रविवार, दिसंबर 27, 2009

अघोरेश्वर भगवान राम जीः अनन्य दिवस

आश्रम से निकलने के बाद किशोर अवधूत कुछ दिन तो छेदीबाबा के साथ ईश्वरगँगी में रहकर साधना करते रहे , फिर सकलडीहा, हरिहरपुर में रहने लगे । सकलडीहा में निवास के दौरान आपको क्रीँकुण्ड आश्रम के महँथ तथा आपके गुरु बाबा राजेश्वर राम जी ने बुला भेजा । बाबा का संदेशा थाः " जाओ, भगवान राम से कह दो, मैं उससे मिलना चाहता हूँ । उसे देखने की इच्छा हो रही है ।" शिष्य को जाना ही था । गये । गुरु शिष्य की भेंट हुई । इस भेंट का विवरण बड़ा ही रोचक है ।
"जब आप आश्रम में पहुँचे तब बाबा राजेश्वर राम जी अपनी चौकी पर लेटे हुए थे । उनकी आँखें बन्द थीं । कहा नहीं जा सकता कि वे निद्रा में थे या गहरे ध्यान की स्थिति थी । किशोर अवधूत ने हल्के से चरण कमल छूकर अपनी श्रद्धा, भक्ति निवेदित किया । बाबा की पलकें उठीँ और हृदय का सारा स्नेह बिगलित होकर आँखों से छलकने लगा । कुछ काल बाद गुरु के मुख से उलाहने के शब्द झरेः " मैंने तुम्हें चेला मूँड़ा था गाँजा पिलाने के लिये और तुम मेरे हाथ से बाहर उस पार स्वच्छन्द बिचरने लगे ।"
अवधूत मौन रहे ।
गुरु ने आगे कहाः " सोचता हूँ, तुम्हारी शादी कर दूँ । करोगे न ?"
शिष्य ने सहमती दीः " कर दीं ।"
बाबा ने सिलसिला आगे बढ़ाते हुए कहाः "लेकिन दुल्हन बड़ी दूर, उड़ीसा के सरहद की है । संभार पइब ।"
किशोर अवधूत की स्थिति यथावत रही । उन्होने उसी गंभीरता से जबाब दियाः " काहे न सँभारब ।"
कुछ काल तक गुरु शिष्य के बीच चर्चा होती रही । अन्त में किशोर अवधूत ने गुरु का चरण स्पर्ष किया और वापस चल पड़े ।"
गुरु शिष्य की उपरोक्त चर्चा लगती तो लौकिक शादी के विषय में की गई चर्चा थी । लेकिन यह चर्चा प्रतीकात्मक सधुक्कड़ी भाषा थी ,जिसे अवधूत पद पर प्रतिष्ठित गुरु शिष्य के अलावा कोई अन्य समझ सकने में असमर्थ था ।
अवधूत भगवान राम जी के साथ इन्ही दिनों से एक साधु देखे गये । उनका नाम कृष्णाराम अघोरी था । बाबा कृष्णाराम जी उड़िया भाषा बोलते थे । शायद उन्हें हिन्दी नहीं आती थी । वे बनारस से बहुत दूर उड़ीसा प्रान्त के रहने वाले थे । बाबा कृष्णा राम जी अवधूत भगवान राम जी को उड़िया भाषा में ही अपनी बात कहते और आप हिन्दी में जबाब देते । दोनों के बीच भाषा कोई समस्या नहीं थी ।
दीक्षा ग्रहण करने के बाद के अढ़ाई बरस का साधना काल आपने तीन प्रमुख स्थानों में रहकर बिताया । एक था पूनास्टेट का बगीचा , दूसरा राय पनारु दास का बगीचा और तिसरा ढ़ेलवरिया मठ जो चौकाघाट स्थित रेल लाईन के उत्तर में वरुणा नदी के तट पर अवस्थित है ।
अनन्य दिवस
सन् १९५४ ई० में माघ का महीना था । जाड़े के दिन थे । कुम्भ पड़ रहा था । प्रयाग में कुम्भ स्नान के लिये बड़ी भीड़ एकत्रित हो रही थी । पूरे भारत से इस मौके पर संत महात्मा आ रहे थे । कुम्भ के समय सन्त समागम हुआ करता है । उस अज्ञात की प्रेरणा हुई और आप प्रयाग की ओर चल पड़े । आप पैदल थे । सामान के नाम पर शरीर पर ढ़ाई गज मलमल के टुकड़े के अलावा कुछ नहीं था । न विछाने के लिये विछावन, न ओढ़ने के लिये कंबल । रास्ते में भोजन की कोई व्यवस्था नहीं थी । किसी समय कोई धर्मप्राण भोजन उपलव्ध करा देता तो ठीक, अन्यथा कई कई साँझ गँगा जल पीकर निर्वाह करना पड़ जाता था । इसी प्रकार कष्ट की अनदेखी करते हुए आप गँगा जी का किनारा पकड़ कर आगे बढ़ते रहे ।
प्रयाग में आप मेला स्थल पहुँच गये । दिन तो जैसे तैसे गुजर जाता , सारी रात साधुओं की धूनी ताप कर गुजरती । खाने पीने की तरफ आपका ध्यान न होने के कारण भोजन की समस्या बनी हुई थी । इसी बीच माघ मेला के ठीकेदार के कारिंदे ने आपके और दो तीन अन्य साधुओं के लिये एक धूनी की व्यवस्था करा दिया जहाँ आप रात गुजारने लगे ।
एक दिन अचानक एक दिगम्बर अवधूतिन ने उसी धूनी के पास अपना आसन जमा दिया । वस्त्र के नाम पर अवधूतिन के शरीर पर कुछ नहीं होता था । वह केश में माला और योनि में अड़हुल का फूल खोंसे रहती थी । दिन के समय हाथ में झँडी लेकर मेले में घूमती रहती, साँझ पड़ते ही वह आ धमकती और ठीक आपके सामने धूनी के पास आसन जमा लेती । आप उसे माता रुप में देखते और शक्ति प्राप्त करते । २०,२५ दिन तक यही क्रम चलता रहा , फिर वह न जाने कहाँ चली गई ।
माघ मास के चतुर्दशी को मेला में ही आपकी भेंट एक बृद्धा से हो गई । वह आपको अपनी कुटिया में ले गई । उस करुणामयी ने प्रेमपूर्वक आपको भोजन कराया । नया वस्त्र दिया । आशीर्वाद देकर सजल नेत्रों से बिदा किया । आप बाद में बतलाये थे कि माँ से भिक्षा मिल जाने के पश्चात कभी भोजन आदि की असुबिधा नहीं हुई । उसके बाद हर साल माघ कृष्ण चतुर्दशी को अनन्य दिवस के रुप में मनाया जाता है । आज भी पूरे माघ मास भर श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा मेला स्थल पर बड़ा केम्प लगाया जाता है और समारोह पूर्वक अनन्य दिवस मनाया जाता है ।
प्रयाग में आप लगभग एक मास रहे, फिर काशी लौट आये । काशी आने पर आप क्रींकुण्ड स्थल में कुछ दिनों तक गुरु की सेवा में लगे रहे, जिनका फोते का आपरेशन हुआ था। जब गुरुदेव निरोग हो गये आप उनसे आज्ञा लेकर अज्ञात की खोज में अपनी यात्रा में गँगा जी के तट की ओर बढ़ चले ।
क्रमशः

रविवार, दिसंबर 13, 2009

अघोरेश्वर भगवान राम जीः कीनाराम आश्रम से निष्कासन



बाबा कीनाराम स्थल में आपका निवास काल मात्र छह मास का ही था । इस अवधि में ही आपने अपने गुरु बाबा राजेश्वर राम जी से जो सीखना था सीख लिया । बाबा राजेश्वर राम जी क्रीं कुण्ड स्थल के महँथ थे और अघोर परम्परा के मान्य आचार्य होने के साथ साथ आपके गुरु भी थे । उनके सानिध्य में जहाँ आपके अन्य गुरु भाई अपनी साधना की धार पैना कर रहे थे, आप परम् गुरु तथा उस अज्ञात की कृपा से, और अपने जन्मना सिद्ध होने की वजह से दीक्षा सँस्कार के उपराँत कुछ ही दिनों में अवधूत पद पर प्रतिष्ठित हो गये थे । छह मास की अवधि पूरी होते न होते आश्रम के पदाधिकारियों ने आपको एक साधारण सा लाँछन लगाकर आश्रम से निष्कासित कर दिया । इस घटना से आपको बहुत दुःख हुआ । एक बार उक्त घटना का विवरण आपने अपने भक्तों को सुनाया था । विवरण आपके शब्दों में जस का तस यहाँ प्रस्तुत है ।

" मुझे दुर्निवार एवँ दुर्दान्त दुःख तब हुआ जब मैं कीनाराम स्थल से, वहाँ के अधिकारियों द्वारा गुड़ और मुड़ी की चोरी का लाँछन लगाकर निष्कासित किया गया । तत्पश्चात् चार शाम तक भूखा प्यासा रहने के बाद हरिश्चन्द्र घाट पर शव दाह सँस्कार के लिये अग्नि देने वाले डोम रखवार ने मेरी याचना पर मुझे दो दिनों की सूखी बाटी खाने को दिया । चार सँध्या उपवास करने और बाटी के दो दिनों की बासी होने के कारण उसे गले से नीचे उतारने में कष्ट महसूस हो रहा था । जब मैंने थोड़ा सा नमक माँगा तब उस डोम रखवार ने बहुत ही डाँट फटकार की और बाहर निकल जाने का आदेश दिया । तदुपराँत घाट के बाहर आकर मैने परचून के सामान के एक विक्रेता से नमक माँगा । उसने भी झुझलाकर एक कौड़ी के बराबर नमक का एक रोड़ा दिया । यह बात उस समय की है, जब पिसे हुए नमक की आमद बहुत ही कम होती थी और अधिकतर रोड़े के नमक की ही बिक्री होती थी । उस लिट्टी का एक टुकड़ा दाँत से काटकर तब नमक चाटकर मैं किसी तरह उसे निगल सका था । उसके बाद कुछ समय तक मुझे तन ढ़ँकने के लिये प्रायः वस्त्र उपलब्ध नहीं हो पाता था । बुभुक्षा शाँत करने के निमित्त अन्न तक दुर्लभ रहता था और दुर्दमनीय वेदना झेलनी पड़ती थी ।"

आश्रम से निष्कासित होकर आप छेदी मास्टर के यहाँ पहुँचे । श्री छेदी मास्टर जी उस दिन की घटना कुछ इस तरह बतलाये थे ।

" उस दिन बाबा उनका दरवाजा खटखटाये । वे जब बाहर निकले तो देखा कि बाबा के आँसू गिर रहे थे । मास्टर साहब के बहुत पूछने पर बतलाये कि " गुरुचरण छूटल जात ह़ऽ । गुरु जी कहलन हैं कि भाग जाओ यहाँ से । तब बाबा सकलडीहा, हरिहरपुर में रहने लगे ।"

इतने कम समय में आश्रम से निकाल दिया जाना आश्चर्य का विषय है । कहा तो बहुत कुछ जाता है , परन्तु यह सत्य है कि आपकी प्रतिभा से अधिक दिन तक लोग अनजान नहीं रहे थे । आश्रम आने वाले श्रद्धालु गुरु बाबा राजेश्वर राम जी को कम और शिष्य औघड़ भगवान राम जी को अधिक दण्डप्रणाम करने लगे थे । आपका भजन गाना, और हारमोनियम, तबला आदि बजाना भी गुरु जी को पसन्द नही् आ रहा था । इसी समय भंडार घर की ताली खोने की घटना घट गयी । पहले तो बहुत प्रकार से प्रताड़ित किया गया, फिर आपको आश्रम से निकाल दिया गया ।

कुछ दिन तो आप श्री गँगा जी के हरिश्चन्द्र घाट तथा आसपास भटकते रहे । ऐसे ही भटकते हुए आप एक दिन ईश्वरगँगी के निकट व्यायाम शाला जा पहुँचे । वहीं आपका सम्पर्क अपने समय के प्रसिद्ध अघोराचार्य संत कच्चा बाबा की शिष्य परम्परा के अवधूत छेदी बाबा से हुआ । छेदी बाबा से आपकी भेंट कीनाराम आश्रम में पहले भी हो चुकी थी । आपने वहीं पास के चबूतरे पर अपना आसन जमाया और कुछ काल तक छेदी बाबा की देखरेख में साधना करते रहे । उस समय आपकी दिनचर्या में ध्यान जप के अलावा दोपहर के समय भिक्षाटन मात्र था । भिक्षा माँगते समय " माँ रोटी दो" का आवाज लगाते हुए चलते जाते थे । माताएँ इस किशोर अवधूत को भिक्षा देने के लिये तत्पर रहतीं थीं, क्योंकि आप किसी के दरवाजे रुकते नहीं थे । आपके पीछे पीछे कुत्तों का झुँण्ड भी चलता । भिक्षा में जो मिलता कुछ खुद खाते बाकी कुत्तों को खिलाते चलते थे । आपकी यह लीला अघोर परम्परा के अन्यतम आचार्य भगवान दत्तात्रेय की याद दिला देती थी । इस किशोर अवधूत को गुरु ने आश्रम से क्यों निकाल दिया यह एक रहस्य बन कर रह गया ।

क्रमशः