बुधवार, मार्च 17, 2010

अघोर साधना के मूल तत्वः वेशभूषा व भिक्षाटन


हम सब ने प्रत्यक्ष या संचार माध्यमों में एकाधिक बार अघोरियों को देखा है । जटाजूट धारी, अर्धनग्न, त्रिशूल और खप्पर पकड़कर भय फैलाती छबि ही हमारे मानस पटल पर उभरती है । नागा साधु भी , जो सर्वथा नग्न अवस्था में रहते हैं, अघोरी ही हैं । उक्त विचित्र वेशभूषा में हिमाली और गिरनारी दोनों प्रकार के ही साधु दिखलाई पड़ते हैं । कुछएक ठग भी कभी कभी इस वेशभूषा को धारण किये दिखलाई पड़ते हैं ।

अघोरपथ में इस प्रकार की वेशभूषा  अँगिकार करने के पीछे साधना विषयक कारण प्रमुख रहे हैं । अघोराचार्य अपना अधिकाँश समय श्मशान में व्यतीत करते रहे हैं । श्मशान में निवास के कारण शारीरिक स्वच्छता, वस्त्र, उदर भरण आदि की न्यूनता स्वाभाविक है, तिसपर इन संतों का मन हर हमेशा उस अज्ञात की ओर ही उन्मुख रहने के कारण इनका ध्यान शरीर की ओर नहीं जाता और उक्त स्थिति सहज ही बनती जाती है ।

अघोरपथ के संत महात्मा आदिमकाल से ही कम संख्या में होते आये हैं । हिमाली घराने में बाबा गोरक्षनाथ जी और उनकी परम्परा के अन्य सिद्धों के द्वारा उत्तर भारत में आश्रम, मठ आदि स्थापित करने के बाद आश्रमवासी साधकों की संख्या अवश्य बढ़ी, जो आज तक चली आ रही है । ये साधु यदा कदा जब तिर्थाटन के लिये समूह में निकलते थे तो जगह जगह श्रद्धालुओं द्वारा दान की गई भूमि पर छोटे छोटे मठ नुमा बने हुए स्थलों पर एक दो दिन ठहरते और आगे बढ़ जाते थे । सामान्यतः उनके लिये इन्ही स्थलों पर भिक्षा की व्यवस्था हो जाया करती थी । साधुओं की टोली के आगमन पर आसपास के श्रद्धालु भक्त इन स्थलों पर जाकर अपना भेंट चढ़ाते और प्रवचन सुनते थे । इन भक्तों की समस्याओं का समाधान भी  इन स्थलों पर ऐसे मौकों पर हो जाया करता था । आजकल ऐसे स्थल या तो उजाड़ पड़े हैं या सेवादारों या अन्य लोगों के द्वारा इनपर आधिपत्य जमा लिया गया है ।

गिरनारी या किनारामी अघोरियों का निवास गुजरात में गिरनार पर्वत के आसपास और बनारस तथा बनारस के आसपास होता आया है । कभी कभी राजस्थान, महाराष्ट्र, बंगाल तथा देश के अन्य भू भाग में भी एक दो महात्माओं का सँधान मिलता है । दक्षिण भारत में अघोर पथ के पथिक ब्रह्मनिष्ठ कहलाते हैं । वे दक्षिणाँचल तक ही सीमित रहे हैं तथा दो चार महात्माओं के अलावा अन्य अघोराचार्यों की जानकारी उपलब्ध नहीं है ।

गिरनारी या कीनारामी साधु सर में बाल नहीं रखते । मुड़िया होते हैं । वस्त्र के नाम पर कफन का टुकड़ा लपेटते हैं । अघोरेश्वर भगवान राम जी  ने सफेद लुँगी और बँडी पहनना शुरू किया, तब से इस परम्परा का यही वेश हो गया है, लेकिन यह नियम नहीं है ।

बाबा कीनाराम जी ने अपने शिष्यों को इस विषय में निर्देश देते हुए कहा थाः

" यहाँ नगर और ग्राम से क्षण भर के लिये वैराग्य से प्रेरित जन श्मशान में शव को लेकर आते हैं । जाओ साधुओ, उपेक्षित वस्त्र, जो कफन है, वही साध्य है, उसे अँगिकार करना । संसार में जाग्रत होकर निवास करो । सभी जातियों, सभी धर्मों, सभी प्राणियों के पाँच घरों से उपलब्ध भिक्षाटन पर ही जीवन यापन एवँ प्राण रक्षा करो । खाद्य, अखाद्य, विधि निषेध से उपराम होकर जो रुचे सो पचे के सिद्धाँत का अवलम्बन लेकर पृथ्वी में विचरो । "

भिक्षाटन के विषय में अपने शिष्यों को शिक्षा देते हुए अघोरेश्वर भगवान राम जी ने बतलाया हैः

" मुड़िया साधु! जब दिन का मध्यान्ह बेला हो जाय तब ग्रामीण के घर भिक्षाटन के लिये जाना चाहिये । तब तक गृहस्थ मध्यान्ह का भोजन कर चुके होते हैं और जो कुछ बचा रहता है उसे देने में उन्हें हिचक नहीं होती है । तुम उन पर बोझ नहीं बनते और तुम्हें भिक्षा देकर वे अपने को वंचित नहीं समझते । ऐसा होने पर तूँ समझ जाना यही हमारा परम कर्तब्य है, साधुता है । यही औघड़ अघोरेश्वर के योग्य कृत्य है । "

क्रमशः

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