रविवार, अप्रैल 12, 2015

अघोर वचन - 2

" हम सब जगे हुए भी सोये रहते हैं, और सोये हुए भी मनुष्य जगा हुआ रहता है । जो जगा हुआ रहता है वह दुःख से भगा हुआ रहता है । जो सोया हुआ रहता है वह हर दुःख का सपना देखता रहता है ।"
                                                                   ०००
सामान्यतः सोना, जागना को हम शारीरिक क्रिया में गिनते हैं । वास्तव में यह क्रिया मानसिक है । शरीर जब थक जाता है, स्थिर होकर शक्ति सँचय करता है । शरीर तो यँत्र मात्र है । उसमें सोने जागने जैसा कुछ भी नहीं है । सोता मन है । मन जब शरीर की सारी इन्द्रियों से अपना सम्पर्क शिथिल कर लेता है, विचारों के वेग को अत्यँत धीमा कर लेता है और एकाग्रता की ओर बढ़ने लगता है तब हम कहते हैं कि व्यक्ति सो गया । इससे उलट अवस्था जागरण की होती है ।

उपरोक्त के अलावा भी सुसुप्ति की एक और अवस्था होती है । इस अवस्था में व्यक्ति सामान्य रूप से तो जगा रहता है परन्तु इन्द्रियों के भोग, नानाप्रकार की तृष्णाओं, अहँकार, आदि के विचारों में उसका मन इस कदर वेगवान होकर लिप्त रहता है कि उसे सँसार नहीं दिखता । अपने कर्तव्य से वह विमुख हो जाता है । दुःख और अशान्ति उसे घेर लेते हैं । इसे कहते हैं । जगे हुए सोना ।

लगभग सभी मनुष्य सोते समय भी अपनी शरीर की ओर आने वाले खतरे से सावधान हो जाने का नैसर्गिक गुण रखते हैं । इसे सोये हुए मनुष्य का जगा होना नहीं कह सकते । जब मनुष्य अपने समस्त क्रिया कलाप तो समान्य ढ़ँग से करता रहता है परन्तु उसका मन उनमें लिप्त नहीं होता । उदासीन रहता है । निरपेक्ष रहता है । निरहँकार भाव को प्राप्त हो जाता है । तब हम उसे सोया हुआ मान सकते हैं । ऐसे व्यक्ति बाह्य रूप से तो सोया रहता है लेकिन उसका आँतरिक सँसार सजग रहता है । अपने लक्ष्य के प्रति सचेष्ट रहता है । सँसारिक सम्बन्धों, इन्द्रियों के भोग की वास्तविकता, तथा अपने नैसर्गिक स्वरूप की उसे स्पष्ठ जानकारी रहती है ।
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