रविवार, दिसंबर 27, 2009

अघोरेश्वर भगवान राम जीः अनन्य दिवस

आश्रम से निकलने के बाद किशोर अवधूत कुछ दिन तो छेदीबाबा के साथ ईश्वरगँगी में रहकर साधना करते रहे , फिर सकलडीहा, हरिहरपुर में रहने लगे । सकलडीहा में निवास के दौरान आपको क्रीँकुण्ड आश्रम के महँथ तथा आपके गुरु बाबा राजेश्वर राम जी ने बुला भेजा । बाबा का संदेशा थाः " जाओ, भगवान राम से कह दो, मैं उससे मिलना चाहता हूँ । उसे देखने की इच्छा हो रही है ।" शिष्य को जाना ही था । गये । गुरु शिष्य की भेंट हुई । इस भेंट का विवरण बड़ा ही रोचक है ।
"जब आप आश्रम में पहुँचे तब बाबा राजेश्वर राम जी अपनी चौकी पर लेटे हुए थे । उनकी आँखें बन्द थीं । कहा नहीं जा सकता कि वे निद्रा में थे या गहरे ध्यान की स्थिति थी । किशोर अवधूत ने हल्के से चरण कमल छूकर अपनी श्रद्धा, भक्ति निवेदित किया । बाबा की पलकें उठीँ और हृदय का सारा स्नेह बिगलित होकर आँखों से छलकने लगा । कुछ काल बाद गुरु के मुख से उलाहने के शब्द झरेः " मैंने तुम्हें चेला मूँड़ा था गाँजा पिलाने के लिये और तुम मेरे हाथ से बाहर उस पार स्वच्छन्द बिचरने लगे ।"
अवधूत मौन रहे ।
गुरु ने आगे कहाः " सोचता हूँ, तुम्हारी शादी कर दूँ । करोगे न ?"
शिष्य ने सहमती दीः " कर दीं ।"
बाबा ने सिलसिला आगे बढ़ाते हुए कहाः "लेकिन दुल्हन बड़ी दूर, उड़ीसा के सरहद की है । संभार पइब ।"
किशोर अवधूत की स्थिति यथावत रही । उन्होने उसी गंभीरता से जबाब दियाः " काहे न सँभारब ।"
कुछ काल तक गुरु शिष्य के बीच चर्चा होती रही । अन्त में किशोर अवधूत ने गुरु का चरण स्पर्ष किया और वापस चल पड़े ।"
गुरु शिष्य की उपरोक्त चर्चा लगती तो लौकिक शादी के विषय में की गई चर्चा थी । लेकिन यह चर्चा प्रतीकात्मक सधुक्कड़ी भाषा थी ,जिसे अवधूत पद पर प्रतिष्ठित गुरु शिष्य के अलावा कोई अन्य समझ सकने में असमर्थ था ।
अवधूत भगवान राम जी के साथ इन्ही दिनों से एक साधु देखे गये । उनका नाम कृष्णाराम अघोरी था । बाबा कृष्णाराम जी उड़िया भाषा बोलते थे । शायद उन्हें हिन्दी नहीं आती थी । वे बनारस से बहुत दूर उड़ीसा प्रान्त के रहने वाले थे । बाबा कृष्णा राम जी अवधूत भगवान राम जी को उड़िया भाषा में ही अपनी बात कहते और आप हिन्दी में जबाब देते । दोनों के बीच भाषा कोई समस्या नहीं थी ।
दीक्षा ग्रहण करने के बाद के अढ़ाई बरस का साधना काल आपने तीन प्रमुख स्थानों में रहकर बिताया । एक था पूनास्टेट का बगीचा , दूसरा राय पनारु दास का बगीचा और तिसरा ढ़ेलवरिया मठ जो चौकाघाट स्थित रेल लाईन के उत्तर में वरुणा नदी के तट पर अवस्थित है ।
अनन्य दिवस
सन् १९५४ ई० में माघ का महीना था । जाड़े के दिन थे । कुम्भ पड़ रहा था । प्रयाग में कुम्भ स्नान के लिये बड़ी भीड़ एकत्रित हो रही थी । पूरे भारत से इस मौके पर संत महात्मा आ रहे थे । कुम्भ के समय सन्त समागम हुआ करता है । उस अज्ञात की प्रेरणा हुई और आप प्रयाग की ओर चल पड़े । आप पैदल थे । सामान के नाम पर शरीर पर ढ़ाई गज मलमल के टुकड़े के अलावा कुछ नहीं था । न विछाने के लिये विछावन, न ओढ़ने के लिये कंबल । रास्ते में भोजन की कोई व्यवस्था नहीं थी । किसी समय कोई धर्मप्राण भोजन उपलव्ध करा देता तो ठीक, अन्यथा कई कई साँझ गँगा जल पीकर निर्वाह करना पड़ जाता था । इसी प्रकार कष्ट की अनदेखी करते हुए आप गँगा जी का किनारा पकड़ कर आगे बढ़ते रहे ।
प्रयाग में आप मेला स्थल पहुँच गये । दिन तो जैसे तैसे गुजर जाता , सारी रात साधुओं की धूनी ताप कर गुजरती । खाने पीने की तरफ आपका ध्यान न होने के कारण भोजन की समस्या बनी हुई थी । इसी बीच माघ मेला के ठीकेदार के कारिंदे ने आपके और दो तीन अन्य साधुओं के लिये एक धूनी की व्यवस्था करा दिया जहाँ आप रात गुजारने लगे ।
एक दिन अचानक एक दिगम्बर अवधूतिन ने उसी धूनी के पास अपना आसन जमा दिया । वस्त्र के नाम पर अवधूतिन के शरीर पर कुछ नहीं होता था । वह केश में माला और योनि में अड़हुल का फूल खोंसे रहती थी । दिन के समय हाथ में झँडी लेकर मेले में घूमती रहती, साँझ पड़ते ही वह आ धमकती और ठीक आपके सामने धूनी के पास आसन जमा लेती । आप उसे माता रुप में देखते और शक्ति प्राप्त करते । २०,२५ दिन तक यही क्रम चलता रहा , फिर वह न जाने कहाँ चली गई ।
माघ मास के चतुर्दशी को मेला में ही आपकी भेंट एक बृद्धा से हो गई । वह आपको अपनी कुटिया में ले गई । उस करुणामयी ने प्रेमपूर्वक आपको भोजन कराया । नया वस्त्र दिया । आशीर्वाद देकर सजल नेत्रों से बिदा किया । आप बाद में बतलाये थे कि माँ से भिक्षा मिल जाने के पश्चात कभी भोजन आदि की असुबिधा नहीं हुई । उसके बाद हर साल माघ कृष्ण चतुर्दशी को अनन्य दिवस के रुप में मनाया जाता है । आज भी पूरे माघ मास भर श्री सर्वेश्वरी समूह द्वारा मेला स्थल पर बड़ा केम्प लगाया जाता है और समारोह पूर्वक अनन्य दिवस मनाया जाता है ।
प्रयाग में आप लगभग एक मास रहे, फिर काशी लौट आये । काशी आने पर आप क्रींकुण्ड स्थल में कुछ दिनों तक गुरु की सेवा में लगे रहे, जिनका फोते का आपरेशन हुआ था। जब गुरुदेव निरोग हो गये आप उनसे आज्ञा लेकर अज्ञात की खोज में अपनी यात्रा में गँगा जी के तट की ओर बढ़ चले ।
क्रमशः

रविवार, दिसंबर 13, 2009

अघोरेश्वर भगवान राम जीः कीनाराम आश्रम से निष्कासन



बाबा कीनाराम स्थल में आपका निवास काल मात्र छह मास का ही था । इस अवधि में ही आपने अपने गुरु बाबा राजेश्वर राम जी से जो सीखना था सीख लिया । बाबा राजेश्वर राम जी क्रीं कुण्ड स्थल के महँथ थे और अघोर परम्परा के मान्य आचार्य होने के साथ साथ आपके गुरु भी थे । उनके सानिध्य में जहाँ आपके अन्य गुरु भाई अपनी साधना की धार पैना कर रहे थे, आप परम् गुरु तथा उस अज्ञात की कृपा से, और अपने जन्मना सिद्ध होने की वजह से दीक्षा सँस्कार के उपराँत कुछ ही दिनों में अवधूत पद पर प्रतिष्ठित हो गये थे । छह मास की अवधि पूरी होते न होते आश्रम के पदाधिकारियों ने आपको एक साधारण सा लाँछन लगाकर आश्रम से निष्कासित कर दिया । इस घटना से आपको बहुत दुःख हुआ । एक बार उक्त घटना का विवरण आपने अपने भक्तों को सुनाया था । विवरण आपके शब्दों में जस का तस यहाँ प्रस्तुत है ।

" मुझे दुर्निवार एवँ दुर्दान्त दुःख तब हुआ जब मैं कीनाराम स्थल से, वहाँ के अधिकारियों द्वारा गुड़ और मुड़ी की चोरी का लाँछन लगाकर निष्कासित किया गया । तत्पश्चात् चार शाम तक भूखा प्यासा रहने के बाद हरिश्चन्द्र घाट पर शव दाह सँस्कार के लिये अग्नि देने वाले डोम रखवार ने मेरी याचना पर मुझे दो दिनों की सूखी बाटी खाने को दिया । चार सँध्या उपवास करने और बाटी के दो दिनों की बासी होने के कारण उसे गले से नीचे उतारने में कष्ट महसूस हो रहा था । जब मैंने थोड़ा सा नमक माँगा तब उस डोम रखवार ने बहुत ही डाँट फटकार की और बाहर निकल जाने का आदेश दिया । तदुपराँत घाट के बाहर आकर मैने परचून के सामान के एक विक्रेता से नमक माँगा । उसने भी झुझलाकर एक कौड़ी के बराबर नमक का एक रोड़ा दिया । यह बात उस समय की है, जब पिसे हुए नमक की आमद बहुत ही कम होती थी और अधिकतर रोड़े के नमक की ही बिक्री होती थी । उस लिट्टी का एक टुकड़ा दाँत से काटकर तब नमक चाटकर मैं किसी तरह उसे निगल सका था । उसके बाद कुछ समय तक मुझे तन ढ़ँकने के लिये प्रायः वस्त्र उपलब्ध नहीं हो पाता था । बुभुक्षा शाँत करने के निमित्त अन्न तक दुर्लभ रहता था और दुर्दमनीय वेदना झेलनी पड़ती थी ।"

आश्रम से निष्कासित होकर आप छेदी मास्टर के यहाँ पहुँचे । श्री छेदी मास्टर जी उस दिन की घटना कुछ इस तरह बतलाये थे ।

" उस दिन बाबा उनका दरवाजा खटखटाये । वे जब बाहर निकले तो देखा कि बाबा के आँसू गिर रहे थे । मास्टर साहब के बहुत पूछने पर बतलाये कि " गुरुचरण छूटल जात ह़ऽ । गुरु जी कहलन हैं कि भाग जाओ यहाँ से । तब बाबा सकलडीहा, हरिहरपुर में रहने लगे ।"

इतने कम समय में आश्रम से निकाल दिया जाना आश्चर्य का विषय है । कहा तो बहुत कुछ जाता है , परन्तु यह सत्य है कि आपकी प्रतिभा से अधिक दिन तक लोग अनजान नहीं रहे थे । आश्रम आने वाले श्रद्धालु गुरु बाबा राजेश्वर राम जी को कम और शिष्य औघड़ भगवान राम जी को अधिक दण्डप्रणाम करने लगे थे । आपका भजन गाना, और हारमोनियम, तबला आदि बजाना भी गुरु जी को पसन्द नही् आ रहा था । इसी समय भंडार घर की ताली खोने की घटना घट गयी । पहले तो बहुत प्रकार से प्रताड़ित किया गया, फिर आपको आश्रम से निकाल दिया गया ।

कुछ दिन तो आप श्री गँगा जी के हरिश्चन्द्र घाट तथा आसपास भटकते रहे । ऐसे ही भटकते हुए आप एक दिन ईश्वरगँगी के निकट व्यायाम शाला जा पहुँचे । वहीं आपका सम्पर्क अपने समय के प्रसिद्ध अघोराचार्य संत कच्चा बाबा की शिष्य परम्परा के अवधूत छेदी बाबा से हुआ । छेदी बाबा से आपकी भेंट कीनाराम आश्रम में पहले भी हो चुकी थी । आपने वहीं पास के चबूतरे पर अपना आसन जमाया और कुछ काल तक छेदी बाबा की देखरेख में साधना करते रहे । उस समय आपकी दिनचर्या में ध्यान जप के अलावा दोपहर के समय भिक्षाटन मात्र था । भिक्षा माँगते समय " माँ रोटी दो" का आवाज लगाते हुए चलते जाते थे । माताएँ इस किशोर अवधूत को भिक्षा देने के लिये तत्पर रहतीं थीं, क्योंकि आप किसी के दरवाजे रुकते नहीं थे । आपके पीछे पीछे कुत्तों का झुँण्ड भी चलता । भिक्षा में जो मिलता कुछ खुद खाते बाकी कुत्तों को खिलाते चलते थे । आपकी यह लीला अघोर परम्परा के अन्यतम आचार्य भगवान दत्तात्रेय की याद दिला देती थी । इस किशोर अवधूत को गुरु ने आश्रम से क्यों निकाल दिया यह एक रहस्य बन कर रह गया ।

क्रमशः

रविवार, नवंबर 29, 2009

अघोरेश्वर भगवान राम जीः साधना

दीक्षा संस्कार पूर्ण होने के उपराँत आप मन्त्र जप, गुरु सुश्रुषा, एवँ आश्रम के कार्यो में लग गये । ब्राह्म मुहुर्त में शय्या त्यागकर नित्यकर्म से निवृत होकर भजन करने का अभ्यास आपका बाल्यकाल से ही था । इसके अलावा प्रातः सुर्योदय के समय आप गँगा जी में श्री हनुमान घाट पर जल में आकँठ खड़े रहकर मन्त्र जप भी करते रहे । साधना काल में परमेश्वर परब्रह्म की भी आप पर कृपा बृष्टि होती रही । कुछ काल उपराँत ही परम गुरु की कृपा भी आपको प्राप्त हो गई ।
घटना कुछ इस प्रकार हुई ।

"एक दिन वे क्रींकुण्ड स्थल में अनेक शताब्दियों से श्मशान से लायी गई लकड़ियों से जलती धूनी के पास अर्द्धनिद्रित अवस्था में पड़े थे । उन्हें ऐसा भास हुआ कि कोई दिव्य पुरुष खड़ाऊँ पहने उनके पास आ खड़ा हुआ है । उसने खड़ाऊँ समेत अपना चरण उनकी छाती पर रख दिया और स्पष्ट स्वर में कुछ मन्त्रोच्चारण किया । उन्होने आन्तरिक प्रेरणा वश उसे दुहराया और वह मन्त्र उन्हें याद हो गया । तब से वे उसी मन्त्र का नित्य जप करते थे ।"

अघोरेश्वर कहते थे कि गुरु की अचिन्त्य लीला से थोड़े समय के बाद ऐसी ही एक अन्य घटना हुई । घटना का विवरण अघोरेश्वर के ही शब्दों में अविकल प्रस्तुत है ।

"बाबा कीनाराम की समाधि पर मैं झाड़ू लगा रहा था । इसी बीच जब मैं दक्षिण की ओर गया, मुझे फिर वही मन्त्र स्पष्ट सुनाई दिया । साथ ही यह दिव्य आदेश भी मिला कि तुम इसी मन्त्र का जप किया करो । कुछ काल तक मैं वहीं रहकर साधना करता रहा ।"

साधक का निश्चय दृढ़ होने पर ही उसे सफलता मिलती है । उपरोक्त घटनाएँ घटित होने के पश्चात उपरोक्तानुसार प्राप्त मन्त्र में आपकी आस्था सुदृढ़ हो गयी और आप साधना पथ पर गंभीरता पूर्वक आगे बढ़ने लगे ।

साधना के प्रथम सोपान के रुप में मन्त्र और जप की चर्चा होती है, अतः हम मन्त्र और जप के विषय में प्राप्त सामग्री यहाँ प्रस्तुत करना समीचिन समझते हैं ।

मन्त्र
मन्त्र शास्त्र एक गूढ़ विषय है । इस शास्त्र के विषय में हम यहाँ पर गंभीर और शास्त्रीय चिन्तन न करते हुए, केवल विषय की आवश्यक जानकारी प्रस्तुत करेंगे ।
शब्द एक तत्व माना गया है । शब्द या वाक् के चार प्रकार माने गये हैं ।
१, परा
२, पश्यन्ती
३, मध्यमा
४, वैखरी

परावाक् शब्दब्रह्म स्वरुप है । बाकी के तीन उत्तरोतर स्थूल प्रकार हैं । वैखरीवाक् या शब्द जो उच्चरित होते हैं , अत्यंत ही स्थूल रुप है । हम लोग जिस वाक् का प्रयोग करते हैं, वह मुँह से उच्चारित होता है और कर्ण गव्हर में प्रवेश पाकर अन्य व्यक्ति के द्वारा सुना जाता है । यह वायु, कंठ, तालु, दन्त आदि मानव अवयवों के घात, प्रतिघात और संयोगों से प्रसरित होता है । वैखरी वाक् में ही वर्ण सामुहिक होकर शब्द और पुनः सामुहिक होकर भाषा आदि के रुप में विकास की गति को प्राप्त होता है । समस्त विश्व वैखरी वाक् के स्तर पर विद्यमान है । शब्द के विश्लेषण से तीन प्रभाग देखने में आते हैं ।

१, शब्द
२, अर्थ
३, ज्ञान

वैखरी वाक् में ये तीनो भिन्न भिन्न हैं । इन तीनों में परस्पर सम्बन्ध है । शब्द वाचक है । अर्थ वाच्य है । ज्ञान बोध है । ये एक दूसरे के पूरक के रुप में भी देखे जा सकते हैं ।

मध्यमा वाक् की स्थिति में शब्द और अर्थ दोनों में भेदाभेद सम्बन्ध होता है । यहाँ बोध रुप ज्ञान तब भी भिन्न ही रहता है ।

पश्यन्ति वाक् की स्थिति अभेद की स्थिति है । इसमें शब्द और अर्थ दोनों एकात्म की स्थिति में रहते हैं । जो शब्द है वही अर्थ है । इस अवस्था में उक्त तीनों का पूर्ण रुप प्रकट हो जाता है ।

योगी अथवा साधक दीक्षा संस्कार के समय सदगुरु शिष्य पर कृपा करते हैं । गुरु पश्यन्ति स्थिति में जाकर दिव्य चैतन्य का आहरण करते हैं और वैखरी शब्दयोग के माध्यम से बीज मन्त्र शिष्य को देते हैं । दीक्षा संस्कार एकाँत में होती है । यह मन्त्र दान विशुद्ध चैतन्यात्मक होती है तथा वह चैतन्यात्मक वस्तु स्थूल शब्द के आवरण में ढ़ँकी रहती है । शिष्य को गुरु से जो मिलता है वह साधारण स्थूल शब्द मात्र होता है जिसे वह देवता के रुप में ग्रहण करता है । गुरु के मार्गदर्शन के अनुसार शिष्य उस स्थूल शब्द का आलम्बन लेकर साधना करता है और गहन ध्यान और जप के द्वारा गुरु प्रदत्त मन्त्र के स्थूल बाह्य आवरण को हटाता जाता है । इस प्रकार साधना के पथ पर आगे बढ़ते हुए साधक को मन्त्र चैतन्य की प्राप्ति हो जाती है।

यहाँ यह बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि उपरोक्त क्रिया कर्णमन्त्र दीक्षा में नहीं होती । इसमें गुरू शिष्य को बीज मन्त्र देते जरुर हैं , परन्तु यह मन्त्र वैखरी योग का स्थूल शब्द मात्र होता है । इसमें चेतना तत्व का सर्वथा अभाव होता है , अतः मन्त्र चैतन्य होने में संशय है ।

जप

सामान्यतः मन्त्र के आवर्तन को जप कहते हैं । जप से सभी परिचित हैं अतः हम यहाँ जप के विषय मे बिशिष्ठ सामग्री की ही चर्चा करेंगे । साधना में जप का स्थान प्रमुख है । हमने शब्दतत्व या वाकतत्व को हृदयंगम कर लिया है । वाक तत्व पर चर्चा में हमने देखा था कि दीक्षा संस्कार के समय गुरु शिष्य को पश्यन्ती स्तर से आहरित चैतन्यात्मक वस्तु वैखरी वाक् के स्थूल शब्द से आवेष्ठित होती है । साधक साधना के द्वारा उस स्थूल बाह्य आवरण को हटाता है । यह आवरण हटाने का कार्य जप क्रिया के द्वारा संभव होता है । आवरण के हटते ही चित्त ज्योतिर्मय हो जाता है ।

हमलोग जिन शब्दों का उच्चारण करते हैं उनमें आगन्तुक मल विद्यमान रहता है । जप क्रिया के फलस्वरुप धीरे धीरे शब्दगत मल क्षीण होता जाता है । इस प्रकार गुरु शक्ति के प्रभाव से अथवा तीव्र अभ्यास के कारण वैखरी शब्द क्रमशः संस्कृत या शोधित होता है । वैखरी वाक् के शोधन हो जाने के पश्चात वर्ण गलकर नाद रुप में प्रवाहित होने लगता है और मन उर्घ्व की ओर उत्थित होने लगता है । इधर सुषुम्ना का मार्ग खुल जाता है तब मन और वायु सूक्ष्म होकर उसमें प्रविष्ठ होजाते हैं । इस प्रकार कुण्डलिनी का जागरन संभव होता है ।

मन्त्र और जप के विषय में इतना ही लिखकर औघड़ भगवान राम जी के साधना विषयक चर्चा में आगे बढ़ते हैं ।

क्रीं कुण्ड स्थल में आप लगभग छह महीने ही रहे होंगे । इस आश्रम निवास काल में अनेक विचित्र घटनाएँ घटीं । उन समस्त घटनाओं के केन्द्र में अनिवार्य रुप से आप होते ही थे ।

" दीक्षा संस्कार के पश्चात महँथ जी आपको अघोर परम्परा, पूर्व के आचार्यों के द्वारा प्रणीत ग्रँथों का ज्ञान, मुड़िया अघोरियों द्वारा आश्रम निवास के तौर तरीके, साधना विषयक आवश्यक जानकारी आदि दिलवाना चाहते थे । छेदी मास्टर बहुत समय से आश्रम से जुड़े थे । उन्होंने अघोर ग्रँथों का भली प्रकार से पारायण किया था । महँथ बाबा राजेश्वर राम जी उन पर स्नेह भी करते थे । उन्होंने आपको पढ़ाने का भार छेदी मास्टर को सौंप दिया । महँथ जी के आदेशानुसार आपकी पढ़ाई शुरु हो गई । जब अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी का प्रसिद्ध ग्रँथ " पोथी विवेकसार " को पढ़ाया जाने लगा, छेदी मास्टर के ध्यान में एक बात आयी कि जबतक वे एक पँक्ति का भाव बतलाते उनका विद्यार्थी औघड़ भगवान राम आगे की पँक्तियों का भाव स्वयमेव बतलाने लगते थे । मास्टर जी को इस बिलक्षण घटना से बड़ा आश्चर्य हुआ । तत्काल उन्होंने इस बात से महँथ जी को अवगत कराया । महँथ जी भी अपने इस नवीन शिष्य के बिलक्षण गुणों को देख रहे थे । "

औघड़ भगवान राम जी को साधना के लिये आवश्यक सामग्री यथा मन्त्र , क्रिया , औषधि एवं अन्य साधन अनायास ही उपलब्ध होने लगे । वे जो चाहते उपस्थित हो जाता । अब तक उन्हें अपनी साधना ठीक दिशा में बढ़ने का भी बिश्वास हो गया था । इसी बीच एक और घटना घटी । घटना अघोरेश्वर भगवान राम जी के शब्दों मे इस प्रकार घटी थी ।

"अभी वर्षा का ही समय था । महँथ जी कोठरी की ताली मुझे देकर कहीं चले गये थे । मैं भी अपनी दिनचर्या में व्यस्त था । एकाएक महँथ जी वापस आ गये और आते ही भँडार घर की ताली माँगने लगे । मुझे विस्मरण हो गया था कि ताली कहाँ रख दी है । मैंने आग्रह पूर्वक महँथ जी से कहा कि मैंने ताली खो दी है । इसलिये आप कल तक का अवसर प्रदान करें तो मैं ताली ला दूँगा । इस पर महँथ जी अत्यंत क्रुद्ध हो गये । उन्होंने तत्काल कमरा खोलकर अपना सामान देखना चाहा । मैं भी कुछ चकित हो गया और पुनः महँथ जी को मनाने का प्रयास करने लगा । जब वे नहीं माने तो मैंने उपस्थित लोगों के सामने ही ताले का स्पर्ष कर दिया और वह तत्काल खुल गया । अपना सामान यथास्थान पाकर महँथ जी आश्वस्थ तो हुए पर उनको एक नयी चिन्ता ने घेर लिया कि सम्भवतः मेरे शिष्य का कोई अन्य गुरु भी है । इस भाव के कारण मैं आगे चलकर अधिक समय तक स्थायी रुप से स्थल में न रह सका । "

औघड़ भगवान राम जी की साधना शनै शनै आगे बढ़ती रही और आश्चर्यजनक घटनाएँ घटती रहीं । इसी बीच योगिराज कच्चाबाबा के शिष्य परम्परा के अवधूत छेदीबाबा जी से आपका बाबा कीनाराम स्थल में ही सम्पर्क हो गया । इस सम्पर्क ने आपकी साधना एवँ भावी जीवन को गहराई तक प्रभावित किया ।

क्रमशः

रविवार, नवंबर 22, 2009

अघोरेश्वर भगवान राम जीः अघोर दीक्षा

बालक भगवान दास २८ जुलाई सन् १९५१ ई० दिन शनिवार को प्रातः .३० बजे सुविख्यात अघोरपीठ, कीनाराम स्थल , क्रीं कुण्ड वाराणसी में प्रविष्ठ हुए थे उस समय स्थल के महंथ बाबा राजेश्वर राम जी सो रहे थे आपको महंथ जी ने स्थल में निवास हेतु अनुमत कर दिया दूसरे दिन बाबा आशु राम, जो स्थल के महंथ जी के गुरुभाई एवं स्वयं भी अघोराचार्य थे, ने किसी भक्त द्वारा उपहार में भेजे गये मछली भात आपको खाने के लिये दिया अबतक वैष्णवाचार में रहने के कारण आपको मछलीभात खाना स्वीकार नहीं हुआ आपने ऊपर ऊपर का भात थोड़ा सा खाकर शेष भोजन क्रीं कुण्ड में डाल दिया और अपनी थाली माँज कर रख दिया

एक दिन महंथ जी के किसी मुसलमान मित्र से मिलाद का निमन्त्रण मिला महंथ जी ने बालक भगवानदास को उसमें शरीक होने का आदेश दिया मिलाद शरीफ के बाद बुनियां बटीं आपने ग्रहण तो कर लिया पर आपके पुराने संस्कार ने आपको विचलित कर दिया मुसलमान का छुआ अन्न हिन्दू कैसे ग्रहण करे आप स्थल लौटे रात में जब स्थल के सब लोग सो गये आपने गँगा जी की ओर प्रस्थान किया आपने उक्त पाप के परिहार के निमित्त अनेक बार पतितपावनी गँगा जी में स्नान किया सबेरे जब यह बात महंथ जी की जानकारी में लाया गया, उन्होने आपको बुलाकर समझाया " हमारी कोई जाति नहीं, हम सभी धर्मों के प्रति आदर रखते हैं हम छूआछूत में विश्वास नहीं करते हम प्रत्येक मनुष्य को अपना भाई और प्रत्येक स्त्री को माता समझते हैं मानव मानव में कैसा भेद, कैसा दुराव ? " उसी समय आपके मन में यह भाव आया कि यदि हमको अघोरी होना है तो इस भाव को ग्रहण करना होगा तथा समस्त संकीर्णता मूलक भाव का परित्याग करना होगा क्रमशः आपकी समस्त कठिनाइयाँ दूर होती गईं

क्रींकुण्ड स्थल में बाबा कीनाराम जी द्वारा प्रज्वलित अखण्ड धूनी की सेवा आश्रमवासी करते हैं अखण्डधूनी को प्रज्वलित रखने के लिये श्मशान से लाई गई लकड़ियों का उपयोग होता है ये लकड़ियाँ हरिश्चन्द्रघाट से लायी जाती हैं महंत जी ने बालक भगवान दास को लकड़ी लाने के लिये बाबा आशुराम के साथ भेजा यह काम कम आयु तथा कठोर श्रम का अभ्यास होने के कारण आपके लिये कठिन था आप प्रायः थक जाया करते थे इतना होते हुए भी आप आश्रम का समस्त कार्य तथा गुरु सेवा बड़े ही मनोयोग पूर्वक करते रहे आश्रम की इन्ही कठिनाइयों के कारण आपने एक बार गुण्डी लौटकर अपने शुभ चिंतक परमहंस जी से सलाह ली थी परमहंस जी ने दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ने की सलाह दी थी

बालक भगवान दास आश्रम प्रवेश के दिन से मास तक अघोराचार्य कीनाराम स्थल में रहे इसीबीच आपको बाबा राजेश्वर राम जी से अघोरपथ की दीक्षा प्राप्त हुई

यहाँ पर दीक्षा के विषय में कुछ तथ्य प्रस्तुत करना समीचिन प्रतीत होता है प्राप्त सामग्री प्रस्तुत है

दीक्षा

दीक्षा कीनारामी अघोरियों में संस्कार के नाम से भी जाना जाता है । गुरु दीक्षा देते हैं और शिष्य ग्रहण करता है । गुरु शिष्य का अधिकार जानकर ही दीक्षा प्रदान करते हैं । जिसका आधार दुर्बल है उसे दीक्षादान नहीं होता । अधिकारी शिष्य के आधार की योग्यता तथा प्रकृति विलक्षण होती है । शिष्य के अधिकार का निर्णय जन्म काल से होता है । जीव क्षण में जन्म लेने से योगी और काल में जन्म लेने से साधक बनता है ।

अध्यात्म के क्षेत्र में गुरु का स्थान सर्वोपरि होता है । गुरु को जन्म, स्थिति और प्रलय के अधिष्ठात्री देवता ब्रह्मा , विष्णु , और महेश के अलावा परम ब्रह्म का साक्षात स्वरुप माना गया है । गुरु ही शिष्य की भक्ति और मुक्ति के कारण स्वरुप हैं । गुरु की अहैतुकी कृपा शिष्य को तीनों गुण सत्, रज, और तम् से मुक्ति दिलाकर त्रिगुणातीत अवस्था में प्रतिष्ठित कर देने में समर्थ है । शिव महिम्न स्तोत्र में कहा गया है " अघोरान्ना परो मन्त्रः नास्ति तत्वं गुरो परम् " अर्थात अघोर मन्त्र से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है और गुरु तत्व से उँचा या परम् कोई तत्व नहीं है । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने गुरु के विषय में बतलाया है कि " यह हाड़माँस की देह गुरु नहीं है । गुरु वह पीठ है जिसके द्वारा व्यक्त विचार तुम में परिपक्वता का पूरक होगा । यदि तुम उसे पालन करते रहोगे, तो गुरुत्व को जानने में सनर्थ होओगे । गुरु तुम्हारे विचार की परिपक्वता, निष्ठा की परिपक्वता, विश्वास की परिपक्वता हैं ।"

दीक्षा के तीन प्रकार बतलाये गये हैं ।

, साधक दीक्षा

, योगी दीक्षा

, कर्ण मन्त्र दीक्षा

साधक दीक्षाः दीक्षादान होने पर गुरुपदिष्ठ बीजमन्त्र साधक के हृदयदेश में स्थापित होता है तथा साधक के द्वारा गोपनीय विधियों के द्वारा शोधित और रक्षित होकर पुष्ट होता रहता है । समयकाल पाकर बीज आकार धारण करता है और बाद में यही सत्ता साकार इष्टदेवता के रुप में प्रकट होता है । योगी दीक्षा और साधक दीक्षा दोनो में ही कुण्डलिनी जागरण होता है । साधक दीक्षा में शक्ति का इतना संचार हो जाता है कि जैसे ही पुरुषाकार का योग होता है कुण्डलिनी जाग जाती है । बाद में गुरु प्रदत्त कर्म के समुचित सम्पादन से उक्त जाग्रत शुद्ध तेज प्रज्वलित होकर साधक के वासना, संस्कार आदि के आवरण को भस्म कर देता है । साधक का विकास होते होते अन्त में सिद्धावस्था आती है जब वासनादि समस्त कल्मशों का सम्पूर्ण रुप से क्षय हो जाता है और कुण्डलिनी शक्ति इष्टदेवता के रुप में प्रकट होती है, पर उस समय साधक का देह नहीं रहता । साधक में सिद्धि के आविर्भाव के साथ साथ देहान्त हो जाता है ।

योगी दीक्षाः योगी दीक्षा की प्रक्रिया थोड़ी अलग होती है । योगी की कुण्डलिनी को गुरुदेव दीक्षा के समय ही जगा देते हैं । योगी को कुण्डलिनी शक्ति साकार इष्टदेवता के रुप में प्राप्त हो जाती है, बाद में अपने कर्मों के द्वारा उसकी आराधना शुरु करता है । योगी अधिक सामर्थवान होता है । उसे वासना का त्याग नहीं करना पड़ता । योगी वासनादि को निर्मल बनाकर अपनी निज स्वरुप में नियोजित कर लेता है । वह शरीर से भी इष्टदेवता का दर्शन करने में समर्थ हो जाता है । योगी जब पूर्ण सिद्ध हो जाता है तब उन्हें निर्मल ज्ञान मिलता है या सत्य का साक्षात्कार हो जाता है । वह अलौकिक शक्ति का अधिकारी बन जाता है । इसमें तीन प्रधान शक्तियाँ हैं इच्छा, ज्ञान और क्रिया । ज्ञान शक्ति से वह सर्वज्ञ तथा क्रिया के प्रभाव से सर्वकर्ता बन जाता है । इच्छा शक्ति के प्रभाव से योगी कोई भी कार्य कर सकता है । इस शक्ति के उदय होने से ज्ञान तथा क्रिया की आवश्यकता नही् होती पर योगी के इच्छानुसार कार्य होता है । अघोर पथ में दीक्षा संस्कार के समय गुरु अधिकारी शिष्य की कुण्डलिनी जगाकर तीन चक्र ! मूलाधार, स्वाधिष्टान और मणिपुर ! तक उठा देते हैं । इसके बाद उस योगी का ईष्ट साकार हो जाता है और फिर शुरु हो जाती है उनकी बिलक्षण आराधना ।

कर्णमन्त्र दीक्षाः इस दीक्षा की गिनती योग साधकों द्वारा दीक्षा के प्रकार में नहीं की जाती । यह एक प्रकार से कर्म काण्ड के बिधान के रुप में सम्पन्न किया जाता है । इसमें गुरु, आचार्य, व्यास, पुरोहित, शिक्षक, शिष्य या शिक्षार्थी के कान में मन्त्र फूँक देते हैं और दीक्षा सम्पन्न हो जाती है । आजकल इस पद्धति से दीक्षा दान करने या पाने की होड़ सी लगी हुई है । बहुत सारी संस्थाएँ, तथाकथित संत महात्मा, आदि विज्ञापन का सहारा लेकर स्वयं को महिमा मंडित कराकर शिष्यों के कान फूँकने में संलग्न हैं, इसीलिये हमने इसकी गिनती कर ली है ।

क्रींकुण्ड स्थल पर बालक भगवान दास के दीक्षा संस्कार के अवसर पर तीन चार दीक्षार्थी और भी आये हुए थे । सभी लोग चक्रपूजन हेतु गोल आकार बनाकर बैठे । महंथ जी ने आवश्यक कलश आदि स्थापित कर पूजन सम्पन्न किया । तदनंतर चक्रपूजन आरम्भ कराया । एक पात्र में मदिरा डाली गई । पात्र में से पहले चक्रेश्वर महंथ जी ने थोड़ी सी मदिरा पी, पात्र में का शेषाँश नव दीक्षित होने वाले शिष्यों को बारी बारी से मिला । चक्रपूजन के पश्चात कुछ गोप्य पूजन भी हुआ । गुरु ने आपको मन्त्र दीक्षा भी दी । इसके पश्चात महंथ जी ने आपकी शिखा के दो चार बाल उखाड़ दिये और नापित को आदेशित कर आपके सिर के बाल मूँड़वा दिये । इस प्रकार आपका दीक्षा संस्कार पूर्ण हुआ । आपका नाम अब भगवान दास से भगवान राम हो गया ।

क्रमशः