रविवार, अगस्त 29, 2010

अघोरेश्वर वन्दे जगत् गुरुम्

 परमपूज्य अघोरेश्वर कीनाराम जी महाराज

गुरुदेव अघोरेश्वर भगवान राम जी 


ईश्वरानुग्रँहादेव पुँसानद्वेत वासना ।
महद्भयपरित्राणा विप्राणामुपजायते ।।
( महान भय (मृत्यु भय) से रक्षा करनेवाली अद्वेत की वासना मनुष्यों में, विप्रों में ईश्वर के अनुग्रह से ही उत्पन्न होती है । )

सन १९७३ का मई का महीना था । अघोरेश्वर भगवान राम जी जशपुर के आश्रमों में आये हुए थे । वे  कभी सोगड़ा आश्रम में निवास करते तो कभी गम्हरिया में । कभी नारायणपुर भी चले जाते थे । जशपुर में सभी जानते रहते थे कि अघोरेश्वर आज कहाँ हैं । जिसको जब समय सुविधा होती अघोरेश्वर का सानिध्य प्राप्त करने के लिये पहुँच जाते थे । अघोरेश्वर भी उन दिनों सबको भरपूर समय देते । सबकी सुनते । सबको कहते । वार्तालाप की यह कड़ी घँटों चलती ।  इसी बीच श्रद्धालुओं, भक्तों , शिष्यों की शिक्षा भी चलती रहती । वे जिसको जो सिखाना चाहते बात बात में सिखा देते । उनकी अचिंत्य लीला वही जानते थे ।

लेखक का विवाह जशपुर के राज ज्योतिषी महापात्र परिवार में सात आठ माह पूर्व ही हुआ था । वहीं आदरणीय बाबू पारस नाथ जी सहाय से भेंट हुई थी । साधु पुरुष सहाय बाबू जब भी भेंट होती लेखक को अघोरेश्वर का दर्शन करने तथा  दीक्षा की याचना करने के लिये अभिप्रेरित करते रहते थे । लेखक भी बचपन से ही साधु सँगत में रस पाते थे । लेखक पूर्व में दो तीन बार अघोरेश्वर के दर्शन की मँशा से जशपुर की यात्रा कर चुके थे, पर दर्शन नहीं हो पाया था । जब तक लेखक जशपुर पहुँचते अघोरेश्वर का बनारस प्रस्थान हो चुका होता था ।

इस बार समय पर समाचार मिला था । लेखक तत्काल चल पड़े थे । तीन मई १९७३ को गम्हरिया आश्रम के सामने उस महा विभूति का दर्शन लाभ हुआ । जीवन धन्य हो गया । दर्शन मात्र से हृदय में यह भाव जागा कि जिस पथ प्रदर्शक, शिक्षक, ज्ञानी, ध्यानी, गुरु की खोज आज तक लेखक करते आ रहे थे वे यही हैं । इन्ही की शरण में, छत्रछाया में इस जीवन का कल्याण होना है । भटकन समाप्त हो गया । 

उसके बाद लगभग सालभर का समय बीत गया । अघोरेश्वर का या तो दर्शन लाभ नहीं हुआ या दर्शन हुआ भी तो उचित समय, सुयोग नहीं मिला कि अघोरेश्वर से शरण हेतु विनय किया जा सके ।

सन् १९७४ ई० के नवम्बर माह की १९ तारीख को अघोरेश्वर  का सोगड़ा आश्रम में पुनः दर्शन लाभ हुआ । समय सुयोग सब अनुकूल थे । लेखक अघोरेश्वर के श्री चरणों में विनयावनत होकर अपनी शरण में लेने हेतु निवेदन किया । लेखक का निवेदन तत्काल स्वीकार हो गया । आदेश हुआ कि दूसरे दिन यानि दि. २०. ११. १९७४ को सुबह छै बजे उनके चरणकमल की छाँह लेखक के सिर पर होगी । उस दिन जशपुर लौट जाने का निर्देश हुआ ।

उस दिन का बचा हुआ भाग और रात्री कैसे कटी अभिव्यक्त कर पाना दूष्कर कार्य है । शरीर इतना हल्का हो गया था कि पाँव मानो जमीन पर नहीं पड़ रहे थे । मन स्वतः अन्तर्मुखी होता जा रहा था । न किसी से बात करने का मन होता था और न किसी को देखने का । रात्री अर्ध सुसुप्ति की अवस्था में कब कट गई पता ही नहीं चला । भोर में चार बजे बिस्तर त्याग दिया । नित्यकर्म से निवृत होकर दीक्षा संस्कार हेतु निर्दिष्ट सामग्री के साथ सुबह पाँच बजे सोगड़ा आश्रम जाने के लिये तैयार हो गया ।

जशपुर नगर से सोगड़ा आश्रम की दूरी तेरह किलोमीटर है । उन दिनों कोई पव्लिक ट्राँसपोर्ट की सुविधा उपलब्ध नहीं थी । लोग पैदल जाते थे या सायकल से जाते थे । बीच में एक नदी पड़ती है, जिसपर उन दिनों पुल नहीं बना था । जशपुर से सोगड़ा इन बाधाओं को पार कर पहुँचने में ४५ मिनट से एक घँटा का समय लग जाता था ।  लेखक भोर में पाँच बजे जशपुरनगर से सोगड़ा के लिये चलकर छै बजे के कुछ मिनट पहले अघोरेश्वर के चरणों में पहुँच गये ।

सोगड़ा आश्रम के बाहरी गेट से थोड़ा ही आगे एक विशाल महुवे का वृक्ष खड़ा था । वृक्ष के नीचे अलाव जल रहा था । अघोरेश्वर अपनी चिर परिचित मनमोहिनी मुद्रा में वृक्ष और अलाव के बीच रखी कुर्सी पर विराजमान थे । अघोरेश्वर के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदन करते ही उनके श्रीमुख पर स्मित की रेखा उभर आई । बोलेः "आ गये हो बबुआ । बइठ ।"

" जी बाबा । "

कुछ समय उपराँत उन्होने कहाः " अच्छा चल मँदिर में चल ।"


लेखक मँदिर की ओर चले । अघोरेश्वर भी उठे पर कहाँ गये नहीं पता ।

लेखक के मँदिर पहुँचने के तीन चार मिनट के भीतर अघोरेश्वर भी मँदिर पहुँच गये ।

दीक्षा सँस्कार के पश्चात लेखक को लौट जाने का आदेश हो गया । लेखक सोगड़ा से जशपुर लौटे तथा उसी दिन सँध्या समय निर्देशानुसार उन्होने जशपुर भी छोड़ दिया ।

येनेदं पुरितं सर्वमात्मनैवात्मनात्मनि ।
निराकारं कथं वन्दे ह्याभिन्नं शिवमव्ययम् ।।


( यह दृश्यमान सम्पूर्ण जगत जिस आत्मा द्वारा, आत्मा से, आत्मा में ही पूर्ण हो रहा है, उस निराकार ब्रह्म का, मैं किस प्रकार वन्दन करुँ क्योंकि वह जीव से अभिन्न है, कल्याण स्वरुप है, अव्यय है । )


क्रमशः



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