गुरुवार, मई 28, 2015

अघोर वचन -31

" जगत के किसी भी नाशवान पदार्थ, यहाँ तक कि पार्थिव शरीर तक से जिसको अनभिज्ञता हो जाय उसे ही सहज समाधि, स्वात्मा, अज्ञात और बोधमय चित्त की उपलब्धि होती है । बोधमय चित्त में फिर कोई, किसी का चिंतन नहीं होता । उसमें चित्त ही चित्त का चिंतन करता है । यह अवस्था प्राप्त करने पर इस पार्थिव शरीर में अपने आप कुंठित कंठ से धुन उत्पन्न होने लगती है, तरंगें उत्पन्न होने जगती हैं, इन्द्रियाँ निगृहित हो जाती हैं और मस्तिष्क के शुष्क तंतु जागृत हो उठते हैं ।"
                                                    ०००

जगत में जितने भी पदार्थ हैं सभी नाशवान हैं । महाप्रलय में यह धरती, ग्रह, नक्षत्र सभी का नाश हो जाता है । मनुष्य अपना शरीर सामान्यतः 70 से 100 वर्षों के भीतर छोड़ देता है ।

अनभिज्ञता को समझने के लिये एक कथा सुनते हैं । महर्षि व्यास पुत्र सुकदेव घर छोड़कर अरण्य जाने लगे । पुत्र मोह में व्यास जी घर लौटने के लिये गुहार लगाते उनके पीछे दौड़े । सुकदेव आगे आगे व्यास देव पीछे पीछे । आगे एक तालाब था जिसमें युवा कन्यायें वस्त्रहीन होकर स्नान कर रही थीं । सुकदेव अपने में मस्त उस तालाब से आगे निकल गये । कन्यायें यथावत स्नान करती रहीं । जब महर्षि व्यास तालाब के पास पहुँचे तो कन्याओं ने झट दौड़कर वस्त्र उठा लिया और अपने शरीर को ढ़ँक लिया । कन्याओं को ऐसा करते देखकर महर्षि व्यास जी ने पूछा कि उनके इस व्यवहार का क्या कारण है । उन कन्याओं ने कहा कि सुकदेव जी इस संसार से अनभिज्ञ हैं । उन्हें तो स्त्री और पुरूष के भेद का भी नहीं पता, जबकि आपकी स्थिति ऐसी नहीं है । इसलिये हमने ऐसा व्यवहार किया । सुकदेव जी सहज समाधि में निमग्न रहते थे । संसार से अनभिज्ञ थे ।

अनभिज्ञता की स्थिति की प्राप्ति के लिये उपाय के रूप में संत कबीर दास जी ने इस प्रकार कहा है ।
" तनथिर मनथिर सुरतनिरतथिर होय ।
कह कबीर इस पलक को, कलप न पावे कोय ।।"

साधक जब आसनस्थ होकर शरीर को स्थिर कर लेता है, मन को विक्षेपों से अलग हटाकर एक लक्ष्य पर स्थिर करता है और स्मृति को गुरू प्रदत्त मँत्र में लगाकर स्थिर हो जाता है तब उसे न तो यह संसार भाषता है और न शरीर की ही सुध बुध रह जाती है । तभी अनभिज्ञता घटित होती है ।
                                                                   ०००



  

सोमवार, मई 25, 2015

अघोर वचन -30

" देवता का आगमन.......पहले अपने में उसका आविर्भाव होता है । अपना मन खुद ही महसूस कर लेता है । हाँ ! यह ऐसा ही होगा, हो जायेगा । पहले ही महसूस कर लेता है । जब अपना मन महसूस नहीं करता है तब आप सोचिये कि कहीं मुझमें त्रुटि है । और उस त्रुटि के कारण मुझे बहुत दूर दिख रहा है, अन्धकार दिख रहा है । वह त्रुटि मैं कैसे सुधारूँ ? यह अपने उन महाजनों से पूछिये ।"
                                                     ०००

धरती के सभी मनुष्य उस अज्ञात को अपनी भाषा में कोई नाम देकर, कल्पना के रँगों से रँगा हुआ कोई आकार देकर, निराकार मानकर भी अनेक गुण आरोपित कर, आदि नाना प्रकार से जानते है, मानते हैं, पूजते हैं, प्रार्थना करते हैं । इस प्रकार की क्रियाओं में शरीर तो नियुक्त रहता ही रहता है, धन भी लगता है और समय भी लगता है । जहाँ कहीं भी किसी मनुष्य पर उस अज्ञात की कृपा बरसती है तो उसे मालुम चल जाता है । उसके मन में कुछ अलग प्रकार का अनुभव होने लगता है । सबकुछ सुहावना सा हो जाता है । गुनगुनाने का मन करता है । नाचने का मन करता है । एकाँत में रहने का मन होता है । उस समय वह बिल्कुल नहीं सोचता कि लोग क्या कहेंगे । मैं कैसा दिख रहा हूँ । उसे समय, काल आगा, पीछा, सुन्दर असुन्दर कुछ भी तो नहीं सूझता । यह सब दिव्यत्व का आविर्भाव होने से होता है ।

अधिकाँश मनुष्य में दिव्यत्व का आविर्भाव नहीं होता या वह जान नहीं पाता । अघोरेश्वर कहते हैं हर मनुष्य में इसकी पूरी संभावना मौजूद है कि उस अज्ञात का, दिव्यत्व का आविर्भाव हो, तभी तो वे कहते हैं कि यदि कोई ऐसा महसूस नहीं करता तो वह समझे कि उसमें, उसकी पूजा में, प्रार्थना में कहीं कोई त्रुटि है ।

अपनी त्रुटि मनुष्य को खुद पहचाननी होती है । उसे भगवत तत्व दूर दिखता है । चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखता है । मुँह से प्रार्थना के रटेरटाये बोल फूटते रहते है और दृष्टि कहीं होती है तो मन कहीं और होता है । फूल चढ़ाना, दीप दिखाना, घन्टी बजाना या शँख फूकना रोज के नियम की तरह निपटाये जाते हैं व्यक्ति उस समय कहीं और होता है । जाप करते समय ध्यान सुमेरू की तरफ लगा रहता है कि कब आये । दिखावा एक ऐसा तत्व है जो हमारी पूजा, प्रार्थना में अनिवार्य रूप से उपस्थित होता है । ये सब अपनी त्रुटियाँ हैं जो हमें नहीं दिखती ।

यदि मनुष्य अपनी त्रुटियाँ पहचान लेता है तो सुधार के लिये उसे संत, महात्माओं के निकट बैठकर सीखना चाहिये ।
                                                                ०००   

शनिवार, मई 23, 2015

अघोर वचन- 29

"जब किसी काम को होना होता है तो उसका पहला एक लक्षण, दो लक्षण अपने सामने से गुजर जाता है । हम मार्क करें तो हम यह समझ सकते हैं कि अब उसका आगमन होने वाला है, और सचेत हो जाँय, और सचेत हो जाँय । और नहीं यदि हम ऐसे ही गुमराह में पड़े हैं तो गुमराह में पड़े रहेंगे ।"
                                                             ०००

मनुष्य विशेष करके गृहस्थ के जीवन में अनेक काम बड़े महत्व के होते हैं जैसे बच्चों की शिक्षा, शादी, मकान बनाना, आदि आदि । व्यक्ति पहले किसी काम के होने की कामना करता है, फिर प्रयत्न । कभी काम सध जाता है कभी नहीं सधता । वचन में कहा गया है कि हम थोड़ा स्थिर चित्त होकर घट रही घटनाओं पर ध्यान दें, संयोगों को पहचानने के लिये सचेष्ट हों तो जब काम को होना होता है तब उसके आसार दिखने लगते हैं । ऐसा संयोग बनता चला जाता है कि काम यथासमय पूर्ण हो जाता है । हम साधारणतः इन लक्षणों को, संयोगों को कभी पहचान पाते हैं और कभी नहीं पहचान पाते । स्थिर चित्त होंगे तो पहचानने लगेंगे ।

भगवत भक्त, साधक के जीवन में साधना के कई पड़ाव होते हैं । वही उसका काम है । जब गुरू कृपा या भगवत कृपा साधक पर होने वाली होती है तो उसके लक्षण पहले ही प्रकट होने लगते हैं । साधक का हृदय उल्लास से भरने लगता है । बिघ्न बाधायें दूर भाग जाती हैं । उपासना में मन रमने लगता है, आदि । साधक इन लक्षणों को देख समझ कर सचेत हो जाता है । वह जान जाता है कि उस अज्ञात की कृपा उस पर होने ही वाली है । वह धन्य हो उठेगा ।

काम के सधने में इस प्रकार की जानकारी का बड़ा महत्व है । कभी कभी जब काम होने वाला ही होता है हम अनजाने में वापस हो लेते हैं, काम को छोड़ देते हैं, प्रयत्न में शिथिलता आ जाती है और होने वाला काम भी नहीं होता । जब मनुष्य लक्षण पहचान लेता है, वह प्रयत्न में और भी अधिक गँभीरता से जुट जाता है । उसे छोड़ता
नहीं ।
                                                              ०००

गुरुवार, मई 21, 2015

अघोर वचन - 28

" वह पूर्ण विश्वास दे कि तुम्हें मैं अपनाया, और तुम अपना ही हमें भी मानो, और हम, जो तुम में है, उसे ही समझो । वही मेरी आत्मा, वह है । जो इस तरह करने के लिये मुझे बाध्य कर के इस विशेष अवस्था तक पहँचाया, जब इतना हो जाता है तब उसका दुलार, प्यार, लाड़ और वह आनन्द और वह सुख विभोर होता है । उसे कहा जाता है अवधूत, सन्त, महात्मा, महापुरूष ।"
                                                       ०००

यह वचन आध्यात्मिक साधना की सम्पूर्ण क्रिया विधि का विवरण समेटे हुये है । गुरू के समक्ष शिष्य के समर्पण करने से लेकर संत में रूपान्तरित होने तक की त्रुटिहीन प्रक्रिया का आलेखन अघोरेश्वर जैसे अधिकारी पुरूष द्वारा ही संभव है । जो जिस राह चला हो वही उस रास्ते का हाल बता सकता है । उसके अवरोधों, कठिनाईयों, आलोक या अँधकार का विवरण देकर मार्गदर्शन कर सकता है । ऐसा ही मार्गदर्शन साधक को सिद्ध और फिर महापुरूष बनने में सहायक होता है । अघोरियों में एक कहावत प्रचलित है कि गुरू शिष्य नहीं बनाता, वह तो गुरू बनाता है ।

श्रद्धालु जब अवधूत, संत, महात्मा के समक्ष ज्ञान के लिये निवेदन करता है तब दीक्षा देकर गुरू रूप में वे विश्वास देते हैं कि वे शिष्य के अपने हैं । यहाँ गुरू शिष्य की आत्म स्थिति एकीकरण की ओर बढ़ती है । गुरू आगे स्पष्ठ करते हैं कि हे ! शिष्य हम ही तुममें हैं । तुम कोई और नहीं हो । यह अद्वैत की स्थिति है । आगे है कि तुममें जो मैं, आत्मा के रूप में हूँ, उसी को तुम्हें समझना है । जानना है । मानना है ।

गुरू, शिष्य के हृदय में स्थापित हो जाता है । यह स्थापना शिष्य को हर समय सचेत करती रहती है । शिष्य कभी भी अपने को अपने ईष्ट से, अपने देवता से दूर नहीं पाता । उसके लिये सब कुछ आसान हो जाता है । धीरे धीरे उसके संचित संस्कारों का क्षय होता जाता है और वह परमानन्द में डूबकर सुखविभोर हो जाता है । इसी स्थिति को कहते हैं अवधूत, सन्त, महात्मा और महापुरूष ।
                                                                ०००

मंगलवार, मई 19, 2015

अघोर वचन - 27

"पाप के हटने ना हटने से, पुन्य के उदय होने न होने से जीव का उद्धार हो जाय सो समझ में नहीं आता । पूर्णतः मान्य नहीं होता । पूर्णतः मान तो तभी होता है कि उस अज्ञात के साथ वार्तालाप हो, पहुँचें, मिलें, मिलने के बाद देखा देखी हो, देखा देखी के बाद वह के पास हम बैठें और वह मुझे बैठावे, और इसको क्या कहते हैं... उपासना । उप्य आसन ।"
                                           ०००

तीन बातें हैं । पाप, पुन्य और उद्धार । संसार के सभी धर्मों में किसी ना किसी नाम, रूप से ये तीनों बातें पाई जाती हैं । कहा जाता है कि पापी का उद्धार नहीं होता, उद्धार के लिये पुन्यात्मा होना जरूरी है । अब यह कौन बताये कि मनुष्य का उद्धार कैसे होगा, क्या करना होगा, पाप कैसे हटे, पुन्य कैसे उदय हो, आदि आदि । इसका उत्तर तो उद्धारकर्ता ही दे सकता है और उद्धारकर्ता है वह अज्ञात, परमेश्वर ।

अघोरेश्वर साफ साफ कहते हैं कि पाप और पुन्य का मनुष्य के उद्धार में कोई सरोकार नहीं है । पाप न करने भर से किसी का उद्धार होने से रहा । पुन्य एकत्र करके कोई उद्धार हो लेगा सही नहीं लगता क्योंकि दोनों ही स्थितियों में उद्धारकर्ता वह ईश्वर अनुपस्थित है । उद्धार करना नहीं करना उसी का निर्णय है ।

वचन कहता है कि मनुष्य का उद्धार तभी होता है जब वह उस अज्ञात, जो उद्धारकर्ता है, से मिले । अज्ञात से कैसे मिलें ? उपासना से । हमारी उपासना ऐसी हो कि उनके आसन के समीप हमारा भी आसन लगे और उन्हें हम साकार देखें, बात करें, उनके पास बैठें आदि आदि । परन्तु मनुष्य के लिये उस अज्ञात से ऐसा होना सम्भव नहीं दिखता । फिर क्या हो?

इसके लिये दो वाक्य की एक कविता कही गई है । " भजन तजन के मध्य में हम करें विश्राम । हमारी भजन राम करें, हम करें आराम ।" अर्थात उपासना के मध्य में ऐसी स्थिति बने कि अपने में ना कुछ उदय हो ना अस्त । स्वयँ को खो दें यानि विश्राँति में चले जाँय और हमारी जो उपासना है, भजन है वह करे हमारा आत्माराम । अब बात स्पष्ठ हो गई कि जब मनुष्य का आत्माराम भजन करेंगे तो वह अज्ञात अज्ञात नहीं रह जायेगा । और उस मनुष्य का उद्धार निसंदेह होना है ।
                                                                  ०००
  

रविवार, मई 17, 2015

अघोर वचन - 26

" शुद्ध मन जिन कार्यों की अनुमति नहीं देता, उन्हें ऐसे कार्यों के लिये मत मनाओ, मत उकसाओ, अन्यथा वह बोझिल एवँ दुस्सह हो उठेगा । अनुचित कार्यों के लिये मन पर दबाव डालने से मस्तिष्क पर कुप्रभाव पड़ेगा और कंठ कुण्ठित हो जायेगा ।"
                                                               ०००

विकार रहित मन शुद्ध मन कहा जायेगा । मन के मुख्यतः चार विकार कहे गये हैं । १, काम २, क्रोध ३, लोभ ४, मोह । मनुष्य का मन इन जैसे अनेक वृत्तियों से मिलकर बना है अतः मन अपनी वृत्तियों से रहित नहीं हो सकता । जब तक मन की ये वृत्तियाँ अपनी स्वाभाविक अवस्था में होती हैं तब तक ये विकार नहीं कहलाती । लेकिन जब मनुष्य काम, क्रोध, लोभ और मोह का दास हो जाता है । मन हर हमेशा इनकी चिन्ता में लगा रहता है, ये अस्वाभाविक रूप से उग्र हो जाते हैं और मनुष्य का सम्पूर्ण अस्तित्व उस वृत्तिमय हो जाता है तब मन शुद्ध नहीं रह जाता अशुद्ध कहा जाता है । ऐसा अशुद्ध हुआ मन मनुष्य को गलत रास्तों की ओर ले जाता है ।

मन की शुद्धि के लिये उससे लड़ने की जरूरत नहीं है । महापुरूषों, संतों ने इसके लिये दो उपाय बताये हैं ।

पहला यह कि हम जागरूक हों । मन के क्रियाकलापों पर दृष्टि रखें । ये वृत्तियाँ जब भी विकार का रूप ग्रहण करने लगें हम इन्हें पहचानें, देखें और विचार करें । इतना ही विकार के शमन के लिये पर्याप्त है ।  

दूसरा है मन को किसी लक्ष्य पर टिकाये रखना । इसके लिये अजपा जाप की विधि सर्वोत्तम है, हालाँकि सबके लिये यह सँभव नहीं होता । कई लोग स्वाँस पर मन को टिकाने, गुरू मँत्र का निरँतर जाप करते रहने और सद् वृत्तयों जैसे मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा आदि को बढ़ावा देने की विधि भी बतलाते हैं ।

कोई भी कार्य, चाहे वह गलत हो या सही, को करने का कारण हमारा मन है । यही मन गलत सही का निर्णय भी करता है । हमें रोकता भी है । हमें टोकता भी है । वचन में यही कहा गया है कि जब भी मन रोके, टोके हम उस पर ध्यान दें । सही गलत को परखें । ना कि मन को ही मनाने लग गये । इससे मन जो सूक्ष्म है स्थूल होने लगेगा । बोझिल हो जायेगा । हम भ्रमित हो जायेंगे । हमारा मस्तिष्क इस अवस्था में अस्वाभाविक व्यवहार करने लगेगा जो निश्चय ही हमारे लिये शुभ नहीं हो सकता ।
                                                                 ०००




शुक्रवार, मई 15, 2015

अघोर वचन - 25

" हम अभ्यन्तर से अपने इस त्रिगुणात्मक स्थिति से अवगत हो जायें और इस पीठ में हम अपने आप को स्थापित कर लेते हैं तो इसी में वह गुरूपीठ है, इसी में वह शक्तिपीठ है और यही हमारी ही आत्मा, हम ही वह सर्वगुण और रूपों में और अच्छे कर्मो की तरफ प्रेरित करती है ।"
                                                       ०००

गुण तीन बतलाये गये हैं, सत्, रज और तम । सत् गुण में सात्विकता, नैतिकता और पवित्रता होती है । रज गुण की राजस प्रकृति होती है । तम गुण में तामसिक प्रकृति यानि नष्ट भ्रष्ट करने की प्रवृत्ति होती है । यह संसार त्रिगुणात्मक कहा गया है । कोई भी गुण बन्धन से अछूता नहीं है । मनुष्य में तीनों ही गुण होते हैं, परन्तु मात्रा की भिन्नता होती है । जिस गुण की प्रधानता होती है शरीर के अवयव भी उसी गुण के अनुरूप ढ़ले होते हैं । जो स्वच्छ मन और निर्मल दृष्टि सम्पन्न हैं उन्हें गुणों की यह मात्रात्मक भिन्नता दिखती है ।

वचन में कहा गया है कि मनुष्य अपने भीतर इन तीन गुणों की मात्रात्मक भिन्नता और उसके प्रभाव को पहचाने । यह नैसर्गिक स्थिति है । ईश्वर प्रदत्त है । पहचान होने पर हम जान सकेंगे कि हममें कौन सा गुण प्रबल है । किस गुण की मात्रा कम है । इससे हम अपने जीवन की वास्तविक दशा और दिशा भी जान सकेंगे । यह वैसा ही है जैसा कि खुद को जानना । पहचानना । यह है अपने भीतर झाँकना । अभ्यँतर में प्रवेश ।

मनुष्य के भीतर के इन गुणों की पहचान हो जाने पर वह एक स्थिति पर पहुँच जाता है । वह स्थिति ही पीठ कहा गया है और स्थापित कर लेने का अर्थ है स्थिति को यथावत रखना । इतनी यात्रा पूर्ण कर लेने के बाद मनुष्य स्वभावतः गुरू तत्व, शक्ति तत्व एवँ आत्म तत्व से परिचित हो जाता है । गुरू तत्व से ज्ञान, शक्ति तत्व से शक्ति तथा आत्म तत्व से निर्मलता, पवित्रता आती है । ऐसे व्यक्ति के कर्म बन्धन धीरे धीरे शिथिल होते जाते हैं और वह साधारण मनुष्य की श्रेणी से उपर उठ जाता है ।
                                                          ०००


बुधवार, मई 13, 2015

अघोर वचन - 24

" यदि आप विवाहित हैं तो उस एक नारी ब्रह्मचारी के नियम का पालन करें । जब कोई आसक्ति नहीं, उस मातृय को आप जानने लगेंगे तो आप का मन वैसे ही सुगम हो जायेगा । आप जो भी कार्य करेंगे सफलता को प्राप्त करेंगे ।"
                                                                ०००

अविवाहित, सन्यासी के लिये क्या सभी साधकों के लिये ब्रह्मचर्य पालन करना आवश्यक है । यदि साधक विवाहित है तो उसे एक नारी ब्रह्मचारी के नियम का पालन करना चाहिये । यहाँ तक तो बात सहज लगती है । सरल लगती है । कुछ एक अपवादों को छोड़कर सभी विवाहित कहेंगे कि हाँ वे इस नियम का पालन करते हैं । ये बात कुछ अँशों में सत्य भी है ।

एक नारी ब्रह्मचारी का यह सरल सा नियम उस समय कठिन या असम्भव सा जान पड़ने लगता है जब आसक्ति का प्रश्न उपस्थित होता है । मानव मन के अनेक रँग हैं । इसी संदर्भ का एक छोटा सा वाकया है । युरोप के एक जगत प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ने लिखा है कि उसकी शादी एक चर्च में हुई । उसकी प्रेमिका जिसे वह दिलोजान से चाहता था, उसकी पत्नि बनी । दोनों विवाह के बाद एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले चर्च से घर जाने के लिये निकले । चर्च के गेट से बाहर आते ही उस मनोवैज्ञानिक को एक अत्यँत सुन्दर सी महिला दिखी । वह ठगा सा उसे देखता रह गया । उसने स्पष्ट शब्दों में उस समय की अपनी मनःस्थिति को और अपने इस कृत्य को स्वीकार किया है । यह आसक्ति का ही एक रूप है ।

जब विवाहित साधक एक नारी ब्रह्मचारी के नियम से बँधा होगा, उसके मन में लेस मात्र भी आसक्ति नहीं होगी तब वह मातृय यानिकि मातृ तत्व से अपरिचित नहीं रह सकता । साधक में इस स्थिति के विकास होते होते इतनी निर्मलता, इतनी पवित्रता आ जाती है कि वह फलों से लदी डाली की तरह झुक जाता है । सुगम हो जाता है ।   सहज हो जाता है ।

साधना पथ के पथिकों के लिये यह किसी सिद्धि से कम महत्व की नहीं है ।
                                                                       ०००






मंगलवार, मई 12, 2015

अघोर वचन - 23

" सुधर्मा ! तुम्हें यह पूर्णतः जान लेना होगा और जान कर अपने आप में, उस अज्ञात के चरणों में, व्यवहारिक अन्वेषण करना होगा । व्यवहारिक न होने के कारण दर्शन या फिलासफी बिल्कुल अधूरे हैं । दर्शन और फिलासफी अपने को, अपनी बुद्धि को, सत्य से अपरिचित रखता है । सत्य एवँ उस अज्ञात की दया और कृपा ही व्यवहारिक है ।"
                                                         ०००

मनुष्य का मन भी बड़ा विचित्र है । वह जानता है पर अनजान सरीखे जिये चला जाता है । मृत्यु अकाट्य सत्य है सब जानते हैं पर धन, सम्पत्ति, मान, सम्मान जोड़ते हुये ऐसे जीते हैं जैसे अनजान हों । यह जानना अपूर्ण है । अघोरेश्वर सुधर्मा यानिकि धर्म के, अघोर पथ के पथिक को कहते हैं कि जो तुम जानते हो उसे पूर्णतः जानना ।  उस जानने को मानना भी । शँका, अविश्वास के रहते पूर्णतः जानना नहीं होगा । दुनियाँ से अपने आप को अलग करके मत देखना । अपने पक्ष में कोई अतिरिक्त आशा मत पालना कि जानकर भी अनजान बन जाओ ।

जानना क्या है ? यह मूल प्रश्न है । मनुष्य को उपलब्ध शरीर और मन में नित्य जो घट रहा है उसे जानना है । संसार में अपने आसपास जो घट रहा है उसे भी जानना है । स्थिति निरपेक्ष होकर जानना है । समय निरपेक्ष होकर जानना है । और पूर्णतः जानना है । इस जानने के बाद अपने आप में उस जानने वाले को भी जानना है । उस अज्ञात को भी जानने सरीखे होना होगा । यही जानना व्यवहारिक अन्वेषण होगा ।

प्राचीन काल से ही भारत में दर्शन या फिलासफी की बहुलता रही है । डा० आंबेडकर ने अपनी पुस्तक " भगवान बुद्ध और उनका धर्म " में उल्लेख किया है कि भगवान बुद्ध के समय भारत में तिरसठ दर्शन प्रचलित थे । इन सभी दर्शनों ने अलग अलग या मिलकर भी एक बुद्ध पैदा नहीं कर सके क्योंकि दर्शन अधूरे हैं । कोरे सिद्धांत हैं । व्यवहारिक नहीं हैं । जल पर बड़े बड़े सिद्धांत रचकर प्यास नहीं बुझाई जा सकती । उसके लिये तो जल पीना पड़ेगा । जल पीना सत्य है । व्यवहार में आता है ।

सत्य जब व्यवहार में आ जाता है तो कुछ भी अनजाना नहीं रहता । सब कुछ दिखने लगता है । यही उसकी दया है । परमेश्वर, अज्ञात भी सत्य व्यवहार के पक्ष में होते हैं । सत्यनिष्ठ पर उनकी कृपा होती है ।
                                                            ०००




रविवार, मई 10, 2015

अघोर वचन - 22

" मैं नहीं कहता हूँ कि तुम इतना ही समझकर स्थिर हो जाओ । वह पूरी समझ नहीं है । इससे और आगे बढ़ो । इससे आगे और कुछ है, उससे भी आगे बहुत कुछ है, जिन्हें तुम्हे जानना है, जानकर अपनाना है, अपनाकर अपनापन समाप्त करना है ।"
                                                                   ०००

यह वचन गुरू का गूढ़ वाक्य है । यह शिष्य के लिये है और भक्त, श्रद्धालु के लिये भी है । गुरू ज्ञान देते हैं । रास्ता बताते हैं । रास्ते की कठिनाईयों के प्रति आगाह करते हैं । वे अपने से किसी भी रूप में जुड़े व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति पैनी निगाह रखते हैं ताकि वह आगे बढ़ता जाय । उसका पतन ना हो ।

गुरू द्वारा पथ दिखाकर पथिक को मँत्र, क्रिया और औषधि जैसे अस्त्र शस्त्रों से सज्जित कर दिया जाता है । लक्ष्य बता दिया जाता है । अब बच जाता है पथिक का चलना । पथिक को अपनी मँजिल पाने के लिये अपने पैरों चलना पड़ता है । इसमें गुरू हस्तक्षेप नहीं करते । इसीलिये वचन में कहा गया है कि जो तुमको बताया गया है, दिखाया गया है उसे ही सम्पूर्ण मानकर ठहर मत जाओ । स्थिर मत हो जाओ । आगे बढ़ो । चरैवेति, चरैवेति, चरैवेति ।

अघोरेश्वर अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को, शास्त्रीय संदर्भों को, कठिनतम क्रिया विधियों को भी सहज और सरल भाषा में बता दिया करते हैं । यहाँ पर भी वे कह रहे हैं कि अपनापन समाप्त करना है । साधक जब आगे बढ़ते बढ़ते अपने लक्ष्य को पा लेता है फिर वहाँ अद्वेत की स्थिति आ जाती है । साधक और परमब्रह्म एकाकार हो जाते हैं । साधक की सत्ता, अपनापन ब्रह्म सत्ता में  विलीन हो जाता है ।

 यही है अध्यात्म की परमगति । भवसागर पार करना । मुक्ति । मोक्ष । या और भी जो नाम दिया गया हो ।
                                                                       ०००


शनिवार, मई 09, 2015


अघोर वचन - 21

" जिसने मान, बड़ाई और स्तुति को तिलाँजलि दे रखी है, उसे खाक लपेटने, अपने को तपाने या समाज सम्मान की आवश्यकता नहीं होती । वह तो जाति और कुल के लक्षणों, यहाँ तक की प्राँतियता, राष्ट्रीयता और भाषा की सीमाओं, बन्धनों, संकीर्णताओं, विशिष्टताओं से भी अपने को विमुक्त रखता है ।"
                                                                ०००

सामान्यतः धरती के समस्त भू भाग में निवासरत मनुष्यों में यह देखा गया है कि वह अपने वँश, परिवार एवँ स्वयँ माननीय होना चाहता है । वह इसके लिये वास्तविक, अवास्तविक कारण या तो खोज लेता है या गढ़ लेता है । इसे हम उसका अहँकार कह सकते हैं ।

बड़ाई मीठा जहर के समान है । जब कोई व्यक्ति किसी प्रलोभन के कारण किसी दूसरे मनुष्य के बारे में उसके सामने ही बढ़ा चढ़ा कर बखान करता है तो यह बड़ाई है । जैसे किसी हवलदार को दरोगा कहकर पुकारना, पुराने जमाने में राजा को धरतीपति कहना, सामान्य से थोड़ा ज्यादा ज्ञानी को महापँडित या जगतगुरू कह देना । ये सबके सब वास्तविकता के धरातल पर असत्य हैं, परन्तु बड़ाई के अच्छे उदाहरण ही नहीं बड़ाई करने वाले के लिये फलदायी भी सिद्ध होते हैं ।

स्तुति और प्रार्थना समानार्थी शब्द हैं । विकृत अर्थ में यह खुशामद कहलाता है तथा पवित्र होकर यह देवस्तुति बन जाता है । यहाँ स्तुति का खुशामद रूप ही अभिप्रेत प्रतीत होता है ।

वचन में कहा गया है कि उपरोक्त तीनों बुराईयों से जो दूरी बना लेता है । जिसे इनमें रस नहीं मिलता । उसे सन्यासी के समान, मशानचारी के समान अपने शरीर में भभूत रमाने, कठिन तपस्या कर शरीर को गलाने की आवश्यकता नहीं रहती । वह स्वभाव से ही वचन में बताये गये समस्त सीमाओं, बन्धनों, संकीर्णताओं से मुक्त रहता है । उसका जीवन किसी संत महापुरूष के जैसा जान पड़ता है ।
                                                      ०००  



गुरुवार, मई 07, 2015

अघोर वचन -20

" अपने लिये जीविका का अधिक संग्रह न करना । समाज के जो लोग निस्सहाय, साधनविहीन हो गये हैं, उन्हें अपनी जीविका में से बाँटकर देना । इसी को समसमाधि, समान तद्रूपता कहते हैं ।"
                              ०००

जीविका एक बृहत् अर्थवाला शब्द है । कृषि, व्यापार, नौकरी सभी कुछ इसके अन्दर सम्मिलित हैं । यहाँ पर जीविका से धन अभिप्रेत होता प्रतीत होता है । कहा गया है कि धन का संग्रह अपने और अपने परिवार के भरण पोषण, आवश्यकता की पूर्ति के लिये मात्र करना चाहिये ।

आज पश्चिमी संस्कृति को स्वीकार कर भारतीय जनों की आवश्यकता भी अनन्तगुना बढ़ गई है । इन बढ़ी हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रचूर मात्रा में धन चाहिये होता है जो बहुधा हमारी जीविका से प्राप्त नहीं होता । हमें नैतिक, अनैतिक किसी भी तरह से धन प्राप्ति हेतु प्रयत्न करने होते हैं । हम बिना संकोच प्रयत्न करते हैं, चाहे इसके लिये हमें अपनी आत्मा ही क्यों ना गिरवी रखनी पड़े । हमें मीडिया इन प्रयत्नों के प्रकार और दुश्परिणाम रोज ही तो दिखाता रहता है ।

समाज में शारीरिक विकलाँगता, मानसिक अक्षमता, प्राकृतिक विपदा से पीड़ित, विधवा जिन्हें परिवार ने निष्कासित कर दिया है जैसे लोग निस्सहाय व साधन विहिन हो जाते हैं । इनके समक्ष शरीर रक्षा के निमित्त भोजन प्राप्ति की भी समस्या उत्पन्न हो जाती है । आकाशवृत्ति या भिक्षाटन के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता । ऐसे लोगों को अपनी जीविका में से बाँटकर देना सर्वथा उचित माना गया है । कुछ महात्मा इसके लिये अपनी आय का दस प्रतिशत दान देने की प्रेरणा देते हैं । अघोरेश्वर जीविका में से कितना बाँटा जाय इसका निर्धारण नहीं करते । वे यह मनुष्य के विवेक पर छोड़ दिये हैं ।

जब मनुष्य में निस्सहाय एवँ साधनविहीन लोगों के लिये अपनी जीविका में से कुछ बाँटने की इच्छा जागती है और वह इसे मूर्तरूप देता है तब उसकी मनःस्थिति विशेष प्रकार की हो जाती है । इसे अघोरेश्वर ने समाधि के समान माना है और तपस्या से प्राप्त मनःस्थिति जैसा या तद्रूप कहा है ।
                                                                   ०००



बुधवार, मई 06, 2015

  अघोर वचन -19

" समाज में रहकर अमानी बने रहो । यह ध्यान रहे कि सम्मान, आदर और किसी भी प्रकार के प्रलोभन के पीछे अपने इस मुल्यवान जीवन का अधिकांश निकल न जाय । इसी को ध्यान भी कहते हैं ।"
                                    ०००

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । उसने विपरीत लिंग के साथ जुड़कर सबसे पहले परिवार संस्था का निर्माण किया । तत्पश्चात कई परिवारों को जोड़कर समूह बनाया । समूहों में जब जुड़ाव घटित हुआ तो समाज बना । विकास की इस प्रक्रिया में आचार, व्यवहार, नैतिकता, जैसे जाने कितने नियम बने । कुछ समय की धारा में टिक नहीं पाए, परिवर्तित हो गये । नये रूप में पुन: स्थापित हुए । आज हम समाज को जिस रूप में देख रहे हैं वह इसी सतत प्रक्रियागत विकास का परिणाम है ।

अघोरेश्वर इस वचन में मानव मात्र, चाहे वह गृहस्थ है या सन्यासी, या अन्य कोई, से कह रहे हैं कि समाज के भीतर समाज के अंग बनकर रहो । समाज को त्याग कर मशानचारी, हिमालय जाकर एकान्तसेवी बनने की आवश्यकता नहीं है । अमानी बनने की जरूरत है यानिकि समाज के भीतर भी रहो और समाज तुमको छुए भी नहीं । कमल के पत्ते की तरह समाज रूपी जल से निर्लिप्त ।

समाज में अमानी बनकर रहना अत्यंत कठिन है । मनुष्य के लिए काम, क्रोध, लोभ, और मोह वृत्तियों को सब समय सम अवस्था में रखना दुस्कर होता है । मानव मन इतना विलक्षण है कि कब और कहाँ, क्या कर जायेगा कुछ कहा नहीं जा सकता है । वचन में यह कहा गया है कि मनुष्य जीवन भर अपने कार्यकलापों पर दृष्टि रखे ताकि उसका मन उसे सांसारिक प्रलोभनों में फंसाकर उसको तिगनी का नाच न नचा सके और उसका जीवन लोभ, मोह के चक्कर में निकृष्ट जीवन न कहलाने लगे । उससे सुख, शाँति की धारायें दूर भाग जाँय । वह अपने पशुत्व से हार जाय ।

इस प्रकार की सतर्कता बरतना ध्यान की श्रेणी में गिना जाता है ।
                                                               ०००    

मंगलवार, मई 05, 2015

अघोर वचन - 18

" कहने को तो हम बहुत कुछ कह डालते हैं, सुनने के लिये हम लोगों का बहुत कुछ सुनते हैं, पढ़ने के लिये बहुत कुछ पढ़ लेते हैं मगर यह सब उसी छाया को पकड़ने सरीखे है‍ जैसे आगे आगे छाया भागता जाय, हम पकड़ने जाँय, वह कभी धराता नहीं, ले जाकर गड्ढ़े में गिरा देता है । हमें गुरूजनों ने इतना ही खाली कहा है कि तूँ घूम जा । यह संसार रूपी जो छाया है, यह तुम्हारे पीछे पीछे घूम जाएगा ।"
                                                             ०००

मनुष्य जीवन बहुधा निरूद्देश्य बीत जाता है । पशु से थोड़ा उपर पढ़ना, लिखना, कहना, सुनना और सपना बुनते हुए हम जीवन को जीते हैं । सुख, दुःख, काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसी मन की वृत्तियाँ हमें जैसा और जिधर ले चलती हैं हम चल देते हैं । कभी कभी तो हम बिना सोचे समझे ऐसा काम कर जाते हैं कि बाद में हमें पछताना पड़ता है । एक एक पैसे के लिये रोते हैं और देह छोड़ने के समय लाखों छोड़ जाते हैं । मान सम्मान के ऐसे भूखे हैं कि उसके लिये कितना ही नीचे गिर सकते हैं । इसके अलावा अनेक बार हम पशु भी बन जाते हैं और काम संज्ञा के अधिन होकर रेप जैसा अमानुषिक कृत्य भी कर जाते हैं । इन सबका कारण है कि हम यह नहीं जानते कि हम क्या चाहते हैं । हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है । इस शरीर के अलावा भी हमारा अपना कहने के लिये कुछ है कि नहीं । हम मनुष्य तो हैं पर पशु भाव हमको नहीं छोड़ा है ।

पश्चिम जब जीवन को आसान बनाने के लिये पदार्थ जगत के अनुसंधानों में लगा हुआ था, हम मानसिक जगत और अध्यात्म की गहराईयों में उतरकर सुख चैन, आनन्द और भवसागर से पार उतरने के उपायों की खोज कर रहे थे । हमारे ऋषियों, मुनियों, अध्यात्मिक रूप से उन्नत संतों, महापुरूषों ने पाया कि मनुष्य जबतक इन्द्रियों को उनका इच्छित भोग चढ़ाता रहेगा, मन की सुनता रहेगा और अपने आत्म तत्व की अवहेलना करता रहेगा आनन्द नहीं पा सकता । परमात्म तत्व की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है । उन्होने इसके लिये एक सहज मार्ग बतलाया वह यह कि तूँ घूम जा । घूम जा का अर्थ है जो आज तक करता आया है उसके उलट कर । मन की सुनता था अब ध्यान बँटाकर उसको सुनाने का मौका ही मत दे । वृत्तियों को देख कि वे व्यर्थ के कार्यों में उलझाकर मनमानी तो नहीं करा रहे हैं । अपनी औकात और प्रयत्न के अनुसार सपना देख और सच करने की चाहना कर । वे कहते हैं कि यदि हम ऐसा करेंगे तो यह जो दुःख और अशांति रूप संसार है, वह तेरे अनुरूप होता जायेगा । मनुष्य को इस प्रकार सुख, शान्ति और आनन्द की प्राप्ति होगी ।
                                                                  ०००
















सोमवार, मई 04, 2015

अघोर वचन -17

" हम अपने जीवन में तरह तरह के स्वप्न देखते हैं । कोई मार रहा है । कोई काट रहा है । कोई मर रहा है । कोई जी रहा है । यह जो निशा है जिसमें हम स्वप्न देखते हैं, इसके कारण ऐसा होता है यह भी नहीं है । इसी तरह से उस उषा को ढ़ूँढ़ता रहता है कि उषा के आगमन से मेरी निद्रा भँग होगी । मैं प्रयत्नशील पुरूष होऊँगा । हर तरह का प्रयत्न करूँगा, जतन करूँगा और नया संसार बनाउँगा ।"
                                                        ०००

स्वप्न बड़ा अर्थपूर्ण शब्द है । लगभग प्रत्येक मनुष्य कुछ बड़ा काम करने का, बड़ा पद प्रतिष्ठा पाने का, बड़ी धनराशि का, परिवार का आदि नाना प्रकार के स्वप्न देखता है । उसमें से कितने पूरे होते हैं । कितने अधूरे रह जाते हैं । कितने छूट जाते हैं । मनुष्य अपने प्रयत्न, अपनी क्षमता और परिस्थिति के अनुसार अपने स्वप्न में से कुछ एक को ही पूरा कर पाता है । संत महात्माओं ने तो जीवन को ही स्वप्नवत माना है । आचार्य रजनीश का कथन इस सम्बन्ध में बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रतीत होता है । वे कहते हैं कि साधक को हर पल, शरीर के प्रत्येक क्रिया कलाप के प्रति चैतन्य होना चाहिये । यानि कि मनुष्य निद्रावस्था में स्वप्नवत जीता है । जीवन ही स्वप्न है ।

मनुष्य सोते हुये भी स्वप्न देखता है । उसमें वह जीवन के सभी आयामों को जीता है । युद्ध भी होते हैं, प्रेम भी करते हैं, मृत्यु भी देखते है और जीवन भी जीते हैं । इन स्वप्नों का कारण वह अँधकार पूर्ण निशा रात्रि नहीं होती । निद्रावस्था में देखे गये स्वप्न के विषय में पातँजल योगसूत्र के समाधिपाद के ३८ वें सूत्र में कहा गया है कि " स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनँ वा ।" अर्थात स्वप्नावस्था में कभी कभी जो अपूर्व ज्ञानलाभ होता है, उसका तथा सुषुप्ति अवस्था में प्राप्त सात्विक सुख का ध्यान करने से भी चित्त प्रशान्त होता है ।

अघोरेश्वर जी के वचन अनुभवजन्य हैं । स्वानुभूत हैं । व्यवहारिक हैं । तदपि द्रष्टा ऋषियों के शास्त्रोक्त कथन से मेल खाते हैं । स्वप्न चाहे जाग्रत हो, चाहे निद्रागत हो स्वप्न ही है । स्वप्न की पूर्णता उषाकाल में प्रकाश के आगमन, व्यक्ति के प्रयत्न और जतन से ही सँभव होता है ।

                                                                ०००




रविवार, मई 03, 2015

अघोर वचन -16

" यदि हम अपने आप को धोका देने से बचा लें तो हम सबकुछ बचा सकते हैं । यदि हम वास्तविकता से आँख बन्द करना छोड़ दें तो हम सबकुछ देख सकते हैं ।"
                                                       ०००
एक समय था जब भारत में गँभीर ज्ञान की बातों को सूत्र रूप में कहने की परम्परा थी । परवर्ती काल में उन सूत्रों पर भाष्य के बड़े बड़े ग्रँथ लिखे गये । सूत्र स्मृति में सहज ही समा जाते थे । अपनी ठौर बना लेते थे । व्यक्ति सहज ही स्मृतिमान हो जाता था । यह वचन भी सूत्र जैसा प्रतीत होता है ।

सामान्य ढ़ँग से कोई भी मनुष्य यह मानने के लिये तैयार नहीं होगा कि वह स्वयँ को धोका दे रहा है । मनुष्य तो यह समझता है कि वह जो सोचता है, करता है वही ठीक है, सत्य है, समयानुकूल है । फिर इसमें ठगी की गुँजाइस कहाँ है ।

ठग क्या करता है ? वह झूठी बातों को मोहक तरीके से आपके समक्ष रखता है और आप उसे सच मान लेते है । यहीँ आप ठग लिये जाते हैं । ठीक इसी प्रकार जब आप किसी विचार, दृश्य या अनुभव पर अपना पूर्व निर्धारित रूप को आरोपित करते हैं तो वह सत्य झूठ में बदल जाता है और जैसा आप चाहते हैं वैसा हो जाता है । इसका प्रभाव उस विचार, दृश्य या अनुभव पर नहीं पड़ता । आप ठगे जाते हैं । स्वयँ द्वारा स्वयँ की ठगी ।

जब हम वस्तुओं, दृश्यों में अपनी दृष्टि आरोपित कर अपने इच्छित ढ़ँग से देखते है तो वास्तविकता से वँचित रह जाते हैं । लाभ की जगह हानि होती है । ईश्वर द्वारा भेजा गया भोग हमसे छूट जाता है । इसीलिये कहा गया है हमें अपने आप को धोका देने से बचना चाहिये । अपनी दृष्टि खुली रखनी चाहिये ।

अनेक बार ऐसा होता है कि हम अपनी ओर से एवँ सामने वाले की ओर से आँखें चुरा लेते है । जो हम हैं वह जानते तो हैं पर स्वीकार नहीं करते । घटा, बढ़ाकर बताते हैं और वैसा ही व्यवहार खुद करते हैं या दूसरों से अपेक्षा करते हैं । यही है वास्तविकता से आँख बन्द करना । यदि हम अपने आप में रहें । अपनी औकात को स्वीकारें तो हमारी दृष्टि निर्मल हो जायेगी और हमें सब कुछ अपने मूल रूप में दिखाई देने लगेगा ।
                                                                          ०००
 

शनिवार, मई 02, 2015

अघोर वचन -15

"दुःखों को ऋषियों ने संसार सागर कहकर सम्बोधित किया है । बिना नौका, पतवार, मल्लाह के इस संसार सागर को पार करने में प्रयत्नशील लोगों को तुफानी वेग, झँझावात और प्रचण्ड वायु के झकोरे नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं । महर्षियों ने इसे दुर्देव पिशाच की संज्ञा दी है, जिसने सौम्य और सुन्दर आकृति वाले, अतीव शीलवान, देदीप्यमान और संवेदनशील मानवों को भी अपनी चपेट से मुक्त नहीं किया है ।"
                                                          ०००
दुःख बड़ा व्यापक शब्द है । दुःख मनुष्य के साथ जन्म से लेकर मृत्यु तक जुड़ा हुआ है । हम अपनी ओर से एक दुःख और जोड़ लेते है वह है जाति दुःख । स्त्री जाति और शूद्र जाति । ये दोनो वँचित जातियाँ हैं । इन दोनों जातियों को संसार सागर या भव सागर के पार जाने हक नहीं माना जाता । अवसर भी नहीं दिया जाता । जबकि ईश्वर की तरफ से ऐसा भेद नहीं किया गया है । सबको समान संभावनाओं के साथ धरती पर भेजा जाता है । इस बात को अनेक संत जैसे संत रबिदास, संत कबीर, संत घासीदास, संत रैदास, महिला संत राबिया आदि महात्माओं ने सिद्ध भी कर दिया है ।

दुःख क्या है । मनुष्य के शरीर में दश इन्द्रियाँ ( पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ ) होती हैं और ग्यारहवाँ होता है मन । मनुष्य का सारा कार्य व्यापार इन्ही से चलता है । मनुष्य को भोग और मोक्ष दोनों ही इन्ही के द्वारा प्राप्त होता है । इन्ही के चलते मनुष्य की अवनति और दुर्गति भी होती है । इन इन्द्रियों का साम्या भाव सुख है अन्यथा दुःख है । इसे हम यों समझें कि हमारी दर्शनेन्द्रिय आँखों को चाहे हुये सौन्दर्य के दर्शन नहीं होते या जिव्हा को चाहे गये रस का स्वाद नहीं मिलता तो यह हमारे दुःख का कारण हो गया । दुःख का जन्म हो गया । इसी प्रकार हमारे जीवन में मनोनुकूल कुछ भी नहीं होने से दुःख ही दुःख होते हैं । मनुष्य का इतना ही संसार होता है । यही भव सागर है । दुःखों से निवृत्ति ही भवसागर के पार जाना है ।

नौका, पतवार, और मल्लाह प्रतीक हैं । नदी के पार जाने के लिये इन तीनों ही की जरूरत होती है । इनके बिना नदी का पार उतरना कठिन होता है । डूबने की संभावना रहती है । जीवन संकट आ उपस्थित होता है । ठीक उसी प्रकार यह संसार भी सागर कहलाता है । इससे मुक्ति के लिये, भव सागर से पार उतरने के लिये भी मनुष्य को नौका रूप दीक्षा, पतवार रूप मँत्र एवँ मल्लाह रूप गुरू की आवश्यकता होती है । इनके बिना संसार सागर से पार उतरने के प्रयास करने वाले मुक्ति कामी, सचरित्र, सदाचारी और भले लोगों को भी पतन का मुख देखना पड़ता है । जीवन व्यर्थ कार्यों में ही व्यतीत हो जाता है । लक्ष्य से भटकन की स्थिति बन जाती है ।
                                                                     ०००






























शुक्रवार, मई 01, 2015

अघोर वचन -14

" जब अपना वह इष्ट, अपना वह आत्माराम अपने अनुकूल हो जायेगा तो आपकी सभी इन्द्रियाँ, जो देवताओं के भोग का साधन हैं, शान्त हो जायेंगी । आप उस महान समाधि को प्राप्त करेंगे ।"
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आध्यात्मिक साधना की शुरूआत गुरू प्राप्ति से होती है । जब किसी सँत पुरूष के दर्शन मात्र से मन स्थिर होने लगे, आन्तरिक उल्लास जगे और ईश्वर याद आये तो समझिये आप गुरू के समक्ष खड़े हैं । जब गुरू का निश्चय हो जाय तो समय काल देखकर, गुरू की मनोदशा पहचान कर उनके चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करें और निवेदन करें कि अपनी शरण में लें एवँ दीक्षा प्रदान कर कृतार्थ करें । आपकी श्रद्धा, मुद्रा, निवेदन की गँभीरता गुरू के हृदय में करूणा का संचार करेगी और आपको दीक्षा दान हो सकता है ।

दीक्षा में सामान्यतः गुरू मँत्र देंगे और क्रिया बतलायेंगे । इष्ट, देवता या देवी के विषय में ज्ञान देंगे और रोज की साधना का निर्देश देंगे । उसके बाद शुरू होती है साधना । साधक जप करता है, अनुष्ठान करता है, क्रिया करता है, स्वयँ को साधता है और यह सब करके अपने इष्ट को, आत्माराम को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करता है । साधक की साधना जैसे जैसे सही दिशा में एवँ सही रूप से बढ़ती जाती है, उसे अनुभूतियों का प्रसाद मिलता जाता है । उसकी इन्द्रियाँ निग्रहित होती जाती हैं । वह समाधि के निकट होता जाता है ।

इसमें ये बातें अत्यँत महत्वपूर्ण है । वे हैं गुरू, मँत्र और देवता पर अटूट श्रद्धा एवँ निश्छल विश्वास । अपनी साधना में लगन । मन में जन्म लेने वाली तृष्णा की उपेक्षा ।
                                                               ०००