बुधवार, फ़रवरी 24, 2010

अघोर साधना के मूल तत्व - चक्रपूजा

चक्रपूजा साधारण अर्थ में चक्राकार या गोलाकार बैठकर पूजन करना है । इसका प्रचलन शाक्त साधकों में बहुतायत से प्राप्त होता है । तन्त्र ग्रंथों में इसका उल्लेख बार बार आया है । कतिपय तन्त्र ग्रंथों में इसे महापूजा के नाम से भी अभिहित किया गया है । चक्र पूजा में आनन्द भैरव और आनन्द भैरवी का आवाहन एवं पूजन किया जाता है । कहीं कहीं अपने इष्ट देव का पूजन भी प्रचलित है । चक्रपूजा के कई प्रकार प्राप्त होते हैं । जैसेः भैरवी चक्र,  राज चक्र,  महा चक्र,  देव चक्र,  बीर चक्र,  पशु चक्र आदि । साधारण जनों में भैरवी चक्र के प्रति अनेक भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं । वे इसमें कामक्रिया की प्रत्यासा करते हैं तथा इस चक्रपूजा के नाम पर निराधार, ऊलजलूल प्रक्रियाओं को अपना कर अपना और समाज दोनो की हानि करते हैं ।
शाक्त मत में कौल साधकों में भी चक्रपूजा करने का चलन है । वे घट तथा नव चरुओं की स्थापना करते हैं । घट में इष्ट देवी की पूजा होती है । नौ प्रकार के चरुओं को हेतू , कारण या मदिरा |  द्राक्षा, गौडी,  पैष्टी, धान्या, माध्वी, खार्जुरी,  वाल्कली,  पौष्पी,  आदि मदिरा के प्रकार हैं । | से पूर्ण किया  जाता है । बीर अपनी शक्ति सहित पूजन करते हैं । आज के समय में शाक्तों में भैरवी चक्र का अनुष्ठान "पुरी" नामधारी सन्यासियों के एक सुव्यवस्थित मण्डल द्वारा किया जाता है । वे ही इस विधान के अधिकारी साधक बतलाये जाते  हैं ।

भारत के अलावा तिब्बत में भी चक्रपूजा अनुष्ठित होता रहा है । बौधों के एक सम्प्रदाय वज्रयानियों ने वहाँ इसे गणपूजा या गणचक्रपूजा का नाम दिया है । इसका स्वरुप स्थान , काल, और पात्र के अनुसार भिन्नता लिये हुए है .

अघोरपथ में भी चक्रार्चन किया जाता है । अघोरेश्वर, अघोराचार्य, अवधूत, गुरू के सानिध्य में यह चक्रार्चन सम्पन्न होता है । अघोरपथ में यह गोप्य पूजन माना जाता है । कभी कभी किसी अधिकारी शिष्य के दीक्षा संस्कार के लिये भी चक्रार्चन आयोजित होता है । चक्रार्चन सामान्यतः नवरात्री की अष्टमी तिथि को रात्री बेला में आयोजित होता है । अघोरेश्वर भगवान राम जी के एक शिष्य ने उसके दीक्षा संस्कार के समय आयोजित चक्रार्चन का विवरण कुछ इस प्रकार बतलाया हैः

" रात्रि के ग्यारह बजे के आसपास का समय रहा होगा । बाबा का बुलावा आया । बाबा के पास जाने पर आदेश हुआ कि बगल में बैठो । सकुचाते हुए बाबा के बगल में बैठ गया । और भी बहुत सारे लोग थे । एक गोल बनाकर सब बैठ गये । क्या होने वाला है मैं कुछ नही् जानता था । सबके सामने पत्तल रखा गया । बाबा से शुरु करके सबके पत्तलों में नाना प्रकार की खाद्य सामग्री परोसी गई । उसमे रोटी भी थी, चावल भी था,  दाल भी थी,  सब्जियाँ थीं, भुना माँस भी था । परोसने का क्रम बाबा से शुरू होता तथा बाबा के बाएँ से गोल घूमकर फिर बाबा के पास लोग पहुँच जाते थे । परोसने का क्रम समाप्त होने के बाद बाबा जी ने अपना खप्पर बाएँ हाथ में लेकर उपर उठाया । एक भक्त ने बाबा के खप्पर को दो तीन बोतल मदिरा डालकर भर दिया । बाबा ने कुछ मन्त्र बुदबुदाया तथा घोष किया " ॐ शिवोहं, भैरवोहं, गुरुपदरतोहं ।"  तत्पश्चात बाबा ने उस खप्पर से पान किया और पात्र बाएँ बैठे शिष्य की तरफ बढ़ा दिया । उस शिष्य ने भी खप्पर से एक घूँट पान कर आगे बढ़ा दिया । खप्पर इसी प्रकार आगे बढ़ते बढ़ते पुनः बाबा के हाथ मे आ गया । बाबा ने पुनः मन्त्रोच्चार किया और खप्पर में से पान कर पात्र बाईं ओर बढ़ा दिया । यह प्रक्रिया तीन बार चली । इसके बाद सामने रखे पत्तल में से एक एक ग्रास बाबा को सब लोग खिलाये, बाबा ने भी सबको अपने पत्तल में से खिलाया । उसके बाद भोजन हुआ । भोजन के पश्चात बाबा जी ने फिर कुछ मन्त्रोच्चार किया । फिर कुछ और तरह के मन्त्रोच्चारण हुए, जिसमे हम सब लोग बाबा जी के साथ उच्चारण किये । इसके बाद बाबा जी के श्री चरणों में हम सब प्रणाम निवेदन करने लगे । बाबा सबको आलिंगन करते थे । और चक्रपूजन समाप्त हुआ ।"
क्रमशः

शनिवार, फ़रवरी 20, 2010

अघोर साधना के मूल तत्व

" भग बिच लिंग, लिंग बिच पारा \
जो राखे सो गुरु हमारा \\ "

इस पूरी धरती में आदिकाल से ही मानव जीवन के प्रति मुख्यतः दो दृष्टिकोण प्राप्त होते हैं । एक तो वे लोग हैं जो जीवन को भोग का अवसर मानकर तद् अनुरुप आचरण करते हैं । वे किसी परमसत्ता के अस्तित्व को, जो धरती पर के समस्त क्रियाकलापों का संचालन करता हो, स्वीकार नहीं करते । उनका तर्क है कि परमसत्ता के अस्तित्व का ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जो सार्वकालिक होने के साथ ही निर्विवाद भी हो । यह लोगों के मन की कल्पना मात्र है । कुछ प्रबुद्धजनों ने अपना हित साधन के उद्देश्य से परमसत्ता के प्रति भय का वातावरण बनाया और अपने मन की कल्पना को जन सामान्य के हृदय में बड़े ही चतुराई से प्रतिस्थापित कर दिया है । दूसरे प्रकार के लोग परमात्म तत्व की सत्ता को न केवल स्वीकार करते हैं वरन् स्वयं को परमात्मा का अंश आत्मन् के रुप में मानकर आत्मा के परमात्मा में मिलन के लिये चेष्टा करते है, जिसे साधना कहते हैं । इसी भित्ती पर संसार के समस्त धर्म, सम्प्रदाय, आदि खड़े हैं ।

भारत में आदिकाल से ही निष्ठा के आधार पर साधकों, श्रद्धालुओं, भक्तों, संतों, महात्माओं को पाँच प्रकार में बाँटा गया है ।

१, शैव, जिनके आराध्य देव शिव जी हैं ।

२, शाक्त, जिनके आराध्य देव शक्ति हैं ।

३, वैष्णव, आराध्य देव श्री विष्णु हैं ।

४, गाणपत्य, जिनके आराध्य देव गणेश हैं ।

५, सौर, जिनके आराध्य देव सूर्य देव हैं ।

जो एकनिष्ठ देव आराधक नहीं हैं उनमें या विशेष प्रयोजनवस पँच देवोपासना भी प्रचलित है ।

अघोरपथ इनमें शामिल नहीं हैं, क्योंकि अघोरियों का कोई एक देवता आराध्य नहीं है । अघोर आश्रमों में सामान्यतः देवी मंदिर के अलावा शिव लिंग, गणेश पीठ, पाये जाते हैं । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने विष्णु यज्ञ भी कराया था । सूर्य देव तो प्रत्यक्ष देवता हैं ही ।

इस विषय में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने अपने आशीर्वचनों में कहा हैः

" हम लोग शैव और शाक्त दोनों के मत में रहने वाले हैं । हम लोगों का अनुष्ठान शैव और शाक्त के मध्य से चलता है । औघड़ न शाक्त होते हें न शैव होते हैं । इनका मध्यम मार्ग है । शक्ति की भी उपासना करते हैं और रुद्र की भी उपासना करते है । हमारी भगवती जिसकी हम आराधना करते हैं, श्री सर्वेश्वरी, काली, या दुर्गा, इनकी मूर्तियाँ वैदिक युग की नहीं हैं क्योंकि वैदिक युग में शिव के यंत्रों की आकृति है और उसे ही माना गया है । उस युग से पहले की हो सकती है या उस युग में भी हो सकती है । यह ब्राह्मणों के ध्यान की मूर्ति नहीं है । यह योगियों के ध्यान की मूर्ती है । "

अघोरी जाति, वर्ण, धर्म, लिंग, आदि किसी में भेद नहीं करते । अघोर दीक्षा के पश्चात क्रीं कुण्ड स्थल के महंथ बाबा राजेश्वर राम जी ने किशोर अवधूत भगवान राम जी को समझाया था ।

" हमारी कोई जाति नहीं, हम सभी धर्मों के प्रति आदर रखते हैं । हम छूआछूत में विश्वास नहीं करते । हम प्रत्येक मनुष्य को अपना भाई और प्रत्येक स्त्री को माता समझते हैं । मानव मानव में कैसा भेद, कैसा दुराव ? "

अघोरी, औघड़, अवधूत विधि निषेध से परे होते हैं ।

१, शिष्य का अधिकार

अघोर पथ में गुरु का स्थान सर्वोपरी हैं । अध्यात्म के अन्य क्षेत्रों में सामान्यतः शिष्य गुरु बनाता है , लेकिन अघोर पथ में ऐसा नहीं है । श्रद्धालु का , भक्त का, औघड़, अवधूत से निवेदन करने से दीक्षा, संस्कार हो जावे यह अवश्यक नहीं है । यहाँ गुरु शिष्य को चुनता है । हमें यह प्रक्रिया अन्य सिद्धों के मामले में भी दिखाई देती है । पूर्व में लाहिड़ी महाशय का चुनाव उनके गुरु बाबा जी ने किया था और अपने पास बुलाकर उन्हें दीक्षा देकर साधना पथ पर अग्रसर कराया था । स्वामी विवेकानन्द जी का चुनाव रामकृष्ण देव ने किया था । और भी अनेक उदाहरण हैं । स्पष्ठ है कि यह शिष्य के अधिकार की बात है । अनेक जन्मों के संचित सत् संस्कार जब फलीभूत होते हैं तो शिष्य का क्षेत्र , अधिकार, पात्र तैयार हो जाता है और दीक्षादान हेतु गुरु के हृदय में करुणा का संचार हो जाता है । इस प्रकार दीक्षा घटित होती है ।

शिष्य के अधिकार के अनुसार गुरू उसका संस्कार करते हैं ।

२, दीक्षा

पूर्व में दीक्षा संस्कार की चर्चा हो चुकी है । अघोरपथ में गृहस्थों को तथा अधिकार के अनुसार विरक्तों को भी साधक दीक्षा प्रदान होती है । योगी दीक्षा सम्पन्न साधु मुड़िया कहलाते हैं । हम यहाँ दीक्षा के प्रकार की चर्चा एक बार पुनः कर लेते हैं ताकि विषय स्पष्ठ रहे ।

अघोर पथ में दीक्षा दो प्रकार की होती है ।

"अ, योगी दीक्षाः

योगी दीक्षा की प्रक्रिया थोड़ी अलग होती है । योगी की कुण्डलिनी को गुरुदेव दीक्षा के समय ही जगा देते हैं । योगी को कुण्डलिनी शक्ति साकार इष्टदेवता के रुप में प्राप्त हो जाती है, बाद में अपने कर्मों के द्वारा उसकी आराधना शुरु करता है । योगी अधिक सामर्थवान होता है । उसे वासना का त्याग नहीं करना पड़ता । योगी वासनादि को निर्मल बनाकर अपनी निज स्वरुप में नियोजित कर लेता है । वह शरीर से भी इष्टदेवता का दर्शन करने में समर्थ हो जाता है । योगी जब पूर्ण सिद्ध हो जाता है तब उन्हें निर्मल ज्ञान मिलता है या सत्य का साक्षात्कार हो जाता है । वह अलौकिक शक्ति का अधिकारी बन जाता है । इसमें तीन प्रधान शक्तियाँ हैं इच्छा, ज्ञान और क्रिया । ज्ञान शक्ति से वह सर्वज्ञ तथा क्रिया के प्रभाव से सर्वकर्ता बन जाता है । इच्छा शक्ति के प्रभाव से योगी कोई भी कार्य कर सकता है । इस शक्ति के उदय होने से ज्ञान तथा क्रिया की आवश्यकता नही् होती पर योगी के इच्छानुसार कार्य होता है । अघोर पथ में दीक्षा संस्कार के समय गुरु अधिकारी शिष्य की कुण्डलिनी जगाकर तीन चक्र ! मूलाधार, स्वाधिष्टान और मणिपुर तक उठा देते हैं । इसके बाद उस योगी का ईष्ट साकार हो जाता है और फिर शुरु हो जाती है उनकी बिलक्षण आराधना ।"

ब, साधक दीक्षाः

दीक्षादान होने पर गुरुपदिष्ठ बीजमन्त्र साधक के हृदयदेश में स्थापित होता है तथा साधक के द्वारा गोपनीय विधियों के द्वारा शोधित और रक्षित होकर पुष्ट होता रहता है । समयकाल पाकर बीज आकार धारण करता है और बाद में यही सत्ता साकार इष्टदेवता के रुप में प्रकट होता है । योगी दीक्षा और साधक दीक्षा दोनो में ही कुण्डलिनी जागरण होता है । साधक दीक्षा में शक्ति का इतना संचार हो जाता है कि जैसे ही पुरुषाकार का योग होता है कुण्डलिनी जाग जाती है । बाद में गुरु प्रदत्त कर्म के समुचित सम्पादन से उक्त जाग्रत शुद्ध तेज प्रज्वलित होकर साधक के वासना, संस्कार आदि के आवरण को भस्म कर देता है । साधक का विकास होते होते अन्त में सिद्धावस्था आती है जब वासनादि समस्त कल्मशों का सम्पूर्ण रुप से क्षय हो जाता है और कुण्डलिनी शक्ति इष्टदेवता के रुप में प्रकट होती है, पर उस समय साधक का देह नहीं रहता । साधक में सिद्धि के आविर्भाव के साथ साथ देहान्त हो जाता है ।

अघोरपथ में साधना विषयक समस्त बातें गोपनीय होती हैं । दीक्षा की प्रणाली, मन्त्र, बिधि, क्रिया, ओषधि समस्त बातें व्यक्तिनिष्ठ होने के कारण उन तक किसी की भी पहुँच असंभव है । अधिकारी सन्त, महापुरुष जितना अपने प्रवचनों में बतला देते हैं वही ज्ञात हो पाता है । दीक्षा का मूल मन्त्र कहा गया है, अतः कुछ चर्चा मन्त्र की भी आवश्यक हो जाती है ।

३, मन्त्र

भारत में मन्त्र का एक अलग शास्त्र है । मन्त्र विज्ञान इतना उन्नत है कि जीवन के प्रत्येक क्रियाकलाप हेतु अलग अलग मन्त्र हैं । हम मन्त्र के विषय में विशद चर्चा पूर्व में कर चुके हैं अतः उसे दुहराना आवश्यक नहीं है ।

अघोरमन्त्र को समस्त मन्त्रों में सर्वोपरि बतलाया गया है और कहा गया है किः

" ॥ अघोरान्ना परो मन्त्रः नास्ति तत्वं गुरो परम् ॥"

शिष्य को गुरु, उसकी प्रकृति, अधिकार, शक्ति तथा इष्ट के अनुरुप मन्त्र दान करते हैं । इसीलिये गुरु प्रदत्त इस मन्त्र को इष्टमन्त्र या गुरुमन्त्र भी कहते हैं । यह मन्त्र शिष्य के हृदय देश में स्थापित होकर उसकी सिद्धी तथा मुक्ति का वाहक बनता है । इष्ट मन्त्र के अलावा प्रयोजन के अनुसार साधक अन्य अनेक मन्त्रों का भी प्रयोग करता है ।

अघोरेश्वर भगवान राम जी ने मन्त्र के विषय में बतलाया हैः

" मन्त्रों में किसी का नाम नहीं दिया गया है । ॠषियों ने उन मन्त्रों का दर्शन किया है, और उस दर्शन में उन शब्दों का, जिससे उसमें आकर्षण होता है । वह द्रवित होता है, और वह उस महान आत्मा की तरफ झुकता है । और उस महान आत्मा की तरफ झुक कर इतना तेज, इतना काँति, बल, पौरुष पा जाता है । उसके शरीर की रश्मियाँ, उसके शरीर की वह दिव्य, तेजोमय कान्तियाँ, जिसके शरीर में वह छोड़ता है, यह सब कुछ देता है । "

४, क्रिया

इस शरीर से विधिपूर्वक निश्चित उद्देश्य से किये गये काम को क्रिया कहते हैं । जप, हवन, तर्पण आदि कार्य इसके अन्तर्गत शुमार होते हैं । यह एक विशद विषय है । अघोरपथ में क्रियाएँ गुरु प्रदान करते हैं ।

५, औषधि

फूल, फल, दूब, पत्र, दुधुवा आदि औषधि के भीतर गिनी जाती हैं । हर एक वस्तु का अपना प्रयोजन है । मदिरा या दुधुवा का प्रयोग साधना की उच्चावस्था में कतिपय मानसिक दुर्बलताओं पर विजय पाने के लिये किया जाता रहा है, परन्तु अघोरेश्वर भगवान राम जी ने मदिरा का सेवन निषिद्ध कर दिया है ।

क्रमशः

शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः किशोरवय के सहचर

अघोरेश्वर की लीला यत्र तत्र सर्वत्र शिष्यों, श्रद्धालुओं, भक्तों के हृदय में बिखरी पड़ी हैं । कुछ एक को शब्दों की माला में पिरोकर ज्ञानीजनों ने जन सामान्य के लिये सुलभ करा दिया है, परन्तु बहुत कुछ अभी बाकी है । अनेक लोग बाबा के सम्पर्क में आकर नाना प्रकार की अनुभूति से दो चार हुए हैं । बहुत कुछ देखा है, सुना है और उनकी प्रेरणा से किया भी है । बाबा प्रत्यक्ष में कुछ करते कभी नहीं दिखते थे । सब कुछ सामान्य ढ़ंग से होता रहता था, जिसे आप चमत्कार कहें या और कुछ और । बाबा की किशोरावस्था में जो लोग सम्पर्क में आये, उनमें से कुछ से यहाँ पर हम परिचय पाने का प्रयास करेंगे ।

बाबा कृष्णाराम अघोरी

अघोरेश्वर के प्रथम सहचर के रुप में आपकी चर्चा बहुत ही सीमित रुप में आती है । आप बहुत ही थोड़े समय तक ही बाबा के साथ देखे गये थे । आप उड़िया भाषी थे । उत्कल प्रदेश से दूर बनारस में किशोर अवधूत के साधनाकाल में उनकी सेवा में होना, साबित करता है कि कृष्णा राम जी सिद्धावस्था प्राप्त अघोरी थे । बाबा कृष्णा राम जी के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है क्योंकि आप हिन्दी नहीं बोलते थे, या शायद हिन्दी नहीं जानते थे, अतः अन्य श्रद्धालु, भक्तों से आपका सम्पर्क नहीं हो पाया । आपके नाम के साथ राम लगा है अतः निश्चित रुप से आप किनारामी परम्परा के औघड़ थे । किशोर अवधूत की गुण्डी तथा बगवाँ यात्रा के समय वहाँ के लोगों ने आपको देखा था । उनकी स्मृति में आप भाषा के कारण ही जगह पा गये । बनारस के भक्तों ने आपकी कभी चर्चा नहीं की है । उक्त एक यात्रा के बाद आपको कभी, कहीं, किसी ने नहीं देखा ।

श्री केदार सिंह उर्फ फोकाबीर

श्री केदार सिंह जी, जिन्हें अघोरेश्वर प्यार से फोंकाबीर कहते थे, बाबा के समर्पित भक्तों में अन्यतम थे । आपका निवास ईश्वरगंगी, बनारस में था । अधिक वय वाले फोकाबीर को बाबा ने अपनी किशोरावस्था में, जब वे कठिन साधना में लगे थे, सखा के रुप में स्वीकार किया था । श्री केदार सिंह जी और अघोरेश्वर बहुत काल तक साथ साथ रहे हैं । उन दिनों आप दोनों की सवारी सायकिल हुआ करती थी । फोकाबीर की सायकिल की पिछली सीट पर बैठकर बाबा बहुत घूमें हैं । केदार सिंह युवावस्था तक प्रकृति से उदण्ड माने जाते थे । स्कूल में उनका जी नहीं लगता था । ठाकुर होने का दम्भ तो उनमें जीवनपर्यन्त रहा । अघोरेश्वर के सानिध्य में आने के पश्चात श्री केदार सिंह में जो परिवर्तन उनके परिचितों, जानकारों ने देखा वह आश्चर्यजनक था । लोहा जैसे पारस का स्पर्ष पाकर सोना बन चुका था । श्री दयानारायण पाण्डेय जी ने श्री केदार सिंह का साक्षात्कार के आधार पर " औघड़ की गठरी" नामक एक पुस्तक का प्रणयन किया है, जिसमें हम अघोरेश्वर के इस कृपापात्र के भीतर के भावों के विशाल भंडार से साक्षात्कार कर सकते हैं । इस पुस्तक में फोकाबीर जी ने उन्मुक्त भाव से अपने गुरु अघोरेश्वर के विषय में विस्तार से बतलाया है ।
श्री केदार सिंह जी की धर्मपत्नि का नाम श्रीमति लक्ष्मी देवी है । अघोरेश्वर लक्ष्मी देवी जी को अपना पुत्री मानते थे । कई अवसरों पर लक्ष्मी देवी के मानसिक संकल्पों को अघोरेश्वर ने परोक्ष से जानकर भी पूर्ण किया है । लक्ष्मी देवी पति के प्रति पूर्णतया समर्पित नारी थीं । इस दम्पत्ति की करुणा की मिशाल नहीं मिलती । एक भक्त की सन्तान विव्हलता देखकर अपने गर्भ का भ्रूण दान कर उसकी बंध्या पत्नि को पुत्रवती बनाकर स्वयं निःसंत्तान की स्थिति का वरन करना त्याग की पराकाष्ठा है ।

श्री केदार सिंह जी का देहावसान ६ जनवरी १९९१ को हुआ था । अघोरेश्वर उस समय अमेरिका में अपना इलाज करवा रहे थे । अपने सखा, शिष्य श्री केदार सिंह जी की अंतिम यात्रा हेतु अघोरेश्वर बिना किसी को सूचना दिये अमेरिका से आ जाते हैं । यह गुरु अघोरेश्वर भगवान राम जी की प्रत्यक्ष सर्वज्ञता है, जो उन्हें ६ जनवरी १९९१ को बनारस ले आती है ।

क्रमशः