रविवार, जनवरी 17, 2010

अघोरेश्वर भगवान राम जीः जशपुर नरेश महाराज बिजयभूषण सिंह जू देव

भारत में छत्तीसगढ़ प्रदेश के उत्तर पूर्वी कोने में झारखण्ड प्रदेश की सीमा में एक स्टेट हुआ करता था । अब यह राजस्व जिला बन गया है । यह पहाड़ों और जँगलों वाला स्टेट था । इस स्टेट में मुख्यतः आदिवासी निवास करते थे । इस स्टेट की राजधानी जशपुर नगर में थी । जशपुर नगर चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा छोटा, परन्तु सुन्दर सा शहर है । शहर के बीचों बीच राजा का पुराना महल जीर्णावस्था में अब भी खड़ा है । पुराने महल का सामने का हिस्सा ठीक ठाक कराकर कुछ दुकान, एक बैंक, तथा एक दो सरकारी कार्यालयों हेतु किराये पर दिया गया है । राजपरिवार अब नये महल में रहता है । इस अँचल में आज भी राजपरिवार का वही पुराना मान सम्मान देखा जाता है ।
भारत सँघ में राज्य बिलीनीकरण के समय इस स्टेट के राजा की गद्दी पर महाराज विजयभूषण सिंह जू देव आसीन थे । अब वे स्वर्गवासी हो चुके हैं । राजा साहब धर्मपरायण एवं चरित्रवान व्यक्ति थे । महाराजा साहब की सहधर्मिणी महारानी जयकुमारी देवी उदारमना, धर्मकर्म में आस्था रखने वाली सहृदय महिला हैं ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी , जिन्हें अब हम बाबा कहेंगे, का जशपुर आगमन अलग अलग व्यक्तियों को अलग अलग अनुभवों से गुजरने का मौका प्रदान कर दिया । जशपुर नगर के गणमान्य नागरिकों में से एक श्री नूना बाबू ने " अघोरेश्वर का सानिध्य मेरे संस्मरण" नामक पुस्तक में , जो श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा प्रकाशित कराया गया है, अपने अनुभवों, श्रद्धा एवं भक्ति को बड़े ही सजीव ढ़ंग से संजोया है ।
"१९५५ ई० की बात है । स्वर्गीय महाराजा विजय भूषण सिंह जू देव विंन्ध्यवासिनी देवी के मंदिर में सहस्त्र चण्डी यज्ञ के अनुष्ठान हेतु विन्ध्याचल में ठहरे हुए थे । यज्ञ का कार्यक्रम चल रहा था । इसी बीच किसी ने उन्हें सूचित किया कि एक महान तेजस्वी संत निकटस्थ एक गुफा में टिके हुए हैं । जिनके दर्शनार्थी, श्रद्धालु, भक्त बहुत बड़ी संख्या में प्रतिदिन उपस्थित हो रहे हैं । स्वर्गीय महाराजा को भी उस संत के दर्शन की तीव्र इच्छा हुई और वे शीघ्र ही गुफा के पास पहुँच गये । उस समय गुफा के बाहर पाँच सात व्यक्ति बैठे हुए थे । उन्होने बतलाया कि उस समय अवधूत महाराज गुफा के भीतर विश्राम कर रहे थे । काफी समय बीत जाने पर भी जब अवधूत महाराज गुफा से बाहर नहीं निकले, तब स्वर्गीय महाराज ने अपने एक सेवक को गुफा के बाहर इस निर्देश के साथ बिठा दिया कि जैसे ही अवधूत महाराज बाहर निकलें महाराज को तत्छण सूचना दी जाय, ताकि वे वहाँ यथाशिघ्र पहुँच सकें । सेवक ने महाराज के आदेश का अक्षरशः पालन किया । वाँक्षित सूचना मिलते ही स्वर्गीय महाराज वहाँ पहुँच गये और अघोरेश्वर महाप्रभु का दर्शन कर अत्यंत ही भाव विभोर हो गये । जब तक महाप्रभु वहाँ निवास किये, स्वर्गीय महाराजा साहब प्रतिदिन नियमित रुप से वहाँ जाते, दर्शन करते और अपनी अटूट श्रद्धा निवेदित कर, महाप्रभु से अनुनय विनय करते । उनकी अगाध श्रद्धा और एकान्त प्रेम भाव को समझकर एक दिन परमपूज्य....बाबा ने निम्नांकित शब्दों में अपनी स्वीकारोक्ति दे दीः
" एक बार रउवा इहाँ जशपुर जायेब । "
वापस आकर महाराजा साहब ने अपने सेक्रेटेरी ह्रषिकेश मिश्र को कार से बाबा को जशपुर लाने के लिये भेजा । बाबा जशपुर आए ।
इसके अलावा जशपुर राज के राज ज्योतिषी परिवार की बहू स्वर्गीया श्रीमति सावित्री महापात्र, जो बाबा की आरम्भिक दिनों के शिष्यों में से एक थीं , ने इस लेखक को बाबा के प्रथम जशपुर आगमन का विवरण निम्नाँकित शब्दों में सुनाया था ।
"मैं नयी नयी शादी होकर जशपुरनगर आई थी । उस समय बहुएँ घर से बाहर नहीं निकलती थीं । मंदिर जाने के नाम पर जशपुर नगर को थोड़ाबहुत ही देख पाई थी । एक दिन शाम के समय डौँडी पिटाने लगा । महाराजा का कारिंदा डौंडी पीटने वाला जोर जोर से चिल्ला रहा थाः "सुनो, सुनो, सुनो । हर आम ओ खास के लिये सूचना । महाराजा साहेब एक औघड़ को पकड़ कर लाये हैं । औघड़ को शिव मंदिर में रखा गया है ।" औघड़ शब्द मेरे लिये नया नहीं था । उस जमाने में औघड़ से सभी डरते थे । इस इलाके में औघड़ द्वारा दारु, गाँजा, भाँग आदि का सेवन करने , कच्चा माँस खाने, जटा से दूध या पानी निकाल देने तथा नाराज हो जाने पर किसी का भी बुरा कर देने की कितनी ही कहानियाँ कही सुनी जाती थीं । औघड़ शब्द ही लोगों को भयभीत करने के लिये काफी होता था । डौंडी पिटाने के समय से ही मेरा मन व्याकुल हो उठा था । एक अजीब तरह का आकर्षण अनुभव हो रहा था । मैं औघड़ को देखने के लिये उतावली हो रही थी , परन्तु पारिवारिक मर्यादा मेरा पाँव बाँधे रही । उस रात और दूसरा पूरा दिन मैं बैचेन रही । मेरे पतिदेव को साथ चलने के लिये बड़ी मुश्किल से तैयार कर सकी । ये साथ जा रहे थे इसलिये सासु माँ को मनाना आसान हो गया । वे भी साथ हो लीं ।
दूसरे दिन साँझ के समय हम लोग शिव मंदिर गये । मंदिर में आज और दिनों से ज्यादा चहल पहल दिखी । मंदिर के बरामदे में पूरब तरफ कोने में एक कम्बल बिछा हुआ था, और उस पर एक दुबला पतला सा लड़का बैठा था । उनकी आयु उस समय लगभग १७ या १८ वर्ष की रही होगी । उनके शरीर पर कपड़े के नाम पर एक लंगोटी भर थी, बाकी शरीर में भस्म रमा हुआ था । हाथ पाँव लम्बे थे । बड़ी बड़ी आँखों में एक अजीब सा आकर्षण था । आँखें लाल, दृष्टि भेदक थी । मुखाकृति तेज से दप दप कर रहा था । उनके चेहरे पर ज्यादा देर आँखें ठहरतीं नहीं थीं । सामने हुक्का रखा था । बगल में मदिरा के एक दो बोतल इधर उधर लुढ़के पड़े थे ।
हम लोगों ने दूर से ही प्रणाम किया । बाबा जी ने मुझे घूरकर देखा फिर उनकी गम्भीर वाणी निनादित हुईः "कुछ कहना है, माता जी ? " मैं चुप रही । उस दिन हम लोग इसके बाद घर लौट आये ।

महाराजा साहब का बनारस जाना होता ही रहता था । वे जब भी बनारस जाते बाबा का पता करवाते और उनके दर्शन के निमित्त अवश्य ही जाते थे । महाराजा साहब बाबा को यदाकदा अनाज आदि भेंट स्वरुप भेजा करते थे । अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी ने एक बार बतलाया थाः
" ईस्वी सन् १९६० तक न मालुम कैसे उस "अज्ञात" ने अकस्मात स्थान स्थान पर अपार लोगों के साथ, सम्बन्ध तारतम्य जोड़ दिया । तब से अन्नपूर्णा के आगमन का एक न एक श्रोत बराबर उपलब्ध रहा । इसे अनवरत प्राप्ति नहीं भी कहा जाय तो अपर्याप्त भी नहीं कहा जा सकता । इसी अवधि में, एक दिन जिस ग्राम के बाहर बाटिका में निर्मित कुटी में निवास करता था वहीं पर भूतपूर्व जशपुर नरेश, स्वर्गीय राजर्षि श्री विजय भूषण सिंह देव ने सर्व प्रथम एक बैलगाड़ी में लदा हुआ चावल, गेहूँ, दाल इत्यादि सामग्रियाँ पहुँचा दी । अब क्या पूछना था । बहुतेरे अतिथि आने लगे । एक दूसरे के यहाँ कमीबेशी होने पर मेरे यहाँ से याचक बनकर ले भी जाने लगे । यह कारवाँ भी धीरे धीरे चलता रहा ।"
तीन चार बरस इसी प्रकार बीत गये । महाराजा बनारस जाते , बाबा से भेंट होती । बाबा भी दो तीन बार महाराजा साहब का निवेदन स्वीकार कर जशपुर आते थे । बाबा को जशपुर आने पर पैलेश में ठहरना होता था । उन्हे यह ठीक नहीं लगता था । वे महाराजा से कहतेः " महाराजा साहेब! हमरा के कहाँ जेल में बन्द कर देलन । " महाराजा विजय भूषण सिंह जू देव का मन जशपुर के निवासियों , अपनी प्रजा के लिये बैचैन था । वे चाहते थे कि कुछ ऐसा हो कि बाबा ज्यादा से ज्यादा समय तक जशपुर में रहें । सितम्बर सन् १९५९ ई० को महाराजा साहेब ने बाबा को दो गाँव दान देने हेतु कागज तैयार कराकर अपने सेक्रेटेरी के हाथों बनारस भेजे । दो दिनों के बाद उनके सेक्रेटेरी बनारस से लौट कर बतलाये कि उन कागजात को देखकर बाबा बहुत अप्रसन्न हुए और कागज को फैंकते हुए बोलेः " हमरा के महाराज गृहस्थ बनावे चाहतारन ।"
निकट बैठे हुए बाबा के भक्तों ने समझाया तो बाबा ने कागज अपने पास रख लिये और बोलेः " महाराजा साहेब हमरा के ई सब काहे देले बारन ऊ सब हम समझ गइलीं ।"
उन दो गाँवों में एक था लोदाम के पास "ढ़ौठा टोली" और दूसरा गाँव था नारायण पुर गाँव से लगा हुआ " चिटक्वायन" ग्राम । सन् १९६० ई० में बाबा ने चिटक्वायन गाँव में अपना आश्रम बनवाया, और उसका नाम रखा " जनसेवा अभेद आश्रम" । अघोरेश्वर जी ने इस आश्रम को तन्त्रपीठ के रुप मे विकसित किया है । आश्रम प्राँगण में देवी की स्थापना पूर्ण तन्त्रोक्त विधि से की गई है । दक्षिण दिशा से कई तान्त्रिक आकर इस पीठ पर तंत्र साधना करते एवं सिद्धी लाभ करते हैं ।
इसी साल महारानी जयकुमारी देवी, जशपुर जी ने जशपुर नगर के उत्तर पश्चिम कोण में लगभग तेरह किलोमीटर दूर स्थित सोगड़ा नामक गाँव के अपने भंडार को खेती की जमीन समेत बाबा को दान कर दिया । इसके अलावा भँडार घर में एक काली जी का छोटा परन्तु सुन्दर मंदिर भी बनवा दिया । उसी वर्ष कार्तिक अमावस्या के दिन काली जी की प्राण प्रतिष्ठा एवं पूजन का कार्यक्रम बड़े ही धूमधाम से सम्पन्न हुआ था । यह आश्रम " ब्रह्म निष्ठालय सोगड़ा" के नाम से विख्यात है । सोगड़ा आश्रम चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा सुरम्य स्थान है । यह वैदिक काल के आश्रमों की कल्पना को साकार कर देता है । बाबा जी ने आश्रम के उत्तर दिशा में स्थित पहाड़ पर भैरव जी को स्थापित किया है, जहाँ पहुँचना श्रमसाध्य होने के अलावा कठिन भी है । बाबा के भैरव गुफा को जागृत कर देने के बाद हर बैशाख माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की मध्यरात्रि को पूजा तथा बलिदान आदि किया जाता है । वर्ष १९८० ई० में आश्रम में बाबा जी के निवास हेतु एक भवन बनवाया गया जिसे " गुरुघर" कहते हैं । यह भवन यन्त्रवत बहु कोणीय है । इसके भीतर एक तलघर या गुफा भी है, जो शून्यायतन में ध्यान धारणा के लिय बहुत ही उपयुक्त है । इसी आसपास आश्रम के मंदिर में माँ काली की नई प्रतिमा स्थापित की गई । यह प्रतिमा अपने आप में अन्यतम है । माँ काली महादेव के उपर खड़ी न होकर बैठी हुई हैं । अघोरेश्वर जी ने भी इस आश्रम में बहुत काल तक तप, नवरात्र, अनुष्ठान आदि किया है । अतः यह माँ काली का जाग्रत पीठ है ।
महारानी जशपुर जी ने अपना एक और भंडार दान किया है, जोकि जशपुर नगर से रायगढ़ रोड पर तीन किलोमीटर कि दूरी पर स्थित है । इस आश्रम का नाम " अघोर पीठ , वामदेव नगर" है । अब तो यह आश्रम जशपुर नगर की सीमा में आ गया है । इस आश्रम का मुख्य भवन चतुःत्रिकोणाकृति है । देवी एक त्रिकोण के शीर्ष बाग में अवस्थित हैं, बाहर भैरव जी विराजमान हैं । बाग, बगीचा, बैद्यशाला, यात्री निवास आदि से समृद्ध यह आश्रम देश के प्रधानमंत्री तथा अन्य उच्च पदस्थ महानुभावों का आतिथ्य कर चुका है ।
अघोरेश्वर भगवान राम जी का महाराजा जशपुर के दान तथा आश्रमों के महत्व के विषय में निम्नाँकित कथन " अघोरेश्वर स्मृति वचनामृत " ग्रँथ में सँगृहित है ।
" जशपुर के राजा श्री विजय भूषण सिंह देव ने बड़ी श्रद्धा के साथ, स्नेह के साथ, भक्तिभाव से परिपूरित हो आश्रम निर्माण के लिये अनुनय विनय किया । पाँच गाँव की भूमि, जो सैकड़ों एकड़ के रुप में है, श्री सर्वेश्वरी समूह को यह कहकर दान किया कि हरदम आपका आगमन जशपुर जनपद के क्षेत्रों में होता रहे । इससे औघड़, श्रद्धालु, संतमहात्मा, सर्वेश्वरी समूह के लोग जशपुर जनपद की शोभा बढ़ाते रहेंगे । साथ ही यहाँ के भोले भाले लोग आपके परिवार से, आपके आदर्श जीवन से सदैव प्रेरणा लेते रहेंगे । मैंने उसे स्वीकार किया और तीन आश्रमों को बड़े ही रमणीक पीठ के रुप में प्रतिष्ठित किया और निवास स्थान बनाया । कितने ही वर्षों यहाँ वर्षावास किया । बसंतॠतु और आश्विन महीने में अनुष्ठान किया और दिव्य पवित्र विचारों से बहुतेरे प्राणियों को दीन की तरफ प्रेरित किया ।"
महाराजा जशपुर सांसद बनेने के बाद ज्यादातर दिल्ली रहने लगे । उनका जशपुर और बनारस आनाजाना लगा ही रहता था । दिल्ली में महाराजा साहब का निवास विनय नगर के एक फ्लैट में होता था । कभी कभी अघोरेश्वर भी दिल्ली जाते थे और महाराजा साहब के फ्लैट मे ठहरते थे । धीरे धीरे दिल्ली में बाबा की चर्चा फैलने लगी । राजनेता लोग बाबा के सम्पर्क में आने लगे । इनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैंः श्री मोरारजी देशाई, श्री जगजीवन राम, श्री के. हनुमंथैया, श्रीमति इंदिरा गाँधी, आदि। बाद में तो यह संख्या बढ़ती ही गई ।
सन् १९६१ ई० में अघोरेश्वर ने श्री सर्वेश्वरी समूह नामक एक संस्था की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष स्वयं अघोरेश्वर थे एवं प्रथम उपाध्यक्ष बने हि. हा. महाराज जशपुर, विजय भूषण सिंह देव एवं दूसरे उपाध्यक्ष बनीं ह. हा. महारानी जशपुर, जयकुमारी देवी ।
इसी प्रकार एक लम्बा समय बीत गया । सन् १९८२ ई० के अगस्त माह में अघटित घट गया । महाराजा जशपुर श्री विजय भूषण सिह जू देव ने अपना शरीर त्याग दिया और उनका शव १९ अगस्त १९८२ ई० को कुष्ट सेवा आश्रम लाया गया । इस घटना के प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार अघोरेश्वर को इतना शोकाकुल कभी किसी ने नहीं देखा था । सर्वेश्वरी मंदिर में, अघोरेश्वर की उपस्थिति में प्रार्थना हुई और आपकी ही देखरेख में दिवंगत महाराजा का अँतिम संस्कार सम्पन्न हुआ ।
महाराजा विजय भूषण सिंह जू देव अघोरेश्वर के सखा थे, मित्र थे और प्रिय भक्त भी थे । कहा जाता है कि महाराजा के निधन का अघोरेश्वर के स्वाश्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था ।
क्रमशः