सोमवार, सितंबर 28, 2009

क्रींकुण्ड गद्दी के चौथे महन्थ बाबा धौतार राम


अघोर परम्परा में जात पाँत के भेदभाव के लिये किंचित मात्र भी स्थान नहीं है । अघोराचार्यों ने जाति, धर्म, लिंग का भेदभाव न करते हुए शिष्य बनाया तथा ब्रम्हज्ञान का उपदेश दिया । आज भी यह धारा अविच्छिन्न गति से चलती चली आ रही है । बाबा बीजाराम जी के बाद क्रींकुण्ड की गद्दी पर चौथे महंथ के रुप में बाबा धौतार राम जी बैठे । आप ब्राह्मण कुमार थे । एक कलवार आचार्य के बाद इस अघोरपीठ पर एक ब्राह्मण कुमार का महंथ अभिषिक्त होना अपने आप में एक बड़ी बात है । बाबा धौतारराम के विषय में कोइ भी जानकारी उपलब्ध नहीं है । बाबा के प्रकरण में "आत्म चरितं न प्रकाशयेत " यह उक्ति शब्दशः चरितार्थ होती है ।
क्रमशः

शुक्रवार, सितंबर 25, 2009

क्रींकुण्ड के तीसरे महंथ बाबा बीजाराम

बाबा कीनाराम जी के प्रथम शिष्य एवं क्रीकुण्ड स्थल के तीसरे महंथ बाबा बीजाराम का पूर्व नाम , कुल, गोत्र आदि की जानकारी उपलब्ध नहीं है उनका गाँव, जहाँ वे बाबा कीनाराम जी से भेंट के समय रहते थे, का नाम "नईडीह " है बाबा का जन्म एक अत्यंत ही गरीब परिवार में हुआ था बाबा बालक ही थे, जब उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था
बाबा कीनाराम जी जब ग्राम नई डीह पहुँचे, उन्होने देखा, एक घासफूस की झोपड़ी है झोपड़ी के द्वार पर एक बुढ़िया बैठी कलप कलप कर रो रही है बुढ़िया के रोने का दृश्य कारुणिक था बाबा कीनाराम जी करुणानिधान तो थे ही, उनका हृदय पसीज गया उन्होने रोती हुई बुढ़िया को उसके दुख का कारण पूछा पहले तो बाबा कीनाराम जी को कोई साधारण साधु समझकर बुढ़िया ने कहाः " जाओ बाबा तुम माँगो खाओ, हमारा दुखड़ा जानकर क्या करोगे " परन्तु जब बाबा ने बहुत आग्रह किया तो जाने क्या सोचकर बुढ़िया ने बतलाया " बाबा हमारे बेटे पर जमींदार का पोत चढ़ गया है, इसलिये वह उसे पकड़ ले गया है" यह सुनकर बाबा कीनाराम जी ने बुढिया से जमींदार के घर ले चलने को कहा, जिसे उक्त बुढिया ने कुछ समझते हुए भी मान लिया और उसने बाबा कीनाराम जी को जमींदार के यहाँ ले गई बुढिया का पुत्र जमींदार के घर के बाहर धूप में पड़ा था जमींदार उसे नानाप्रकार से प्रताड़ित कर रहा था बुढिया ने अपने बेटे की ओर संकेत कर बाबा को बतला दिया कि धूप में प्रताड़ित किया जा रहा वही बालक उसका पुत्र है और पुनः रोने लगी बाबा कीनाराम जी ने बालक को एकबार भरपूर दृष्टि से निहारकर जमींदार से कहा कि" मानवता के नाम पर, आपको क्रूर भावना त्यागकर इस बालक को छोड़ देना चाहिये " बाबा कीनाराम जी के कथन पर विशेष ध्यान दिये बिना ही जमींदार बोला " अरे बाबा! तुम साधु हो भिक्षा लो और अपना काम देखो " बाबा कीनाराम जी ने तो जैसे हठ पकड़ लिया बाबा का हठ देखकर जमींदार की नाराजगी बढ़ रही थी, परन्तु वह साधु का अपमान भी नहीं करना चाहता था अतः उन्हें निरुत्तर कर दूर हटाने की नियत से जमींदार ने कहा कि यदि इस लड़के से आपका ऐसा ही मोह है तो इसके उपर जितना पोत है वह आप चुका दो इतना सुनना था कि बाबा ने उस लड़के से कहा " खड़ा तो हो जा बेटा " बालक खड़ा हो गया बाबा कीनाराम जी ने जमींदार से कहा कि " ले जहाँ वह बालक खड़ा है, वहाँ की जमीन खुदवा ले और जितना तेरा रुपया हो निकाल ले " जमींदार बाबा के कहने पर जमीन खुदवाने के लिये एकाएक तो तैयार नहीं हुआ, परन्तु बाबा कीनाराम जी की दृढता के सामने उसे झुकना पड़ा जमीन खोदी गई हाथ दो हाथ खोदते खोदते, वहाँ उपस्थित सभी आश्चर्य चकित हो देखते क्या हैं कि धरती से कलदार ही कलदार निकल रहे हैं यह दृश्य देखते ही जमींदार समझ गया कि ये कोई सिद्ध महात्मा हैं वह दौड़कर बाबा का पाँव पकड़ लिया और क्षमा याचना करने लगा बाबा कीनाराम जी के क्षमा प्रदान करने पर ही उसने बाबा का पाँव छोड़ा उसने तत्काल उस बालक को पोत मुक्त घोषित कर दिया
इस प्रकार लड़के को पोत मुक्त कराकर बाबा ने उसकी माँ को सौंप दिया और अपनी राह चलने लगे बुढिया ने , जो इतनी देर तक संज्ञाशून्य अवस्था में खड़ी थी, बाबा के चरणों में गिर गई उसने विनती भरे शब्दों में याचना की " महाराज! यह लड़का आपका है। आपको सौंपती हूँ आप इसे अपने साथ ले जाँय " बाबा ने बुढिया को बहुत प्रकार से समझाया, पर वह नहीं मानी विवश होकर बाबा कीनाराम जी ने उस बालक को स्वीकार कर लिया और उसे लेकर गिरनार की ओर चल पड़े वही बालक बाद में बाबा बीजाराम कहलाये और क्रींकुण्ड की जगत प्रसिद्ध गद्दी के तीसरे महंथ हुए
महंथ बाबा बीजाराम ने अपने गुरु अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी के दिब्य क्रियाकलापों, चमत्कार भरी घटनाओं, को संकलित कर औघड़ रामकीना कथा के नाम से लिपिबद्ध किया है
इसके अलावा बाबा बीजाराम के विषय में छिटपुट , जहाँतहाँ उल्लेख भर मिलता है

क्रमशः

सोमवार, सितंबर 14, 2009

अघोराचार्य बाबा कालूराम

अघोराचार्य बाबा कालूराम
क्रींकुण्ड गद्दी की महंथ परम्परा
१,बाबा कालूराम
२,महाराज कीनाराम
३, बाबा बीजाराम
४, बाबा धौतारराम
५, बाबा गइबीराम
६, बाबा भवानीराम
७,बाबा जयनारायणराम
८, बाबा मथुराराम
९,बाबा सरयूराम
१० बाबा दलसिंगारराम
११, बाबा राजेश्वररा


















कीना कीना सब कहै, कालू कहै न कोय ।
कालू कीना एक भये, राम करें सो होय ।। "पोथी विवेकसार"


सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के आख्यान से सभी परिचित हैं । उन्होने स्वयं को बेचकर डोम के दास के रुप में काशी के श्मशान में मुर्दा जलाने के शुल्क वसूली का काम करते थे । वे पतित पावनी गंगा के जिस घाट पर यह कार्य किया करते थे उस घाट का नाम बाद में उनके नाम पर हरिश्चन्द्र घाट पड़ गया था । यहीं पर उनके पुत्र रोहितास के शव को दाह संस्कार के लिये लाया गया था । जिस डोम ने राजा हरिश्चन्द्र को खरीदा था, उसका नाम कालू था । उसी कालू ने क्रींकुण्ड के आसपास की सारी भूमि अघोराचार्य को दान दिया था । इसलिये पुरातन काल से ही इस गद्दी पर बैठनेवाले आचार्यों को यहाँ की जनता कालूराम कहकर सम्बोधित करने लगी ।
बाबा कालूराम के विषय में नामोल्लेख के अलावा कोई अधिक विवरण प्राप्त नहीं होता । बाबा कालूराम और बाबा कीनाराम जी के प्रथम भेंट का विवरण बड़ा ही रोचक है । कथा कहती है कि बाबा कीनाराम जी हिमालय में बहुत दिनों तक तपस्या करने के बाद काशी लौटकर हरिश्चन्द्र घाट स्थित श्मशान पहुँचे । उन दिनों वहाँ बाबा कालूराम का डेरा जमा हुआ था । वे श्मशान में दाह के लिये आने वाले मृतकों की पड़ी हुई खोपड़ियों को अपने सिद्धिबल से पास बुलाते थे और उन्हें चना खिलाया करते थे । यह चमत्कार देखकर बाबा कीनाराम जी चकित रह गये । उन्होंने भी अपनी शक्ति का परिचय दिया । बाबा कीनाराम जी ने ऐसा स्तंभन किया कि जब बाबा कालूराम ने खोपड़ियाँ बुलाईं तो वे आईं ही नहीं । बाबा कालूराम ने ध्यान लगाकर सब माजरा जान लिया । वे बाबा कीनाराम जी को भी पहचान गये । बाबा कीनाराम जी ने आगे बढ़कर कहाः " महाराज ! यह क्या खेल कर रहे हैं, चलिये अपने स्थान पर चलिये । " बाबा कालूराम ने कहा कि "मुझे बड़ी भूख लगी है, मछली खिलाओगे ।" बाबा कीनाराम जी ने तत्काल गंगाजी से कहा, "गंगिया ला एक मछली तो दे जा ।" बाबा का इतना कहना भर था कि एक बड़ी सी मछली पानी से बाहर रेत पर आकर पड़ रही । बाबा कीनाराम जी ने उसे भूना और सबने उसे भोग लगाया । यह घटना संवत् १७५४ विक्रमी के आस पास की है ।
बाबा कीनाराम जी का इतना परिचय प्राप्त करने के उपरांत बाबा कालूराम ने बाबा कीनाराम जी को अपना वास्तविक स्वरुप का दर्शन कराया । उन्हें क्रीं कुण्ड ले गये । वहीं बाबा कीनाराम जी को अघोर मंत्र देकर अपना शिष्य बना लिया । इसके पश्चात बाबा कीनाराम जी क्रींकुण्ड गद्दी के महंथ हो गये ।
बाबा कालूराम का कहीं कहीं छिटपुट उल्लेख मिलता है, जिसका यथास्थान उल्लेख किया जायेगा ।
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क्रमशः










शुक्रवार, सितंबर 11, 2009

क्रीं कुण्ड











*क्रीं कुण्ड , शिवाला, भेलूपुर , वाराणसी
बाबा कीनाराम ने तो स्वयं कोई आत्मचरित लिखा है और उनके भक्तों तथा अनुयायियों ने ही कोई विशेष सामग्री छोड़ी है, जिससे उनकी जीवनी की प्रामाणिक जानकारी हो सके जो जानकारी आज उपलब्ध है वह मुख्य रुप से विभिन्न आश्रमों में लगे शिलालेख , जनश्रुतियाँ, और बाबा कीनाराम जी द्वारा रचित ग्रंथों से प्राप्त की गई है अब तक बाबा कीनाराम द्वारा रचित अनेक पुस्तकों में से केवल पाँच पुस्तकें ही प्रकाशित हुई हैं ( विवेकसार, रामगीता, रामरसाल, गीतवली, और उन्मुनीराम ) बाबा कीनाराम जी की जगत प्रसिद्ध गद्दी "क्री कुण्ड" शिवाला, वाराणसी में स्थित है इस स्थल में लगे शिलालेख से इस गद्दी की महन्त परम्परा की जानकारी मिलती है शिलालेख इस प्रकार हैः
"महाराज कीनाराम
गिरनार स्थान कृम कुण्ड बी. ३।३३५ भेलूपुर वाराणसी
,बाबा कालूराम ,महाराज कीनाराम , बाबा बीजाराम , बाबा धौतारराम , बाबा गइबीराम , बाबा भवानीराम ,बाबा जयनारायणराम , बाबा मथुराराम ,बाबा सरयूराम १० बाबा दलसिंगारराम ११, बाबा राजेश्वरराम
सन् १९५८ से वार्षिकोत्सव के अवसर पर वेश्याओं का नाच गाना निषिद्ध "
क्रीं कुण्ड स्थल में कुण्ड के अलावा कई शताब्दियों से जलती अखण्ड धूनी, आश्रम परिसर, तथा अनेक समाधियाँ हैं
अखन्ड धूनी महन्त गद्दी के सामने दालान में है इसे सदियों से श्मशान से लाई लकड़ियों से प्रज्वलित रखा जा रहा है चिरकाल से जलती इस धूनी को कई उच्च साधकों की तपस्या योग देने का अवसर मिला है इस धूनी से कोई दुर्गंध नहीं आती साधुओं द्वारा दी गई इस धूनी की विभूति से अनेक रोग शोक दूर भाग जाते हैं





































अखण्ड धूनी,
इस स्थल में औघड़ों का सिंहासन भी प्राँगण के मध्य में रखा है इसे बाबा कीनाराम जी का तपासन भी कहा जाता है
































कीनाराम जी का तपासन
साधकों के लिये इस स्थल के गर्भगृह में भी पूजा करने के लिये काली मन्दिर बना है साधकों को बाहरी आवागमन से विध्न उपस्थित नहीं होता, अतः यह गोप्य पूजा स्थल भी है

क्रमशः

सोमवार, अगस्त 10, 2009

अघोर परम्परा

अघोर परम्परा के अंतर्गत चार प्रकार के सन्यासियों का विवरण महानिर्वाण तंत्र में प्राप्त होता है ब्रम्हावधूत, शैवावधूत़, वीरावधूत और कुलावधूत ये सभी अवधूत हैं ब्रम्हावधूत गृहस्थाश्रमी, सन्यासी दोनो प्रकार के होते हैं ये निराकार ब्रम्ह के उपासक होते हैं शिव को इष्ट मानकर विधि पूर्वक अभिषिक्त होनेवाले सन्यासी को शैवावधूत कहते हैं वह गृहस्थाश्रमी जो कुलाचार का पालन करते हैं कुलावधूत कहलाते हैं वीरावधूत जटिल वेशधारी होते हैं वे रुद्राक्ष या हड्डी की माला पहिने रहते हैं कोई नग्न रहते हैं तो कोई कौपीन धारण करते हैं ये शरीर पर भष्म या लाल चन्दन का लेप किये रहते हैं वीर अवधूतों के जो लक्षण बताये गये हैं, वे सभी अघोरपथ के साधकों पर लागू होते हैं ये ही औघड़ कहलाते हैं
इसके अलावा रामानन्दी अवधूत भी होते हैं , जो प्रायः बंगाल में अधिक हैं ये जाति भेद, खानपान के नियम नहीं मानते बंगाल में इन्हें बाउल कहते हैं कहा जाता है कि पहले इनका संम्बन्ध शैव सम्प्रदाय के वीर अवधूतों से रहा हो सकता है
"याते रुद्र शिवातनूरघोरा पापकाशिनी" यजुर्वेद में इस मंत्र के द्वारा भगवान शिव के शरीर को अघोर अथवा सौम्य कि संज्ञा से अभिहित किया गया है भगवान शिव का निवास हिमालय में माना गया है भगवान शिव प्रथम अघोरी के रुप में जाने जाते हैं उनकी वेशभूषा , चालढ़ाल, गण , सेवक आदि सब उनके अघोरी रुप के अनुरुप हैं अघोर साधकों का एक वर्ग भगवान शिव के निवास स्थान हिमालय को अघोरमत का उदगम मानता है और स्वयं को हिमालय से जोड़ता है, अतः वे हिमाली कहलाते हैं।
इस वर्ग में नाथ परम्परा के संत आते हैं जगत प्रसिद्ध गुरु मत्स्येंन्द्रनाथ एवं गुरु गोरखनाथ हिमाली नाथ परम्परा के ही आचार्य माने जाते हैं कहा तो यह भी जाता है कि औघड़ों में यह सामान्य धारणा है कि उनके मत के प्रवर्तक गुरु गोरखनाथ जी थे
गुरु गोरखनाथ


गुरु गोरखनाथ के जन्म के विषय में जन मानस में एक किंम्बदन्ती प्रचलित है , जो कहती है कि गोरखनाथ ने सामान्य मानव के समान किसी माता के गर्भ से जन्म नहीं लिया था वे गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के मानस पुत्र थे वे उनके शिष्य भी थे
एक बार भिक्षाटन के क्रम में गुरु गुरु मत्स्येन्द्रनाथ किसी गाँव में गये किसी एक घर में भिक्षा के लिये आवाज लगाने पर गृह स्वामिनी ने भिक्षा देकर आशीर्वाद में पुत्र की याचना की गुरु मत्स्येन्द्रनाथ सिद्ध तो थे ही, उनका हृदय दया ओर करुणामय भी था। अतः गृह स्वामिनी की याचना स्वीकार करते हुए उनने पुत्र का आशीर्वाद दिया और एक चुटकी भर भभूत देते हुए कहा कि यथासमय वे माता बनेंगी उनके एक महा तेजस्वी पुत्र होगा जिसकी ख्याति दिगदिगन्त तक फैलेगी आशीर्वाद देकर गुरु मत्स्येन्द्रनाथ अपने देशाटन के क्रम में आगे बढ़ गये
बारह वर्ष बीतने के बाद गुरु मत्स्येन्द्रनाथ उसी ग्राम में पुनः आये कुछ भी नहीं बदला था गाँव वैसा ही था गुरु का भिक्षाटन का क्रम अब भी जारी था जिस गृह स्वामिनी को अपनी पिछली यात्रा में गुरु ने आशीर्वाद दिया था , उसके घर के पास आने पर गुरु को बालक का स्मरण हो आया उन्होने घर में आवाज लगाई वही गृह स्वामिनी पुनः भिक्षा देने के लिये प्रस्तुत हुई गुरु ने बालक के विषय में पूछा गृहस्वामिनी कुछ देर तो चुप रही, परंतु सच बताने के अलावा उपाय था उसने तनिक लज्जा, थोड़े संकोच के साथ सबकुछ सच सच बतला दिया
हुआ यह था कि गुरु मत्स्येन्द्रनाथ से आशीर्वाद प्राप्ति के पश्चात उसका दुर्भाग्य जाग गया था पास पड़ोस की स्त्रियों ने राह चलते ऐसे किसी साधु पर विश्वास करने के लिये उसकी खूब खिल्ली उड़ाई थी उसमें भी कुछ कुछ अविश्वास जागा था , और उसने गुरु प्रदत्त भभूति का निरादर कर खाया नहीं था उसने भभूति को पास के गोबर गढ़े में फेंक दिया था
गुरु मत्स्येन्द्रनाथ तो सिद्ध महात्मा थे ही, ध्यानबल से उनने सब कुछ जान लिया वे गोबर गढ़े के पास गये और उन्होने बालक को पुकारा उनके बुलावे पर एक बारह वर्ष का तीखे नाक नक्श , उच्च ललाट एवं आकर्षण की प्रतिमूर्ति स्वश्थ बच्चा गुरु के सामने खड़ा हुआ गुरु मत्स्येन्द्रनाथ बच्चे को लेकर चले गये यही बच्चा आगे चलकर अघोराचार्य गुरु गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ
अघोरपथ के दूसरे आचार्य भगवान दत्तात्रेय माने जाते हैं दत्तात्रेय का स्थान गिरनार पर्वत माना गया है गिरनार पर्वत के शिखर पर भगवान दत्तात्रेय की पादुका एवं कमन्डलु तीर्थ है इस स्थल की परम्परा के अघोर साधक गिरनारी या गिरनाली कहलाते हैं
सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में गिरनारी अघोर परम्परा में एक महान संत का आविर्भाव हुआ वे थे अघोराचार्य बाबा कीनाराम बाबा कीनाराम का अवतरण सन् १६०१ में हुआ माना जाता है
अघोराचार्य बाबा कीनाराम



अघोराचार्य बाबा कीनाराम
अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी का जन्म बनारस जनपद के चन्दौली तहसील के अन्तर्गत रामगढ़ ग्राम में क्षत्रिय रघुवंशी परिवार में विक्रमी संवत् १६५८ में, भाद्रपद के कृष्णपक्ष में अघोर चुतुर्दशी के दिन हुआ था उन दिनों वहाँ रघुवंशी क्षत्रीयों का बोलबाला था उन्ही के कुलीन वंश में श्री अकबर सिंह को ६० वर्ष की आयु में यह पुत्र प्राप्त हुआ था ये तीन भाई थे, जिनमें ये सबसे बड़े थे बालक दीर्घजीवी और कीर्तिवान् हो इसके लिये उन्हें दूसरे को दान दे कर उससे धन दे कर खरीद लिया गया। इस प्रकार आपका नाम कीना सिंह (क्रय किया हुआ) रखा गया।
"शुचीनां श्रीमतां गेहे योग भ्रष्टोऽभिजायते"
!! जिन योगियों की किसी कारणवश योग साधना में बाधा पड़ जाती है, तो वे अगले जन्म में किसी श्रीमान् ,संपत्तिशाली, विद्वत् परिवार में जन्म लेते हैं !!
वे केवल ऐसे उच्चकुलीन परिवारों में जन्म ही नहीं लेते बल्कि प्राक्तन जन्म के सभी आध्यात्मिक संस्कार भी लिये चले आते हैं ठीक यही दशा बाबा कीनाराम की भी थी उनमें जन्मना वैराग्य के भाव परिलक्षित होते थे
उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन था अत: वर्ष की उम्र में ही आपका विवाह कात्यायनी देवी के साथ कर दिया गया। १२ वर्ष की उम्र में गौने के लिये ससुराल जाने के एक दिन पूर्व उनहोने अपनी माता से आग्रह किया की मुझे दूधभात खिलाओ माता के मना करने पर भी हठपूर्वक दूधभात खाया दूसरे दिन समाचार आया कि वे जिस पत्नि का गौना लेने जाने वाले थे , उन कात्यायनी देवी का देहावसान हो गया है कुछ समय बाद माता-पिता भी परलोक सिधार गये और कीना सिंह के लिये वैराग्य का मार्ग प्रशस्त हो गया। उन्होंने घर छोड़ा और सब से पहले गाजीपुर के कारों ग्राम में रामानुजी सम्प्रदाय के अनुयायी गृहस्थ महात्मा शिवाराम के यहाँ पड़ाव डाला। बाबा शिवाराम को बालक कीना की विलक्षणता का आभास हो गया था। उनके आश्चर्य की सीमा रही जब उन्होंने छिप कर देखा कि गंगा स्नान के लिये जाने वाले कीनाराम का चरण-स्पर्श करने के लिये गंगाजी स्वयं आगे बढ़ रही हैं। कुछ दिन बाबा शिवाराम के साथ रहने के बाद वे उनके शिष्य बन गये। कुछ वर्षों के उपरान्त बाबा शिवाराम की धर्मपत्नि का निधन हो गया बाबा शिवाराम की इच्छा हुई कि दूसरा विवाह कर लिया जाय यह बात कीनाराम , को अच्छी लगी उन्होंने अपने गुरु जी से स्पष्ट कह दिया कि " महाराज ! यदि आप दूसरा विवाह कर लेंगे तो मैं दूसरा गुरु कर लूँगा " इस पर बाबा शिवाराम जी ने झल्लाकर कहा " जा करले दूसरा गुरु " बस फिर क्या था बाबा कीनाराम ने उसी समय अपना आसन उठाया और चल दिये
इसके बाद उन्होने गिरनार पर्वत की यात्रा की वहाँ त्रिमूर्ति के अवतार अन्तरिक्षवासी भगवान् दत्तात्रेय जी का दर्शन उन्हें हुआ और उनसे अवधूती दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद वे काशी लौट आये। काशी आकर बाबा कालूराम जी से अघोर मत का उपदेश लिया। इस प्रकार बाबा कीनाराम जी ने वैष्णव, भागवत् तथा अघोर पन्थ इन तीनों को साध्य किया। वैष्णव होने के नाते वे राम के उपासक बने। अघोर मत का पालन करने के कारण इन्हें मद्य-मांसादि का सेवन करने में भी कोई आपत्ति नहीं थी। जाति-पाँति का भी कोई भेद-भाव था। हिंदू-मुस्लिम सभी उनके शिष्य बन गये।
अपने दोनों गुरुओं की मर्यादा का पालन करते हुए उन्होंने वैष्णव मत के चार स्थान-मारुफपुर, नईडीह, परानापुर तथा महुआर और अघोर मत के चार स्थान रामगढ़ (बनारस), देवल (गाजीपुर), हरिहरपुर (जौनपुर) तथा क्रींकुण्ड काशी में स्थापित किये। उनकी प्रमुख गद्दी क्रींकुण्ड पर है।

बाबा कीनाराम जी के कई चमत्कार सुनने को मिलते हैं।

बाबा कीनाराम जी देशाटन के क्रम में जब जूनागढ़ पहुँचे तो वहाँ के नवाब (जिसे कोई सन्तान थी) ने राज्य में भिखारियों को जेल भेजने का आदेश दिया हुआ था। बाबा कीनाराम जी के शिष्य बाबा बीजाराम भी भिक्षा माँगने के अपराध में जेल भेज दिये गये जब कीनाराम जी को पता चला तो वे जेल पहुँचे। वहाँ अनेक भिक्षा माँगने के अपराध में बंदी बनाकर दंडित साधु चक्की चला कर आटा पीस रहे थे। उन्होंने साधुओं को चक्की चलाने से मना किया और अपनी कुबड़ी से चक्की को ठोकते हुए कहा, \"चल-चल रे चक्की।\' चक्की अपने आप चलने लगी। जब नवाब को इस बात की सूचना मिली तो वह दौड़ा दौड़ा आया और बाबा कीनाराम जी को आग्रह करके किले में ले गया, उनसे माफी माँगी। कीनाराम जी ने नवाब को माफ कर दिया और उससे कहा कि आज से सभी साधुओं को ढ़ाई पाव आटा और नमक दिया जाय जिससे उन्हें भविष्य में भीख माँगनी पड़े। सभी साधु तत्काल रिहा कर दिये गये बाबा कीनाराम जी के आशीर्वाद से नवाब को संतान की भी प्राप्ति हुई।
बाबा कीनाराम जी चलते-चलते कंधार पहुँचे। यहाँ के किले पर फारस के शाह अब्बास का कब्जा था जिसने, जहाँगीर के बुढ़ापे का लाभ उठा कर किले पर अपना अधिकार कर लिया था। जहाँगीर और शाहजहाँ काफी प्रयास के बाद भी उसे जीत नहीं पा रहे थे। शाहजहाँ का औघड़ संतों में विश्वास होने के कारण बाबा कीनाराम जी ने उसे आशीर्वाद दिया। फारस के सूबेदार शाह के खिलाफ हो गये और इस प्रकार शाहजहाँ बिना लड़ाई लड़े ही किला जीतने में कामयाब हो गया। फिर इसी किले में शाहजहाँ ने बाबा कीनाराम जी का स्वागत किया।
जनुश्रुति के अनुसार बाबा कीनाराम जी ने एक बार क्षिप्रा नदी के तट पर औरंगजेब को फटाकारा था कि जिस मज़हब की आड़ में तुम अमानुषिक कार्य कर रहे हो, तुम्हें इतिहास कभी माफ नहीं करेगा। तुम्हारी सन्तान ही तुम्हें इसके लिये प्रताड़ित करेगी।
इस प्रकार बाबा कीनाराम जी ने भारत के कोने-कोने में दीन दुखियों की सेवा किया तथा शोषित लोगों को शोषण से मुक्त कराया। इन्होंने अन्याय कभी सहन नहीं किया।
बाबा कीनाराम जी का महाप्रयाण भी एक अद्भुत घटना है। २१ सितंबर १७७१ . को उन्होंने काशी के अपने शिष्यों, विद्वानों तथा वेद पाठियों और वीर क्षत्रियों को बुलाया और कहा, \"आप सब मेरे पार्थिव शरीर को हिंगलाज देवी के यंत्र के समीप पूर्वाभिमुख स्थापित करें। जो समय-समय पर मेरे पार्थिव शरीर के सन्निकट हिंगलाज देवी के यंत्र की परिधि में प्रार्थना करेगा, वह फलीभूत होगी।\" इसके उपरान्त उन्होंने सब के सामने हुक्का पिया। तभी आकाश में बिजली जैसी चमक के साथ जोर की गर्जना हुई, जैसे भूचाल आया हो। उसी के साथ बाबा के ऊर्ध्वरन्ध्र से तेजोमय प्रकाश निकला और देखते-देखते आकाश में विलीन हो गया। उपस्थित सारे लोग रोने बिलखने लगे। तभी आकाश को चीरती हुई आवाज आई, \"व्याकुल हो, मैं क्रींकुण्ड स्थित हिंगलाज देवी के यंत्र की परिधि में चिताओं की लकड़ी से जलती हुई अखण्ड धूनी के निकट सदैव एक रुप से रहूँगा।\"
काशी का यह क्रींकुण्ड अघोर साधना का केन्द्र रहा है। यहाँ अनेक औघड़ साधकों ने साधना कर सिद्धी प्राप्त की है और अपना जन्म सफल किया है
बाबा कीनाराम जी के पश्चात उनके द्वारा स्थापित क्रीं कुण्ड स्थल वाराणसी के ग्यारह महन्त हुए जिनके द्वारा दीक्षित एक बड़ा शिष्य समुदाय पूरे भारतवर्ष में पाये जाते हैं वर्तमान में इस स्थल के बारहवें महन्त बाबा सिद्धार्थ गौतमराम जी हैं