मंगलवार, जून 30, 2015

अघोर वचन -38


" जिसे जीवित जागृत प्राणियों से प्रेम नहीं होता उसे मँदिर में बैठे पत्थर के देवता और मस्जिद के शून्य निराकार ईश्वर से प्रेम नहीं हो सकता । "
                                                      ०००
प्रेम सकारात्मक ऊर्जा है । जब हम स्वस्थ होते हैं, प्रसन्न होते हैं, तनाव में नहीं होते हैं तभी प्रेम की ऊर्जा सक्रीय होती है । अस्वस्थता में, दुःख में मानव आत्म केन्द्रित हो जाता है । उसके मन की भाव दशा नकारात्मक हो जाती है । उसका सरोकार सिमट कर अपने शरीर अथवा दुःख के कारणों तक सीमित हो जाता है । ऐसी दशा में वह प्रेम नहीं कर सकता । आज धरती पर चहुँ ओर नकारात्मक ऊर्जा व्याप्त है । मानव ने स्वयँ ही अपने आप को, अपने सरोकारों के साथ सीमित कर लिया है । उसके हृदय में प्रेम के पुष्प खिलने बन्द होते जा रहे हैं । प्रेम के नाम पर वासना का घिनौना खेल चल रहा है ।

हृदय में जब प्रेम के पुष्प खिलते हैं, सारे संसार का रँग बदल जाता है । दृष्टि बदल जाती है । स्वाद बदल जाता है । आनन्द के अनोखे श्रोत फूट पड़ते हैं । सर्वत्र उल्लास  का वातावरण स्वयमेव निर्मित होने लगता है । मनुष्य में सकारात्मक ऊर्जा का अतिरेक हो जाता है जो उसके चाल, ढ़ाल, व्यवहार के माध्यम से आसपास बहने लगता है । प्रेम में जाति, धर्म, लिंग, जीवित, निर्जीव, मनुष्य, पशु, अपना, पराया जैसा कुछ नहीं होता । इसीलिये प्रेम को ईश्वर का रूप निरूपित किया जाता रहा है ।

वचन में इँगित किया गया है कि जिसके हृदय में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह हो रहा होता है, वह एक सीमित दायरे में अपने आप को कैद कर लेता है । वह प्रेम के आस्वाद से वँचित हो जाता है । उसे किसी भी प्राणी से प्रेम नहीं होता । ऐसा व्यक्ति प्रेम की क्रिया से अनभिज्ञ हो जाता है । इसीलिये वह चाहे कितना ही पूजा के उपचार कर ले, मँदिर में, मस्जिद में समय बिता ले उसे पत्थर के देवता या उस निराकार से प्रेम नहीं हो सकता । प्रेम के बिना उसकी पूजा, पाठ, प्रार्थना निरर्थक हो जाते हैं ।

हमें हृदय को नकारात्मक ऊर्जा से रहित कर फूल के जैसा कोमल, सुगन्धित और पवित्र बनाना होगा, फिर प्रेम की गँगा में अवगाहन करना होगा । यदि हम इतना कर पाये तो हमारी साधना पूर्ण हुई समझो । हमें आत्म साक्षात्कार के लिये अलग से प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होगी ।
                                                                          ०००



 

मंगलवार, जून 23, 2015

अघोर वचन - 37


" दैहिक प्रेम प्रेम नहीं है । वह तो मोह ममता है । वास्तविक प्रेम तो उस ममता को नष्ट कर देने में है । आत्मिक प्रेम ही वास्तविक प्रेम है । आत्मिक प्रेम का जो आचार्य है उसकी शरण में जाओ । वह तुम्हें प्रेम का विराट् रूप दिखलाएगा । वह तुम्हारे हृदय में ही है ।"
                                           ०००
प्रेम एक सापेक्ष शब्द है । इसका स्वरूप में भी पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है । कभी यह माँ की ममता के रूप में निखरता है तो कभी देशप्रेम के रूप में दिब्यत्व की ओर कदम बढ़ाते दिखता है । कभी हृदय की अतल गहराईयों से आकर मन को अभिभूत कर देता है तो कभी दैहिक आकर्षण का रूप धरकर विकृत होता नजर आता है । प्रभु प्रेम में मीरा दीवानी हो जाती है, देशप्रेम में सैनिक आत्म बलिदान के लिये तत्पर हो जाता है, यौवन की दहलीज चढ़कर दो प्रेमी समाज को अमान्य कर घर से भाग जाते हैं, पुत्रमोह में पिता अपने वँश का सर्वनाश कर लेता है, कुर्सी के लिये नेता जनता को ठगता है, लूटता है और किसी भी सीमा को लाँघ जाता है, ऐसे प्रेम के कई रूप हैं, रँग हैं, ढ़ँग हैं । आजतक प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सका है ।

दैहिक प्रेम प्रेम का स्थूल रूप है । न इसमें गहराई है और न विस्तार । यह देह से शुरू होकर देह में ही समाप्त भी हो जाता है । इसमें प्राप्ति की उत्कंठा है । अप्राप्ति में निराशा और दुःख है । इसीलिये कहा गया है कि यह प्रेम नहीं है । मोह ने, ममता ने रूप बदला है । वास्तविक प्रेम या आत्मिक प्रेम में उतरने के लिये इस मोह को हमें हटाना होगा ।

आत्मिक प्रेम का आचार्य कौन है ? हम कैसे जानेंगे ? इस कठिन प्रश्न को हल करने के लिये हमें लाहिड़ी महाशय, रामकृष्ण परमहँस, बाबा कीनाराम, अघोरेश्वर भगवान राम जी, साईंराम, आदि संतों के जीवन को देखना होगा । यदि ऐसे कोई आचार्य मिलें तो उनकी शरण जाना चाहिये । वही हमारे हृदय में छुपे प्रेम के उस विराट स्वरूप को उदघाटित करेंगे । उस आत्मिक दिव्य प्रेम से हमारा परिचय करायेंगे । यही उदघाटन, परिचय हमें आत्म कल्याण के पथ पर अग्रसर करेगा ।
                                                                              ०००







शुक्रवार, जून 19, 2015

अघोर वचन -36


" जहाँ नीति बरतनी है, अनुशासन बनाये रखना है वहाँ पर व्यवहार में साधुताई की आवश्यकता नहीं होती । साधुताई से काम नहीं चलेगा । वहाँ पर किसी के भी अनिष्ट की भावना का त्यागकर " हृदय प्रीति मुँह वचन कठोरा " वाली नीति का पालन करना होगा । हृदय में प्रीति अवश्य हो मगर शब्द इतने कठोर हों कि शायद वचन सुनकर वह सही रास्ते पर लौट आवे । उस समय वाणी की नम्रता घातक होगी तथा बुरी स्थिति को जन्म देगी ।"
                                                       ०००
व्यक्ति को साधु प्रकृति का होना चाहिये । साधु की जिस प्रकार आवश्यकतायें कम होती हैं, दुसरों के लिये जीता है, अपना समय सेवा में लगाता है, सबकी हित चिन्ता किया करता है, अपने आप को स्वच्छ और पवित्र रखता है आदि आदि, ठीक वैसे ही पूरा पूरा तो सम्भव नहीं है परन्तु जितना सम्भव हो सके हमें भी साधु के ढ़ँग को अपनाना चाहिये । इस कार्य, व्यवहार की साधुताई से हमारा जीवन तो सुखमय होगा ही होगा हमारे आसपास भी अच्छा वातावरण बनेगा, लोगों को सत्कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा मिलेगी ।

नीति, अनुशासन और व्यवहार में साधुताई के विषय में एक कथा है । एक स्थान में एक विषैला सर्प निवास करता था । जो भी उस ओर जाता सर्प उसे काट लेता । सर्प के काटने से कई लोग मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे । लोगों ने उस ओर जाना छोड़ दिया । एक संत अनजाने ही सर्प के निवास की ओर आ निकले । सर्प संत को काटने के लिये दौड़ा पर संत के उपदेश से उनका शिष्य बन गया । गुरू को वचन दिया कि वह लोगों के मृत्यु का कारण नहीं बनेगा । उस दिन से उसने लोगों को काटना छोड़ दिया । लोगों को धीरे धीरे इस बात की जानकारी होती गई । लोग उधर से आने जाने लगे । उसे चुपचाप पड़ा देखकर कभी कभी यूँही पत्थर मार देते । हालत यह हो गई कि बच्चों के लिये वह खेल का वस्तु बन गया । बच्चे डर से पास तो नहीं जाते थे पर दूर से पत्थर, कँकड़ मारते थे । सर्प लहुलुहान हो जाता पर संत को दिये वचन के कारण किसी को नहीं काटता था । एक दिन वही संत उस ओर से निकले । वहाँ पहुँचने पर उन्हें सर्प का ध्यान आया । वे उस स्थान पर गये देखा तो सर्प लहुलुहान होकर अधमरा पड़ा है । उनके पूछने पर सर्प ने सारा किस्सा कह सुनाया । संत उसकी बात सुनकर दुखी हुये । उन्होने सर्प से कहा कि तुम्हें लोगों को काटना नहीं था परन्तु अपने बचाव में फुंफकार तो सकते थे । यही है हृदय प्रीति मुँह वचन कठोरा का सुन्दर उदाहरण ।

आज शासन प्रशासन में बैठे लोगों से इसी प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा की जाती है ।
                                                                 ०००
 


 

रविवार, जून 14, 2015

अघोर वचन -35


" गलत कर्मों की तरफ प्रेरित करने वाले मित्र नहीं होने चाहिये । क्योंकि उससे हमारा स्वास्थ्य खराब होता है, मस्तिष्क क्षीण होता है और हम तरह तरह की व्याधियों को जन्म दे सकते हैं ।"
                                                              ०००

कर्म का गलत सही होना कब होता है ? यह विचारणीय प्रश्न है । इस पर विचार करने से पता चलता है कि जिन कर्मों से मानव शरीर के विकास में बाधा आती है, शारीरिक नुकसान झेलना पड़ता है, मानसिक दशा बिगड़ती है, मन अनुशासन, नैतिकता जैसे सामाजिक मुल्यों की अवहेलना करता है, मानव पशु वृत्ति अपना लेता है, को गलत कर्म कहा जाता है । इनसे इतर जो कर्म हैं वे सत्कर्म कहलाते हैं ।

हम गलत कर्म में मित्रों के बहकावे में, उकसावे में, संग साथ में, प्रेरित करने से प्रवृत होते हैं । कई बार हम स्वयँ ही गलत कर्म की ओर आकर्षित होकर शुरू कर देते हैं, परन्तु ऐसा कम ही होता है । हम देखते हैं कि नशेड़ियों का, भँगेड़ियों का, जूआड़ियों का, शोहदों का, छेड़छाड़ करने वालों का, मारपीट करनेवालों का, आदि आदि गलत कर्म करने वालों का गुट होता है । वे आपस में मित्र होते हैं । एक दूसरे को प्रेरित करते हैं । साथ देते हैं ।

वचन में कहा गया है कि हमारे ऐसे मित्र यदि हों तो हमें उनका संग साथ छोड़ देना चाहिये । गलत कर्म से तत्काल किनारा कर लेना चाहिये । कहा जाता है " जब जागे तभी सबेरा ।" यह सही है कि गलत कर्म व्यक्ति को बहुत आकर्षित करते हैं । यदि हमारा मन थोड़ा भी कमजोर हुआ कि हम गलत कर्म में प्रवृत हो जाते हैं । यह भी सही है कि गलत कर्मों का छूटना असम्भव सा लगता है । बड़ी कठिनाई से छूटता है । मौका पाकर फिर पकड़ लेता है । यह बताता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क क्षीण होता जा रहा है । उसकी आत्म शक्ति बलवान नहीं रही । उसका शरीर गलत कर्मों के प्रभाव से व्याधियों की क्रिया स्थली भी बनता जाता है ।
                                                                  ०००


मंगलवार, जून 09, 2015

अघोर वचन -34

" हमारी बातें शायद आप ठीक से सुन नहीं पाते हैं या सुन पाते हैं तो समझ नहीं पाते हैं । समझ पाते हैं तो कर नहीं पाते हैं और कर भी पाते हैं तो शायद जिस ढ़ँग से होना चाहिये उस ढ़ँग को अपने ढ़ँग में जोड़ नहीं पाते हैं । यही कारण है कि आप सब कुछ से वँचित रह जाते हैं ।"
                                                       ०००
यह गुरू शिष्य संवाद का अँश है । शिष्य की ठीक ठीक आत्मोन्नति न होते पाकर गुरू कारणों की पहचान करा रहे हैं ।

कहा जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त जब भी कोई संत के समीप जाता है । उनकी मनोदशा को पहचान कर, जब वे प्रसन्न हों, निकट जाना चाहिये । उनके सामने हमें मुद्रित होकर स्थिर बैठना चाहिये । उनसे अपना मन्तव्य स्पष्ठ, कम शब्दों में और कोमल स्वरों में निवेदन करना चाहिये । उसके बाद अपने श्रवणेन्द्रिय, हृदय तथा मन को स्थिर कर सावधान मुद्रा में संत वचन को हृदयंगम करना चाहिये ।

संत और श्रद्धालु, गुरू और शिष्य, शिक्षक और बिद्यार्थी के बीच घटने वाली कथन और श्रवण की यह महत्वपूर्ण घटना के विषय में योगाचार्य रजनीश जी ने बड़ी महत्व की बात कही है, जो इस प्रकार है  "तुम थोड़े से शब्द सुनते हो और बाकी के खाली स्थानों पर अपने शब्द डाल लेते हो और सोचते हो कि तुमने मुझे सुना। और तुम जो भी यहां से ले जाते हो वह तुम्हारी अपनी रचना है, तुम्हारा अपना धंधा है। तुमने मेरे थोड़े से शब्द सुने और खाली जगहों को अपने शब्दों से भर दिया; और तुम जिनसे खाली जगहों को भरते हो वे पूरी चीज को बदल देते हैं ।"

इस वचन में एक महत्वपूर्ण बात और है, वह है " जिस ढ़ँग से होना चाहिये उस ढ़ँग को अपने ढ़ँग में जोड़ नहीं पाते हैं ।" इससे स्पष्ठ है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग ढ़ँग होता है । सँत, गुरू जो बताते हैं उसका भी एक ढ़ँग होता है । श्रद्धालु, शिष्य को प्राप्त ढ़ँग और अपने ढ़ँग में तारतम्य बैठाना होता है और अपने ढ़ँग में आवश्यक फेर बदल करके सँत के, गुरू के ढ़ँग में ढ़ल जाना होगा । तभी हम उन्नति के पथ पर अग्रसर होंगे । हमारा ईष्ट, हमारा लक्ष्य हमें मिलेगा । हम सफलकाम हो पायेंगे ।
                                                          ०००




रविवार, जून 07, 2015

अघोर वचन ‍- 33

" साधु के वेश में जो अपकृत्य करते हैं, देवी देवताओं के नाम पर धोखा देते हैं, जो अपनी जिव्हा पर नियँत्रण नहीं रखते हैं, अपकृत्य करके हाथ गँदे करते हैं, वे जिस बाजार में जाते हैं तौल दिये जाते हैं जैसे २, ४ रूपये पर रास्ते के दरिद्र सिपाही तौल दिये जाते हैं ।"
                                                         ०००

साधु की पहचान उसका वेश है । साधु नाना प्रकार की वेशभूषा धारण करते हैं । सामान्यतः गेरूआ रँग के वस्त्र धारण करने वाले साधु बहुतायत में मिलते हैं । इसके अलावा काली कफनी ताँत्रिकों, फकीरों का, स्वेत वस्त्र कीनारामी, वैष्णव एवँ जैन साधुओं का, लँगोटी तथा भभूत रमाये शैव तथा अघोरियों का, बिना वेशभूषा के नग्न रहना नागा तथा दिगम्बर जैन साधुओं का आदि आदि साधुओं की वेशभूषा होती है ।

लोग घरबार त्यागकर भगवत भजन में जीवन लगाने के उद्देश्य से साधु बनते हैं । कई बार ऐसा होता है कि घरबार को त्यागना, काम, क्रोध, लोभ, मोह से दूर रहना और भक्ति में साधु का मन नहीं रमता । उसका मन वासनाओं के वशीभूत होकर अपकृत्य यानि ऐन्द्रिक सन्तुष्टि के लिये गलत रास्ते पर चल पड़ता है । ठगी करता है । भक्तों को देवी, देवताओं के नाम पर डराता है । धोखा देता है । कुकृत्य करता है । छुपकर वह सब कार्य करता है जो सांसारिक मनुष्य भी करने के लिये हिचकते हैं ।

पिछले दिनों अनेक साधुओं की पोल खुली है । कुछ तो जेल में हैं । कुछ न्यायिक प्रक्रिया झेल रहे हैं । कुछ दुबककर अपने फैले हुये कारबार को गुपचुप ढ़ँग से चलाये हुये हैं । आज स्थिति यह हो गई है कि लोग साधु के नाम से ही बिदकने लगे हैं । श्रद्धा तो दूर की बात है लोगों का मन विश्वास करने के लिये भी राजी नहीं है । जब भी कभी आमना सामना हो जाता है कुछ दान दक्षिणा देकर पिण्ड छुड़ा लेते हैं । इसी को कहते हैं तौल दिया जाना यानि साधु का मोल चन्द रूपयों से लगा दिया जाता है ।
                                                            ०००  

मंगलवार, जून 02, 2015

अघोर वचन - 32

" यदि कोई ऐसे संत मिलें जो थिर हों, भक्तिपूर्ण हों, अपने अभ्यन्तर की चेतना के प्रकाश के प्रति जागृत हों, तृप्त हों, जिनकी बुद्धि पर पोथी नहीं लदी हो, सरल हों सु - भाव में, ऐसे व्यक्ति का उसी प्रकार अनुसरण करें जैसे गौ के बछड़े अपनी माँ गाय का अनुसरण करते हैं ।"
                                                         ०००

इस वचन में कही गई बातों, स्थितियों की जानकारी पाना या परीक्षा करना एक सामान्य मनुष्य के लिये असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । उसे जब स्थिरत्व की न तो अनुभव है और न जानकारी ही है तो कैसे जाने कि संत महाराज थिर हैं कि नहीं । अभ्यंतर की चेतना का प्रकाश तो और भी सूक्ष्म है और जानना उतना ही कठिन भी । हाँ संत के स्वभाव तथा पोथी के विषय में कही गई बातों को संत का साथ करके, गहन निरीक्षण से किसी हद तक जाना जा सकता है । पहचाना जा सकता है ।

आज जो संत बहुप्रचारित, बहुश्रुत और प्रसिद्ध हैं उनकी बुद्धि पर लदी हुई पोथी दूर से ही दीखती है । उनका मूल्याँकन उनके शास्त्र ज्ञान से ही किया जाता है । उनका आडंबर पूर्ण प्रवचन, कौतुक पूर्ण व्याख्यान तथा अनुसरण करने की कठिनाईयाँ उनका सरल नहीं होना दर्शाती हैं । सु भाव के विषय में तो कुछ कह पाना यथार्थ की जगह आरोपित ही अधिक रहता है ।

उक्त कठिनाईयों के हल के लिये हमें कुछ बातों का ख्याल रखना होगा । पहला यह कि जिन किन्ही के विषय में हम जानना चाहते हैं वे प्रवचनकार या व्याख्याकार न होकर संत होना चाहिये । संत शास्त्र की नहीं अनुभव की बात करते हैं । शास्त्र में उनकी बातों का विवरण मिल जाय ऐसा हो भी सकता है । दूसरा यह कि संत को शिष्य बनाने, प्रचारित होने या ज्ञान बघारने की उत्कँठा नहीं होती । तीसरा यह कि संत के समीप जाने मात्र से मन थिर होने लगे, शाँति का अहसास हो और ईश्वर की याद आये । चौथा और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि हमारा अभ्यँतर यह कहने लगे कि यही वे हैं जिनकी मुझे खोज है ।

इन सब गुणों से युक्त व्यक्ति को गुरू के रूप में ग्रहण करना चाहिये । उनका संग साथ करना चाहिये । उनका अनुसरण करना चाहिये । श्रद्धा करना चाहिये । पूजा करनी चाहिये ।
                                                                                  ०००