गुरुवार, अप्रैल 30, 2015

अघोर वचन -13

"कोई देव मूर्ति ध्वनि नहीं उत्पन्न करती है । उसके बन्द कण्ठ और बन्द वचन से आपके शरीर में एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया होती है जिससे रक्त, मांस, मज्जा में एक अजीब तरह का रसायन बन जाता है जो यह महसूस कराता है कि मेरे इष्ट, मेरे देवता, मेरे गुरू ने बहुत कुछ दिया । बहुत तृप्ति होती है ।"
                                                                ०००

भारत में उपासना की सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार समान रूप से व्यवहृत होता आया है । सगुण उपासना का अपना विस्तृत दर्शन एवँ पद्धति है जो अपने आप में अन्यतम है और पूर्ण भी । इसके अँतरर्गत मूर्तियों और यँत्रों की उपासना की जाती है । ये मूर्तियाँ पत्थर, धातु, मृत्तिका, और काष्ठ आदि की बनाई जाती हैं । ये मूर्तियाँ चूँकि निर्जीव पदार्थ से निर्मित होती हैं, इनसे न तो ध्वनि उत्पन्न होती है और न कोई हलचल ही होती है ।

मूर्तिपूजा के आधार तत्व के रूप में हम मूर्ति में पहले जिवन्यास प्राणप्रतिष्ठा करते है । यानि कि उसमें जान डालते हैं । मूर्ति को सजीव करते हैं । मूर्ति सजीव होकर ही पूजा के योग्य होती है ।

अघोरेश्वर यहाँ पर पूजा की आन्तरिक प्रक्रिया बतला रहे हैं । भली प्रकार से प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति के भले ही कण्ठ बन्द होते हैं यानि देवता बोलते नहीं, वचन या वाणी निनादित नहीं होते परन्तु पूजा करने वाले साधक में उसकी निष्ठा, श्रद्धा एवँ विश्वास के अनुरुप रसायनिक परिवर्तन होने लगते हैं । ध्वनि, सुगन्ध आदि की अनुभूति होने लगती है और साधक को आभास होने लगता है कि गुरू ने सही क्रिया बताई है । मँत्र चैतन्य है । देवता प्रसन्न हो रहे हैं ।
                                                                    ०००




बुधवार, अप्रैल 29, 2015

अघोर वचन -12

" जब तक गुरू में श्रद्धा और विश्वास नहीं होता है पूर्ण रूप से, तब तक कोई विद्या भी नहीं फलता फुलता । यह बड़ा मुश्किल है जीवन में । ऐसे अनेक व्यवहार, और विनोद से आप उबकर, आपकी अश्रद्धा भी हो सकता है । जिस समय जिस मँत्र के प्रति ,गुरू के प्रति, देवता के प्रति थोड़ा भी अश्रद्धा हुआ तो वह सारा विद्या का लम्बी आयु बढ़ जाता है । फिर नहीं प्राप्त होता । वह चला जाता है ।"
                                                   ०००

श्रद्धा और विश्वास सापेक्ष शब्द हैं । आज के युग में गुरू यदि चमत्कार दिखा सकते हैं, लोक लुभावन नौटँकी कर सकते हैं, बड़े बड़े नेताओं, अधिकारियों द्वारा चरण स्पर्ष कराते हैं, एक बड़े जन सैलाब को अपने पीछे चलाते हैं तो हमारी श्रद्धा बढ़ती जाती है । गुरू यदि आशीर्वाद देकर हमारा रूका हुआ कार्य करा देते हैं, पदोन्नति, स्थानान्तरण, व्यवसाय में बृद्धि, लड़की की शादी जैसे कार्य आसान करते रहते हैं तो उन पर हमारा विश्वास दृढ़ होता जाता है । यद्यपि सद्गुरू का इन कार्यों से कोई सम्बन्ध नहीं होता । वह तो शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति का कारक होते हैं । सत्पथ पर चलने के लिये मार्ग दर्शक होते हैं । मोक्ष का सेतु होते हैं ।

गुरू दीक्षादान करते हैं । विद्या प्रदान करते हैं । देवता का परिचय देते हैं । उन्नति की राह बताते हैं । राह के अवरोधों को दूर करते हैं । चूँकि ये कार्य मानसिक या आध्यात्मिक धरातल पर होते हैं शिष्य उन्हें न तो देख पाता है और न जान ही पाता है । उसे तो निष्ठा पूर्वक निर्देशित क्रिया कलापों में रमे रहना होता है । उसे यह भी पता नहीं चलता कि उसकी कितनी उन्नति हुई है । कभी कभी अहँकार के वशीभूत होकर वह अपनी शक्तियों का उपयोग भी करना चाहता है और असफल हो जाता है । ऐसी स्थिति में शिष्य में अश्रद्धा उपजती है । गुरू से प्राप्त विद्या का अभ्यास तो करता है पर बेमन से ।

सँशय या बेमन से किया गया कोई भी कार्य सफल नहीं होता । अघोरेश्वर कहते हैं कि अश्रद्धा के परिणाम स्वरूप गुरू से प्राप्त विद्या के साधन में जो समय, शक्ति लगना था वह बढ़ जाता है । साधक अपने लक्ष्य से न केवल दूर हो जाता है वरन् कभी कभी लक्ष्यभ्रष्ट या मार्ग हीन होकर लक्ष्य को खो देता है । यह स्थिति बड़ी विकट है । साधक में यह अश्रद्धा कब उत्पन्न हो जायेगी नहीं कहा जा सकता । गुरू, मँत्र और देवता इनमें से किसके प्रति अश्रद्धा होगी यह जानकर सतर्क हो पाना कठिन है । इसका एक ही उपाय हो सकता है कि साधक को हर तीन माह में गुरू के चरणों के दर्शन करना चाहिये । सेवा करनी चाहिये और अपनी स्थिति, विचार से उनको अवगत कराकर मार्गदर्शन हेतु निवेदन करना चाहिये । इस बीच गुरू के वचनों का पारायण तथा मनन चिंतन तो चलते ही रहना चाहिये ।
                                                                ०००


मंगलवार, अप्रैल 28, 2015

अघोर वचन -11

" यह हाड़ मांस की देह गुरु नहीं है गुरू वह पीठ है जिसके द्वारा व्यक्त किया हुआ विचार तुम में परिपक्वता का पूरक होगा । यदि तुम उसे पालन करते रहोगे, तो गुरूत्व को जानने में सर्व प्रकार से समर्थ होओगे । गुरू तुम्हारे विचार की परिपक्वता, निष्ठा की परिपक्वता, विश्वास की परिपक्वता हैं ।"
                                                                     ०००
अघोर पथ में गुरु का स्थान सर्वोपरी है । अध्यात्म के अन्य क्षेत्रों में सामान्यतः शिष्य गुरु बनाता है, लेकिन अघोर पथ में ऐसा नहीं है । श्रद्धालु का, भक्त का, औघड़, अवधूत से निवेदन करने से दीक्षा, संस्कार हो जावे यह अवश्यक नहीं है । यहाँ गुरु शिष्य को चुनता है । हमें यह प्रक्रिया अन्य सिद्धों के मामले में भी दिखाई देती है । पूर्व में लाहिड़ी महाशय का चुनाव उनके गुरु बाबा जी महाराज ने किया था और अपने पास बुलाकर उन्हें दीक्षा देकर साधना पथ पर अग्रसर कराया था । स्वामी विवेकानन्द जी का चुनाव रामकृष्ण देव ने किया था । और भी अनेक उदाहरण हैं । स्पष्ठ है कि यह शिष्य के अधिकार की बात है । अनेक जन्मों के संचित सत् संस्कार जब फलीभूत होते हैं तो शिष्य का क्षेत्र, अधिकार, पात्र तैयार हो जाता है और दीक्षादान हेतु गुरु के हृदय में करुणा का संचार हो जाता है । इस प्रकार दीक्षा घटित होती है । शिष्य के अधिकार के अनुसार गुरू उसका संस्कार करते हैं ।

महात्मन रामानन्द जी ने कहा थाः "निगुरा बाभन न भला, गुरुमुख भला चमार ।" यदि चमार गुरुमुख था तो रसोई से लेकर पूजा तक और रामानन्द जी के सानिध्य में उसको वही आदर का स्थान प्राप्त था जो किसी भी उच्च वर्ण वाले को था ।

हम देखते हैं कि दीक्षा दान गुरू (सशरीर) करते हैं । गुरू के मुखारबिन्द से निर्देश, ज्ञान का प्रकाश, विचार आदि निनादित होते हैं । इन सब के कारण गुरू को सशरीर हम पूजते हैं । श्रद्धा करते हैं । आदर देते हैं और शरीर के बिना हम उनकी कल्पना भी नहीं करते ।

अघोरेश्वर हाड़, मांस का देह, जो कि नश्वर है, गुण धर्म से बंधा हुआ है, को गुरू नहीं मानने के लिये कहते हैं । गुरु का चिन्मय रूप ही यथार्थ में गुरू है । गुरू की आत्म सत्ता से ही शिष्य को दीक्षा दान प्राप्त होता है, आगे का मार्ग तय होता है, अँगुली पकड़ कर चलाया जाता है और मानव जीवन के लक्ष्य मोक्ष को हस्तगत कराया जाता है । वे कहते हैं कि शरीर नहीं गुरू तत्व को अपनाओ । उनके विचार को हृदयंगम करो । उनके द्वारा बतलाये गये मार्ग में चलो । उन्होने जिस समय, जिस ढ़ँग से, जो कार्य सम्पन्न किया है उसका अनुशरण करो । यही सब आपको चैतन्य करेगा । गुरूपीठ का पहचान करायेगा एवँ सब प्रकार की वाँक्षा को पूर्ण करेगा ।

जब मनुष्य गुरू तत्व से सँयुक्त हो जाता है फिर उसे मँत्र, क्रिया, देवता किसी की भी आवश्यकता नहीं रह जाती । वह सर्व समर्थ, परिपक्व एवँ चिन्मय हो जाता है ।
                                                                                    ०००



सोमवार, अप्रैल 27, 2015

अघोर वचन - 10

" लोग कहते हैं कि यह मन यदि अच्छे से मान जाय तो बहुत कुछ हो सकता है । मगर मैं कहता हूँ कि नहीं होता है । मन को मानने से नहीं होगा । मगर हाँ, मन यदि मन में हो, मन बेमन का न हो, तब तो कुछ काम सुलझेगा । यदि मन, मन में ही न हो और मन बेमन का हो गया हो, तब तो मन के वन में मन को ढ़ूढ़ते हुए क्लेश, वेदना सहना ही होगा ।"
                                                                               ०००

भारतीय ॠषि महर्षियों से लेकर आधुनिक युग के फ्रायड और कार्ल जुँग जैसे मनोवैज्ञानिक मन को जानने, पहचानने और साधने के लिये बहुत मेहनत करते रहे हैं । उन्हें किन्ही स्तरों पर सफलता भी मिली है । सबने मानव मात्र को मन के विषय में अपने अनुसंधान के परिणामों से अवगत भी कराया है । अब हम मन के विषय में पहले से अधिक जानकारी रखते हैं । मन अच्छे से मान जाय का अर्थ है मन सहज ही एकाग्र हो जाय । ऐसा माना जाता है कि एकाग्रता से बहुत कुछ पाया जा सकता है ।

साधारण मनुष्य के लिये एकाग्रता बड़ी उपलब्धि हो सकती है । एकाग्र मन शक्तिशाली हो उठता है । अध्ययन, चिंतन, मनन के लिये एकाग्रता की बड़ी आवश्यकता होती है । अघोरेश्वर कहते हैं कि मन की एकाग्रता से कुछ हो सकता है पर बहुत कुछ नहीं । क्योंकि मन की एकाग्रता एक क्रिया है जो करने से होता है । इसकी अवधि सीमित है ।  इसके बाद मन फिर अपने रास्ते चल पड़ता है ।

हम देखते हैं कि हमारा शरीर कहीं होता है और मन कहीं और । हम कुछ कार्य करते हैं पर उस कार्य में हमारा मन नहीं लगता । कभी कभी हम अपने आस पास से निर्लिप्त हो जाते हैं । हमें पता ही नहीं चलता कि क्या हो रहा है । इसे कहते हैं मन का बेमन होना । वचन में कहा गया है कि मन यदि मन में हो यानि हम चैतन्य हों । वर्तमान में हों । स्थान, काल से निरपेक्ष न हों तो कहा जायेगा मन मन में है । इसके विपरीत की स्थिति को बेमन कहा जायेगा ।

मनुष्य को हमेशा चैतन्य होना चाहिये । वर्तमान में रहना चाहिये । शरीर और मन का तारतम्य बनाये रखना चाहिये । इससे मन अपने आप में रहेगा । बेमन का नहीं होगा और हमें मन में उठने वाले विचारों के महा सागर में स्थिरता, शाँति हेतु महत् प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होगी । मानसिक क्लेश और वेदना से भी हमारा बचाव हो जायेगा ।
                                                                                         ०००

शुक्रवार, अप्रैल 24, 2015

अघोर वचन - 9

" आज मनुष्य राम, कृष्ण, शिव, साधु और महात्माओं का ध्यान तो करते हैं किन्तु क्या वे कभी अपना भी ध्यान करते हैं ? मनुष्य जब तक स्वयँ अपने प्रति दया नहीं करेगा, अपने को गन्दगी में गिरने से रोकने का प्रयास नहीं करेगा तब तक उसकी सभी पूजा अर्चना निरर्थक है ।"
                                                          ०००

समग्र धरती पर निवास करने वाले मनुष्य ईश्वर को मानते हैं, उसकी पूजा करते हैं । ईश्वर को स्थान, भाषा, जाति, धर्म के अनुसार अलग अलग नाम, रूप दिया गया है, पर आस्था में समानता है । इस पूजा, ध्यान, या और जो भी नाम हो से मनुष्य क्या पाता है, कैसे पाता है, यह एक बृहद विषय है । अलग विषय है । ध्यान, पूजन अर्थपूर्ण है । उससे मनुष्य को वाँक्षित लाभ प्राप्त होता है यह निश्चित है ।

हम देखते हैं मनुष्य नियम से रोज पूजा अर्चना करता है, पर न तो उसकी समस्यायें दूर होती हैं और न उसे सुःख शाँति ही नसीब होती है । इसके कारणों की चर्चा इस वचन में किया गया है । आप्त वाक्य है " ध्येय जितना पवित्र होगा साधन को भी उतना ही पवित्र होना चाहिये" । यहाँ ध्येय ईश्वर है और साधन मनुष्य है । ईश्वर तो परम पवित्र है, पर साधन रूप मनुष्य भी क्या उतना ही पवित्र है । यदि है तो ध्येय प्राप्ति सरल है और नहीं तो कठिन से भी कठिनतर है ।

मनुष्य को पहले अपने मन और शरीर को साधना चाहिये । शरीर स्वस्थ रहे । सबल रहे । यह परम आवश्यक है । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है । मन के कलुश अनेक हैं, जैसे लोभ, मोह, काम, क्रोध, आदि आदि, उन्ही के कारण मन हर समय चलायमान रहता है । हम इनको मन से हटा नहीं सकते । इनको दबाने से ये छुटकारे की प्रबल चेष्टा करते हैं जिससे मन और भी अधिक असंतुलित होकर मनुष्य को तृष्णा के भँवर में फँसा देता है । मनुष्य को सदैव सचेष्ट रहकर मन के इन विकारों पर दृष्टि रखनी चाहिये । मन में उठती तृष्णा की विचार लहरियों पर न अटक कर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये । इससे मन निर्मल होगा एवँ स्थिरता आयेगी जो धीरे से शाँति में बदल जायेगी । इस शाँत मन से की गई प्रत्येक पूजा, अर्चना सफल होगी और वाँक्षित लाभ प्राप्त होगा ।
000










शनिवार, अप्रैल 18, 2015

अघोर वचन - 8

" बन्धुओ ! मैत्री और मित्र की बहुत बड़ी परिभाषा है । मित्र का दुःख सच्चे मित्र के लिये सभी दुःखों से बड़ा होता है । मित्र हमेशा अच्छे कार्यों के लिये प्रेरणा देता है । घटिया कार्यों के लिये प्रेरणा न देकर हमेशा मुनाफा के कार्य करने की प्रेरणा देता है ।"
                                                               ०००
दो लोगों के जब विचार मिलते हैं, मन मिलता है, निकटता होती है, आकर्षण होता है तब मैत्री की शुरूआत होती है, फिर वे एक दू्सरे का सुख - दुःख बाँटने लगते हैं । कुछ अँतराल के पश्चात उनके सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती जाती है और वे मित्र बन जाते हैं । मित्रता न तो आर्थिक, सामाजिक स्तर से प्रभावित होती है और न ज्ञान, शरीर सौष्ठव, या अन्य किसी बात से । इतिहास मित्रों की कथाओं से भरा पड़ा है । पुरातन काल में हुये कृष्ण और सुदामा की कथा इसका एक अन्यतम उदाहरण है ।

आज के जमाने में मित्र सस्ता एवँ बहु उपयोगी शब्द के रूप में व्यवहृत होने लगा है । सोशल मिडिया में बिना परिचय, केवल इन्टरनेट पर चित्र तथा व्यक्तित्व की दी गई सही - गलत जानकारी के आधार पर मित्र बन जाते हैं । एक व्यक्ति के हजारों मित्र होते हैं । इस मित्रता के पीछे सबका अपना, अपना स्वार्थ छिपा होता है । इस प्रकार की मित्रता का फेस - बुक - मित्रता एक अच्छा उदाहरण है । अन्य और अनेक इसी तरह की मित्रता के मँच हैं ।

विपरीत लिंग के आकर्षण में काम - तुष्टि के लिये भी मित्रता का उपयोग करते अनेक लोग देखे जाते हैं । इस प्रकार के मित्र बनने बनाने के लिये अनेक वेब - साइटें प्रचलित हैं । वेब - साइट संचालित करने वालों के लिये यह व्यापार है जबकि उसमें सम्मिलित होने वाले स्त्री पुरूष के लिये वासना तृप्ति का साधन । यह किसी भी तरह से मित्रता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता ।

मनुष्य के जीवन में बड़े भाग्य से एक या दो सच्चे मित्र मिलते हैं । ये निस्वार्थ भाव से मित्र के हर सुख दुःख में साथ निभाते हैं और अपने सुख दुःख में मित्र को सम्मिलित करते हैं । ये मित्र को कुमार्ग में जाने से रोकते हैं । अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा ही नहीं देते स्वयँ भी साथ चलते हैं ।

जीवन में कभी कभी दुर्भाग्यवश मनुष्य को सच्चा मित्र नहीं भी मिलता, अतः मित्र को जाँचे - परखे बिना अपनी गोपनीय बातें नहीं बतानी चाहिये अन्यथा मान - हानि होने की संभावना है ।
                                                                   ०००





शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

अघोर वचन - 7

" हम दुसरों के बारे में ही चिंतन करने, दूसरों के अनाप - सनाप विचारों की चोरी डकैती करके उसे अपना विचार कहकर अपने साथी मित्र तथा स्वजनों में बाँटकर वाहवाही लूटने जैसे दुष्कृत्य में संलग्न हैं । ठीक ऐसी ही मनोदशा है हमारे देश की ।"
                                                               ०००
आत्मविश्वास की कमी, मेहनत से बचने की प्रवृत्ति, नैतिक पतन और लालसा आदि कुछ ऐसे कारण हैं कि हम एक ऐसे दुष्चक्र में फँस चुके हैं जिसके कारण हम पका पकाया माल खाना चाहते है । पकाने का कष्ट करना नहीं चाहते । हमारी दृष्टि दूसरों पर लगी रहती है कि वे क्या नया कर रहे हैं । हमें उनसे आसानी से क्या मिल सकता है । इस मनोदशा के कारण न तो हम कुछ नया कर पाते हैं और न हमें पुराने के विषय में ज्ञान ही होता है । हम दूसरों पर निर्भर रहने के लिये अभिशप्त हो चुके हैं । इस मनोदसा के कारण हम पतन की गहरी खाई की ओर खिंचते चले जा रहे हैं और हमें पता भी नहीं है ।

इस क्रम में हमारा इतना अधिक नैतिक पतन हो चुका है कि हम नजर बचाकर हथियाने, दूसरों के विचार या रचनाओं को मामुली फेर बदल कर अपने नाम से प्रचारित करने, सरकारी सहायता से जीवन चलाने एवँ आगे बढ़ने हेतु जोड़तोड़ करने आदि कृत्यों को बिना लाज, संकोच के करने लगे हैं । ये कृत्य दुष्कृत्य ही कहे जायेंगे ।

स्वराज प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी हम अपने में वैज्ञानिक दृष्टि विकसित नहीं कर सके हैं । आज भी तकनीक के मामले में हम पिछड़े ही कहे जायेंगे । भ्रष्टाचरण, अनुशासनहीनता और कामचोरी हमारे खून में शामिल हो चुका है । दूसरे देशों पर हमारी निर्भरता, यहाँ तक कि सुरक्षा मामलों में, हमें कमजोर, परमुखापेक्षी, तथा दीन हीन बना देती है । यह एक खतरनाक एवँ विचारणीय तथ्य है ।
                                                                 ०००

गुरुवार, अप्रैल 16, 2015

अघोर वचन - 6

" मनुष्य की दुर्बलतायें उसकी दृष्टि तथा वाणी को विक्षुब्ध कर देती है । उस विक्षुब्धता की स्थिति में वह गलत और सही को समझ नहीं पाता है । यदि समझता भी है तो सिर्फ यही समझता है कि हमीं सब समझ बैठे हैं । ऐसे समझने वाला अपमानित एवँ प्रताड़ित होकर निरादर का पात्र होता है ।"
                                                                ०००
दुर्बलता दो प्रकार की होती है । पहली है शारीरिक दुर्बलता । कोई अँग भँग हो जाय, जीर्ण रोग हो जाय या बृद्धावस्था आ जाय तब शरीर दुर्बल हो जाता है । अपना कार्य सुचारू रूप से नहीं कर सकता । नित्य नैमित्यिक कार्यों के लिये भी दूसरों पर निर्भर हो जाता है । दूसरी है मानसिक दुर्बलता । कहा गया है कि पुष्ट एवँ सबल शरीर में ही स्वस्थ्य मन रहता है यानि शरीर यदि निर्बल हो गया तो मन भी दुर्बल हो जायेगा । चेतन मन और अवचेतन मन में किन्ही कारणों से असँतुलन हो जाय तो मन दुर्बल हो जाता है । ऐसी अवस्था आ जाती है कि मनुष्य पागलपन की सीमा में चला जाता है । कुछ ऐसे कारण भी होते हैं जिनकी जानकारी नहीं हो पाती पर मन को दुर्बल कर देते हैं ।

इन दुर्बलताओं के चलते मनुष्य अपनी सहज अवस्था को खो देता है और आचार, विचार और व्यवहार से असंतुलित हो जाता है । उसे अपनी गलती का भान ही नहीं होता । वह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या सही है क्या गलत । वह वाणी से, जो कि उसके मन का प्रतिबिम्ब होता है, अनर्गल बातें कहता है । इसे ही दृष्टि और वाणी का बिक्षुब्ध होना कहा जाता है ।

मनुष्य यदि अपने आचार, व्यवहार और वाणी से संतुलन खोकर अपव्यवहार में संलग्न हो जाता है, दूसरों के कष्ट का कारण बनने लगता है तो लोग उसे बुद्धिहीन कहकर अपमानित करने लग जाते हैं । समाज में उसका आदर जाता रहता है । वह इस कारण से प्रताड़ित भी होता है ।
                                                                ०००


बुधवार, अप्रैल 15, 2015

अघोर वचन - 5

" यों तो मलमूत्र का हमारा शरीर है फिर भी हम कहते हैं कि बड़ा पवित्र है । सभी लोग बड़े पवित्र भी बने रहते हैं । दुष्कृत्यों में लिप्त होकर भी अपनी पवित्रता का प्रदर्शन करते हैं ।"
                                                            ०००

शरीर का निर्माण पँच तत्वों ( धरती या मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश ) से हुआ है । इन तत्वों के सँयोग और बियोग से या यों कहें रासायनिक क्रियाओं से शरीर के अवयव, रस, रक्त, धातु तथा अवशिष्ट के रूप में मल, मूत्र आदि का निर्माण होता है । शरीर के रहते तक यह प्रक्रिया अनवरत रूप से चलती रहती है । शरीर इन अवशिष्ट पदार्थों से कभी भी खालि नहीं होता, वरन् आयुर्वेद कहता है " मलं ही बलं च" अर्थात शरीर का बल मल है ।

पवित्रता एक मनः - सापेक्ष शब्द है । जिन कार्यों से मन में सद् विचार उदय हों, भगवद् भक्ति में मन रमे, परोपकार करने की इच्छा जगे एवँ प्रफुल्लता का भान हो पवित्रता में शामिल होते हैं । साधारणतः हम स्नान करके धुले वस्त्र धारण कर स्वयँ को पवित्र मान लेते हैं जबकि शरीर में मल, मूत्र और अन्य गँदगियाँ भरी रहती हैं । अनेक बार हम शार्टकट अपनाते हैं और हाथ पाँव धोकर, मन्त्र स्नान करके या गँध, चन्दन मलकर भी पवित्र होना मान लेते हैं । समाज में जाति मूलक पवित्रता का भी अस्तित्व दिखता है ।

पिछले कुछ समय में हमने कुछ तथाकथित पवित्र आत्माओं को देखा है जिनके अनेक दुष्कृत्य उजागर हुये हैं । समाज को ऐसी पवित्रता से सदा ही हानि उठनी पड़ती है । ये पवित्रता के नाम पर मानव मात्र को अपवित्र कर रहे हैं ।
                                                              ०००



मंगलवार, अप्रैल 14, 2015

अघोर वचन - 4

" हम लोग जो स्वर्ग और नर्क इत्यादिक में जो बाँटते हैं और कामना करते हैं कि हमें वह मिलेगा, तो स्वर्ग कोई दूसरी चीज नहीं है जो शरीर के बगैर भोगा जा सकता है । शरीर के बगैर स्वर्ग क्या करेगा ? सत्कर्म ही स्वर्ग का स्वरूप है । कर्म शरीर के माध्यम से होते हैं । जब व्यक्ति अच्छे कर्म करता है तो वह नर से नारायण का पद प्राप्त कर लेता है । परन्तु यदि नर रहा और नर्क के कीड़े मकोड़ों की तरह जीवन बिताता रहा तो कीड़े मकोड़े की तरह जन्म लेकर मर जायेगा ।"
                                                                 ०००

धरती पर के सभी धर्मों के आचार्यों ने स्वर्ग और नर्क का बखान किया है । नाम कुछ भी हो चीज वही है । इन दोनों को मनुष्य की घुट्टी में ऐसे पिला दिया गया है कि मनुष्य स्वर्ग की कामना करता है । वहाँ जाना चाहता है । वहाँ के भोगों को भोगना चाहता है । नर्क कोई भी जाना नहीं चाहता ।

अघोरेश्वर किसी वैज्ञानिक की तरह स्थिति को विश्लेषित करते हैं और कहते हैं कि मानव शरीर कर्म का आधार है । शरीर के बिना कोई भी कर्म या भोग सँभव ही नहीं है । इसे मानव के लाखों वर्षों की विकास यात्रा में देखा भी जा चुका है कि मनुष्य जब तक जीवित है, यानि कि शरीर है, तभी तक कर्म है, धर्म है, काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, सुख है, दुःख है । शरीर त्यागने के बाद क्या कहाँ जाता है किसी ने न देखा है और न कोई लौट आकर बताया है, क्योंकि मृत्यु के तत्काल बाद शरीर के तत्वों का विघटन शुरू हो जाता है, जिसे न तो रोका जा सकता है और न ही उलटाया ही जा सकता है ।

मानव के कर्म को नैतिकता के प्रतिमानों, सामाजिक नियमों, विकास के मानदन्डों के आधार पर सत्कर्म और दुष्कर्म इन दो श्रेणियों मे बाँट दिया गया है । जीवन कर्म बन्धन से बँधा हुआ है । शरीर और मन के सभी हलचल यहाँ तक कि स्वाँस भी कर्म के अन्तर्गत गिने जाते हैं । मनुष्य के वे कर्म जिनसे उसे सुख की प्राप्ति होती है एवँ अन्य किसी को दुःख नहीं पहुँचता, जिनसे स्वयँ सुखी होता है और अन्य को भी सुख मिलता है, जिनसे अन्य को सुख मिलता है और अपनी हानि नहीं होती या कभी कभी हानि हो भी जाती है, सत्कर्म कहलाते हैं । इस प्रकार के कर्मों से मनुष्य को सुख तो मिलता ही मिलता है, उसे अन्यों से प्रेम, श्रद्धा, विश्वास तथा आदर मिलता है । यही स्वर्गोपम उपलब्धि है । स्वर्ग लाभ है । स्वर्ग में रहना है । इसके विपरीत के सारे कर्म व्यक्ति को हीन अवस्था की ओर ले जाते हैं और उसका जीवन कीड़े मकोड़े की भाँति कहा जाता है ।
                                                                    ०००









सोमवार, अप्रैल 13, 2015

अघोर वचन - 3

" मन के चलते भोगों का सुख चिरस्थायी नहीं होता । क्षणिक है और क्षणिक सुख में दुःख ही दुःख भरा हुआ है । हम सीमित रहें । हर परिस्थिति में अपनी खुशियों को ढ़ूढ़ें । मन की गुलामी की बेड़ी से छूटना मुश्किल है । सबकी बेड़ी से छूटा जा सकता है लेकिन मन की बेड़ी से गुलाम बना हुआ व्यक्ति हर जगह मार खाता है ।"
                                                            ०००
मन बड़ा वेगवान है । विचार, कल्पनाओं, की धारायें प्रतिपल मन को जाने कहाँ कहाँ बहा ले जाती रहती हैं । स्थिरता इसके स्वभाव में ही नहीं है । मन इन्द्रियों को नियँत्रण में लेकर भोगों का सुख लेता है । इन्द्रियों की सीमा है । वे उसके बाद अशक्त हो जाती हैं । उनमें बिरूपता आ सकती है, अक्षमता आ सकती है , परन्तु मन की कोई सीमा नहीं होती । शरीर के बृद्ध हो जाने, शिथिल हो जाने, अशक्त हो जाने के बाद भी मन नित नवीन बना रहता है । वह शरीर की शिथिलता, अक्षमता की उपेक्षा कर अपने ढ़ँग से सुखोपभोग की चेष्टा करता है । मन की इसी चँचलता के कारण भोगों का सुख चिरस्थायी नहीं हो पाता । मन सुख भोग के क्षण ही सँयुक्त रहता है । उसके तत्काल बाद वह और कहीं रमने लगता है । इसी कारण सुख भोग क्षणिक बन जाता है । मन बार बार उस सुख को पाना चाहता है और न पाने से दुःख उपजता है ।
दुःख से निवृत्ति के उपाय के रूप में बतलाया गया है कि भोग के लिये मन और शरीर की सीमा होती है, उसे पहचानना होगा । मन और शरीर का संतुलन बिठाकर पहचानी गई सीमा तक सुख भोग करना उचित है । मनुष्य को अपनी परिस्थिति जानकर उसके अनुरूप ढ़लना सीखना चाहिये तथा उसी के भीतर सुख प्राप्ति की आकाँक्षा करनी चाहिये । चेष्टा करनी चाहिये ।

मन जब मनुष्य के इन्द्रियों पर अधिकार कर लेता है एवँ उसे अपने ढ़ँग से सँचालित करने लगता है तब उसे कहते हैं मन की गुलामी की बेड़ी में जकड़ा हुआ । अष्ट पाशों की बेड़ी से मनुष्य छूट सकता है यदि मन उनमें सँयुक्त ना हो । यदि मन ही अनियँत्रित हो गया और मनुष्य मनमाना करने लगा तो ऐसा व्यक्ति का भगवान ही मालिक है । उसका क्या होगा यह कोई नहीं कह सकता ।
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रविवार, अप्रैल 12, 2015

अघोर वचन - 2

" हम सब जगे हुए भी सोये रहते हैं, और सोये हुए भी मनुष्य जगा हुआ रहता है । जो जगा हुआ रहता है वह दुःख से भगा हुआ रहता है । जो सोया हुआ रहता है वह हर दुःख का सपना देखता रहता है ।"
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सामान्यतः सोना, जागना को हम शारीरिक क्रिया में गिनते हैं । वास्तव में यह क्रिया मानसिक है । शरीर जब थक जाता है, स्थिर होकर शक्ति सँचय करता है । शरीर तो यँत्र मात्र है । उसमें सोने जागने जैसा कुछ भी नहीं है । सोता मन है । मन जब शरीर की सारी इन्द्रियों से अपना सम्पर्क शिथिल कर लेता है, विचारों के वेग को अत्यँत धीमा कर लेता है और एकाग्रता की ओर बढ़ने लगता है तब हम कहते हैं कि व्यक्ति सो गया । इससे उलट अवस्था जागरण की होती है ।

उपरोक्त के अलावा भी सुसुप्ति की एक और अवस्था होती है । इस अवस्था में व्यक्ति सामान्य रूप से तो जगा रहता है परन्तु इन्द्रियों के भोग, नानाप्रकार की तृष्णाओं, अहँकार, आदि के विचारों में उसका मन इस कदर वेगवान होकर लिप्त रहता है कि उसे सँसार नहीं दिखता । अपने कर्तव्य से वह विमुख हो जाता है । दुःख और अशान्ति उसे घेर लेते हैं । इसे कहते हैं । जगे हुए सोना ।

लगभग सभी मनुष्य सोते समय भी अपनी शरीर की ओर आने वाले खतरे से सावधान हो जाने का नैसर्गिक गुण रखते हैं । इसे सोये हुए मनुष्य का जगा होना नहीं कह सकते । जब मनुष्य अपने समस्त क्रिया कलाप तो समान्य ढ़ँग से करता रहता है परन्तु उसका मन उनमें लिप्त नहीं होता । उदासीन रहता है । निरपेक्ष रहता है । निरहँकार भाव को प्राप्त हो जाता है । तब हम उसे सोया हुआ मान सकते हैं । ऐसे व्यक्ति बाह्य रूप से तो सोया रहता है लेकिन उसका आँतरिक सँसार सजग रहता है । अपने लक्ष्य के प्रति सचेष्ट रहता है । सँसारिक सम्बन्धों, इन्द्रियों के भोग की वास्तविकता, तथा अपने नैसर्गिक स्वरूप की उसे स्पष्ठ जानकारी रहती है ।
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शनिवार, अप्रैल 11, 2015

अघोर वचन - 1



"भगवान ने हमें दूसरों के उपकार और सत्कार के लिये दो हाथ दिये हैं । यदि हम इनसे दूसरों का उपकार- सत्कार नहीं कर सके तो कम से कम अपना तो कर ही सकते हैं । ये दोनों हाथ किसी पर कीचड़ या ईंट - पत्थर फेंकने के लिये नहीं हैं ।"
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भारतीय मनीषा ने मानव जीवन के विविध पहलुओं पर गहन चिंतन कर व्यक्ति तथा समाज के सर्वांगीण विकास तथा आनन्द को उपलब्ध करने की महती आकाँक्षा को परिपूर्ण करने के लिये कतिपय नियम, निर्देश तथा परम्पराओं की पहचान की है ।  उपकार और सत्कार ये दो सत्कर्म उन्ही में से हैं । यहाँ धन एवँ समयदान से उपकार करने की अनिवार्यता नहीं है । ये स्वेक्षिक हैं । हाँ ! दो हाथ को हम मन कर्म वचन मान सकते हैं ।

मानव का स्वयँ पर उपकार तभी सँभव है जब वह कर्म करे । लक्ष्य प्राप्ति एवँ लाभ की गलियाँ कठिन परिश्रम से होकर ही जाती हैं, जिसके बिना मानव जीवन में सुखभोग दिवा स्वप्न बनकर रह जाता है ।


कीचड़, ईँट और पत्थर प्रतीक हैं मानव के अपव्यवहार के । इनसे आलोचना, निंदा, चुगली, गाली-गलौज तथा धन जन की हानि जैसे और भी सारे कर्मज दोषौं से मुक्ति  पाने के लिये अभिप्रेत है ।
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