गुरुवार, नवंबर 12, 2009

अघोरेश्वर भगवान राम जीः बाल्यकाल














बालक भगवान सिंह की आयु अभी पाँच वर्ष की ही थी कि पिता बाबू बैजनाथ सिंह ने अपनी इहलीला का संवरण कर लिया अगले कुछ वर्षों में दादा , दादी ने भी विदा ले ली आप अपनी दादी का स्मरण बड़ी ही श्रद्धा और भक्ति से किया करते थे आप पर श्रद्धेया दादी की सत् प्रेरणा़, शिक्षा और लालन पालन का दूरगामी प्रभाव पड़ा था संभवतः ज्ञान की जो अनन्त पिपाशा आप में दृष्टिगोचर होती थी उसका बीजारोपण आपकी दादी द्वारा शैशव काल में ही कर दिया गया था
अगले वर्ष आपका नाम पाठशाला में लिखा दिया गया आप पाठशाला जाने भी लगे, परन्तु पाठशाला की पढाई की तरफ आपका झुकाव नहीं हो पाया धीरे धीरे पाठशाला जाना छूट गया और बदले में घर, देवालय और गाँव के बाहर अपने ही बगीचे में भगवत् पूजन में समय बीतने लगा बालक भगवान सिंह के इन क्रियाकलापों पर बड़ों ने आपत्ती की , कहा बिना पढे लिखे केवल पुजारीपन से क्या होगा ! लेकिन अज्ञात को तो कुछ और ही मंजुर था बिद्यालय की कक्षाएं छूटती रहीं समवयस्क बालक प्रातः और सायं एकत्रित होते, कीर्तन होता, भजन होता भक्त प्रह्लाद और भक्त ध्रुव आदि की कहानियाँ सुनाई जातीं समय समय पर खेल भी होते, जिसमें आप ही अगुआ बनते थे
बाबू बैजनाथ सिंह के परलोक गमन के पश्चात आपका परिवार उपेक्षित हो गया जीवन यापन के निमित्त संयुक्त परिवार हर तरह से सक्षम था. परन्तु शायद इस पितृहीन शिशु की संयुक्त सम्पत्ति के लोभ में संयुक्त परिवार के अन्य सदस्य आपके परिवार को सम्पत्ति का उचित हिस्सा भी नहीं देते थे परिणामतः परिवार के लिये जीवन यापन करना भी कठिन समस्या हो गई थी
बहुत काल बाद अघोरेश्वर के श्रीमुख से कुछ भक्तों ने उस समय की घटनाओं का विवरण सुना था, जिसे अघोरेश्वर के शब्दों में अविकल दिया जा रहा है
"उस समय मैं सात वर्ष की अवस्था का था मेरे अपने परिजन, परिवार के लोग मुझे बेचने के निमित्त बिहार प्रान्त के तत्कालीन शाहाबाद ।वर्तमान भोजपुर। जिला के बमनगावाँ ग्राम के एक व्यक्ति स्वर्गीय रामभजु उपाध्याय के मन्दिर पर ले गये उनहें दस रुपये मूल्य पर भी कोई खरीदार नहीं मिला श्री रामभजु उपाध्याय ने भी इन्कार कर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि ऐसे सुकोमल, सुशील, सुदर्शन, समदर्शी, सुन्दर रुप आकृति वाले बालक को बेचने की कल्पना भी अमानुषिक है वापसी यात्रा में मैंने देखा कि एक कुआँ से लट्ठा और कूँड़ द्वारा निकटस्थ खेत में सिंचाई के लिये जल निकाला जा रहा था गर्मी का मौसम था तीन दिनों तक अन्न जल से वंचित रहने के कारण गर्मी और प्यास के वशीभूत होकर उक्त कूँड़ से दो चार चुल्लू जल ही पी सका था कि मुझे गश गया और मैं बेहोश हो गया मैं आधे घंटे तक मुर्छित रहा पता नहीं मैं कब उस स्थान को छोड़ कर चल पड़ा भूलते भटकते मार्ग के पथिकों से पूछताछ करते किसी प्रकार मैं अपने घर के दरवाजे पर पहुँच सका "
इसी तारतम्य में पूज्य अघोरेश्वर के शब्दों में एक अन्य वृतान्तः
"मेरे जीवन की व्यथा कथा से सम्बद्ध दूसरी घटना इस शरीर के पिता के स्वर्गवास के बाद घटी उस समय मेरी उम्र नौ वर्ष की थी अपने परिजनों और ग्रामवासियों से तिरस्कृत भूख और प्यास से विकल एवं क्षुब्ध होकर मैं असहनीय पीड़ा अनुभव कर रहा था कितने ही दिनों तक जाँता के तल में पड़ी हुई खुद्दियों को एकत्र कर आधा छटांक खुद्दी मेरी बृद्धा दादी ने मुझे खाने को दी एक दिन उसको खाकर और जल पीकर मैंने उदर पूर्ति की चेष्टा की, लेकिन मेरी बुभुक्षा तृप्त हो सकी उसके बाद तो घरबार भी छूट गया दुर्देव ने, इस आकृति को, जो अब अघोरेश्वर के नाम से जानी जाती है, मालुम कितने क्लेशों, कष्टों से प्रताड़ित किया है उसका संताप आज भी विस्मृत नहीं हुआ है इन यन्त्रणाओं के समक्ष, "धीरज हूँ के धीरज भागा " वाली उक्ति चरितार्थ होती है "
आपने मात्र सात वर्ष की अवस्था में ही गृह त्याग कर दिया था। यह अवस्था सामान्यतः वैराग्य को समझने, आचरण करने की नहीं होती जो जन्मना वैरागी होते हैं, सिद्ध होते हैं, महापुरुष होते हैं, उन्ही में इस प्रकार की अलौकिकता हो सकती है अघोरेश्वर तो अपने आप में अन्यतम थे आप जन्मान्तरीय पुण्योपार्जित फलजन्य योगयुक्त होकर ही सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय अपनी लीला विस्तार के लिये अवतरित हुए थे वे क्या थे यह उनकी कृपा से ही जाना जा सकता है कहा भी गया हैः "सोई जानय जेहि देहिं जनाई"
तत्कालीन ज्योतिषियों ने परमपूज्य अघोरेश्वर की जन्मपत्रिका बनाई थी जन्मपत्रिका में वे समस्त योग दृष्टिगोचर होते हैं जिन योगों में महापुरुष, धर्माचार्य, लोकनायक, धर्मप्रवर्तक, और विश्वविख्यात लोग जन्म ग्रहण करते हैं आपका जन्म श्री शुभ संवत १९९४ भाद्रपद शुक्ल सप्तमी रविवार ०।३८ दण्डादि इष्टकाल पर हुआ है
अगले एक दो वर्षों तक आपका गृहत्याग, घर वापसी का खेल चलता रहा आप बार बार गृहत्याग करते और आपके परिजन आपको येनकेन प्रकारेण घर वापस ले आते पहली बार आप घर के निकट ही शिव मंदिर के पास जमीन के भीतर कोठरी बनाकर रहने लगे आपकी पूजा अर्चना बिना अन्नजल ग्रहण किये दो दो दिनों तक अनवरत चलती रहती थी घर वापस ले आने पर घर के बाहरी कमरे में श्री रामचन्द्र की मूर्ति रखकर आपकी पूजा जारी रही
अबकी बार आप गाँव के बाहर अपने ही खेत के निकट कुटी बनवाकर रहने लगे यह स्थान निर्जन होने के अलावा बृक्ष और लता आदि से घिरा हुआ था यहाँ सर्प आदि विषधर जन्तु भी रहते थे एक बार रात के किसी समय एक विषधर आपकी कुटी में घुसकर आपके आराध्य ठाकुर जी की चौकी पर कुण्डली मारकर बैठ गया प्रातः काल आप जब उठे तो सर्प को देखा भीड़ इकट्ठी हो गई लोग सर्प को मार देना चाहते थे आपने मना किया थोड़ी देर में सर्प स्वतः कहीं अन्यत्र चला गया इस घटना से सभी जीवों पर आपका सहज दया भाव परिलक्षित होता है गाँव घर के लोगों के आग्रह से आपने यह स्थान छोड़ दिया और अपने आम के बगीचे में कुटी छवाकर रहने लगे इस स्थान पर आपने सत्संग, हरिकीर्तन एवं रामायण पाठ के आयोजन के अलावा कई यज्ञों का भी अनुष्ठान किया यहाँ पर समीप ही गाँव का मिडिल स्कूल था स्कूल के छात्र अवकाश का ज्यादातर समय आपके साथ ही गुजारते थे ये छात्र आपको भगवानदास के नाम से पुकारते थे
यहाँ भी आपको ज्यादा दिन नही् रहने दिया गया परिवार वाले फिर घर लिवा ले गये, परन्तु आपने घर की अपेक्षा शिव मंदिर में रहना उचित समझा जब गाँव के बालकों की भीड़ बढने लगी, आपने मंदिर परिसर में ही एक व्यायाम शाला की स्थापना कर दी गाँव के बालकों के साथ खेल, व्यायाम तथा कुश्ती के कार्यक्रमों के साथ साथ श्री हनुमान जी की नियमित पूजा अर्चना भी चलती रही
इस समय आपकी आयु मात्र ८।९ बरस की ही थी आप केवल जल पीकर नवरात्री का ब्रत किया करते थे आपकी दिनचर्या, पूजा पाठ का कार्यक्रम आदि इस अवस्था के बालक के लिये अति कठोर था
अब आपने गाँव में ही यज्ञावतार जी के मंदिर में रहना प्रारंभ किया यज्ञावतार जी पर आपके पिता जी की बड़ी श्रद्धा थी वे मानते थे कि आपका जन्म यज्ञावतारजी की कृपा से ही हुआ था मंदीर में उस समय श्रीकान्त महाराज, जो परम बैष्णव, उच्च साधक तथा प्रसिद्ध विद्वान थे, रहते थे आपने महाराज जी से वैष्णव दीक्षा ग्रहण की अब वैष्णवाचार के अनुरुप आपकी पूजा अर्चना चलने लगी
कुछ दिनों के बाद आपको परिवार वाले पुनः घर ले गये आपको घर में रहना स्वीकार था इस बार बालक भगवान दास ने भूतों का अड्डा समझा जाने वाला उस नेमुआ बाग में अपना आसन जमाया जहाँ दिन में भी लोग जाने से डरते थे तीन दिनों तक आपने वहाँ साधना की थी किसी अनिष्ट की आशंका से वशीभूत घरवाले पुनः घर चलने का आग्रह करने लगे आपने यह स्थान भी छोड़ दिया
आपकी साधना जैसे जैसे आगे बढती गई, आपके श्रद्धालुओं की संख्या भी बढने लगी और परिजनों का घर चलने का आग्रह भी तीव्र होने लगा लोगों का आग्रह मान कर इसबार आपने निजी अमरुद के बगीचे में एक पीपल के पेड़ तले कुटि बनाकर रहने लगे श्रद्धालु , विशेषकर महिलाएँ मनोरथ लेकर आपके निकट आने लगीं थी मनोरथ सिद्ध भी हो जाते वे पूजन, भोग और प्रसाद वितरण भी करतीं श्रद्धा सुमन के साथ साथ चढोत्तरी भी चढने लगी इसी धन से आपने अपनी हवेली के पीछे एक शिव मंदिर का निर्माण करा दिया
घरवालों का आग्रह अब आपको असह्य होने लगा था अब आपने निश्चय कर लिया कि ये लोग गाँव में रहनेपर इसीप्रकार साधन भजन में विक्षेप उत्पन्न करते रहेंगे, अतः अब गाँव छोड़ देना होगा
क्रमशः



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