सोमवार, जुलाई 13, 2015

अघोर वचन - 41


" मस्तक को खाली कर, मन को हलका कर, शरीर को ढ़ीला कर, या एक क्षण के लिये चक्षु बन्द करें । और इसलिये चक्षु न बन्द करें कि चक्षु बन्द करके अपने आप को अन्धकार में डाल दें । इसलिये चक्षु बन्द करने का प्रयोजन है कि हम अन्तराल के चक्षु की ओर मुँह करके उसमें क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है, उस परम सत्य को ढ़ूँढ़ने का प्रयत्न करें ।"
                                                      ०००

मनुष्य के पास दो चीजें हैं, १, शरीर २, चेतना । शरीर यन्त्र है और चेतना यंत्री । यन्त्र की अपनी कोई स्वतंत्र इयत्ता नहीं होती । चेतना या मन के इशारे पर शरीर को नाचना होता है । भूख और प्यास शरीर की जरूरतें हैं पर अनुभव करता है मन । मन ही जरूरत पूर्ति के उपाय भी करता है और संतोष भी वही पाता है । मन शरीर पर नियंत्रण मस्तिष्क के द्वारा रखता है ।  चूँकि मन आठोंयाम क्रियाशील रहता है अतः हमारा मस्तिष्क भी क्रियाशील रहता है ।

मस्तक को खाली करने के माने हर समय क्रियाशील रहने वाले मस्तिष्क को विराम देना है । मन को हलका करने के माने उसे उसको स्वाभाविक रूप में रखना है, अपनी ओर से कोई भी योगदान ना हो । ना कुछ सोचें, ना स्मरण करें, ना उससे लड़ें और ना ही उसके साथ हो लें ।

वचन में अन्तराल के चक्षु की ओर उन्मुख होने की बात कही गई है । हमें इस चक्षु की ना तो जानकारी है और ना अनुभव । भौतिक चक्षु से इतर यह चक्षु निश्चय ही हमारे मानस शरीर की वस्तु है । मनोमय कोष का अँग है । इसका मतलब हुआ कि मनुष्य को बताये गये ढ़ँग से इस भौतिक शरीर के अवयव को स्थगित कर मानस शरीर के अवयवों की पड़ताल करनी चाहिये । उसमें की संरचनायें, भाव और जो भी हो रहा है का स्थिर भाव से निरीक्षण, परीक्षण कर उस परम सत्य जो हमारी दृष्टि में, अनुभव में नहीं आता है, अज्ञात है को ढ़ूँढ़ने का प्रयत्न करना चाहिये ।

इसमें अघोरेश्वर ने उस परम सत्य, अज्ञात को पाने की क्रिया को सरल रूप में उद्घाटित किया है ।
                                                        ०००



सोमवार, जुलाई 06, 2015

अघोर वचन -40


" असत्य पुरूष उसे कहते हैं जो बिना पूछे दूसरे के अवगुण को बार बार दुहराता है, निन्दा करता है, अपने अवगुण को ढ़ाँकता है । वह बिल्कुल साथ करने के योग्य नहीं है, निन्दनीय विचारों से परिपूरित पात्र है ।"
                                                    ०००
मनोवैज्ञानिकों ने, महात्माओं ने, ऋषियों ने मानव के सोचने, देखने की प्रवृत्ति का गहन अध्ययन, गँभीर गवेषणा के पश्चात पाया कि पुरूष (नर, नारी दोनों ) को तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है । १, उत्तम पुरूष । २, मध्यम पुरूष । ३, अन्य पुरूष । व्यक्ति स्वयँ को हर हमेशा उत्तम पुरूष मानता है । दूसरा व्यक्ति जो सामने होता है उसमें कम मात्रा में अवगुण देखता है, इसलिये वह दूसरा व्यक्ति मध्यम पुरूष होता है । तीसरा जो अनुपस्थित व्यक्ति है वह अन्य पुरूष है । अन्य पुरूष को अवगुणों का भँडार माना, समझा जाता है ।

व्यक्ति अपने उत्तम पुरूष होने के अहँकार में दूसरों के अवगुणों को बढ़ा चढ़ा कर जगह जगह बखान किया करता है । दूसरों पर हँसता है । निन्दा करता है । नीचा दिखाने का प्रयास करता है । ऐसा वह अपने अवगुणों को ढ़कने के लिये करता है, और ज्यादातर अपने को ऊँचा दिखाने के लिये भी करता है । ऐसा मनुष्य हमारे सामने भले ही हमारा आत्मीय बना रहे । हमारे अवगुणों को प्रचारित ना करे । हमारी निन्दा ना करे, पर हमारी अनुपस्थिति में, हमारे सामने जैसे दूसरों की गलतियाँ छाँटता है, भला बुरा कहता है, हमारी भी करेगा । ऐसे व्यक्ति का साथ रहने से, उसके परनिन्दा से भरे विचार हमारे मन को भी कलुषित कर देंगे । सँग साथ का हम पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता । इसलिये ऐसे व्यक्ति से हमें दूर ही रहना चाहिये ।

पुरूषमात्र के लिये सत्यनिष्ठा को आवश्यक माना गया है । इसके अनुपालन के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य को सत्य का ज्ञान हो । समझे । देखे । व्यवहार में उतारे । यह वह पथ है कि जिसमें चलकर मनुष्य मन, कर्म और वचन से पवित्रता को पाता है । यही पवित्रता उसके अस्तित्व को सत या सत्य में परिणत कर देती है और वह मनुष्य सत्य पुरूष कहलाने के योग्य हो जाता है । इसके बिरूद्धाचरण वाला मनुष्य असत्य पुरूष की श्रेणी में गिना जाता है ।
                                                     ०००


 




शनिवार, जुलाई 04, 2015

अघोर वचन -39


"बहुत से ईर्ष्या, कलह, भय से आदमी भयभीत है । अपने बन्धु बान्धवों से भयभीत है, अपने बच्चों पत्नी से भयभीत है, अड़ोस पड़ोस से भयभीत है, अपने मिलने जुलनेवालों से भयभीत है । भय से आक्राँत हम लोगों का जीवन ग्रस्त है । यह निर्भय होने के लिये, भय रहित होने के लिये हम प्रार्थना करते हैं ।"
                                                      ०००
मानव ने विकास के विभिन्न चरणों में अपनी बुभुक्षा मिटाने, शरीर रक्षा, सामाजिकता जिसमें राजनीति शामिल है, श्रम कम करने के उपाय, यात्रा को सुगम बनाने आदि आदि उपाय विकसित किये है । इन उपायों ने मनुष्य जीवन में सुख की अभिबृद्धि तो की है, पर उसे जटिल से जटिलतर बनाता जा रहा है । इसमें एक बड़ी गलती हुई है, वह है विकास की दौड़ में हमने मानवीयता को एकदम से भुला दिया है । परिणामतः मनुष्य इकाई के रूप में तो समृद्ध हो गया, पर मानवमात्र के स्तर पर वह अँतिम साँसें गिन रहा है । कभी भी उसकी मृत्यु की घोषणा हो सकती है ।

जब मनुष्य इकाई के रूप में समृद्ध होता जाता है तो वह अन्यों के प्रति शँकालु हो जाता है । आशँका कलह और भय को जन्म देती है । वह अपने आसपास उपस्थित सभी लोगों से भय खाता है । यहाँ तक कि उसका परिवार, बन्धु बाँधव, पड़ोसी और मित्र भी भय के कारण बन जाते हैं । भय उसके मन में ग्रँथी का रूप धरकर गहराई तक पैठ जाता है ।

आज हमारी यही स्थिति है । हम चौबीस घँटा, सातों दिन भय में जीते हैं । भय हमारे भीतर इतनी गहराई में उतर गया है कि हम उसकी उपस्थिति को भुलाकर जीते चले जाते हैं । हमारा यह भय कभी अकारण आक्रोश के रूप में प्रकट होता है, तो कभी घमँड का रूप धर लेता है । इनसे कलह की उत्पत्ति होती है और कलह हमारे भय को और भी बढ़ाता जाता है ।

भय का दुष्प्रभाव हमारे शरीर और मन दोनों पर पड़ता है । हम कुँठित हो जाते हैं ।  हमारी प्रगति रूक जाती है । समय का अपव्यय होता है । जीवन निरर्थक बातों में व्ययगत हो जाता है और हम अपने आप से ही दूर होते जाते हैं ।
                                                                  ०००