गुरुवार, अप्रैल 30, 2015

अघोर वचन -13

"कोई देव मूर्ति ध्वनि नहीं उत्पन्न करती है । उसके बन्द कण्ठ और बन्द वचन से आपके शरीर में एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया होती है जिससे रक्त, मांस, मज्जा में एक अजीब तरह का रसायन बन जाता है जो यह महसूस कराता है कि मेरे इष्ट, मेरे देवता, मेरे गुरू ने बहुत कुछ दिया । बहुत तृप्ति होती है ।"
                                                                ०००

भारत में उपासना की सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार समान रूप से व्यवहृत होता आया है । सगुण उपासना का अपना विस्तृत दर्शन एवँ पद्धति है जो अपने आप में अन्यतम है और पूर्ण भी । इसके अँतरर्गत मूर्तियों और यँत्रों की उपासना की जाती है । ये मूर्तियाँ पत्थर, धातु, मृत्तिका, और काष्ठ आदि की बनाई जाती हैं । ये मूर्तियाँ चूँकि निर्जीव पदार्थ से निर्मित होती हैं, इनसे न तो ध्वनि उत्पन्न होती है और न कोई हलचल ही होती है ।

मूर्तिपूजा के आधार तत्व के रूप में हम मूर्ति में पहले जिवन्यास प्राणप्रतिष्ठा करते है । यानि कि उसमें जान डालते हैं । मूर्ति को सजीव करते हैं । मूर्ति सजीव होकर ही पूजा के योग्य होती है ।

अघोरेश्वर यहाँ पर पूजा की आन्तरिक प्रक्रिया बतला रहे हैं । भली प्रकार से प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति के भले ही कण्ठ बन्द होते हैं यानि देवता बोलते नहीं, वचन या वाणी निनादित नहीं होते परन्तु पूजा करने वाले साधक में उसकी निष्ठा, श्रद्धा एवँ विश्वास के अनुरुप रसायनिक परिवर्तन होने लगते हैं । ध्वनि, सुगन्ध आदि की अनुभूति होने लगती है और साधक को आभास होने लगता है कि गुरू ने सही क्रिया बताई है । मँत्र चैतन्य है । देवता प्रसन्न हो रहे हैं ।
                                                                    ०००




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