का रोना ही शेष रह गया है ।

यहाँ पर एक बड़े ही महत्वपूर्ण अध्याय की समाप्ति हो जाती है । जीवन तो चलता ही रहेगा । अगली पीढ़ी के विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है । अब जो होगा वह अघोरपथ की अघोरेश्वर के बिना विशिष्ठताहीन यात्रा होगी । हम इस आशा के साथ अपनी लेखनी को विराम देते हैं कि साधना और तप की कसौटी पर खरे उतरने वाले सन्त महापुरुष अघोरेश्वर की शिष्य परम्परा में हैं जिनकी सुगन्धि उत्तरोतर फैल रही है । आज अवधूत हैं कल अघोरेश्वर होंगे । हम अगली बार उनकी लीला का स्मरण करेंगे ।

अघोरेश्वर के श्री चरणों में इस शिष्य का अनन्तकोटी प्रणाम ।

हरि ॐ तत्सत्

इति |

शुक्रवार, मई 06, 2011

अघोरेश्वर भगवान राम जी का महाप्रयाण

अघोरेश्वर
सन् १९९२ ई० के मध्य में फिर से पूज्य बाबा का स्वस्थ्य बिगड़ने लगा । उनका प्रत्यारोपित गुर्दा ठीक काम कर रहा था । कोई और बिमारी भी नहीं थी परन्तु बाबा का स्वस्थ्य गिरता जा रहा था । विशेषज्ञों की सलाह पर बाबा का अमेरिका जाना तय हुआ । बाबा ने भी सहमती दे दी । निश्चय हुआ कि बाबा को न्यूयार्क के माउन्ट सिनाई चिकित्सालय में उपचारार्थ भर्ती कराया जाय । बाबा की सेवा के लिये बाबा के अनन्य शिष्य श्री हरी पाण्डेय जी, जो श्री सर्वेश्वरी समूह के सोनोमा शाखा के उपाध्यक्ष तथा अँग्रेजी पत्रिका श्री सर्वेश्वरी टाईम्स के सम्पादक हैं, बाबा अनिल राम, एवँ श्री जिष्णु शँकर जी हर पल बाबा के साथ थे ।

बाबा स्वस्थ हो जाने के पश्चात चिकित्सालय से लौटकर गुरुदेव निवास आ गये । उनकी पूर्ववत दिनचर्या शुरु हो गई । रात्रि में अधिकाँशतः पद्मासन में बैठ ध्यान में झूमते रहते थे । ध्यान टूटने पर प्रायः देशवासियों, भक्तों व श्रद्धालुओं के बारे में पूछा करते थे । देश और समाज की समस्याओं, विश्व में हो रही घटनाओं पर भी विचार विमर्श करते रहते थे । प्रायः कमजोरी की शिकायत करते थे ।  बाबा अनिल राम जी की शतत दृष्टि बाबा के स्वास्थ्य पर रहती थी । वे बाबा के रक्तचाप, शुगर और नाड़ी की गति की जाँच करते रहते थे ।

ध्यान के इन्ही क्षणों में अघोरेश्वर कुछ कुछ बुदबुदाया करते थे । एक दिन की उनकी वाणी हैः

" रमता है सो कौन, घटघट में विराजत है, रमता है सो कौन, बता दे कोई.......। "
एक अन्य दिन बाबा ने जो बुदबुदाया उसे  उनके सानिध्य तथा सेवा का लम्बे समय तक अवसर प्राप्त करनेवाले परम सतर्क एवँ संयमी शिष्य श्री हरी पाण्डेय जी ने नोट कर लिया था । वह इस प्रकार से हैः

" मैं अघोरेश्वर स्वरुप ही स्वतँत्र, सर्वत्र, सर्वकाल में स्वच्छन्द रमण करता हूँ । मैं अघोरेश्वर ही सूर्य की किरणों, चन्द्रमा की रश्मियों, वायु के कणों और जल की हर बूँदों में व्याप्त हूँ । मैं अघोरेश्वर ही पृथ्वी के प्राणियों, बृक्षों, लताओं, पुष्पों और बनस्पतियों में विद्यमान हूँ । मैं अघोरेश्वर ही पृथ्वी और आकाश के बीच जो खाली है उसके कण कण में, तृषरेणुओं में व्याप्त हूँ । साकार भी हूँ, निराकार भी हूँ । प्रकाश में हूँ और अँधकार में भी मैं ही हूँ । सुख में हूँ और दुख में भी मैं ही हूँ । आशा में हूँ और निराशा में भी मैं ही हूँ । भूत में, वर्तमान में, और भविष्य में विचरने वाला मैं ही हूँ । मैं ज्ञात भी हूँ और अज्ञात भी । स्वतँत्र भी हूँ और परतँत्र भी । आप जिस रुप में मुझे अपनी श्रद्धा सहेली को साथ लेकर ढ़ूँढ़ेंगे मैं उसी रुप में आपको मिलूँगा ।"
सत्यम्, सत्यम्, सत्यम् ।

दि. २३ नवम्बर सन् १९९२ ई० को सब कुछ सामान्य था ।  बाबा की उस दिन बहुत ही सौम्य और शान्त मुद्रा थी । वे अन्तर्मुखी हो बैठे बैठे झूमते रहे जैसा कि वे प्रायः करते थे । शाम को आपने मछली बनाने के लिये कहा । बाजार से लाकर मछली पकाई जाने लगी । बाबा अपने शयन कक्ष में विश्राम के लिये चले गये । शाम के सात बजे बाबा अनिल राम जी ने बाबा के रक्तचाप, शुगर और नाड़ी की गति की परीक्षा की, सब कुछ सामान्य था । ऐसे अवसरों पर बाबा प्रायः पूछते रहते थे कि ब्लड प्रेसर कितना है, शुगर कितना है परन्तु उस दिन उन्होने कुछ नहीं पूछा । पद्मासन में बैठे बैठे पूज्य अघोरेश्वर ने अपना मेरुदण्ड सीधा किया और कुछ क्षणों के उपराँत धीरे से दाँई करवट हो बिस्तर पर लेट गये ।

श्री जिष्णुशँकर जी पास में ही बैठे थे । बाबा के इस प्रकार लेटने से उनको अनिष्ठ की आशँका हुई । उन्होने तत्काल अनिल बाबा और श्री हरी पाण्डेय जी को आवाज लगाया । दोनो दौड़े आये । पुकारने या हिलाने डुलाने से बाबा के शरीर में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई । अनिल बाबा तुरन्त आक्सीजन देने लगे । श्री हरी पाण्डेय जी ने  डाक्टर से सम्पर्क कर एम्बुलेन्स मँगाई । अगले दस मिनट के भीतर एम्बुलेन्स आ गयी । बाबा को चिकित्सालय ले जाया गया । कैटस्केन करने के बाद डाक्टर ने बतलाया कि हैमरेज हुआ है ।  डाक्टर के अनुसार ऐसा हेमरेज उसने पहले कभी नहीं देखा था । वह बोले कि ४८ घँटों के बाद ही कुछ बता पायेंगे । इन ४८ घँटों में बाबा के हृदय तथा नाड़ी की गति सामान्य बनी रही । रक्तचाप और तापमान भी सामान्य बनी रही । बाबा इस निर्विकल्प समाधि  की स्थिति में ४८ घँटों की सीमा पार कर गये परन्तु समाधि से उपराम होने के कोई लक्षण नहीं दिखे ।

 २५ नवम्बर को सुबह से ही निराश, हताश भक्तों को कुछ आशा बँधी । अघोरेश्वर के कुछ एक अँगों में हरकत हुई और आँखों में हल्की ही सही ज्योति आई । चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इस प्रकर का शारीरिक परिवर्तन  असंभव है, परन्तु डाक्टर लोग भी निर्विकल्प समाधि की चर्चा सुन चुके थे, अतः वे सब भी आशावान दिखे । भारत में सभी को इस परिवर्तन से अवगत करा दिया गया । सभी शिष्यों, भक्तों, श्रद्धालुओं में आशा का संचार हो गया । सभी को आशा बँध गयी कि अघोरेश्वर इतनी जल्दी शरीर त्याग नहीं करेंगे । वे जरुर निर्विकल्प समाधि में हैं और उचित समय पर समाधि से उपराम होकर सबके बीच आयेंगे ।

२६ नवम्बर को बाबा की अनन्य भक्त एवं शिष्या रोजमेरी जी आ गई । आते ही वे बाबा की सेवा में लग गईं । उन्होने नर्स से पूछाः " क्या बाबा सुन सकते हैं ? " नर्स ने बताया कि शायद श्रवण शक्ति ही अँत में बिलुप्त होती है । रोजमेरी जी ने बाबा के कान के पास जाकर कहाः " बाबा " ! और चमत्कार हो गया । तीन दिनों से पड़े बाबा के निस्पन्द शरीर से सहसा बायाँ हाथ वेग से उठा और सटाक् से सीधे सिर के पास आकर पड़ रहा । रोजमेरी हर्षातिरेक से अचम्भित । पास में उपस्थित श्री जिष्णुशँकर जी स्तब्ध । कुछ क्षण के बाद रोजमेरी जी ने पुनः कहाः " बाबा ! हम सभी यहाँ हैं । हम सभी आपसे प्यार करते हैं ।" बाबा का शरीर निस्पन्द रहा । धीरे धीरे करके बाबा के शरीर में यदाकदा होने वाली फड़कन भी बिलुप्त होती गई ।
२६ और २७ नवम्बर को भी यही स्थिति बनी रही ।

बाबा गुरुपद संभव राम जी एवँ पँकज जी दिल्ली से रवाना हो गये थे । बाबा प्रियदर्शी राम जी को बीजा के मिलने में आ रही कठिनाई के कारण दिल्ली में समय लगा । बाबा गौतम राम जी बनारस में रहकर समस्त भक्तों को सम्भाल रहे थे । २८ नवम्बर का दिन । बाबा गुरुपद संभव राम जी का प्लेन संध्या तक न्यूयार्क पहुँचने वाला था  । वे शाम छै बजकर ३० मिनट पर सीधे अस्पताल पहुँच गये । श्री हरि पाण्डेय जी और बाबा अनिल राम ने अघोरेश्वर की स्थिति से उन्हें अवगत कराया । वे बाबा के पास भीतर गये । उन्होने अपना संजोया हुआ रुमाल दाहिने हाथ में लेकर बाबा के मस्तक पर फेरा । कुछ बोले नहीं । कुछ क्षणों बाद बाहर आ गये । थोड़ी ही देर में बाबा के डाक्टर बाहर आये और बोले कि लगता है बाबा ने निर्णय ले लिया । 

शाम के सात बज रहे थे । रक्तचाप नापने वाली मशीन एकाएक घँटी बजाकर आपात स्थिति सूचित करने लगती है । जिष्णुशंकर जी नर्स को बुला लाते है । डाक्टर भी आ जाते हैं । बाबा का रक्तचाप लगातार गिरता जा रहा है । डाक्टर द्वारा किया गया कोई भी उपाय कारगर नहीं हो रहा है । और सब कुछ समाप्त ।

डा. बरोज दौड़े दौड़े आये । बाबा के पार्थिव शरीर को प्रणाम कर अश्रुपात करते हुए उन्होने कहाः " बाबा हमारी चिकित्सा पद्धति से परे के जीव थे । उन्होने चिकित्सा जगत के हर नियमों का सम्मान भी किया और उन्हें पीछे छोड़कर आगे भी बढ़ गये । वह हमारे ज्ञान से परे थे । हम उन्हें प्रणाम करते हैं । मैंने उनके सानिध्य में बहुत कुछ सीखा, पाया, देखा । उनकी सेवा कर मैं भी धन्य हो गया ।"

रात्रि के दस बजे तक सारी औपचारिकतायें निपट गई । बाबा के पार्थिव शरीर को लेकर हम शव गृह पहुँचे । माननीय श्री चन्द्रशेखर जी की पहल पर भारतीय दूतावास के सहयोग से बाबा के पार्थिव शरीर को पद्मासन में ही लकड़ी की विशेष वातानुकूलित बाक्स में स्थापित कर, एयर इण्डिया की उड़ान के हिमालय नामक विमान से दिल्ली लाया गया । दिल्ली पहुँचने पर भुवनेश्वरी आश्रम, भोंड़सी में पूजन और दर्शन का आयोजन हुआ । उसके उपराँत विशेष विमान से पार्थिव शरीर को दिल्ली से बनारस लाया गया ।

क्रमशः



सोमवार, अप्रैल 25, 2011

अघोरेश्वर भगवान राम जीः अस्वस्थता

अमेरिका में न्यूयार्क स्थित माउन्ट सिनाई चिकित्सालय से पूज्य बाबा दि. २८ जनवरी १९८८ को सम्पन्न सफल आपरेशन के पश्चात पूर्णतः स्वस्थ होकर बनारस लौट आये । बाबा के डाक्टर श्री बरोज, उनके सहयोगी, नर्स तथा अन्य सभी ने बाबा के स्वास्थ्य के लिये प्रार्थना की एवँ भावभीनी बिदाई दी थी । डाक्टर बरोज ने कई आश्चर्यजनक घटनाओं को घटित होते प्रत्यक्ष देखा था । उनका चिकित्साशास्त्र जनित ज्ञान अनेक अवसरों पर असफल सिद्ध हो चुका था । इन सब बातों से उनका श्रद्धावनत होना स्वाभाविक ही कहा जायेगा । बिदाई के अवसर पर डाक्टर बरोज ने एक श्रद्धालु की तरह बाबा के चरणों प्रणिपात किया था । स्वदेश लौटकर बाबा समयानुकूल सभी नित्यक्रियायें, दवाई, भोजन लेने लगे । पुरानी दिनचर्या में लौटने के बाद भी बाबा को इन्फेक्शन से बचाव के लिये कुछएक बँदिशों का पालन करना ही पड़ता था । सन् १९८९, से १९९१ ई० में प्रतिवर्ष एकबार रुटीन चेकप के लिये बाबा अमेरिका जाते रहे । सबकुछ ठीकठाक चल रहा था .






बुधवार, अप्रैल 06, 2011

अघोरेश्वर भगवान राम जीः लीक से हटकर, एक महा मानव

बाबा भगवान राम जी


" तन मारा , मन बस किया

सोधा सकल सरीर ।

काया को कफनी किया

वाको नाम फकीर ।। "

अघोरेश्वर जाति, धर्म, भाषा,देश, लिंग जैसी समस्त संकीर्णताओं को नकार कर एक पूर्ण मानव के रुप में इस धरती पर बिचरते थे । उनका जीवन साम्प्रदायिक प्रेम और सदभावना का उत्कृष्ठ उदाहरण रहा है । अपने आध्यात्मिक जीवन के आरम्भ में वे बनारस शहर में ही एक हाजी साहब के बगीचे में रहते थे । उनके शिष्यों, श्रद्धालुओं में युरोप और अमेरिका तक के मुमुक्षु लोग शुमार हैं । इनमें महात्मा उम्बर्तो बीफी जी का नाम सर्वोपरी है । बाबा की सरल भोजपुरी मिश्रित हिन्दी भाषा से नितान्त अपरिचित पश्चिमी देशों के ये शिष्य एक रहस्यमय अलौकिक चमत्कार की भाँति अघोरेश्वर के उपदेशों को आत्मसात कर समाज सेवा और आत्मोन्नति के मार्ग में लगे हैं । " एक मौन‌ ‍‌भाषा, बहु भावमयी । " कदाचित बाबा ने मन के तार जोड़कर शिष्यों का संशय छिन्न कर दिया ।
सन् १९८३ ई० में अघोरेश्वर ने अपने तीन मुड़िया साधुओं बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी, बाबा प्रियदर्शी राम जी और बाबा गुरुपद संभव राम जी को एक महती सभा में प्रस्तुत किया । ये तीन तपःपूत दिब्य आत्माएँ अघोरेश्वर के निजी संरक्षण और निरीक्षण में तप कर निकले अघोरेश्वर के प्रतिरुप बनने की समस्त संभावनायें लिये हुये थे । बस काल की प्रतिक्षा भर शेष थी । अघोरेश्वर की दिव्य दृष्टि अपने इन तीन रत्नों के सुदूर भविष्यत् को भी देख पाने में सक्षम थी तभी तो क्रीं कुण्ड आश्रम जैसे स्थल के महंथ के पद पर बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी का अभिषेक महज नौ वर्ष की बयस में कर दिये थे । यह कार्य अघोरेश्वर भगवान राम जी ही कर सकते थे ।
 
अघोरेश्वर भगवान राम जी की दृढ़ मान्यता थी कि समाज की व्यवस्थायें देश, काल और परिस्थिति के अनुसार बदलनी चाहिये । पहले औघड़ जीवन में शराब एक अभिन्न और अनिवार्य वस्तु के रुप में व्यवहृत होती थी, परन्तु आपने मद्यपान पर कठोर प्रहार किया और इसका पूर्ण निषेध कर दिया । बाबा की वेशभूषा सादा हुआ करती थी । वे कहा करते थे कि पूर्व में औघड़ रौद्र रुप में रहा करते थे, क्योंकि विदेशी दासता के दिनों में अत्याचारियों का दर्प दमन करने के लिये रौद्र रुप और चमत्कारों की आवश्यकता थी किन्तु स्वधीन भारत में मैत्री, प्यार और करुणा की आवश्यकता है ।
अघोर साधना के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि देश भर से इतनी बड़ी संख्या में स्त्री , पुरुष अघोरपथ पर चलना शुरु किये । अघोरी समाज के करीब आये । मानव समाज ने उन्हें आदर सहित न केवल स्वीकार किया वरन् अपनी श्रद्धा सुमन भी अर्पित किया । इन ऐतिहासिक घटनाओं के सूत्रधार परम पूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी ही थे ।

श्री तेज प्रताप सिनहा उर्फ पोली जी

बनारस निवासी गृहस्थ साधु पोली जी अघोरेश्वर के अन्यतम शिष्यों में से एक हैं । आपकी गुरु निष्ठा, सेवा, तप अतुलनीय है । अघोरेश्वर निश्चय ही पोली जी के रुप में गृहस्थ साधु शिष्य गढ़कर दिखा दिया कि अघोरी केवल गृहत्यागी साधु ही नहीं बल्कि गृहस्थी का सुसंचालन करते हुए भी हो सकते है । आप उच्चमना, सन्त, महापुरुष हैं । आपपर अघोरेश्वर का स्नेह बरसने का एक उदाहरण निम्नानुसार है ।

बाबा के परम भक्त, कृपाप्राप्त शिष्य श्री बी पी सिन्हा जी ने बाबा की दूरदृष्टि ओर सर्वज्ञता की ओर इशारा करते हुए श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा सन् १९८८ में प्रकाशित अपने ग्रँथ " अघोरेश्वर भगवान राम , जीवनी" में इस महत्वपूर्ण घटना का विवरण कुछ इस प्रकार दिया हैः

" सन् १९८३ की २४ जुलाई को हुए गुरु पूर्णिमा का अपना अलग महत्व है । श्री सर्वेश्वरी समूह का विस्तार जिस तेजी से हो रहा था, उसे देखते हुए अघोरेस्वर ने उसके भविष्य की व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिये उस दिन अपने चार प्रमुख शिष्यों को अलग अलग क्षेत्रों के लिये अपना उत्तराधिकारी घोषित कर उनका अभिषेक किया ।

अघोरेश्वर महाप्रभु ने अवधूत भगवान राम ट्रस्ट के अध्यक्ष पद पर अपने बाद शर्ी गुरुपद स्भव राम जी को मनोनित किया । श्री गुरुपद संभव राम मध्य प्रदेश के नरसिंह गढ़ रियासत के भूतपूर्व महाराजा श्री भानु प्रताप सिंह के पुत्र हैं । मध्यप्रदेश की शाखाओं का भार प्रियदर्शी राम जी को दिया गया । श्री सिद्धार्थ गौतम राम जी को पहले ही क्रीं कुण्ड के महंथ पद पर आसीन किया जा चुका था । श्री सर्वेश्वरी समूह के अध्यक्ष पद के लिए श्री तेज प्रताप सिन्हा ,उर्फ पोली जी को मनोनित कर चारों प्रमुख शिष्यों का अभिषेक किया गया । इनमें प्रथम तीन तो वितराग साधु हैं और श्री तेज प्रताप सिन्हा गृहस्थ साधु होंगे ।"

सन् १९८५ ई० के आते आते अघोरेश्वर के तप, तितिक्षा, परमार्थ, सेवा का अनवरत कार्य, आदि ने उनके शरीर को रोगग्रस्त कर दिया । इलाज चलता रहा और करुणा मूर्ति अघोरेश्वर अपने कार्य में लगे रहे । विश्राम के लिये अवकाश ही नहीं था । इसी बीच बाबा ने " अघोर परिषद ट्रष्ट" की स्थापना कर दिनांक २६.०३.१९८५ ई० को पंजीकरण कराया ।

बाबा की अस्वस्थता दिनों दिन बढ़ती जा रही थी । एक गुर्दा काम करना लगभग बंद कर दिया था । देश में उपलब्ध चिकित्सा से लाभ नहीं हो रहा था । चिकित्सकों के द्वारा गुर्दा प्रत्यारोपण की आवश्यकता बताई जा रही थी । अंततः शिष्यों और भक्तों के विशेष आग्रह, निवेदन, प्रार्थना पर अघोरेश्वर चिकित्सार्थ अमेरिका जाने के लिये तैयार हुए । फलस्वरुप २७ अक्टूबर १९८६ ई० को अमेरिका के लिये प्रस्थान किया । दिनाँक १० दिसम्बर सन् १९८६ ई० को न्यूयार्क के माउन्ट सिनाई अस्पताल में सर्जन डा० लुईस बरोज द्वारा बाबा के शिष्य श्री चन्द्रभूषण सिंह उर्फ कौशल जी के गुर्दे का बाबा के शरीर में प्रत्यारोपण किया । आपरेशन सफल रहा । कुछ समय के स्वास्थ्य लाभ के पश्चात बाबा स्वस्थ होकर भारत वापस लौट आये ।

लगभग एक वर्ष पश्चात बाबा का स्वास्थ्य फिर से नरम गरम होने लगा । विशेषज्ञों के अनुसार प्रत्यारोपित गुर्दा ठीक से काम नहीं कर रहा था । विषय विशेषज्ञ डाक्टरों की सलाह पर बाबा को पुनः आपरेशन के लिये अमेरिका जाना पड़ा । गुर्दा प्रत्यारोपण का दूसरा आपरेशन दिनाँक २८ जनवरी सन् १९८८ ई० को डा० लुईस बरोज के ही हाथों सम्पन्न हुआ । इस बार बाबा जी की इच्छानुसार उनके युवा शिष्य बाबा अनिल राम जी का गुर्दा प्रत्यारोपित किया गया ।

बाबा अनिल राम जी

" भगति, भगत, भगवान, गुरु, चारों नाम वपु एक ।"

पूज्य बाबा भगवान राम जी ने कभी अपने भक्त, शिष्य, श्री जिष्णुशँकर जी को समझाया था । बाबा अनिल राम जी उक्त वाणी को चरितार्थ करते हैं । बाबा की भक्ति में वे लीन हैं अतः भक्त हैं । अघोरेश्वर ही उनके भगवान हैं । अघोरेश्वर उनके गुरु भी हैं । इस प्रकार चारों नाम बाबा अनिल राम जी नामक एक वपु में समाहित हैं ।

बाबा अनिल राम जी को बाबा की सेवा में रहने का बहुत अवसर मिला है । सन् १९८६ ई० में बाबा का किडनी प्रत्यारोपण हुआ था । तब बाबा के शिष्य श्री चन्द्रभूषण सिंह उर्फ कौशल जी के गुर्दे काम आया था । उसी वर्ष एक दिन आगत निगत को जाननेवाले बाबा ने अनिल जी से गुर्दा देने के विषय में पूछ लिया था और लेश मात्र झिझक के बिना ही इस "महावीर भक्त" ने "हाँमी" भर दी थी । समय बीतने के साथ यह बात किसी के ध्यान में नहीं रही थी । सन् १९८७ ई० के अँत में जब बाबा का इलाज के लिये अमेरिका जाने का कार्यक्रम बना, जाने वालों में अनिल जी का नाम नहीं था । अँतिम समय में बाबा स्वयँ होकर बोले कि अनिल जी भी जायेंगे । जनवरी १९८८ में बाबा का दूसरा किडनी प्रत्यारोपण होना था । उपस्थित सभी भक्तों ने अपने अपने रक्त की जाँच कराई परन्तु श्री अनिल जी का ही गुर्दा मेल खाता प्रतीत हुआ । श्री अनिल जी के गुर्दा के साथ बाबा का यह दूसरा आपरेशन दिनाँक २८ जनवरी सन् १९८८ ई० को डा० लुईस बरोज के ही हाथों सम्पन्न हुआ ।

बाबा अनिल राम जी बाबा की सेवा में अँत तक सतत लगे रहे । गुरु सानिध्य का लाभ जितना बाबा अनिल राम जी को मिला है, शायद ही किसी और को मिला होगा ।

बाबा अनिल राम जी बहुत वर्षों तक इटली के आश्रम में रहे हैं । वर्तमान में बनारस में महाविभूतिस्थल के समीप आपका आश्रम " अघोर गुरु सेवा पीठ " स्थापित है । जन सेवा के अनेक कार्य जैसे स्कूल, निशुल्क चिकित्सा, बालोपयोगी तथा प्रेरक साहित्य का प्रकाशन, बाबा इसी आश्रम से संचालित करते हैं ।

क्रमशः













गुरुवार, मार्च 17, 2011

क्रींकुण्ड स्थल के वर्तमान महन्थः अवधूत बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी


बाबा कीनाराम जी
अघोर साधकों, श्रद्धालुओं, भक्तों, उपासकों की तीर्थस्थली क्रींकुण्ड स्थल की स्थापना अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी द्वारा सोलहवीं सदी के पूर्वार्ध में किया गया था । उस समय उत्तर भारत, खासकर काशी एवं पूरे भारतवर्ष के हर क्षेत्र की सामाजिक, धार्मिक स्थिति का विवरण जो अधिकारी विद्वतजन द्वारा प्रकाशित कराया गया है के आधार पर संक्षिप्त रुप से दिया जा रहा है ।


उस काल खण्ड में लोग अनुभव करने लगे थे कि आत्मतत्व की प्राप्ति के लिये वेदाध्ययन, कर्मकाण्ड और दान दक्षिणा व्यर्थ हैं । ब्राह्मणों के द्वारा विभिन्न ब्रत, नियमों, सत्यनारायण कथा, आदि का आविष्कार किया गया । शायद ॠषि उद्दालक एवं आरुणी के नेतृत्व में कर्मकाण्ड के विरुद्ध आँदोलन चला । यही कारण था कि हिन्दू वर्णाश्रम के अन्तर्गत उच्च जातियों द्वारा उपेक्षित होकर छोटी कही जाने वाली जातियाँ बौद्ध, ईसाइ, और इस्लाम जैसे शून्यवाद, एकेश्वरवादी नई चेतनाओं की ओर आकृष्ठ हो गईं । उच्च जाति के हिन्दू भी एकेश्वरवादी इस्लाम की ओर खिंच कर मुसलमान हो गये और शेख, पठान, और मुगल कहलाने लगे जो मुसलमानों में उच्च जातियाँ समझी जाती हैं । इस प्रवृत्ति पर महात्मा कबीर, रामानन्द, कीनाराम, नानक आदि उदार चरित महापुरुषों के आविर्भाव से रोक लगी ।


महात्मन रामानन्द जी ने कहा थाः
"निगुरा बाभन न भला, गुरुमुख भला चमार ।" यदि चमार गुरुमुख था तो रसोई से लेकर पूजा तक और रामानन्द जी के सानिध्य में उसको वही आदर का स्थान प्राप्त था जो किसी भी उच्च वर्ण वाले को था । तत्कालीन धार्मिक और सामाजिक वातावरण से क्षुब्ध होकर प्रतिकार के उद्देश्य से ही सन्त तुलसी दास जी ने रामायण का प्रणयन किया था ।
उस काल की स्थिति का चित्रण यूरोपियन यात्री बर्नियर, तावेर्नियर तथा पीटरमँडी ने अपने बयानों में किया है । फ्राँसीसी यात्री तावेर्निये ने लिखा हैः " ब्राह्मण गँगास्नान एवँ पूजापाठ के पश्चात भोजन बनाने में अलग अलग जुट जाते थे और उन्हें सदा यह भय लगा रहता था कि कहीं कोई अपवित्र आदमी उन्हें छू न ले । एक ओर तो यह स्थिति थी और दूसरी ओर शाहजहाँ के हूक्म से बनारस के अर्धनिर्मित मंदिरों को गिराया जा रहा था, जिसका विरोध भी हो रहा था । पीटर मंडी ने ऐसे ही एक राजपूत की लाश पेड़ से लटकते देखी थी जो मंदिरों को नष्ट करने के लिये तैनात किये गये हैदरबेग और उसके साथियों को मार डाला था । यह घटना ई० सन् ०३ दिसम्बर १६३२ की है ।

औरंगजेब के शासन काल में २ सितम्बर, १६६९ ई० को बादशाह को खबर दी गई कि बनारस में विश्वनाथ का मँदिर गिरा दिया गया और उसपर ज्ञानवापी की मस्जिद भी उठा दी गई ।

उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि हिन्दू समाज की अवस्था सभी दृष्टिकोणों से जर्जर हो चुकी थी और वह प्रायः निष्प्राण और चेतना शून्य होकर निहित स्वार्थ वाले वर्ण और वर्गों के लोगों के हाथ कठपुतली से अधिक नहीं रह गया था । मुसलमान शासक हिन्दूधर्म और समाज पर भिन्न भिन्न ढ़ँग से कुठाराघात कर रहे थे और हिन्दू राजा और जमींदार मुस्लिम शासकों के गुलाम से अधिक नहीं रह गये थे । दोनो मिलकर बर्बरता और निष्ठुरता से प्रजा का शोषण और दोहन कर रहे थे ।

ऐसे समय में बाबा कीनाराम जी ने सामाजिक जीवन को सत्य और न्याय पर आधारित होने का दर्शन दिया । उन्होने समाज में व्याप्त अन्याय, अत्याचार तथा अनैतिकता को दूर करने के लिये अधिकारी वर्ग और सत्ताधारियों के विरुद्ध संघर्ष किया और उनका विरोध किया । उन्होने देश भर में व्यापक भ्रमण किया और अन्याय के निराकरण का शतत प्रयास करते रहे ।

भारत में आज की परिस्थितियाँ कमोवेश महाराज कीनाराम जी के समय जैसी ही हैं । समाज में हर स्तर पर बिखराव आ रहा है । भ्रष्टाचार का बोलबाला है । अधिकारी, नेता जन साधारण के हित चिन्तन के बजाय स्वार्थपूर्ति में लगे हुए हैं । चारों तरफ शोषण तथा उपेक्षा का खेल खुलकर खेला जा रहा है । स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं । सक्षम लोगों का नैतिक अधोपतन हो गया है । समाज बिखँडित होने के कगार पर है । उपेक्षित होकर छोटी कही जाने वाली जातियाँ , दलित वर्ग की जातियाँ समानता से आकर्षित होकर बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म अपना रही हैं । ईसाइ और मुसलमान धर्म में भी धर्मान्तरण जारी है ।

ऐसे समय में महाराज कीनाराम जी जैसे महापुरुष , जो समाज को सही राह दिखाये तथा अनाचार एवं शोषण के विरुद्ध समाज को जागरित कर सके की नितान्त आवश्यकता है ।

पुनरागमन




















बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी

अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी ने क्रींकुण्ड स्थल के विषय में कहा था कि इस स्थल के ग्यारह महन्थ होंगे , उसके बाद वे स्वयँ आयेंगे । अघोराचार्य बाबा राजेश्वर राम जी स्थल के ग्यारहवें महन्थ थे । बारहवें महन्थ के रुप में बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी अभिषिक्त हुए हैं । शिष्य, श्रद्धालु, और भक्त समुदाय की मानें तो वर्तमान क्रींकुण्ड स्थल के महन्थ बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी के अवतार हैं ।
बाबा का जन्म, परिवार तथा शैशव काल की जानकारी अप्राप्त है । जितने मुँह उतनी बातें । हम सुनी सुनाई बातों की चर्चा नहीं कर रहे हैं । बाबा को लगभग ६ या ७ वर्ष की आयु में अघोरेश्वर भगवान राम जी के साथ पड़ाव आश्रम में देखा गया था । बाबा को लेखक ने भी उक्त अवस्था में पड़ाव आश्रम में देखा था ।
बाबा राजेश्वरराम जी सन् १९७७ ई० के अंतिम महीनों में अश्वस्थ हो गये थे । उनकी सेवा सुश्रुषा और इलाज की व्यवस्था स्थल में ही की गई थी । बाबा ने अब समाधि ले लेने का निर्णय कर लिया । एक दिन बाबा राजेश्वरराम जी ने अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी को अपनी इस इच्छा से अवगत कराया कि उनके बाद क्रींकुण्ड आश्रम के महंथ का पद बाबा भगवान राम जी संभालें । बाबा भगवान राम जी ने सविनय निवेदन किया कि " मैंने तो समाज और राष्ट्र की सेवा का ब्रत ले लिया है । महंथ पद पर आसीन होने से उस ब्रत में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है ।" अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी ने क्षमा याचना करते हुए एक योग्य व्यक्ति को महंथ पद पर नियुक्ति के लिये प्रस्तुत करने का वचन दिया । अगले ही दिन अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी बालक सिद्धार्थ गौतम राम को लेकर गुरु चरणों में उपस्थित हुए, जिन्हें पारंपरिक एवं कानूनी औपचारिकताएँ पूर्ण करने के उपराँत क्रींकुण्ड आश्रम का भावी महंथ घोषित कर दिया गया ।

बाबा राजेश्वरराम जी का शिवलोक गमन १० फरवरी सन् १९७८ ई० को हुआ था ।
क्रींकुण्ड स्थल के बारहवें महंथ के रुप में बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी का अभिषेक सम्पन्न हो गया । अभिषेक के समय बाबा की आयु लगभग नौ वर्ष की रही होगी । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने महंथ जी के आध्यात्मिक शिक्षा दीक्षा के अलावा जागतिक पढ़ाई का भी प्रबंध कर दिया था । सन् १९९० ई० में बाबा ने तिब्बती उच्च शिक्षा संस्थान , सारनाथ वाराणसी में अपनी पढ़ाई पूरी की ।
बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी, महंथ क्रीं कुण्ड स्थल के विषय में बिस्तृत लौकिक जानकारी लेखक न पा सका, परन्तु एक बात उसके जेहन में बार बार बिजली की तरह कौंधती है, वह यह कि जिस प्रकार पुरातन काल में भगवान सदाशिव के शिष्य बाबा मत्स्येन्द्रनाथ जी ने अपने तपोबल से सिद्धों के सिद्ध बाबा गोरखनाथ जी को अयोनिज जन्म दिया था ठीक उसी प्रकार कहीं अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी के तपोबल के प्रतिरुप बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी भी तो नहीं हैं । सत्य चाहे जो हो, पर इस बात में तो बिल्कुल ही संशय नहीं है कि बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी जन्मना सिद्ध महापुरुष हैं । यहाँ आकर अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी की वाणी सत्य हो जाती है कि बारहवें महंथ के रुप में वे स्वयँ आयेंगे ।
बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी ने क्रीं कुण्ड स्थल में विकास के अनेक कार्य कराया है । स्थल की प्रसिद्धि और बढ़ी है । देश विदेश के श्रद्धालु जन बड़ी संख्या में स्थल आते हैं । स्थल में " अघोराचार्य बाबा किनाराम अघोर शोध एवं सेवा संस्थान " नाम से एक संस्था संचालित है, जो अघोर विषयक शोधकार्य में निरत है । इसके अलावा औघड़ी दवाओं के निर्माण के लिये एक निर्माणशाला भी बाबा ने स्थापित किया है ।
आज भी स्थल में दूर दूर से अघोर साधक आकर तपश्चर्या, साधना करते और सफल मनोरथ होते हैं । साधकों को बाबा का मार्गदर्शन हमेशा सुलभ है ।
क्रमशः



















रविवार, फ़रवरी 20, 2011

अघोरेश्वर भगवान राम जीः विदेशी साधु शिष्य


श्री उम्बर्तो बिफ्फी, इटली



अघोरेश्वर के साथ श्री उम्बर्तो
ई० सन् १९७७ का दिसम्बर माह में बनारस के एयर पोर्ट पर एक नवयुवक हवाई जहाज से उतरता है । रुप, रंग, नाक नक्श से नवयुवक सहज ही पहचाना जा रहा है कि वह युरोप के किसी देश का वासी है । नव युवक बाहर आकर टेक्सी लेता है और अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी द्वारा शिवाला मुहल्ले में स्थापित क्रीँकुण्ड आश्रम के लिये चल देता है । क्रीँकुण्ड आश्रम में महन्त बाबा राजेश्वर राम जी के अलावा बाबा आसू राम जी से उनकी भेंट होती है । महन्त जी अजगर वृत्ति के महात्मा हैं, वे अपने स्वभाव के अनुरुप महाराज कीनाराम जी के समय से चिताओं की अधजली लकड़ीयों से जलती चली आ रही अखण्ड धूनी के सामने दालान में पेट के बल हाथों पर ठूड्ढ़ी टिकाये शून्य में निर्निमेश दृष्टि से ताकते समाधि के आनन्द में मग्न हैं । बाबा आसू राम जी कुछ दूरी पर एक लकड़ी की कुर्सी पर एक पैर पर दूसरा पैर रखे, रीढ़ सीधा किये ध्यानमग्न बैठे हैं । उनकी आँखें बन्द हैं । पूरा आश्रम परिसर शान्त और निस्तब्ध है ।


अघोरेश्वर के साथ श्री उम्बर्तो

क्रींकुण्ड आश्रम के महन्थ बाबा राजेश्वर राम पिछले कुछ दिनों से अस्वस्थ चल रहे हैं । उन्होने अपनी समाधि ले लेने की इच्छा से सभी को अवगत करा दिया है । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने अपने सुयोग्य शिष्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी, जो अभी नौ वर्ष के बालक हैं, को क्रींकुण्ड का भावी महन्त प्रस्तावित किया है । महन्थ जी ने अघोरेश्वर के प्रस्ताव का अनुमोदन कर बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी को भावी महन्त घोषित भी कर दिया है । ऐसे समय में वह नवयुवक क्रींकुण्ड आश्रम पहुँच कर बाबा राजेश्वर राम जी का दर्शन करते है और महन्त जी को अपना परिचय देते हैं । उनका नाम उम्बर्तो बिफ्फी है और वे इटली से आ रहे हैं । श्री उम्बर्तो महन्त जी को अपने आने के उद्देश्य से भी अवगत कराते हैं । भाषा उन्हें स्वयँ को अपेक्षित रुप से अभिव्यक्त करने में कठिनाई उपस्थित करती है, परन्तु जिनके लिये आगत विगत जानना खेल हो, उम्बर्तो जी की आँतरिक स्थिति को सहज ही जान लेते हैं । महन्थ जी श्री उम्बर्तो को आश्रम में आश्रय प्रदान कर देते हैं । श्री उम्बर्तो कुछ ही काल में आस्वस्त हो जाते हैं कि अपने उद्देश्य के अनुरुप वे सही
जगह पहुँच गये हैं ।

अघोरेश्वर के साथ श्री उम्बर्तो एवँ गुरुरत्न

कुछ दिनों के उपराँत अघोरेश्वर भगवान राम जी का क्रीँ कुण्ड आश्रम में आगमन होता है और श्री उम्बर्तो अपने गुरु का प्रथम दर्शन लाभ करते हैं ।
ई० सन् १९७८ के फरवरी माह के दस तारीख को बाबा राजेश्वर राम जी का शिवलोक गमन होता है, और बालक महन्थ बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी का महन्थ के रुप में अभिषेक होता है । श्री उम्बर्तो जी इन घटनाओं के समय उपस्थित रहते हैं । उसी वर्ष उनका दीक्षा संस्कार भी सम्पन्न होता है । वे ई० सन् १९७९ के शुरु में वापस इटली लौट जाते हैं |

श्री सर्वेश्वरी समूह, इटली के सदस्यगण
ई० सन् १९८५ में गुरु पूर्णिमा के अवसर पर श्री उम्बर्तो जी का पुनः भारत आगमन होता है । वे पड़ाव स्थित औघड़ भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम में अघोरेश्वर के सानिध्य में एक लम्बा समय बिताते हैं । इसी वर्ष उनका मुड़िया साधु के रुप में सन्यास दीक्षा सम्पन्न होता है और उन्हें नाम मिलता है " अघोर गुरुबाबा" ।

अघोरेश्वर अपने भ्रमण के क्रम में ई० सन् १९८८ में अघोर गुरुबाबा के आग्रह पर इटली की यात्रा करते हैं । इटली के शिष्यों और श्रद्धालुओं द्वारा अघोरेश्वर के इसी प्रवास के समय श्री सर्वेश्वरी समूह की इटली शाखा का गठन किया जाता है । इटली में एक अघोर आश्रम की स्थापना भी होती है । ई० सन् १९८९ से समूह की यह शाखा गुरुपूर्णिमा के अवसर पर समूह के मुख्यालय पड़ाव आश्रम को अपना वार्षिक प्रतिवेदन देना शुरु करती है ।
श्री सर्वेश्वरी समूह की इटली शाखा एवँ अघोरेश्वर द्वारा स्थापित आश्रम आज उन्नति के पथ पर लगातार आगे बढ़ रहा है ।

क्रमशः









गुरुवार, जनवरी 27, 2011

अघोरेश्वर भगवान राम जीः आशीर्वचन

जीवन दर्शन

सन् १९८२ ई० में श्री सर्वेश्वरी निवास, पड़ाव , वाराणसी के प्रागण में अपने प्रिय शिष्य बाबा प्रियदर्शी राम को सम्बोधित कर अघोरेश्वर भगवान राम जी की वाणी निनादित हुई थी । यह वाणी अघोर पथ के पथिक, साधु , तथा मानव मात्र की कँचन काया में प्रतिष्ठित प्राण रुपी परम आराध्य के दर्शन के लिये निमित्त रुप है ।

" प्राणी की वेशभूषा और कठोर तप इसी बात का परिचायक और संकेत है कि समाज उसे सम्मान प्रतिष्ठा दे, समाज द्वारा वह अच्छा कहा जाय । मैं समझता हूँ कि " हम प्राणमय परमेश्वर के भक्त हैं, उनके सन्निकट हैं । " ऐसा कहलाने में ही मनुष्य ने अपना गौरव मान रखा है । बदन में खाक लपेटे, मूँज का दण्ड धारण किये, चट या बोरा की लँगोटी लगाये, तरुण तापस क्या प्राण का अनुसंधान कर रहा है ? क्या वह ईश्वर की खोज या आत्मा की पहचान में संलग्न है ? नहीं , वह सम्मान, आदर के ढ़ूँढ़ने में लगा हुआ है, प्रतिष्ठा, मान और बड़ाई ही उसके लक्ष्य हैं । यही तो दुष्प्रज्ञता है । अरे ! वह अक्खड़ कह रहा थाः

" मान, बड़ाई, स्तुति और कुत्ते का लिंग पैठत पैठत पैठ जाय, निकसत फाटत गण्ड" ।

जिसने मान, बड़ाई और स्तुति को तिलाँजलि दे रखी है, उसे खाक लपेटने, अपने को तपाने या समाज से सम्मान की अपेक्षा की आवश्यकता नहीं होती । वह तो जाति और कुल के लक्षणों, यहाँ तक कि प्रान्तीयता, राष्ट्रीयता और भाषा की सीमाओं, बन्धनों, संकीर्णताओं, विशिष्टताओं से भी अपने को विमुक्त रखता है । इस विमुक्ति से कतराने, इन सीमाओं, बन्धनों में अपने को बाँध रखने की वक्र भंगिमा के कारण ही मानव कँचन रुपी काया में प्रतिष्ठित प्राण रुपी परम आराध्य देव के दर्शन से वंचित है । यह कंचन काया किसी अन्य को ढ़ूँढ़ने के लिये नहीं है । जो इस प्रकार ढ़ूँढ़ता, खोजता जान पड़ता है, दीख पड़ता है, वह दूसरे को ही ढ़ूँढ़ता फिर रहा है और उसे अपना कोई अता पता नहीं है, कोई निशानी नहीं है । उसे तू समझ जो प्राणों में प्रणिपात करता है । उसके हर रोम से प्रणव का स्फूरण होता है । उसके शरीर से विमल छाया और शीतलता प्रस्फुटित होती है । उसमें न कुछ उत्पन्न होता है, न विलीन होता है ।

दर्शी ! तू साधक को बतला दे कि वह निर्मल, स्वच्छ, द्वन्द्वातीत चित्त की ओर उन्मुख होना चाहता है, तो यह संभव है । किन्तु जब तक वह मान, बड़ाई और स्तुति की तृष्णा का तिरस्कार नहीं करेगा, इस पुण्य के उदय की कोई आशा और सम्भावना नहीं है । हो सकता है कि किस शास्त्र ने क्या कहा है, किस ॠषि ने क्या कहा है, इसका परित्याग कर देने पर वह अपने आप में जो घटित हो रहा है उसे जान जाय । हाँ, तृष्णा का त्याग नहीं करने पर इसकी संभावना और आशंका अवश्य है कि उसे तृष्णा और तितिक्षा छूती रहेगी, उसकी अशुद्धता बनी रहेगी, वह शुद्धता से वंचित रहेगा और पाप मिश्रित पुण्य की मिलावट के सरीखे दीखेगा , जो उसको तो अतृप्त रखेगा ही, दूसरों के लिये भी अतृप्ति का कारण बनेगा । वैसी स्थिति में शीतल स्वास उष्ण स्वास में भी बदल सकती है जो उसको तो जलायेगी ही, दूसरों को भी जला सकती है ।

क्रमशः

रविवार, जनवरी 16, 2011

अघोरेश्वर के आशीर्वचन

कर्म

सुधर्मा ! मैं देखता हूँ निष्क्रिय जीवन जीने वाले कुकृत काया हो जाते हैं । बूढ़ा रोता है । मान लो कि उसकी सभी इन्द्रियाँ थिर हो गई हैं, मस्तिष्क  उसका भड़क उठा है । बच्चा रोता है । तुम मान लो कि उसकी अज्ञानता है, उसको कुछ भी शुभ अशुभ का ज्ञान नहीं है । जब नौजवान को रोते देखता हूँ तो आश्चर्य होता है । तरुण, क्लेश कहकर, असफलता कहकर सर धुनता है । जीवन से निराश होने का क्या कारण है ?  एक तरुण में निष्क्रियता, कलुषित काया जब मैं देखता हूँ सुधर्मा, आश्चर्य होता है । क्योंकि वही क्षण और समय उसके जीवन की सार्थकता की तरफ प्रेरक होना चाहिये और उसमें मुदिता होनी चाहिये । ऐसा मैं नहीं देखता हूँ, सुधर्मा ।  इसका कारण निष्क्रियता, कुकृत काया है ।

जो तरुण क्रियाशील है, शुद्ध काया वाला है, उसके जीवन में उमंग, आल्हाद और हर तरह के कार्यों की क्षमता, कुशलता, गौरव के साथ, सम्मान के साथ, उत्साह के साथ देखता हूँ सुधर्मा । निष्क्रियता के पात्र को क्लेश के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं आता । क्रियाशील को मिलता है उत्साह, उमंग और वह वेग जो हर कार्य को सुगम और सहज बना देता है । ऐसा ही मैं देखता हूँ, सुधर्मा । यह आश्चर्य है ! आश्चर्य है ।

सुधर्मा ! प्रयत्न के बगैर पुरुषार्थ रुपी दिब्य गुण नहीं प्राप्त होता । प्रयत्न करने वाला मनुष्य अपने को अँधकार में नहीं रखता है,  प्रकाश की तरफ ले जाता है । चाहे जैसी परिस्थिति भी उपस्थित हो जाय, शरीर भी सुखाना पड़े तो शरीर सुखाता है । अपने को लोलुपता से छुड़ाना पड़े तो लोलुपता से छुड़ाता है । मन को मारता है तो तन को वश में करता है । सुधर्मा ! वही पुरुष , पुरुषार्थी कहा जाता है । पुरुषार्थ ही मनुष्य का जीवन है, मोक्ष का मार्ग है, अर्थ का मार्ग है,  धर्म का मार्ग है ।

क्रमशः

शुक्रवार, जनवरी 07, 2011

अघोरेश्वर भगवान राम जीः आशीर्वचन

प्राण

अघोरेश्वर भगवान राम जी के जीवन की विराटता, रहस्यमयता, माधुर्य और सरलता अपने आप में अन्यतम रहा है । जो व्यक्ति उनके सम्पर्क में आये हैं वे उन्हें अपना पाये हैं । प्रत्येक शिष्य, भक्त, श्रद्धालु अपने आप को उनकी अहैतुकी कृपा का एकमात्र अधिकारी समझता रहा है । वे एक ही समय में गुरु ,  माँ, सुहृद, अन्तरतम में बैठा ईष्ट, आदि अनेक रुप व गुण में देखे सुने जाते रहे हैं ।  उन्होने कहा है " गुरु देह नहीं हैं, प्राण हैं ।"
प्राण के विषय में उनकी कतिपय वाणियों का संग्रह यहाँ प्रस्तुत है ।

"  पिण्ड में प्राण ही तो प्राणियों का चैतन्य है । ब्रह्माण्ड में उसे वायु कहा जाता है । प्राण वायु ही हमारा उपास्य है । अपने आप की पूजा ही हमारी उपासना है ।


" एक ही प्राण ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र सभी में समान रुप से प्रतिबिम्बित है । ..... पाँव रुपी शूद्रों में बसे प्राण की अवहेलना कर, प्रतारणा कर, अपमान कर हम अपना सर्वनाश करने पर तुले हैं ।"

" चारों प्रकार के भोज्य पदार्थ चर्व्य, चोष्य,लेह्य, और भक्ष्य प्राण रक्षा के निमित्त ही होते हैं । उसके बिना हम लोगों का यह जो ईश्वर है ( ईश्वर ) यह स्वर बन्द हो जायेगा । जब " स्वर" बन्द हो जायेगा तो यह सृष्टि हमारी दृष्टि से ओझल हो जायेगी । इस नश्वरता से तो सभी लोग परिचित हैं ।"

जठराग्नि जो प्राणियों में प्राण संजोये हुए है, वह प्रज्वलित रहती है । उसमें ही आहुति देना प्राण को समिधा, स्नेह, शालीनता, शील देने सरीखे है । उसमें आहुति देना महावैश्वानर की पूजा है । जिसने प्राण को श्रद्धा समिधा नहीं अर्पित की है, प्राण की उपेक्षा कर रखी है, वह अनेक रोगों से, उदर विकार से निश्चेष्ट पड़ा रहता है । वह जठराग्नि को आहुति नहीं दे पायेगा । जन समाज उसे रोगी कहकर सम्बोधित करता है और उसके बारे में कहता हैः " इन्हें खाने पीने में अरुचि हो गई है । बाबा !  इन्हें कुछ पच नहीं रहा है । बाबा !  इन्हें मिचली आती है" । कारण कोई विशेष महत्व नहीं रखता । सिर्फ इतना ही महत्व का है कि उस व्यक्ति ने प्राण को संजोया नहीं । पिण्ड में प्राण ही तो प्राणियों का चैतन्य है । ब्रम्हाण्ड में उसे वायु कहा जाता है ।  वायु के शुष्क हो जाने पर कितना क्लेश होता है, कितनी असह्य वेदना होती है ?  अरे बाबा ! जिसने प्राण को संजोया है, उसी ने, सम्यक रुप से, चिरस्थायी जीवन को जाना है, जीवत्व को पहचाना है । वह इस सूक्ति को चरितार्थ करता है, " धन धरती का एक ही लेखा, जस बाहर तस भीतर देखा " ।

प्राण की उपासना सहज है , सुगम है, कठोर नहीं है । हाँ एक बात अवश्य है जो अपने अभ्यंतर में आसक्तियों को छिपाये, संजोये बैठा है उससे तो प्राण बहुत ही दूर है, बहुत ही अपरिचित है । इन आसक्तियों ने मित्र बनकर उस व्यक्ति के अभ्यंतर को कूड़ा कर्कट बना रखा है ।

गुरु देह नहीं हैं प्राण हैं । जबतक तुम्हारा प्राण रहेगा वे तुम्हारे अभ्यंतर में विराजमान रहेंगे ।

दर्शी ! एक बात तुम जान जाओ कि जागृति और सुषुप्तावस्था की उत्कँठा से मुक्त होकर, प्राण जहाँ है वहीं उसे अपने आप में रोक कर रखने का अभ्यास करने से , पिण्ड के भीतर एक नया आविष्कार साकार हो उठता है, जो सत्य है, जो प्रत्यक्ष है । उस मनोदशा में किसी ओर से कोई भी आक्रमण बिल्कुल ही कष्टदायक नहीं प्रतीत होता और उससे किसी प्रकार की उद्विग्नता या उत्तेजना उत्पन्न नहीं होती । इस अवस्था को " उन्मनी " कहते हैं । जब साधक को अनुभूति होती है कि वह न सोया है, न जगा है, न चेतन है, न तो "है" और न " नहीं है" का ही कोई आभास प्रतिबिम्बित होता है । उस समय वह प्राण के साथ आलिंगन में अपने ही प्राण में  उन्मुदित हो जाता है । शास्त्रों में इस अवस्था को उन्मनी कहा है ।

क्रमशः