बुधवार, मई 19, 2010

अघोरपथ के प्रसिद्ध स्थल

चित्रकूट
अघोर पथ के अन्यतम आचार्य, भगवत स्वरुप दत्तात्रेय जी की जन्मस्थली चित्रकूट सभी के लिये तीर्थस्थल है । औघड़ों की कीनारामी परम्परा का उत्स यहीं से हुआ माना जाता है । माता अनुसूया जी का आश्रम तथा शरभंग ॠषि जो एक सिद्ध अघोराचार्य थे, का आश्रम, अघोर साधकों के लिये साधना की भूमि प्रदान करते हैं । यहाँ का स्फटिक शिला नामक महा श्मशान तथा पार्श्व में स्थित घोरा देवी का मन्दिर हमेशा से अघोर साधकों को आकर्षित करता रहा है । कहा जाता है कि स्फटिक शिला श्मशान में भगवान राम चन्द्र जी ने माता सीता का भगवती रुप में पूजन किया था और उसी उपलब्धि से वे असुरों का विनाश कर भारत में रामराज्य स्थापित करने में सफलमनोरथ हो सके थे ।

कवि रहीम खानखाना ने शासक का कोप भाजन बनने पर अपना अज्ञातवास काल यहीं पर बिताया था और कहा थाः

"चित्रकूट में रमि रहै रहिमन अवध नरेस ।
जापै विपदा पड़त है सो आवत यहि देस ।।"


अघोरेश्वर भगवान राम जी ने कई बार चित्रकूट की यात्रा की थी ।

प्रभासपत्तन

कलियुग के प्रारम्भ में यादवों ने आपस में लड़कर इसी स्थान पर अपने कुल का नाश कर लिया था । बाद में बाहरी आक्रान्ताओं ने यहाँ पर स्थित सोमनाथ मन्दिर की सम्पत्ति लूटने की गरज से अनेक बार आक्रमण कर व्यापक नर संहार किया । भयंकर नरसंहार होने के कारण यह एक महा श्मशान है । इस श्मशान में एक औघड़ आश्रम प्रतिष्ठित है जहाँ रहकर अनेक साधक तप करते रहते हैं । यहाँ भगवान सोमनाथ विराजते हैं ।

अघोरीकिला
बिहार में चोपन शहर के पास एक बहुत पुराने किले का अवशेष आज भी विद्यमान है । यह कालिंजर का किला पंद्रहवीं सदी से ही निर्जन प्राय रहता आया है । तभी से इस निर्जन किले को अघोरियों ने अपनी साधनास्थली बना रखा है । अभी कुछ वर्ष पहले तक एक सिद्ध अघोराचार्य की कीर्ति सुनने में आती थी । आजकल कुछ एक साधक यहाँ रहकर अपनी साधना में लगे रहते हैं । कुछ भैरवियों की उपस्थिति के भी प्रमाण मिलते हैं ।

जगन्नाथ पुरी

जगत प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर और विमला देवी मन्दिर, जहाँ सती का पाद खण्ड गिरा था, के बीच में एक चक्र साधना वेदी अवस्थित है । यह वेदी वशिष्ठ वेदी के नाम से प्रसिद्ध है । इसके अलावा पुरी का स्वर्गद्वार श्मशान एक पावन अघोर स्थल है । इस श्मशान के पार्श्व में माँ तारा मन्दिर के खण्डहर में ॠषि वशिष्ठ के साथ अनेक साधकों की चक्रार्चन करती हुई प्रतिमाएँ स्थापित हैं ।

श्री जगन्नाथ मन्दिर में भी श्रीकृष्ण जी को शुभ भैरवी चक्र में साधना करते दिखलाया गया है ।

कालीमठ
हिमालय तो सदा दिन से साधकों में आकर्षण जगाता आया है । कितने, किस कोटी के,और कैसे कैसे साधक हिमालय में साधनारत हैं कुछ कहा नहीं जा सकता । नैनीताल से आगे गुप्तकाशी  से भी ऊपर कालीमठ नामक एक अघोर स्थल है । यहाँ अनेक साधक रहते हैं । कालीमठ में अघोरेश्वर भगवान राम जी ने एक बहुत बड़ा खड्ग स्थापित किया है । यहाँ से ५००० हजार फीट उपर एक पहाड़ी पर काल शिला नामक स्थल है जहाँ मनुष्य और पशु कठिनाई से पहुँच पाते हैं । कालशिला में भी अघोरियों का वास है ।

मदुरई

दक्षिण भारत में औघड़ों को ब्रह्मनिष्ठ कहा जाता है । यहाँ कपालेश्वर का मन्दिर है साथ ही ब्रह्मनिष्ठ लोगों का आश्रम भी है । आश्रम के प्राँगण में एक अघोराचार्य की मुख्य समाधि है । और भी समाधियाँ हैं । मन्दिर में कपालेश्वर की पूजा औघड़ विधि विधान से की जाती है ।

उपरोक्त स्थलों के अलावा अन्य जगहों पर भी जैसे रामेश्वरम, कन्याकुमारी, मैसूर,  हैदराबाद, बड़ौदा, बोधगया आदि अनेक औघड़, अघोरेश्वर लोगों की साधना स्थली, आश्रम, कुटिया पाई जाती है ।

कतिपय अन्य देशों में भी औघड़ , अघोरेश्वर ने भ्रमण के क्रम में जाकर मौज में आकर अपना निवास बना लिया है ।

नेपाल
नेपाल में तराई के इलाके में कई गुप्त औघड़ स्थान पुराने काल से ही अवस्थित हैं । अघोरेश्वर भगवान राम जी के शिष्य बाबा सिंह शावक राम जी ने काठमाण्डु में अघोर कुटी स्थापित किया है।  उन्होने तथा उनके बाद बाबा मंगलधन राम जी ने समाज सेवा को नया आयाम दिया है। कीनारामी परम्परा के इस आश्रम को नेपाल में बड़ी ही श्रद्धा से देखा जाता है ।

अफगानिस्थान
अफगानिस्तान के पूर्व शासक शाह जहीर शाह के पूर्वजों ने काबुल शहर के मध्य भाग में कई एकड़ में फैला जमीन का एक टुकड़ा कीनारामी परम्परा के संतों को दान में दिया था । इसी जमीन पर आश्रम, बाग आदि निर्मित हैं । औघड़ रतन लाल जी यहाँ पीर के रुप में आदर पाते हैं । उनकी समाधि तथा अन्य अनेक औघड़ों की समाधियाँ इस स्थल पर आज भी श्रद्धा नमन के लिये स्थित हैं ।

क्रमशः






 

शनिवार, मई 08, 2010

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल

बिंध्याचल
बिंध्य की पर्वत श्रृँखला एवं उसमें अवस्थित माँ बिंध्यवासिनी का शक्तिपीठ भारत ही नहीं अपितु समग्र विश्व में प्रसिद्ध है । मिरजापुर इस स्थल का रेलवे स्टेशन है, जहाँ से इसकी दूरी मात्र आठ किलोमीटर है । सड़क मार्ग से यह स्थान बनारस, इलाहाबाद, मऊनाथभंजन, रीवा, और औरंगाबाद से जुड़ा हुआ है । बनारस से ७० किलोमीटर तथा इलाहाबाद से ८३ किलोमीटर की दूरी पर बिंध्याचल धाम स्थित है ।

कहा जाता है कि महिषासुर बध के पश्चात माता दूर्गा इसी स्थान पर निवास हेतु ठहर गईं थीं, इसीलिये यहाँ की अधिष्ठात्री देवी माता दूर्गा को बिंध्यवासिनी के रुप में पूजन किया जाता है । इस स्थल में तीन मुख्य मन्दिर हैं । विन्ध्यवासिनी, कालीखोह और अष्टभुजा । इन मन्दिरों की स्थिति त्रिकोण यन्त्रवत् है । इनकी त्रिकोण परिकरमा भी की जाती है । इस पर्वत में अनेक गुफाएँ हैं, जिनमें रहकर साधक साधना करते हैं । आज भी अनेक साधक , सिद्ध, महात्मा, अवधूत, कापालिक आदि से यहाँ भेंट हो सकती है । इनके अलावा इस स्थल में सैकड़ों मन्दिर बिखरे पड़े हैं ।
बिंध्याचल पर्वत में तीन मुख्य कुण्ड हैं । प्रथम सीताकुण्ड है । कहते हैं रावण बध के पश्चात भगवान रामचन्द्र जी की वापसी यात्रा के समय भगवती सीता जी को बड़ी प्यास लगी । रामअनुज लक्ष्मण जी के तीर चलाने से इस कुण्ड का निर्माण हुआ और भगवती सीता माई की प्यास का शमन हुआ । यहीं से मन्दिर के लिये सीढ़ियाँ जाती हैं । पहले अष्टभुजा मन्दिर है । अष्टभुजा मन्दिर में ज्ञान , विवेक की देवी माता सरस्वती बिराजती हैं । उससे उपर कालीखोह है । यह स्थान यथा नाम काली जी का है । फिर आता है बिंध्याचल का मुख्य मन्दिर माता बिंध्यवासिनी मन्दिर ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी अपने साधना काल में कई वर्षों तक बिंध्याचल में रहे थे । बिंध्याचल में अष्टभुजा मन्दिर से कालीखोह की तरफ थोड़ी दूरी पर एक स्थान आता है, भैरव कुण्ड । यहाँ से प्रायः तीन सौ मीटर की उँचाई पर एक गुफा है । इसी गुफा में अघोरेश्वर रहते थे । आपको याद होगा इसी गुफा में जशपुर के महाराजा स्वर्गीय बिजयभूषण सिंह देव ने अघोरेश्वर का प्रथम दर्शन किया था । बाबा के इस स्थल पर निवास, तपस्या की स्मृति में एक कीर्ति स्तम्भ स्थापित किया गया है, जिसके चारों ओर बाबा के संदेश अँकित हैं । गुफा के भीतर भक्तों, श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ अघोरेश्वर की चरण पादुका एक चट्टान में जड़ दी गई है । यहाँ कई एक साधक आकर नाना प्रकार की साधनाएँ करते और अघोरेश्वर की कृपा से सिद्धी पाकर कृतकृत्य होते हैं ।
भैरवकुण्ड के स्वामी अक्षोभ्यानन्द सरस्वती , जो अघोरपथ के पथिक तो नहीं थे, परन्तु आचार, व्यवहार, शक्ति,और विद्या के मामले में अधिकारी विद्वान थे । स्बामी जी शाक्त परम्परा के कुलावधूत थे । आपको वाक् सिद्धी थी । आपकी प्रसिद्धी दूर दूर तक थी । गृहस्थ से तप के मार्ग में चलकर जिन गिनेचुने महान आत्माओं ने अध्यात्म की उच्चावस्था को प्राप्त किया है, उनमें से एक भैरवकुण्ड के स्वामी अक्षोभ्यानन्द सरस्वती जी भी हैं ।
क्रमशः



रविवार, मई 02, 2010

अघोर परम्परा के प्रसिद्ध स्थल

तारापीठ

इस स्थान पर दक्ष यज्ञ विध्वंश के पश्चात मोहाविष्ट शिव जी के कंधों से शिव भार्या दाक्षायणी, सती की आँखें भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर गिरी थीं, इसीलिये यह शक्तिपीठ बन गया और इसीलिये इसे तारापीठ कहते हैं । मातृ रुप माँ तारा का यह स्थल तांत्रिकों, मांत्रिकों, शाक्तों, शैवों, कापालिकों, औघड़ों आदि सब में समान रुप से श्रद्धास्पद, पूजनीय माना जाता है ।
शताब्दियों से साधकों, सिद्धों में प्रसिद्ध यह स्थल पश्चिम बँगाल के बीरभूम अँचल में रामपुर हाट रेलस्टेशन के पास द्वारका नदी के किनारे स्थित है । कोलकाता से तारापीठ की दूरी लगभग २६५ किलोमीटर है । यह स्थल रेलमार्ग एवं सड़क मार्ग दोनो से जुड़ा है । इस जगह द्वारका नदी का बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर है, जो कि भारत में सामान्यतः नहीं पाया जाता । नाम के अनुरुप यहाँ माँ तारा का एक मन्दिर है तथा पार्श्व में महाश्मशान है । द्वारका नदी इस महाश्मशान को चक्राकार घेरकर कच्छपपृष्ट बनाते हुए बहती है ।

यह स्थल तारा साधन के लिये जगत प्रसिद्ध रहा है । पुरातन काल में महर्षि वशिष्ठ जी इस तारापीठ में बहुत काल तक साधना किये थे और सिद्धि प्राप्त कर सफल काम हुए थे । उन्होने इस पीठ में माँ तारा का एक भव्य मन्दिर बनवाया था जो अब भूमिसात हो चुका है । कहते हैं वशिष्ठ जी कामाख्या धाम के निकट नीलाचल पर्वत पर दीर्घकाल तक संयम पूर्वक भगवती तारा की उपासना करते रहे थे , किन्तु भगवती तारा का अनुग्रह उन्हें प्राप्त न हो सका, कारण कि चीनाचार को छोड़कर अन्य साधना विधि से भगवती तारा प्रसन्न नहीं होतीं । एकमात्र बुद्ध ही भगवती तारा की उपासना और चीनाचार विधि जानते हैं । महर्षि वशिष्ठ , यह जानकर भगवान बुद्ध के समीप उपस्थित हुए और उनसे आराधना विधि एवं आचार का ज्ञान प्राप्तकर इस पीठ में आये थे । बौधों में बज्रयानी साधक इस विद्या के जानकार बतलाये जाते हैं । औघड़ों को भी इस विद्या की सटीक जानकारी है ।

वर्तमान मन्दिर बनने की कथा दिलचस्प है । कथा इस प्रकार है




" जयब्रत नाम के एक व्यापारी थे । उनका इस अँचल में लम्बाचौड़ा व्यापार फैला हुआ था । श्मशान होने के कारण तारापीठ का यह क्षेत्र सुनसान हुआ करता था । भय से लोग इधर कम ही आते थे । विशेष दिनों में इक्का दुक्का साधक इस ओर आते जाते दिख जाया करते थे । व्यापार के सिलसिले में जयब्रत को प्रायः इस क्षेत्र से गुजरना पड़ता था । एक बार जयब्रत को पास के गाँव में रात्रि विश्राम हेतू रुकना पड़ा । ब्राह्म मुहुर्त में जयब्रत को स्वप्न में माँ तारा के दर्शन हुए । माँ ने आदेश दिया कि श्मशान की परिधि में धरती के नीचे ब्रह्मशिला गड़ा हुआ है । उसे उखाड़ो और वहीं पर विधिपूर्वक प्राण प्रतिष्ठित करो । स्वप्न में प्राप्त आदेश के अनुसार जयब्रत ब्रह्मशिला उखड़वाया और वर्तमान मन्दिर का निर्माण कराकर माँ तारा की भव्य मूर्ति स्थापित किया ।"




मातृरुपा माँ तारा की मूर्ति दिव्य भाव लिये हुए है । माता ने अपने वाम बाजु में शिशु रुप में शिव जी को लिया हुआ है । शिव जी माता के वाम स्तन से दुग्धामृत का पान कर रहे हैं और माता के स्नेहसिक्त नयन अपलक शिशु शिव जी को निहार रहे हैं । कहते हैं समुद्र मँथन से निकले विष का देवाधिदेव भगवान शिव जी ने पान कर संसार की रक्षा की थी । इस विषपान के प्रभाव से भगवान शँकर को उग्र जलन एवं पीड़ा होने लगी । कोई उपाय न था । माता ने तब शिव जी को इस प्रकार अपना स्तनपान कराकर उन्हें कष्ट से त्राण दिलाया था । इसीलिये माँ को तारिणी भी कहते हैं ।



अघोराचार्य बामाखेपा

तारापीठ में साधना कर अनेक सिद्धियाँ हस्तगत करने वाले एक महान अघोराचार्य हो गये हैं । उनका नाम है " वामाक्षेपा" । बंगाल के बीरभूम जिलान्तर्गत अतला ग्राम में सर्वानन्द चट्टोपाध्याय एवं श्रीमति राजकुमारी के घर आपका जन्म सन् १८३७ ई० में हुआ था । माता, पिता ने आपका नाम रखा था बामा । बामा चट्टोपाध्याय । आप जन्मना सिद्ध पुरुष थे । माता पिता ने आपको स्कूल भेजा , लेकिन पढ़ाई की ओर आपका ध्यान नहीं था । बचपन से ही आप आँख मूँदकर घँटों चुपचाप बैठे रहते थे । आप सांसारिक नियमों की अवहेलना करने के कारण ग्रामवासियों के द्वारा पागल घोषित कर दिये गये और आपके नाम बामा के साथ खेपा, जिसका अर्थ पागल होता है, जोड़ दिया गया ।
किशोर बामा रात के किसी समय पड़ोसियों के घर से देवताओं की मुर्तियाँ चुराकर पूरी रात पूजा किया करते थे । सुबह मुर्तियों की चोरी के कारण बामा को कड़ा दण्ड भुगतना पड़ता परन्तु वे अगली रात फिर वही काम करते । इसीबीच आपके पिता का स्वर्गवास हो गया । परिवार तो पहले ही गरीब था, अब तो फाके की नौबत आ गयी । बामा कोई भी कार्य करने के योग्य न थे, क्योंकि वे कभी भी अपना होश गँवा बैठते थे । ऐसा कभी भी हो जाता था । कभी लाल फूल देखकर तो कभी कुछ और , उन्हें माँ तारा की स्मृति हो आती थी और वे समाधि में चले जाते थे । अब तो उनकी माता ने भी मान लिया कि उनका पुत्र पागल हो चुका है । माता ने बामा को घर के अँदर बन्द करके रख दिया, परन्तु बामा कहाँ मानने वाले थे । वे रात में चुपचाप दरवाजा खोलकर घर से भाग निकले और द्वारका नदी को तैरकर तारापीठ के महाश्मशान में पहुँच गये ।


बामाखेपा को तारापीठ के महाश्मशान के पार्श्व में कुटी बनाकर साधनरत बाबा कैलाशपति ने अपना शिष्य स्वीकार कर ताँत्रिक विधि विधान सिखाने लगे । आपकी माता द्वारा पुत्र बामा को वापस लौटा ले जाने के सभी प्रयास बिफल हो जाने पर तारा मन्दिर में फूल एकत्र करने के काम पर लगवा दिया गया । आपसे यह काम नहीं सधा । आप अपने आप में डूबे तारापीठ के महाश्मशान में ,जहाँ बिषधर, श्रृगाल, कुत्तों और अन्य बनैले जन्तुओं के साथ रहने लगे । आपको भावावेश की अवस्था में रात, दिन, शीत, गर्मी, आदि कुछ नहीं भाषता था । आप आठों प्रहर माँ तारा के ध्यान में निमग्न रहते थे ।
इस प्रकार एक लम्बा समय बीत गया । आपकी साधना चलती रही । तारापीठ का महाश्मशान बाबा बामाखेपा को परम सत्य को उपलब्ध होते देखता रहा । बाबा का माँ तारा की भक्ति में रोज आनन्दोत्सव होता । बाबा कभी नाचते, कभी गाते और कभी अजगर वृत्ति से पड़े रहते किसी कोने में । बाबा को अब शरीर का भी ध्यान नहीं रह गया था । कमर में लिपटा वस्त्र कब निकल कर गिर जाता उन्हें पता ही नहीं चलता था । वे अवधूत अवस्था में दिगम्बर ही घूमते रहते ।
बाबा का अपनी लौकिक माता के साथ कोई सम्पर्क नहीं रह गया था, परन्तु माँ से वे बहुत प्यार करते थे । अपनी जन्मदात्री को वे माँ तारा के जैसा ही मानते थे । माँ के स्वर्गवास के समय यह बात सिद्ध भी हो गई थी । कहते हैः
" बाबा बामाखेपा को सूचना मिली कि जन्मदात्री माता का स्वर्गवास हो गया । उस समय घनघोर वर्षा हो रही थी । द्वारका नदी उफान पर थी । माता के शव को अँतिम संस्कार के लिये तारापीठ के महाश्मसान तक लाना असंभव हो गया । सगे सम्बन्धी सब किंकर्तब्यविमूढ़ की स्थिति से उबर ही नहीं पा रहे थे । बाबा उफनती द्वारका नदी को तैरकर पार किये और अपने गाँव " अतला" जाकर माता के शव को कँधे में लेकर फिर बाढ़ भरी द्वारका नदी को तैरकर पार करके तारापीठ के महाश्मशान में ले आये । पीछे से सब सगे सम्बंधी भी आ गये । उन्होने अपने भाई रामचरन से माता का अँतिम संस्कार कराया । जनश्रुति है कि बाबा की माता के शवदाह के समय चारों ओर घनघोर वर्षा हो रही थी, परन्तु शवदाह के लिये एकत्रित जनों पर एक बूँद भी पानी नहीं गिरा ।"


तारापीठ का यह पागल संत अब अनेक सिद्धियों का स्वामी हो गया था । आसपास के लोग बाबा के पास बड़ी संख्या में आने लगे थे । अनेक लोगों का बाबा के आशीर्वाद से कष्टनिवारण भी हो जाया करता था । बाबा के चमत्कार की, अलौकिक क्रियाकलाप की अनेक कथाएँ कही सुनी जाती हैं ।


बाबा बामाखेपा की महासमाधि सन् १९११ ई० को हुई थी ।


तारापीठ में साधना हेतु न केवल पूर्वाँचल अपितु समग्र देश और विदेशों से भी साधक आते रहते हैं । साधक प्रायः अधिक संख्या में अमावश्या को दिखते हैं । अन्य अवसरों पर श्रद्धालुओं, भक्तों, पर्यटकों आदि की ही भीड़ होती है ।

क्रमशः