गुरुवार, मई 21, 2015

अघोर वचन - 28

" वह पूर्ण विश्वास दे कि तुम्हें मैं अपनाया, और तुम अपना ही हमें भी मानो, और हम, जो तुम में है, उसे ही समझो । वही मेरी आत्मा, वह है । जो इस तरह करने के लिये मुझे बाध्य कर के इस विशेष अवस्था तक पहँचाया, जब इतना हो जाता है तब उसका दुलार, प्यार, लाड़ और वह आनन्द और वह सुख विभोर होता है । उसे कहा जाता है अवधूत, सन्त, महात्मा, महापुरूष ।"
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यह वचन आध्यात्मिक साधना की सम्पूर्ण क्रिया विधि का विवरण समेटे हुये है । गुरू के समक्ष शिष्य के समर्पण करने से लेकर संत में रूपान्तरित होने तक की त्रुटिहीन प्रक्रिया का आलेखन अघोरेश्वर जैसे अधिकारी पुरूष द्वारा ही संभव है । जो जिस राह चला हो वही उस रास्ते का हाल बता सकता है । उसके अवरोधों, कठिनाईयों, आलोक या अँधकार का विवरण देकर मार्गदर्शन कर सकता है । ऐसा ही मार्गदर्शन साधक को सिद्ध और फिर महापुरूष बनने में सहायक होता है । अघोरियों में एक कहावत प्रचलित है कि गुरू शिष्य नहीं बनाता, वह तो गुरू बनाता है ।

श्रद्धालु जब अवधूत, संत, महात्मा के समक्ष ज्ञान के लिये निवेदन करता है तब दीक्षा देकर गुरू रूप में वे विश्वास देते हैं कि वे शिष्य के अपने हैं । यहाँ गुरू शिष्य की आत्म स्थिति एकीकरण की ओर बढ़ती है । गुरू आगे स्पष्ठ करते हैं कि हे ! शिष्य हम ही तुममें हैं । तुम कोई और नहीं हो । यह अद्वैत की स्थिति है । आगे है कि तुममें जो मैं, आत्मा के रूप में हूँ, उसी को तुम्हें समझना है । जानना है । मानना है ।

गुरू, शिष्य के हृदय में स्थापित हो जाता है । यह स्थापना शिष्य को हर समय सचेत करती रहती है । शिष्य कभी भी अपने को अपने ईष्ट से, अपने देवता से दूर नहीं पाता । उसके लिये सब कुछ आसान हो जाता है । धीरे धीरे उसके संचित संस्कारों का क्षय होता जाता है और वह परमानन्द में डूबकर सुखविभोर हो जाता है । इसी स्थिति को कहते हैं अवधूत, सन्त, महात्मा और महापुरूष ।
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