रविवार, अप्रैल 25, 2010

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल



हिंगलाज धाम

अघोरपथ के अनेक पुन्य स्थलों में से एक हिंगलाज वर्तमान पाकिस्तान देश के बलुचिस्तान राज्य में अवस्थित है । यह स्थान सिंधु नदी के मुहाने से १२० किलोमीटर और समुद्र से २० किलोमीटर तथा कराची नगर के उत्तर पश्चिम में १२५ किलोमीटर की दूरी पर हिंगोल नदी के किनारे स्थित है । यह अँचल मरुस्थल होने के कारण इस स्थल को मरुतीर्थ भी कहा जाता है । इस स्थल के श्रद्धालु पूरे भारतवर्ष में पाये जाते हैं ।

भारतवर्ष के ५२ शक्तिपीठों में इस पीठ को भी गिना जाता है । कथा है कि एक बार महाराज दक्ष प्रजापति यज्ञ करा रहे थे । उन्होने समस्त देवताओं को निमंत्रित किया था । उस यज्ञ में उनके अपने जामाता शिव जी को आमंत्रित नहीं किया गया था । दक्ष पुत्री, शिव भार्या दाक्षायनी, सती शिव जी के मना करने पर भी अनिमन्त्रित ही  पिता के घर यज्ञस्थल पहुँच गईं । महाराज दक्ष के द्वारा शिव जी को सादर आमन्त्रित कर पूजन करने के सती के प्रस्ताव को अमान्य कर देने पर इसे अपना और अपने पति का अपमान माना और सती क्रुद्ध हो गईं । उन्होने अपमान की पीड़ा में योगाग्नि उत्पन्न कर अपना शरीर दग्ध कर त्याग दिया । सती  के इस प्रकार से शरीर त्याग देने से शिव जी को मोह हो गया । शिव जी ने सती के अधजले शव को कन्धे पर उठाये उन्मत्त होकर इधर उधर घूमने लगे । शिव जी की मोहाभाविष्ट दशा से चिन्तित देवताओं ने भगवान विष्णु से उपाय करने की प्रार्थना की । भगवान विष्णु अपने आयुध सुदर्शन चक्र से शिव जी के कन्धे पर के सती के शव को खण्ड खण्ड काटकर गिराने लगे  । हिंगलाज स्थल पर सती का सिरोभाग कटकर गिरा । अन्य इक्यावन शक्तिपीठों में सती के विभिन्न अँग कटकर गिरे थे ।  इस प्रकार ५२ शक्तिपीठों की स्थापना हुई ।

जनश्रुति है कि रघुकुलभूषण मर्यादा पुरुषोत्तम राम चन्द्र जी शक्ति स्वरुपा सीता जी के साथ रावण बध के पश्चात ब्रह्म हत्या दोष के निवारण के लिये हिंगलाज गये और देवी की आराधना किये थे । यह भी कहा जाता है कि पुरातन काल में इस  क्षेत्र के शासक भावसार क्षत्रीयों की कुल देवी हिंगलाज थीं । बाद में यह क्षेत्र  मुसलमानों के अधिकार में चला गया । यहाँ के स्थानीय मुसलमान हिंगलाज पीठ को "बीबी नानी का मंदर"  कहते हैं । अप्रेल के महीने मे स्थानीय मुसलमान समूह बनाकर हिंगलाज की यात्रा करते हैं और इस स्थान पर आकर लाल कपड़ा चढ़ाते हैं, अगरबत्ती जलाते है, और शिरीनी का भोग लगाते हैं । वे इस यात्रा को "नानी का हज" कहते हैं । आसपास के निवासी जहर से सम्बिधित विमारीयों के निवारण के लिये इस स्थल की यात्रा करते हैं, माता का पूजन , प्रार्थना करते हैं । उनकी मान्यता है कि हिंगुल में जहर को मारने की शक्ति होती है अतः हिंगलाज देवी भी जहर से सम्बंधित रोगों से त्राण दिलाने में सक्षम हैं ।

हिंगलाज देवी की गुफा रंगीन पत्थरों से निर्मित है । गुफा में प्रयुक्त विभिन्न रंगों की आभा देखते ही बनती है । माना जाता है कि इस गुफा का निर्माण यक्षों के द्वारा किया गया था,  इसीलिये रंगों का संयोजन इतना भव्य बन पड़ा है । पास ही एक भैरव जी का भी स्थान है । भैरव जी को यहाँ पर "भीमालोचन" कहा जाता है ।

अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी की हिंगलाज यात्रा की कथा हमें प्राप्त होती है । कथा कुछ इस प्रकार हैः

"उन दिनों बाबा कीनाराम जी गिरनार में तप कर रहे थे । भ्रमण के क्रम में एकबार बाबा कच्छ की खाड़ियों, दलदलों को, जिनको पार करना असम्भव है, अपने खड़ाऊँ से पार कर हिंगलाज जा पहुँचे । हिंगलाज पहुँचकर बाबा कीनाराम मंदिर से कुछ दूरी पर घूनी लगाये तपस्या करने लगे ।  बाबा कीनाराम जी को हिंगलाज देवी एक कुलीन घर की महिला के रुप में प्रतिदिन स्वयं भोजन पहुँचाती रहीं । बाबा की धूनी की सफाई, व्यवस्था १०,११ वर्ष के बटुक के रुप में, भैरव स्वयं किया करते थे । एक दिन महाराज श्री कीनाराम जी ने पूछ दियाः " आप किसके घर की महिला हैं ?  आप बहुत दिनों से मेरी सेवा में लगी हुई हैं । आप अपना परिचय दीजिये नहीं तो मैं आप का भोजन ग्रहण नहीं करुँगा ।"  मुस्कुराकर हिंगलाज देवी ने बाबा कीनाराम जी को दर्शन दिया और कहाः " जिसके लिये आप इतने दिनों से तप कर रहे हैं, मैं वही हूँ । मेरा अब समय हो गया है । मैं अपने नगर काशी में जाना चाहती हूँ। अब आप जाइये और जब कभी स्मरण कीजियेगा मैं आप को मिल जाया करूँगी "।  महाराज श्री कीनाराम ने पूछाः माता, काशी में कहाँ निवास करियेगा ? हिंगलाज देवी ने उत्तर दियाः मैं काशी में केदारखण्ड में क्रीं कुण्ड पर निवास करूँगी" ।  उसीदिन से ॠद्धियाँ महाराज श्री कीनाराम के साथ साथ चलने लगीं और बटुक भैरव की उस धूनी से महाराज श्री का सम्पर्क टूट गया । महाराज ने धूनी ठंडी की और चल दिये ।"

क्रीं कुण्ड स्थल वाराणसी में एक गुफा है । उक्त गुफा में बाबा कीनाराम जी ने हिंगलाज माता को स्थापित किया है । सामान्यतः यह एक गोपनीय स्थान है ।
इन दो स्थलों के अलावा हिंगलाज देवी एक और स्थान पर विराजती हैं, वह स्थान उड़ीसा प्रदेश के तालचेर नामक नगर से १४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । जनश्रुति है कि विदर्भ क्षेत्र के राजा नल माता हिंगलाज के परम भक्त हो गये हैं । उनपर हिंगलाज देवी की महती कृपा थी । एकबार पूरी के महाराजा गजपति जी ने विदर्भ नरेश नल से सम्पर्क साधा और निवेदन किया कि जगन्नाथ मंदिर में भोग पकाने में बड़ी असुविधा हो रही है, अतः माता हिंगलाज अग्नि रुप में जगन्न्थ मंदिर के रंधनशाला में विराजमान होने की कृपा करें । माता ने राजा नल द्वारा किया गया निवेदन स्वीकार कर लिया और जगन्नाथ मंदिर परिसर में अग्नि के रुप में स्थापित हो गईं । उन्हीं अग्निरुपा माता हिंगलाज का मंदिर तालचेर के पास स्थापित है ।

छत्तिसगढ़ में हिंगलाज देवी का शाक्त सम्प्रदाय में प्रचूर प्रचार रहा है । यहाँ शक्ति साधकों, मांत्रिकों को बैगा कहा जाता रहा है । इस अँचल में अनेक शक्ति साधकों के अलावा समर्थ आचार्य भी हुये हैं । उनमें से कुछ का नाम इस प्रकार हैः १, देगुन गुरु, २, धनित्तर गुरु, ३ बेंदरवा गुरु |इससे रुद्र के अँशभूत हनुमान इँगित होते हैं |   ४, धरमदास गुरु | धरमदासजी कबीरपँथ के आचार्य थे |  ५, धेनु भगत, ६, अकबर गुरु |आप मुसलमान थे | आदि । इन सब गुरुओं ने हिंगलाज देवी को सर्वोपरी माना है और बोल मंत्रों में देवी को गढ़हिंगलाज में स्थिर हो जाने का निवेदन करते हैं । हिंगलाज के सन्दर्भ का एक बोल मन्त्र दृष्टव्य हैः

" सवा हाथ के धजा विराजे, अलग चुरे खीर सोहारी,
ले माता देव परवाना, नहिं धरती, नहिं अक्कासा,
जे दिन माता भेख तुम्हारा, चाँद सुरुज के सुध बुध नाहीं,
 चल चल देवी गढ़हेंगुलाज, बइठे है धेनु भगत,
 देही बिरी बंगला के पान,  इक्काइस बोल,  इक्काइस परवाना,
 इक्काइस हूम, धेनु भगत देही, शीतल होके सान्ति हो ।"

क्रमशः













 

मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल

अघोरपथ के पथिक, सिद्ध, महात्मा, संत,अवधूत,अघोरेश्वर जिन स्थलों में रहकर साधना किये हैं , तप किये हैं, वे स्थल जाग्रत अवस्था में आज भी साधकों को साधना में नई उँचाइयाँ प्राप्त करने में सहयोगी हो रहे हैं ।  इन स्थलों में उच्च स्तर के साधकों को सिद्ध, अवधूत, अघोरेश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन , मार्गदर्शन भी प्राप्त हो जाया करता  है । हम यहाँ कतिपय ऐसे ही स्थलों की चर्चा करेंगे ।

१, गिरनार

 गुजरात राज्य में अहमदाबाद से लगभग ३२७ किलोमीटर की दूरी पर अपने सफेद सिंहों के लिये गीर के जगत प्रसिद्ध अभयारण्य के पार्श्व में  एक नगर बसा है,  नाम है जूनागढ़ । इस शहर के आसपास से शुरु होकर पहाड़ों की एक श्रृँखला दूर तक चली गई है । इसी पर्वत श्रृखला का नाम ही गिरनार पर्वत है । इस पर्वत श्रृँखला का सबसे उँचा पर्वत जूनागढ़ शहर से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है । इस पर्वत की तीन चोटियाँ हैं । इन तीनों में से सबसे उँची चोटी पर भगवान दत्तात्रेय जी का एक छोटा सा मन्दिर है, जिसके अंदर भगवान दत्तात्रेय जी की चरणपादुका एवं कमण्डलु तीर्थ स्थापित हैं । दूसरे शिखर का नाम बाबा गोरखनाथ के नाम है । कहा जाता है यहाँ बाबा गोरखनाथ जी ने बहुत काल तक तप किया था । इन दोनो शिखर के बीच में एक तीसरा शिखर है जो अघोरी टेकड़ी कहलाता है । इसकी चोटी में एक धूनि हमेशा प्रज्वलित रहती है, और यहाँ अनेक औघड़ साधु गुप्त रुप से तपस्या रत रहते हैं ।

गिरनार की प्रसिद्धि के तीन कारक गिनाए जाते हैं ।

पहला, भगवान दत्तात्रेय जी का कमण्डलु तीर्थ । भगवान दत्तात्रेय भगवान सदाशिव के पश्चात अघोरपथ के अन्यतम आचार्य हो गये हैं । उन्होने अपने तपोबल से गिरनार को उर्जावान बना दिया है । इस स्थल पर साधकों को सरलता से सिद्धि हस्तगत होती है । कहा तो यह भी जाता है कि जो योग्य साधक होते हैं, उन्हें भगवान दत्तात्रेय यहाँ पर प्रत्यक्ष दर्शन देकर कृतार्थ भी करते हैं ।

दूसरा, गिरनार पर्वत के मध्य में स्थित जैन मन्दिर । लगभग ५५०० सिढ़ियाँ चढ़ने पर यह स्थान आता है । यहाँ पर कई जैन मन्दिर है । इन मन्दिरों का निर्माण बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी में हुआ था । इसी स्थान पर जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर बाबा नेमीनाथ जी परमसत्य को उपलब्ध हुए थे । इस स्थल से जैन धर्म के उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लीनाथ जी का नाम भी जोड़ा जाता है । कोई कोई विद्वतजन मल्लीनाथ जी को स्त्री भी मानते हैं । सत्य चाहे जो हो मल्लीनाथ जी तिर्थंकर थे इसमें कोई संदेह नहीं है । इस प्रकार गिरनार जैन धर्मावलम्बियों के लिये भी तीर्थ है, और बड़ी संख्या में जैन तीर्थयात्री यहाँ आते भी रहते हैं ।

तीसरा, जैन मन्दिर से और ऊपर अम्बा माता का मन्दिर अवस्थित है । यह मन्दिर भी पावन गिरनार पर्वत की प्रसिद्धि का एक कारण है । यह एक जाग्रत स्थान है । वर्षभर तीर्थयात्री यहाँ माता के दर्शन के लिये आते रहते हैं ।

श्री सर्वेश्वरी समूह वाराणसी द्वारा प्रकाशित "औघड़ राम कीना कथा " ग्रँथ में अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी का जूनागढ़ , गिरनार प्रवास उल्लिखित है । कथा कुछ इस प्रकार आगे बढ़ती हैः

"महाराज श्री कीनाराम जी जब जूनागढ़ राज्य में पदार्पण किये, उन्होने कमण्डलु कुण्ड, अघोरी शिला पर बैठे हुए सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी को बड़े वीभत्स रुप में माँस का एक बड़ा सा टुकड़ा लिये हुए देखा । कीनाराम जी को इससे थोड़ी घृणा हुई । उसी माँस का एक टुकड़ा दाँतों से काटकर सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी ने महाराज श्री कीनाराम जी को दिया । उसे खाते ही महाराज श्री कीनाराम जी की रही सही शंका और घृणा भी जाती रही ।
एक बार अघोरी का रुप धारण किए हूए सिद्धेश्वर दत्तात्रेय और महाराज श्री कीनाराम जी एक ही साथ गिरनार पर्वत पर बैठे हुए थे । वहाँ से उन्होने दिल्ली में घोड़े पर जाते हुए बादशाह का दुशाला गिरते हुए देखा । सिद्धेस्वर दत्तात्रेय जी ने बाबा कीनाराम जी से कहाः " देखते नहीं हो ? दुशाला घोड़े से गिर गया है । " महाराज श्री कीनाराम जी ने कहाः " वजीर लोग दुशाला दे रहे हैं । घोड़ा काला है । बादशाह अपने महल को जा रहे हैं ।" इस पर वीभत्स रुप धारण किये हुये सिद्धेश्वर दत्तात्रेय जी ने कहा, अब क्या देखते हो? अब क्या गिरनार में बैठे हो?  जाओ।  प्राणियों का कल्याण करो । उनमें जो क्षोभ, मोह, ईर्ष्या और घृणा है उसे तुम दूर करो । तुम एक अँश से इसी मध्य शिखर पर विराजोगे ।" तभी से गिरनार पर्वत का मध्य शिखर " अघोरी टेकड़ी के नाम से विख्यात है । यह भी विख्यात है कि दत्तात्रेय जब गोरखनाथ की ओर चीलम बढ़ाते हैं तो औघड़ बीच में रोककर पी लेते हैं ।

" दत्त गोरख की एक ही माया, बीच में औघड़ आन समाया ।"
क्रमशः

गुरुवार, अप्रैल 08, 2010

अष्टाँग साधना


अघोरपथ में यह एक अत्यंत ही गोपनीय साधना है । अवधूत, अघोरेश्वर समय काल पाकर इस साधना को करते हैं । संभव है प्रकृति विजय के क्रम में इस साधन प्रणाली का सहारा लिया जाता हो । इसके विषय में गुरु और अधिकारी शिष्य के अलावा अन्य व्यक्ति को कुछ भी ज्ञान होना संभव नहीं है, क्योंकि साधना काल में अन्य व्यक्ति की उपस्थिति वाँछनीय नहीं होती, वरन् व्यवधान ही माना जाता है । श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा प्रकाशित साहित्य में एक स्थान पर अति सामान्य ढ़ंग से इस साधना का विवरण दिया गया है । विवरण भी इतना अल्प है कि हम इसे साधना की ओर इँगित करना ही कह सकते हैं । वैसे तो जैसा कि हम पूर्व में कह आये हैं अघोर साधना गुरुमुखी साधना है, परन्तु सामान्य जानकारी के लिये उक्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है ।

" एक बार अघोरेश्वर भगवान राम जी छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में स्थित सोगडा आश्रम में निवास कर रहे थे । उनका शिष्य मुड़िया साधु वहीं अपनी कुटी में रहकर बाबा की सेवा में लीन था । बाबा की शिष्या योगिनी मेघमाला अपने गुरु के दर्शन के लिये आई हुई थीं ।
एक दिन अघोरेश्वर चाँदनी रात के शून्यायतन में वहाँ की पर्वताट्टालिका में चट्टान पर ध्यानस्थ बैठे थे । योगिनी मेघमाला तथा मुड़िया साधु उनके समक्ष उपस्थित होकर साष्टाँग प्रणाम, अभिवादन किये और सत्संग के लिये चरणों में बैठ गये ।

बाबा की आज्ञा पाकर योगिनी ने मुड़िया साधु की ओर इशारा करते हुए निवेदन कियाः " गुरुदेव, कल रात्रि में जब मैं टहलने के क्रम में  इनकी कुटी के पास से गुजरी तो देखी कुटी के भीतर  इनके शरीर के सब अंग अलग अलग पड़े हैं । कटि भाग अलग है, वक्षस्थल अलग है, बाहें अलग हैं, पाँव अलग हैं । मुझे शंका हुई कि किसी क्रूरकर्मी ने हमारे इन गुरुभाई मुड़िया साधु के शरीर को काटकर , उनके अंगों को अलग अलग कर दिया है ।

इनकी कुटी झंझरीदार है, उसमें से भीतर का दृश्य थोड़ा बहुत दिख जाता है ।

 मैं बहुत भयभीत हो गई और तीव्रगति से आपके कुटी के पास गई तो देखा कि कुटी का द्वार बन्द है । कुछ उपाय न सूझ रहा था । मैं पुनः इनकी कुटी की परिधि में लौट आई । मेरी घबराहट इतनी बढ़ गई थी कि मैं एकाएक जोर से चिल्ला उठी, परम्मा ! परम्मा! यह क्या हुआ ? मेरी आवाज को सुनते ही मैंने देखा कि हमारे ये मुड़िया गुरुभाई स्वस्थ शरीर आसनस्थ बैठे हुये हैं । मेरे बार बार पूछने पर भी इन्होंने कुछ नहीं बतलाया । गुरुदेव क्या ये मेरा भ्रम था या सत्य था ?

बाबा ने पूछाः " मेघमाले ! तुमने वहाँ रक्त भी देखा था ?

जब मेघमाला ने कहा कि उसने रक्त नहीं देखा था, तब बाबा जी ने कहा किः " उस स्थिति में आश्चर्य की क्या बात है ? औघड़, अघोरेश्वर लोग, जब अनुकूल स्थिति पाते हैं तो दिब्य संकल्पों के द्वारा भाव भावनाओं से रहित अपनी कुटी में आसनस्थ हो इस क्रिया को भी करते हैं । जो कुछ इसने किया है, वह क्रिया और कला दोनों है । यह कोई बिद्या नहीं है, अष्टांग अभ्यास है ।"

हमने इस साधना, क्रिया, अभ्यास, जैसा कि अघोरेश्वर जी ने बतलाया है, का संकेत शिरडी वाले सांई राम जी के लीला चरित में भी पाया है । वे भी अष्टाँग साधना किया करते थे । उन्हें ऐसा करते साधुओं की एक टोली ने देखा था, जो रात्री के अंधकार में उन्हें नुकसान पहुँचाने की नियत से द्वारका माई में प्रवेश किया था । निश्चय ही वे भी इस साधना, अभ्यास में पारंगत थे । उनके विषय में इस लेखक को ज्यादा जानकारी तो नहीं है, लेकिन उनके नाम में राम लगना तथा औघड़ों के गोप्य साधना पद्धतियों का अनुशरण करना, पारंगत होना  इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि शिरडी वाले सांई राम जी कीनारामी परम्परा के साधु थे ।

औघडों में और भी अनेकों गोपनीय साधनाओं, क्रियाओं का प्रचलन है, जिनसे वे शक्तिमान बनते हैं तथा समाज और देश का कल्याण करते हैं ।

क्रमशः